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डा श्याम गुप्त का ब्लोग...

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Lucknow, UP, India
एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं... काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद .. my blogs-- 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति... 2.drsbg.wordpres.com, 3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त

रविवार, 15 फ़रवरी 2009

डार्विनवाद , जो जीवे सो खेले फाग - हिन्दुस्तान १५.२.०९

म्रणाल पांडे लिखतीं हैं कि गाँवके किसान परम्परावादी खेती छोड़कर प्रयोगमुखी खेती कर रहे हैं। यह एक अच्छी बात है । परन्तु वे इस बहाने भारतीय परम्पराबादको कोसती हैं कि इससे हम रीड़ हीन अमीवाबन जायेंगे , हम कहते हैं कि हम सबल परम्परा वाले लोग हैं पर चुनौती की घड़ी मैं सींग पूँछ दिखाकर घोंघा बसंत बन जाते हैं ; अर्थात वही ढाक के तीन पात ; अर्थात भारत की सांस्कृतिक विविधता, एकता व परम्परा पर आक्षेप का पुराना सिलसिला। उनका ज्ञान सतही है। वाक्यों के अर्थ --शाव्दिक, भावार्थ, वास्तविक अर्थ ,व तात्विक चार प्रकार से होते हैं। वही परम्परा के लिए भी है।
परम्परा दो प्रकार से समझ नी चाहिए --अज्ञान- अर्थात सांसारिक बस्तुपरक भाव मैं। एवं ज्ञान -अर्थात मानवता ,विचारशीलता , शास्त्रीयता , नीति, समाज , नियम- निषेध , उचित- अनुचित के निर्णय के लिए ।
ज्ञान के भाव -व्यवहार मैं -परम्पराओं के तहत चलना ,उन पर विशवास करना उचित है, क्योंकि वे अनुभव , तत्थ्य ज्ञान व व्यवहारिक ज्ञान की कसौटी पर लंबे समय तक कसने पर बनातीं हैं। परन्तु सांसारिक-भौतिक बस्तुओं के -अर्थ, व्यापार, खेती ,विपणन ,क्रय ,कानून , आदि मैं परम्पराएं --समय ,स्थान , आवश्यकता ,नवीन आविष्कार के साथ प्रगतिवादी व अग्रगामी होनी चाहिए । यही परम्परा का तात्विक अर्थ है। यही भारतीयताहै, जो अति शक्तिशाली है। सत्य ही है हम क्यों बगैर सोचे समझे ,भारतीयता की कसौटी पर कसे उदारवादी अर्थ व्यवस्था व भू मंडली करण के समुन्दर मैं क्यों उतरें। बाज़ार का हाल तो आप देख ही चुकीं हैं, भारत पर ही सबसे कम असर है, सारी दुनिया डूबी। यह भारतीय परम्परा का ही कमाल था। डार्विनवाद , भौतिक वाद के लिए है , न कि मानव व्यवहार के लिए । वैसे अब यह भी पुरानीबात होगई, अब डार्विनवाद भी सर्वमान्य नहीं रहा।
घबराइये नहीं मृणालजी , न हम अमीवा बनेंगे ,न लुप्त होंगे । क्योंकि --
कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी।
सदियों रहा है दुश्मन दौरे -जहाँ हमारा।।

करीव से देखें --हमारी परम्पराएं. -हिन्दुस्तान १५.२.०९

काली, दुर्गा, शिव ,देवी, देवता , रजा- महाराजा -- कब शराव का पान करते थे? कहाँ लिखा है? राम- सीता आदि के उदाहरण भी असत्य व प्रक्षिप्त है.यह एक बहुत बड़ी बहस का मुद्दा है।
फिलहाल हम यह मान भी लें की राम ने सीता को मैरेयतथा कथित सुरा , पिलाई ; तो वह उनका व्यक्तिगत मामला था, क्योंकि वह अपने घर मै व बेडरूम की बात है। सभी जानते हैं की अपने कपडों के अन्दर सब नंगे होते है। सभी अपनी पत्नी या प्रेमिका के साथ सोते हें उसकी इच्छा से , पर अपने कमरे मै , बाहर पब, होटल, सड़क आदि सार्वजनिक जगह पर नहीं। यह समाज व क़ानून के ख़िलाफ़ है।
सुरा , शराब नहीं है । फ़िर सुरा की दुकानें होने से ,सुरा पान अच्छाई थोड़े ही बन जायेगा ,कब?, कहाँ?, किसने? शराव को अच्छा कहा है? कब व किस युग व काल व समाज मैं शराब को मान्यता मिली है?
कौटिल्य के अर्थशास्त्र मैं ८४ तरह की सुरा का वर्णन -- वह सब आज भी चिकित्सशास्त्रों , व होटलों की बुक्स मैं मिल जायेगा , इससे क्या? क्या शराव पीना अच्छा होजायेगा? बुराइयां, बुरे लोग, बुरी बस्तुएं समाज व संसार मैं सदा ही रहतीं हैं, इससे वे अच्छी व अपनाने योग्य थोड़े ही बन जातीं हैं।
यह एक व्यर्थ का आलेख है , जो सिर्फ़ लिखने ,छपने व धंधे के लिए है। या भारतीय, व हिन्दू विरोधी प्रचार का भाग , न की कोई सार्थक तत्त्व के लिए। सम्पादकों , समाचार पत्रों को ऐसे सतही ज्ञान के आलेखों से बचना चाहिए।

पिंक चड्डी आन्दोलन -निशा सुसान का इन्टरव्यू .

कोई उद्देश्य नहीं ,चड्डी के नाम के पीछे भी वे कोई अभिप्राय नहीं बता पातीं हैं , आगे का भी आपको कुछ नहीं पता , सब जान सकते हैं कि मानसिकता मैं जो बात गहरी जमी होती है जुवा न पर आ ही जाती है। जब मानसिकता मैं चड्डी , पब, देह , होटल आदि बने रहेंगे तो चड्डी के अलावा और क्या सूझेगा?
उनका कहना है -अच्छे व्यवहार की शर्तें , माता, पिताव समाज तय करता है। जो लडकियां पब मैं शराव पीने जातीं हैं , वे या तो माता -पिता से छिपकर या उनके माता- पिता भी वैसे ही होते हैं और वे क्या मना कर पायेंगे । क्या राम सेना के लोग समाज के लोग नहीं हैं? आज पुलिस , सरकार , राज्य किस बुराई को रोक पाती है? जब ये असफल होते हैं तभी सामाजिक संगठनों को व जन समुदाय को सब अपने हाथ मैं लेना पड़ता है । सामाजिक बुरी या अच्छाई के लिए जन समुदाय का ही कोई अंग खडा होता है। क्यों सिगरेट, सफाई, परिवार नियोजन आदि के लिए ऐक्ट्रेस, हीरो , हीरोइन्स से टी वी आदि पर कहलवाया जाता है?क्या वे समाज, या माता ,पिता हैं या सरकार , या पुलिस या ठेकेदार। ; क्यों शराव के ख़िलाफ़ मंत्रीजी क़ानून बनाते हैं? यदि निश्चय करने व टोकने का अधिकार सिर्फ़ कानून को है तो आपको किसी को गुंडा कहने का अधिकार किसने दिया? कानून को अपना काम करने दीजिये ,पर स्वयं आपका ही कानून पर विश्वास नहीं है, बस हिन्दू संगठन जो कहें usakaa virodh karnaa , व अपना नाम व अखवार मैं छाजाने का ही उपक्रम है यह सब।