....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
ईशोपनिषद एवं उसके आधुनिक सन्दर्भ-क्रमशः - भाग चार ....
पिछले अंक भाग तीन में उपनिषदकार .....ने विद्या-अविद्या, ज्ञान व कर्म, भौतिकसंसार एवं आत्मिक जगत के समन्वय से उत्तम, उचित सत्कर्म करने व अकर्मों से दूर रहने पर प्रकाश डाला था कि वह क्यों व कैसे इस ब्रह्म विद्या को प्राप्त करे ताकि उचित व सही दिशा में किये गए अपने कर्मों से समाज व मानवता को प्रगति की ओर दिशा प्रदान करे |
प्रस्तुत अंतिम भाग में मन्त्र १५ से 18 तक , बताया गया है कि उचित कर्मों व कर्तव्य पालन व कार्यों में सत्यता व वास्तविकता होनी चाहिए अन्यथा उस कर्म की उपयोगिता नहीं रहेगी | और इस जगत में सत्य को छिपाने के लाखों साधन व बहाने हैं | मनुष्य को उनसे सावधान रहना चाहिए |
हिरण्यमयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखं |
तत्वं पूषन्न पावृणु सत्यधर्माय दृष्टये ||...१५ ..
सत्य का मुख सुवर्णमय पात्र से ढंका हुआ है , हे पूषन! उस सत्य धर्म के दिखाई देने के हेतु तू उस आवरण को हटा दे | अर्थात चमक धमक वाली वस्तुएं , धन, सुख-सुविधाएं आदि प्रलोभन मनुष्य को सत्य से अवगत होने नहीं देते एवं उसे सत्य के कर्तव्य पथ से विमुख कर देते हैं और विविधि अकर्मों व दुष्कर्मों में धकेल देते हैं | अतः हे ईश्वर ! इस प्रलोभन का आवरण सत्यता के ऊपर से हट जाय ताकि हम सत्य पर चल सकें |
सत्य क्या है व सत्य की इतनी महत्ता क्यों दी जारही है | क्योंकि सत्य का ही दूसरा नाम धर्म है मूल कर्त्तव्य है ...... स: ति य: ..... अर्थात जिसमें स: अर्थात अनश्वर जीव् एवं ति अर्थात तिरोहितकारी विनाशशील संसार ...य:...दोनों का समन्वय है जिसमें ..वह सत्य |.......ब्रह्म का नाम 'सत्यम' कहा गया है ...स+ति+यम ...अर्थात स: = जीव ...ति = तिरोहित ..विनाशयोग्य संसार ...यम = अनुशासन ....अर्थात जो जीव व ब्रह्माण्ड दोनों को अनुशासन में रखने वाला है....धर्म है., कर्त्तव्य है ..ईश्वर है...ब्रह्म है वही सत्य है | ऐसी महत्वपूर्ण वस्तु आवरण रहित ही रहनी चाहिए अतः मानव सत्य के ऊपर से प्रलोभनों का आवरण हटाकर कर्तव्यपथ पर चले | तभी सारे कार्य उद्देश्यपूर्ण व सफल होते हैं |
पूषन्नेकर्षे यम सूर्य प्राजापत्य व्यूह रश्मीन समूह
तेजो यत्ते रूपंकल्याणतम तत्ते पश्यामि,
योs सावसौ पुरुष: सो sहमस्मि ||....१६ ...
हे सब के पालक, अद्वितीय ,अनुशासक -न्यायकारी , प्रकाश स्वरुप ( ज्ञान दायक ) प्रजापति ( ईश्वर ) ...दुखप्रद ताप किरणों ( रश्मीन) को दूर करें एवं सुखप्रद तेज समूह( तेज ) को प्राप्त करा | आपका जो कल्याणकारी , मंगलमय रूप है मैं उसे देख रहा हूँ अतः जो वह पुरुष (ईश्वर ) है वही मैं हूँ |
वास्तव में जब मनुष्य ईश्वर के उन गुणों------ पूषन ......सबका पोषक बिना भेद-भाव के कर्तव्य कारक, ---एकर्षि.....अपने विशेष गुणों के कारण अद्वितीय सब में समानरूप से प्रसिद्ध व सब को उपलब्ध , --- यम.... अटल न्यायकारी ,---सूर्य .. अन्तःकरण से अज्ञान का अन्धकार हटाकर हृदय में ज्ञान का प्रकाश देनेवाला,---- प्रजापति ....अपने प्रजा, परिवार, देश, समाज ,राष्ट्र व मानवता का रक्षक आदि .....को आत्मसात कर लेता है तो उसका सरल-सहज ,भक्त-प्रेमी हृदय अपने प्रभु का दर्शन कर लेता है एवं स्वयं ईश्वर रूपमय होजाता है| इसप्रकार सत्य से आवरण हटने पर जब सत्य सम्मुख होता है तो ज्ञात होता है कि जो ब्रह्म सर्वत्र व्याप्त है वही मैं हूँ |
" मैं वही हूँ ,
तू वही है | ".....
वायुरनिलममृतमथेदं भस्मान्त शरीरम् |
ओम क्रतो स्मर क्लिवे स्मर कृतं स्मर ||...१७.....
वायु: अर्थात शरीर में आने जाने वाला जीव ( अनिलं.=.जीव. शक्ति, प्राण, तेज, आत्मा ) अमर है परन्तु यह शरीर स्वयं केवल भस्म पर्यंत है अर्थात मर्त्य है , नाशवान है अतः अंत समय में हे जीव ओम का अर्थात उस ईश्वर का स्मरण कर , मन की निर्बलता , मृत्यु का भय आदि दूर करने के लिए ईश्वर का स्मरण कर एवं अपने किये हुए कर्मो का स्मरण कर |
उपनिषदकार का कथन है कि मनुष्य को अपना जीवन इस प्रकार व्यतीत करना चाहिए कि जब अमर आत्मा व नश्वर शरीर के वियोग अर्थात अपने अंतिम समय में, वह ओम का उच्चारण अर्थात ईश्वर का ध्यान कर सके | अंतिम समय में मन में कोई तृष्णा-- व एषणा ---लोकेषणा, पुत्रेषणा, वित्तेषणा आदि न रहे अन्यथा उसे ईश्वर के ध्यान की बजाय पुत्रादि, धन, अधूरे कर्म आदि का ध्यान रहेगा एवं अंतिम समय कष्ट प्रदायक होगा |
अग्ने नय सुपथा राये आस्मान विश्वानि देव वयुनानि विद्वान् |
युयोध्य स्मज्जुहुराणमेन भूयिष्ठान्तेनाम उक्तिं विधेम ||..१८...
हे अग्ने ..प्रकाशमय सर्वशक्तिमान, तेजस्वी ईश्वर आप हमारे सम्पूर्ण कर्मों को जानने वाले हैं अतः हमें एश्वर्य अर्थात उचित ज्ञान व कर्म की प्राप्ति के अच्छे मार्ग ...सुकर्मों, सत्कर्मों पर चलाइये | हमें उलटे, टेड़े- मेडे, विकृत मार्ग पर चलने रूपी पाप से बचाइये | हम आपको बारम्बार प्रणाम करते हैं |
वेदों के मन्त्रों -ऋचाओं का भाव मूलतः दो रूपों में प्राप्त होता है ...१. उपदेश रूप में --जहाँ मानव को अनेक शिक्षाएं दी गयी हैं ताकि वह अपने आचरण व कर्म से जीवन को उच्चकोटि का बनाए; परन्तु वह अपने कर्म में स्वतंत्र है वह उपदेश उस रूप में ग्रहण करे न करे...२. नियम रूप में -- जो प्राकृतिक नियम रूप हैं एवं अनुल्लंघनीय हैं | अंत में ईश्वर की दया का सहारा ही उचित है| पुण्य के पथ पर चलने में ईश्वर का सहारा ही आवश्यक है | मन्त्र १७ में ..'ओम क्रतोस्मर' . उपदेश रूप में हैं परन्तु ...'कृतं स्मर '....नियम रूप में है जीवन के अंतिम समय उसे अपने कृत्यों का स्मरण आयेगा ही एवं उन्हीं के अनुसार उसे अंत समय में दुःख या सुख का अनुभव होगा |.... उपनिषदकार ने इस अंतिम नमस्कार मन्त्र में पाप का मूल रूप उलटे मार्ग पर चलना ही कहा है | यही संब अकर्मों, विकर्मों व दुष्कर्मों की जड़ है |
आज हम सभी उलटे मार्ग पर अग्रसर हैं | स्वयं के भौतिक लाभ, अति-सुखाभिलाषा , अनावश्यक मनोरंजन , धनागम के अनावश्यक व अन्याय से प्राप्त श्रोत, अनावश्यक धन-संचय , धन-आधारित व्यवथाएं ..स्कूल, कालेज, अस्पताल , संस्थाएं, खेल, मनोरंजन ....गली गली में गुरुओं , साधू-संतों के मठ रूपी आलीशान महल , चेलों की फौज , वोट की राजनीति .....आदि सभी उलटे मार्ग अंतत दुष्कर्मों को प्रश्रय देते हैं जिनके कारण आज समाज में भ्रष्टाचार, लूट-खसोट , अनाचार, अत्याचार , बलात्कार आदि फैले हुए हैं |
" अब तो हर ओर घना छाया धुंआ लगता है
आदमी आजकल खुद से भी खफा लगता है ||"
निश्चय ही वेदों के अतिरिक्त विश्व के किसी भी धर्म, संस्कृति, समाज, इतिहास, दर्शन, साहित्य ,ज्ञान में इतनी अधुना वैज्ञानिक तार्किकता के साथ मानवीय कर्म व स्वयं में निष्ठा..... श्रृद्धा, भक्ति, दर्शन, आस्था, ईश्वर पर धार्मिक विश्वास के समन्वय के साथ मानव आचरण व कर्तव्यों के प्रति शिक्षाएं व ज्ञान का भण्डार देखने को नहीं मिलता |
अत: वैदिक शिक्षा ....ईशोपनिषद के मन्त्र.. आज भी व्यक्ति समाज, राष्ट्र व मानवता को कर्म की वास्तविक राह दिखने में सक्षम हैं , सजग हैं , तत्पर हैं समीचीन व सन्दर्भित हैं ...आवश्यकता है इन पर चलने की |
" जब से उड़ने लगे हम श्याम प्रगति के पथ पर ,
अपनी संस्कृति से ही मानव नट गया यारो | "
'खोलकर देखिये फलसफे की किताबों को,
अब भी हर वर्क पे उलफत ही लिखा लगता है |'
' चल दिये जब से हम गैर की राहों पर श्याम,
दर्द भी अपनों का हमको तो खता लगता है |'
- इति -
----- सन्दर्भ ...महात्मा नारायण स्वामी का उपनिषद रहस्य ......