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Lucknow, UP, India
एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं... काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद .. my blogs-- 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति... 2.drsbg.wordpres.com, 3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त

शनिवार, 20 अप्रैल 2019

पवन पुत्र हनुमान वानर नहीं मानव थे … डा श्याम गुप्त

                           ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...


पवन पुत्र हनुमान वानर नही मानव थे … डा श्याम गुप्त 
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जगह-जगह मन्दिरों में स्थापित हनुमान जी की मूर्तियों को देख कर अधिकाँश हिन्दू और सभी विधर्मियों की आम धारणा है कि भगवान के रूप में प्रतिस्थापित हनुमान बानर थे |
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इस धारणा की स्थापना तुलसी की ’राम चरित-मानस’ के अर्थों का अनर्थ निकालने और जनमानस के समक्ष उसी रूप में प्रस्तुत कर कुछ अल्पबुद्धि और अल्प ज्ञानी पंडितों व जनों का हाथ रहा है | महाकवि तुलसीदास ने बाल्मीकि रामायण के इतिहास पुरूष राम को विष्णु के अवतार मर्यादा पुरूषोत्तम भगवान राम के रूप में प्रस्तुत किया तथा कुछ मुख्य पात्रों को भी देवस्वरूप प्रस्तुत किया है | इनमें सबसे अधिक प्रमुखता वीरवर हनुमान के पात्र को प्रदान करते पवनपुत्र बताया गया है |
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सम्भवतः यह उनकी तीव्रतम चाल (गति) के लिये अलंकारिक विशेषण हो किन्तु अर्थ का अनर्थ कर आज लगभग सभी अन्धभक्त उन्हें बन्दर ही मानते हैं और उनके वंशज मानकर बन्दरों के प्रति श्रद्धा भाव रखते है---
१. जब लंका में सीता को खोज लेने के पश्चात जब हनुमान उन्हें अपनी पीठ पर बैठा कर ले जाने का प्रस्ताव करते हैं तो सीता पर पुरूष स्पर्श के महापाप की भागी होने के स्थान पर उस नर्क में ही रहना ज्यादा उचित समझती हैं |
२. रामायण में राक्षसों के बाद बानर जाति का सवसे अधिक उल्लेख – हुआ है | वह वस्तुतः दक्षिण भारत की एक अनार्य जाति ही थी किन्तु इस जाति ने आर्यों(राम) के विरोध के स्थान पर राक्षसों से आर्यों के युद्ध में राम का साथ दिया अपितु उन्होंने पूर्व से ही आर्य संस्कृति के तमाम आचरण स्वीकार कर रखे थे | बाली से रावण का युद्ध और बाली तथा सुग्रीव के क्रिया कलाप तथा तत्कालीन बानर राज्य की बाल्मीकि द्वारा प्रदर्शित परिस्थितियों से यह स्पष्ट हो जाता है |
३.वास्तविकता यह है कि विंध्यपर्वत के दक्षिण में घने वनों में निवास करने वाली जनजाति थी | वे बनचर थे इस लिये वानर कहे गये या फिर उनकी मुखाकृति वानरों से मिलती जुलती थी अथवा अपने चंचल स्वभाव के कारण इन्हें वानर कहा गया या फिर इनके पीछे लगी पूंछ के कारण ये बानर कहलाए |
--- जैसे बाल्मीकि रामायण में रावण को जगह-जगह दशानन, दशकन्धर, दशमुख और दशग्रीव आदि पर्यायों से सम्बोधित किया गया है | इसका शाब्दिक अर्थ दस मुख या दस सिर मानकर रावण को दस सिरों वाला अजूबा मानलिया गया | जबकि बाल्मीकि द्वारा प्रयुक्त इन विशेषणों का तात्पर्य- ”द्शसु दिक्षु आननं (मुखाज्ञा) यस्य सः दशाननः’ अर्थात रावण का आदेश दसों दिशाओं में व्याप्त था | इसी लिये वह दशानन या दशमुख कहलाता था |
---- अथवा कवि ने पक्षीराज जटायु के मुख से ही कहलाया है कि वह दशरथ का मित्र है | रामायण में घटे प्रसंगो और घटनाओं से ही स्पष्ट हो जाता है कि जटायु गिद्ध नहीं मनुष्य था | कवि ने आर्यों के आदरसूचक – शब्द आर्य का कई बार जटायू के लिये प्रयोग किया है | रामायण में जगह-जगह जटायू के लिये पक्षी शब्द का प्रयोग भी किया गया है | उल्लिखित है -”ये वै विद्वांसस्ते पक्षिणो ये विद्वांसस्ते पक्षा” (ताक्ष्य ब्राहमण १४/१/१३)---अर्थात जो जो विद्वान हैं वे पक्षी और जो अविद्वान (मूर्ख) हैं वे पक्ष-रहित हैं | अतः जटायु के लिये पक्षी का सम्बोधन सर्वथा उचित है | 
---स्वतंत्र भारत में भारतीय तैराक मिहिर सेन द्वारा सातों समुद्रों में तैराकी व सर्वप्रथम इंग्लिश चैनल एव भारत श्रीलंका के मध्य धनुषकोडी सागर को पार करने पर उन्हें जलसुत हनुमान कहा गया |
४. वानरों का अपना आर्यों से मिलता जुलता राजनैतिक संगठन था इसका वर्णन बाल्मीकि ने उल्लेख कपि राज्य के रूप में किया गया है | अतः वानरों की एक सुसंगठित शासन व्यवस्था थी एक प्रसंग में तो बाली के पुत्र अंगद ने सुग्रीव से प्रथक वानर राज्य गठन का विचार तक कर लिया था |
--- विभिन्न स्थानों पर बाल्मीकि ने वानर नर नारियों की मद्यप्रियता का भी उल्लेख किया है | वानरों के सुन्दर वस्त्राभूषणों का भी हृदयग्राही वर्णन स्थान-स्थान पर आता है | सुग्रीव के राजप्रसाद की रमणियां”-भूषणोत्तम भूषिताः (०४/३३/२३)थीं |
----वानर पुष्प,गंध,प्रसाधन और अंगराग के प्रति आग्रही थे| किष्किंधा का वायुमण्डल चंदन, अगरु और कमलों की मधुर गंध से सुवासित रहता था--- (चन्दनागुरु- पद्मानां गन्धैः सुरभिगन्धिताम्(०४/३३/०७)|
----सुग्रीव का राज्याभिषेक जो बाल्मीकि जी ने वर्णित किया है शास्त्रीय विधिसम्मत परम्परागत प्रणाली के अधीन ही सम्पन्न हुआ था अर्थात वानर आर्य परम्पराओं और रीति – रिवाजों का पालन करते थे अर्थात आर्य परम्पराओं के हामी थे |
------बाली का आर्य रीति से अन्तिम संस्कार और सुग्रीव का आर्य मंत्रों और रीति से राज्याभिषेक भी सिद्ध करता है कि चाहे वानर आर्येतर जाति हों थे उनके अनुपालनकर्ता मानव थे बन्दर – नहीं |
५. बाल्मीकि रामायण के अनुसार वानरों की जाति पर्याप्त सु-संस्कृत और सुशिक्षित जनजाति थी | सुग्रीव के सचिव वीरवर हनुमान बाल्मीकि रामायण के सर्वप्रमुख उल्लिखित वानर हैं | जिन्होंने अपनी विद्वतता से मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम को सबसे अधिक प्रभावित किया और उनके प्रियों में सर्वोच्च स्थान भी प्राप्त करने में सफल रहे |
---- वह वाकचातुर्यपूर्ण व कुशल (०४/०३/२४) तो थे ही व्याकरण, व्युत्पत्ति और अलंकारों के सिद्धहस्त भी थे | उनसे बात करके श्रीराम ने यह अनुमान लगा लिया कि- जिसे ऋग्वेद की शिक्षा न मिली हो, जिसने यजुर्वेद का अभ्यास न किया हो तथा जो सामवेद का विद्वान न हो वह इस प्रकार की सुन्दर भाषा का प्रयोग नहीं कर सकता ----
नानृग्वेदविनीतस्य नायजुर्वेदधारिणः| नासामवेद्विदुषः शक्य मेवं विभाषितुम् || नूनं व्याकरणं कृत्स्नमनेन बहुधा श्रुतम् | बहु व्याहरतानेन न किंचिदपशव्दितम् || ०४/०३/२८-९ ------हनुमान उन आदर्श सचिवों में सर्वश्रेष्ठ थे जो मात्र वाणी प्रयोग से ही अपना प्रयोजन प्राप्त कर सकते थे |
६. एक कथा के अनुसार वानर मूलतः विद्याधर जाति के थे जो सामवेद के ज्ञाता व गाने बजाने वाले गन्धर्व वंशी होते हैं | कथा के अनुसार विद्याधर वंशी श्रीकंठ के पुत्र अमरप्रभ का विवाह राक्षसवंशी लंकानरेश की कन्या से हुआ| उसके विवाह अवसर पर किसी ने वानरों के चित्र बनवाये | वानरों के चित्र देखकर वह कन्या डरकर मूर्छित हो गयी| अतः अमरप्रभ वानर के चित्र बनाने वाले तथा वानर समूह को मारने के लिए तैयार हुआ | तभी मंत्रियों ने उसे समझाया कि श्रीकंठ के समय से लेकर ये वानर तुम्हारे कुल देवता रहे है, इन ही के प्रसाद से तुम युद्ध में जीतते हो | यह जानकर अमरप्रभ ने वानरों को पताकाओं, ध्वजाओ तथा छत्रों पर पवित्र कुल के चिन्ह के रूप में चित्रित करवाया | तभी से श्रीकंठ का वंश वानर वंश के नाम से विख्यात हुआ | आगे इस वंश में उत्पन्न हुए सभी राजा वानर वंशी कहलाये | हनुमान स्वयं अच्छे #वीणावादक थे |
७. हनुमान नाम एक द्रविड़ शब्द 'आणमन्दि` से निकला है, जिसका अर्थ 'नर-कपि` होता है। ऋगवेद में भी 'वृषाकपि` का नाम आया हैं अतः वानरों और राक्षसों के विषय में भी अब यह अनुमान, प्राय: ग्राह्य हो चला है कि ये लोग प्राचीन विन्ध्य प्रदेश और दक्षिण भारत की आदिवासी आर्येतर जातियों के सदस्य थे; या तो उनके मुख वानरों के समान थे, जिससे उनका नाम वानर पड़ गया अथवा उनकी ध्वजाओं पर वानरों और भालुओं के निशान रहे होंगे।
८. हनुमान को #रुद्रावतार भी कहा जाता है | निश्चय ही शिव-विष्णु प्रथम मानव महासमन्वय से बनी सनातन वैदिक सभ्यता के उपरांत शिव के उत्तर भारत प्रयाण करने पर उनके कुल/ कबीले के लोग यहीं रहे, वे ही वानर व राक्षस, भालू, जटायु, पक्षी, सर्प, नाग आदि विभिन्न नामों से यहीं बने रहे | वह समय विभिन्न मानव स्वरूपों, समूहों, कुलों में समन्वय का युग था तथा उनकी सभ्यता संस्कृतियाँ का आपसी समन्वय के साथ सनातन वैदिक संस्कृति के सब पर छा जाने का काल था | अतः सभी वर्गों में आर्य सभ्यता की छाप पाई जाती है |
९.#अहिल्या हनुमान जी की नानी थीं और गौतम ऋषि उनके नाना थे| हनुमान की माता अंजनी गौतम की पुत्री थीं |
=====अतः हनुमान एक पूर्णमानव, बल, शूरता, शास्त्रज्ञान पारंगत, उदारता, पराक्रम, दक्षता, तेज, क्षमा, धैर्य, स्थिरता, विनय आदि उत्तमोत्तम गुणसम्पन्न (एते चान्ये च बहवो गुणास्त्वय्येव शोभनाः०६/११३/२६) पूर्ण मानव थे अर्ध मानव या बन्दर नहीं थे | 
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इस जाति को मानव मानने के विरुद्ध सबसे बड़ा कारण पूंछ का होना है -----
------“बाल्मीकि रामायण में इस जाति के लिए वानर शब्द के साथ इसके पर्याय स्वरूप- #वनगोचर#वनकोविद#वनचारी और वनौकस शब्दों का भी प्रयोग किया गया है | इससे स्पष्ट होता है कि वानर शब्द, बन्दर का सूचक न होकर वनवासी का द्योतक है | वानरों के लिये – हरि शब्द भी कई बार आया है |
-----#प्लवंग शब्द जो दौड़ने की क्षमता का व्यंजक है बार बार प्रयुक्त हुआ है |जो वानरों की कूदने दौड़ने की प्रवृत्ति को सूचित करने के लिये उपयुक्त भी है | हनुमान उस युग के एक अत्यन्त शीघ्रगामी दौड़ाक .
या धावक थे | इसीलिये उनकी सेवाओं की कई बार आवश्यकता पड़ी थी | इसीलिये उन्हें पवन पुत्र कहा गया | ====जैसे इंग्लिश चैनल पार करने वाले भारतीय को #जलसुत हनुमान कहा गया |
------#कपि शब्द भी प्रयोग हुआ है, जो सामान्यतः बन्दर के अर्थ में प्रयुक्त होता है | क्योंकि रामायण में वानरों को पूंछ युक्त प्राणी बताया गया है इसलिये वे कपयः थे | वस्तुतः यह पूंछ वानरों की एक विशिष्ट जातीय निशानी थी जो संभवतः बाहर से लगाई जाती होगी | तभी तो हनुमान की पूंछ जलाए जाने पर भी उन्हें कोई शारिरिक कष्ट नहीं हुआ |
-----विज्ञान मानवशास्त्र=== के अनुसार वानर व कपि विभिन्न जाति हैं कपि विशालकाय कपि-मानव हैं जो वानरों से भिन्न है एवं विकास में मानवों के अधिक नज़दीक | हो सकता है दक्षिण के वनों में रहने वाली यह जाति #नियंडर्थल, डोनोवन, #देनीसोवियन या #होमोइरेक्टस अर्थात पूर्ण विक्सित मानव (#होमोसेपियंस ) से विकास में एक स्तर नीचे के मानव हों
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रावण ने #पूंछ को कपियों का सर्वाधिक प्रिय भूषण बताया था- कपि की ममता पूंछ पर सबन कहा समुझाइ—तथा ’कपीनां किल लांगूलमिष्टं भवति भूषणम् (०५/५३/०३)
-----यथा पूर्वोत्तर राज्यों में अभी भी ऐसी कई जातियां हैं जो अपने सर पर जंगली पशुओं के दो सीग धारण करके अपनी शक्ति और वीरता का परिचय हर उत्सव के समय देते हैं पर उन्हें जंगली भैंसा या बैल नहीं माना जाता | मध्य प्रदेश की मुण्डा जनजाति में भी यही परिपाटी है | शायद शक्ति प्रदर्शन के साथ ही यह सर की सुरक्षा का एक सरल उपाय होता हो |
---- भारत ही नहीं अपितु विश्वभर की विभिन्न कबीलाई, जन जातियों , आदिवासियों में विभिन्न प्रकार के प्रतीक रूपी टोपियाँ, चेहरे पर रंग की चित्रकारी, जानवरों के सिरों के सिरत्राण आदि पहनने का रिवाज़ था जो उनकी व कबीले/ कुल की विशिष्ट पहचान होती थी |-
------नीचे चित्र ३,४,५ ----
---महाराणा प्रताप ने हाथियों से अपने घोड़ों की सुरक्षा हेतु उनके मुंह पर नकली हाथी की सूंड लगवा दी थी ताकि हाथियों को वे अपने ही स्वरुप प्रतीत हों |
-----हो सकता है वानर वीर भी अपने पृष्ट भाग क़ी सुरक्षा हेतु बानर की पूंछ के समान धातु या फिर लकड़ी अथवा किसी अन्य हल्की वस्तु से बनी दोहरी वानर पूंछ को पीछे से जिधर आंखें या कोई इन्द्रिय सजग नहीं होती होतीं की ओर से हमला बचाने के लिये लगाया जाता हो | ====क्योंकि बाली, सुग्रीव या अंगद की पूंछ का कहीं पर भी कोई जिक्र नही आता है |
----बाल्मीकि रामायण में किसी भी जगह या प्रसंग में ====वानरों की स्त्रियों के पूंछ होने का उल्लेख या आभास तक नहीं है वे सभी मानव स्त्रियाँ ही प्रदर्शित की गयीं हैं न कि वानरी रूप || 
----बंगाल के कवि मातृगुप्त हनुमान के अवतार माने जाते थे, और वे अपने पीछे एक पूंछ लगाए रहते थे (बंगाली रामायण पृष्ट्-२५,) भारत के एक राजपरिवार में राज्याभिषेक के समय पूंछ धारण कर राज्यारोहण का रिवाज था |
------ वीर विनायक दामोदर साबरकर ने अपने अण्डमान संसमरण में लिखा है कि वहां पूंछ लगाने वाली एक जनजाति रहती है (महाराष्ट्रीय कृत रामायण-समालोचना)|
-----कहा जाता है कि महर्षि ===वाल्मीकि पहले रामायण हनुमानजी ने लिखी थी==== हनुमान जी ने इसे एक शिला पर लिखा था। और 'हनुमन्नाटक' के नाम से प्रसिद्ध है। जब महर्षि वाल्मीकि जी को ज्ञात हुआ तो वे निराश होगये कि अब उनकी रामायण को कौन पूछेगा| जब हनुमान जी को यह बात ज्ञात हुई तो वे प्रकट हुए और अपनी रामायण समुद्र में फैंक दी और आशीर्वाद दिया कि आपकी रामायण ही विश्व प्रसिद्द होगी |
#हनुमन्नाटक रामायण के अंतिम खंड में लिखा है-
'रचितमनिलपुत्रेणाथ वाल्मीकिनाब्धौ
निहितममृतबुद्धया प्राड् महानाटकं यत्।।
सुमतिनृपतिभेजेनोद्धृतं तत्क्रमेण
ग्रथितमवतु विश्वं मिश्रदामोदरेण।।'
अर्थात : इसको पवनकुमार ने रचा और शिलाओं पर लिखा था, परंतु वाल्मीकि ने जब अपनी रामायण रची तो तब यह समझकर कि इस रामायण को कौन पढ़ेगा, श्री हनुमानजी से प्रार्थना करके उनकी आज्ञा से इस महानाटक को समुद्र में स्थापित करा दिया, परंतु विद्वानों से किंवदंती को सुनकर राजा भोज ने इसे समुद्र से निकलवाया और जो कुछ भी मिला उसको उनकी सभा के विद्वान दामोदर मिश्र ने संगतिपूर्वक संग्रहीत किया। -------रामायण लिखने वाला कोइ वानर नहीं होसकता ज्ञानी विद्वान् नर ही होसकता है |
-----भगवान शिव का वाहन #नंदी कोइ बैल नहीं है अपितु कर्नाटक के उस क्षेत्र के निवासी हैं जहां दीर्घकाय बिसन नामक बैल पाए जाते हैं |
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अतः स्पष्ट है कि वानर नामक जनजाति जिसके तत्कालीन प्रमुख सदस्य वीरवर हनुमान थे एक पूर्ण मानव जाति थी, बन्दर प्रजाति नहीं | हां उनकी अत्यधिक चपलता,निरंकुश और रूखा स्वभाव,चेहरे की (संभवतः पीला रंग और मंगोलायड मुखाकृति जो थोडी बन्दरों से मिलती होती है) बनावट के कारण ही तथा अनियमित यौन उच्छृंखलता,वनों,पहाड़ों में निवास,नखों और दांतों का शस्त्र रुप में प्रयोग और क्रोध या हर्ष में किलकारियां मारने की आदत के कारण उन्हें एक अलग पहचान देने के लिये ही आर्यों ने उनके लिये कपि या शाखामृग विशेषण का प्रयोग किया गया हो और जो आदतों पर सटीक बैठ जाने के कारण आमतौर से प्रयोग होने लगा हो | उस काल में मानव बृक्ष को छोड़कर शैलाश्रयों में रहना प्रारम्भ कर रहा था |
---------हो सकता है भारतीय दक्षिण के वनों में रहने वाली यह जाति कपि मानव से विक्सित नियंडर्थल, डोनोवांस या होमोइरेक्टस अर्थात पूर्ण विक्सित मानव (होमो-सेपियंस) से विकास में एक स्तर नीचे के
मानव हों परन्तु पूर्ण मानवों के साथ रहने पर ( जैसा हनुमान-राम का बचपन में मिलन की कथा ) जो उत्तर भारतीय मानवों, आर्यों के आचार व्यवहार अपनाते जा रहे थे, धीरे धीरे सामान्य मानव में विलीन होगये |
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मन्मथ राय ने वानरों को भारत के मूल निवासी’व्रात्य’माना है | के.एस.रामास्वामी शास्त्री ने – वानरों को आर्य जाति माना है | जो दक्षिण में बस जाने के कारण आर्य समाज से दूर होकर जंगलों में सिमट गई और फिर आर्य संस्कृति के पुनः निकट आने पर उसी में विलीन हो गई|
----- व्हीलर और गोरेशियो आदि अन्य विद्वान दक्षिण भारत की -पहाड़ियों पर निवास करने वाली अनार्य जाति मानते हैं जो आर्यों के सन्निकट आ- कर उन्हीं की संस्कृति में समाहित हो गई |
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यह जनजाति या जाति चाहे आर्य रही हो या अनार्य थी एक विकसित आर्य संस्क़ृति के निकट, ललित कलाओं के साथ चिकित्सा, युद्ध कला,रुप परिवर्तन कला और अभियन्त्रण ( अविश्वसनीय लम्बे- लम्बे पुल बनाने की कला सहित),गुप्तचरी और मायावी शक्तियों के प्रयोग में बहुत चतुर मानव जाति | कोई पशुजाति नही थी | इसके तत्कालीन सिरमौर वीर वर हनुमान एक श्रेष्ठ मानव थे बन्दर नहीं |
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---चित्र-१ –वाएं से न.४ के पश्चात महिलाओं की शक्ल महिला जैसी ही है परन्तु पुरुष की शक्ल वानर से मिलती-जुलती है |
चित्र-२…होमो क्रम में अंतिम होमो सेपियंस से पूर्व बिग साइज़ व लघु साइज़ पूर्व रूप मानव –ये सभी साथ साथ रहते थे विभिन्न अंचलों में | जैसे आज भी कुल/ खानदान / क्षेत्र के अनुसार विभिन्न शक्लों के व्यक्ति साथ साथ पाए जाते हैं |
चित्र ३,४,५---विभिन्न शिर-त्राण --
चित्र ६-सामवेद ज्ञाता हनुमान
चित्र-७- हनुमान पत्नी सुवर्चला के साथ

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रविवार, 14 अप्रैल 2019

मर्यादा पुरुषोत्तम राम --- राम नवमी पर विशेष ---डा श्याम गुप्त

                     ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...

मर्यादा पुरुषोत्तम राम --- राम नवमी पर विशेष ---
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प्रायः यह कहा जाता है कि ‘’राम एक अच्छे राजा थे किन्तु बुरे पति” परन्तु उन्हें गहराई से परखा जाय तो ज्ञात होगा कि कि सीता के त्याग के बाद राम कितने दुखी हुए थे और किस तरह आंसू बहा रहे थे। राम में वही मानवीय गुणावगुण मिलते हैं जो उस काल खंड में किसी भी राजपुरुष में हो सकते हैं |
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जो लोग सीता के परित्याग के लिए राम की आलोचना करते हैं, वे राम का ऐसा स्वरूप पेश करते हैं कि वे एक पत्थर-दिल और सत्ता-लोलुप इंसान थे | उनको अपना सिंहासन इतना प्रिय था कि उसको खोने के भय से सीता को ही वनवास दे दिया जबकि वह जानते थे कि सीता निष्कलंक हैं। वे भूल जाते हैं कि राम को यदि सिंहासन इतना ही प्रिय होता तो वह उसे ठुकराकर 14 वर्ष के लिए वनवास क्यों जाते | 
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जब लक्ष्मण सीता को वाल्मीकि आश्रम में छोड़कर आए तो वे नीचे मुख किए दुखी मन से सीधे अन्दर चले गए। उन्होंने देखा, श्रीरघुनाथजी दुखी होकर एक सिंहासन पर बैठे हैं और उनके दोनों नेत्र आंसुओं से भरे हैं।
राज्ञस्तु भवनद्वारि सोऽवतीर्य नरोत्तमः ।
अवाङ्‌मुखो दीनमनाः प्रविवेशानिवारितः ॥ ५ ॥
स दृष्ट्‍वा राघवं दीनं आसीनं परमासने ।
नेत्राभ्यामश्रुपूर्णाभ्यां ददर्शाग्रजमग्रतः ॥ ६
(वाल्मीकि रामायण, उत्तरकांड, सर्ग – 52/5-6)
----- इस अवस्था में बड़े भाई को सामने देख दुखी मन से लक्ष्मण ने उनके दोनों पैर पकड़ लिए और हाथ जोड़कर चित्त को एकाग्र करके वे दीन वाणी में बोले – ‘वीर महाराज की आज्ञा शिरोधार्य करके मैं उन शुभ आचारवाली, यशस्विनी जनककिशोरी सीता को गंगातट पर वाल्मीकि के शुभ आश्रम के समीप निर्दिष्ट स्थान में छोड़कर पुनः आपके श्रीचरणों की सेवा के लिए यहां लौट आया हूं। पुरुषसिंह ! आप शोक न करें। काल की ऐसी ही गति है। आप जैसे बुद्धिमान और मनस्वी मनुष्य शोक नहीं करते हैं।
जग्राह चरणौ तस्य लक्ष्मणो दीनचेतनः ।
उवाच दीनया वाचा प्राञ्जलिः सुसमाहितः ॥ ७ ॥
आर्यस्याज्ञां पुरस्कृत्य विसृज्य जनकात्मजाम् ।
गङ्‌गातीरे यथोद्दिष्टे वाल्मीकेराश्रमे शुभे ॥ ८
तत्र तां च शुभाचारां आश्रमान्ते यशस्विनीम् ।
पुनरप्यागतो वीर पादमूलमुपासितुम् ॥ ९ ॥
मा शुचः पुरुषव्याघ्र कालस्य गतिरीदृशी ।
त्वद्विधा न हि शोचन्ति बुद्धिमन्तो मनस्विनः ॥ १
० ॥ (वाल्मीकि रामायण, उत्तरकांड, सर्ग – 52/7-10)
------- ‘संसार में जितने संचय हैं, उन सबका अंत विनाश है, उत्थान का अंत पतन है, संयोग का अंत वियोग है और जीवन का अंत मरण है। अतः स्त्री, पुत्र, मित्र और धन में विशेष आसक्ति नहीं करनी चाहिए क्योंकि उनसे वियोग होना निश्चित है। कुकुत्स्थ कुलभूषण! आप आत्मा से आत्मा को, मन से मन को तथा संपूर्ण लोकों को भी संयत करने में समर्थ हैं, फिर अपने शोक को काबू में रखना आपके लिए कौन बड़ी बात है?
सर्वे क्षयान्ता निचयाः पतनान्ताः समुच्छ्रयाः ।
संयोगा विप्रयोगान्ता मरणान्तं च जीवितम् ॥ ११ ॥
तस्मात् पुत्रेषु दारेषु मित्रेषु च धनेषु च ।
नातिप्रसङ्‌गः कर्तव्यो विप्रयोगो हि तैर्ध्रुवम् ॥ १२ ॥
शक्तस्त्वं आत्मनाऽऽत्मानं विनेतुं मनसा मनः ।
लोकान् सर्वांश्च काकुत्स्थ किं पुनः शोकमात्मनः ॥ १३
॥ (वाल्मीकि रामायण, उत्तरकांड, सर्ग – 52/11-13)
---- ‘आप जैसे श्रेष्ठ पुरुष इस तरह के प्रसंग आने पर मोहित नहीं होते। रघुनंदन! यदि आप दुखी रहेंगे तो वह अपवाद आपके ऊपर फिर आ जाएगा। नरेश्वर! जिस अपवाद के भय से आपने मिथिलेशकुमारी का त्याग किया है, निस्संदेह वह अपवाद इस नगर में फिर होने लगेगा (लोग कहेंगे कि दूसरे के घर में रही हुई स्त्री का त्याग करके ये रातदिन उसी की चिंता से दुखी रहते हैं) अतः पुरषसिंह! आप धैर्य से चित्त को एकाग्र करके इस दुर्बल शोकबुद्धि का त्याग करें — संतप्त न हों।’
नेदृशेषु विमुह्यन्ति त्वद्विधाः पुरुषर्षभाः ।
अपवादः स किल ते पुनरेष्यति राघव ॥ १४ ॥
यदर्थं मैथिली त्यक्ता अपवादभयान्नृप ।
सोऽपवादः पुरे राजन् भविष्यति न संशयः ॥ १५ ॥
स त्वं पुरुषशार्दूल धैर्येण सुसमाहितः ।
त्यजैनां दुर्बलां बुद्धिं सन्तापं मा कुरुष्व ह ॥ १६
॥ (वाल्मीकि रामायण, उत्तरकांड, सर्ग – 52/14-16)
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महात्मा लक्ष्मण के इस प्रकार कहने पर मित्रवत्सल श्रीरघुनाथजी ने बड़ी प्रसन्नता के साथ उन सुमित्राकुमार से कहा — नरश्रेष्ठ वीर लक्ष्मण! तुम जैसे कहते हो, ठीक ऐसी ही बात है। तुमने मेरे आदेश का पालन कया, इससे मुझे बड़ा संतोष है। सौम्य लक्ष्मण! अब मैं दुख से निवृत्त हो गया। संताप को मैंने हृदय से निकाल दिया और तुम्हारे सुंदर वचनों से मुझे बड़ी शांति मिली है।’
एवमेतन्नरश्रेष्ठ यथा वदसि लक्ष्मण ।
परितोषश्च मे वीर मम कार्यानुशासने ॥ १८ ॥
निवृत्तिश्चागता सौम्य सन्तापश्च निराकृतः ।
भवद्‌वाक्यैः सुरुचिरैः अनुनीतोऽस्मि लक्ष्मण ॥ १९
॥ (वाल्मीकि रामायण, उत्तरकांड, सर्ग – 52/19)
----- यद्यपि सीता को वन में छोड़ते समय ख़ुद लक्ष्मण की क्या स्थिति थी। दोपहर के समय भागीरथी की जलधारा तक पहुंचकर लक्ष्मण उसकी ओर देखते हुए दुखी होकर उच्चस्वर से फूटफूटकर रोने लगे।
अथार्धदिवसे गत्वा भागीरथ्या जलाशयम् ।
निरीक्ष्य लक्ष्मणो दीनः प्ररुरोद महास्वनः ॥ २४
॥ (वाल्मीकि रामायण, उत्तरकांड, सर्ग 46/24)

राजधर्म के बारे में राम का विचार----
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सीता के संताप से मुक्त होकर राम ने लक्ष्मण से तुरंत ही राज्य कार्य करने को कहा।..
------‘सौम्य! सुमित्राकुमार! मुझे पुरवासियों का काम किए बिना चार दिन बीत चुके हैं, यह बात मेरे मर्मस्थल को विदीर्ण कर रही है। पुरुषप्रवर! तुम प्रजा, पुरोहितों और मंत्रियों को बुलाओ। जिन पुरुषों अथवा स्त्रियों को कोई काम हो, उनको उपस्थित करो।
----जो राजा प्रतिदिन पुरवासियों के कार्य नहीं करता, वह निस्संदेह सब ओर से निश्छिद्र अतएव वायुसंचार से रहित घोर नरक में पड़ता है। ‘जिस प्रकार राजा नृग ने प्रजा के विवाद को उचित प्रकार से न सुलझाने पर अत्यंत दारुण शाप फल भोगा |
चत्वारो दिवसाः सौम्य कार्यं पौरजनस्य च ।
अकुर्वाणस्य सौमित्रे तन्मे मर्माणि कृन्तति ॥५३/ ४ ॥
आहूयन्तां प्रकृतयः पुरोधा मन्त्रिणस्तथा ।
कार्यार्थिनश्च पुरुषाः स्त्रियश्च पुरुषर्षभ ॥ ५ ॥
पौरकार्याणि यो राजा न करोति दिने दिने ।
संवृते नरके घोरे पतितो नात्र संशयः ॥ ६ ॥
----- अतः कार्यार्थी पुरुषों का विवाद यदि निर्णीत न हो तो वह राजाओं के लिए महान दोष की प्राप्ति करानेवाला होता है। अतः कार्यार्थी मनुष्य शीघ्र मेरे सामने उपस्थित हों। … तुम जाओ, राजद्वार पर प्रतीक्षा करो कि कौन कार्यार्थी पुरुष आ रहा है।
एवं स राजा तं शापं उपभुङ्‌क्ते सुदारुणम् ॥ २४ ॥
कार्यार्थिनां विमर्दो हि राज्ञां दोषाय कल्पते |
तच्छीघ्रं दर्शनं मह्यं अभिवर्तन्तु कार्यिणः ॥ २५ ॥
सुकृतस्य हि कार्यस्य फलं नावैति पार्थिवः ।
तस्माद् गच्छ प्रतीक्षस्व सौमित्रे कार्यवाञ्जनः ॥ २६
॥ (वाल्मीकि रामायण, उत्तरकांड, सर्ग 53/24-26)
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अब हमारे मन में राम की कैसी छवि होनी चाहिए,
-----वह एक ऐसे आदर्श शासक के रूप में प्रतीत होते हैं जो निजी और सार्वजनिक जीवन के कर्तव्यों के आंतरिक संघर्ष में फंसे हुए हैं।
----- जो राजा इस बात से चिंतित हो कि चार दिनों से जनता के काम नहीं हो रहे, उस राजा के लिए यह पद सत्ता का सुख भोगने का साधन नहीं है बल्कि कर्तव्य निभाने का माध्यम है। 
-----इस कर्तव्य को निभाने के दौरान यदि उनको किसी का भी त्याग करना पड़े तो वह उसके लिए तैयार हैं। वह एक ऐसे शासक प्रतीत होते हैं जो अपनी प्रजा के लिए काम करते हैं और उसकी सुख-समृद्धि की चिंता करते हैं।
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वाल्मीकि रामायण के अनुसार जब राम ने सभी भाइयों को बुलाकर सीता का त्याग करने का अपना फ़ैसला सुनाया था, तब कहा था –‘नरश्रेष्ठ बंधुओ! मैं लोकनिंदा के भय से अपने प्राणों को और तुम सबको भी त्याग सकता हूं। फिर सीता का त्यागना कौन बड़ी बात है? अतः तुमलोग मेरी ओर देखो। मैं शोक के समुद्र में गिर गया हूं। इससे बढ़कर कभी कोई दुख मुझे उठाना पड़ा हो, इसकी मुझे याद नहीं है।’

----(वाल्मीकि रामायण, सर्ग – 46/15-16) वह स्पष्ट करते हैं कि उनके इस निर्णय में परिवर्तन के लिए कोई ज़ोर न डाले और आदेश देते हैं कि सीता को वन में भेजने की व्यवस्था की जाए।

----इस प्रकार कहते-कहते श्रीरघुनाथजी के दोनों नेत्र आंसुओं से भर गए। फिर वे धर्मात्मा श्रीराम अपने भाइयों के साथ महल में चले गए। उस समय उनका हृदय शोक से व्याकुल था और वे हाथी के समान लंबी सांस खींच रहे थे।
अथार्धदिवसे गत्वा भागीरथ्या जलाशयम् ।
निरीक्ष्य लक्ष्मणो दीनः प्ररुरोद महास्वनः ॥ २४ ॥
सीता तु परमायत्ता दृष्ट्‍वा लक्ष्मणमातुरम् ।
उवाच वाक्यं धर्मज्ञा किमिदं रुद्यते त्वया ॥ २५
॥ (वाल्मीकि रामायण, सर्ग – 46/24-25)
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सिद्धार्थ गौतम ने भी जब अचानक एक रात पत्नी यशोधरा और बेटे राहुल को सोता छोड़ महाभिनिष्क्रमण किया था और जीवन के सच्चे अर्थ की तलाश में निकल पड़े तो उनका वह कदम परिवार के लिए कठोर कहा जा सकता है। लेकिन सभी को ज्ञात है कि बुद्ध के रूप में उन्होंने विश्व को क्या दिया। 
-----------------समष्टिहित के लिए व्यष्टिहित का बलिदान करना ही पड़ता है और संसार में जितनी भी महान विभूतियां हुई हैं, उन्होंने ऐसा किया है।



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