....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
ईश्वर – जैसा मैंने समझा -सोचा ....
ईश्वर = इष
(इच्छा ) + वर (श्रेष्ठ
) अर्थात
श्रेष्ठ-इच्छायें
या श्रेष्ठ-इच्छा व
कर्म ही
ईश्वरीय गुण
या ईश्वर
होता है...अतः सदैव श्रेष्ठ इच्छाएं ही मन में लायें, श्रेष्ठ विचारों से ही ईश्वर का मन में पदार्पण होता है ...........
ईश्वर की
सर्वश्रेष्ठ इच्छा
है, 'एकोहम
वहुस्याम ', अर्थात्
एक से
बहुत होजाना,
तभी सृष्टि
होती है।
स्वयं मैं
ही मस्त
न रहकर
समस्त समाज
व जगत
का होजाना
,व्यष्टि से
समष्टि की
ओर चलना
। अपने
को जग
को समर्पित कर देना अर्थात परमार्थ ही ईश्वर है ....
.........व्यर्थ वस्तुका
समर्पण कहाँ
होता है?
अतः अपने
आप को
कुछ बनाएं,
ईश्वरीय गुणों
से युक्त
करने योग्य
बनाएं..... श्रेष्ठ व्यक्तित्व
बनाएं,.... तभी हम
ईश्वर के
निकट पहुँच
सकते हैं
। यही ईश्वर है।