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डा श्याम गुप्त का ब्लोग...

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Lucknow, UP, India
एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं... काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद .. my blogs-- 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति... 2.drsbg.wordpres.com, 3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त

शनिवार, 29 अप्रैल 2017

पुस्तक----ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद -----आत्म- कथ्य – -----भाग तीन ----डा श्याम गुप्त

                                           ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...


पुस्तक----ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद ------डा श्याम गुप्त ....
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------आत्म- कथ्य –डा श्याम गुप्त -----क्रमश -भाग दो से आगे ---


----भाग तीन---

. भाग तीन
भाग दो में ब्रह्म को क्यों जानें, ब्रह्म विद्या क्यों, ईश्वर क्या व कौन है उसकी महत्ता ,,,,जीव का ईश्वर से तादाम्य व उसकी कर्म, सांसारिक कर्मों में एवं व्यष्टि व समष्टि की उन्नति में क्या योगदान है , आदि के बारे में औपनिषदिक दृष्टि का वर्णन किया गया था |
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प्रस्तुत भाग तीन में -----मन्त्र ९ से १४ तक .. मानव कर्तव्यों को कैसे करे, विद्या-अविद्या क्या है...ज्ञान व कर्म का तादाम्य कैसे किया जाय , मृत्यु व अमरता क्या व कैसे ...ताकि व्यक्ति के समुचित व्यवहार से समष्टि व जगत के जीवन व्यवहार में सौम्यता, तादाम्यता बनी रहे .....
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अन्धन्तम प्रविशन्ति ये sविद्यामुपाससते |
ततो भूय इव ते तमो यउ विद्याया रता: ||...९...
---------अविद्या-- पदार्थनिष्ठ विद्या अर्थात सांसारिक ज्ञान-विज्ञान, प्रोफेशनल ज्ञान आदि से उद्भूत कर्म को कहा गया है,
--------- विद्या-- आत्मविद्या अर्थात ज्ञान..वास्तविक मानवीयता युक्त ईश्वरीय-ज्ञान को कहा गया है |
-----अर्थात जो लोग ज्ञान की उपेक्षा करके सिर्फ कर्म, सांसारिक कर्म की ही उपासना करते हैं वे गहरे अन्धकार में गिरते हैं...अर्थात भ्रमों में घिरे रहकर विविध कष्टों, सांसारिक द्वंद्वों से युक्त रहते हैं | -------परन्तु जो कर्म की उपेक्षा करके सिर्फ ज्ञान में ही रत रहते हैं वे तो और भी अधिक अन्धकार को प्राप्त होते हैं |
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अन्येदेवाहुर्विद्यायां अन्यदाहुरविद्याया: |
इति शुश्रुम धीराणां ये नस्त द्विचचक्षिरे||....१०..
----- क्योंकि यह कहा जाता है कि विद्या अर्थात ज्ञान का और ही फल प्राप्त होता है अविद्या अर्थात कर्म का अन्य ही फल प्राप्त होता है | ऐसा हम उन धीर ज्ञानी पुरुषों से सुनते हैं जो हमारे लिए इस विषय पर उपदेश करते हैं |
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विद्यांचाविद्यां च यस्तत वेदोभय सह |
अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुते ||....११..
------अतः जो विद्या व अविद्या अर्थात ज्ञान व कर्म दोनों को साथ साथ जानता है एवं दोनों के समन्वय से कर्मों में प्रवृत्त रहता है वह कर्म से संसार में उचित व सुकृत्य रूप से प्रवृत्त होकर संसार सागर में तैरकर मृत्यु पर विजय प्राप्त करता है एवं विद्या अर्थात ज्ञान के मार्ग में प्रवृत्त होकर सत्कर्मों द्वारा अमरता को प्राप्त होता है |
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------ वस्तुतः अमरता, अमृत क्या हैं | अमृत प्राप्ति क्या है ? कर्म व ज्ञान क्या है ? शरीर में ज्ञानेन्द्रियाँ (आत्मा के ज्ञान गुण की सार्थकता हेतु ) व कर्मेन्द्रियाँ (आत्मा के कर्म गुण की सार्थकता हेतु ) दो ही प्रकार की इन्द्रियाँ होती हैं, आत्मा (या व्यक्ति ) मन के द्वारा इन इन्द्रियों का समन्वय करके जीव को ( स्वयं को ) कर्म में प्रवृत्त करता है |
-------- सिर्फ एक प्रकार की इन्द्रियाँ जीव को उचित कर्म में प्रवृत्त नहीं कर सकतीं | अतः निश्चय ही ज्ञान व कर्म दोनों को जानकर उनका प्रयोग साथ-साथ ही करना चाहिए तभी कोई भी कर्म या क्रिया सत्प्रवृत्ति में, सत्कार्य में फलीभूत होती है |
------- विना सिद्धांत जाने प्रायोगिक कर्म एवं बिना प्रायोगिक कर्म किये कोरा ज्ञान व्यर्थ ही है | ज्ञान को कार्य में परिणत करना ही मानव जीवन का उद्देश्य है क्योंकि सिर्फ ज्ञान मात्र का कोई फल नहीं होता अतः सिर्फ कर्म से अन्धकार में पड़ना एवं सिर्फ ज्ञान से और भी अधिक अन्धकार में रहना कहा गया है |
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-------ज्ञान से कर्म की महत्ता अधिक है परन्तु ज्ञान के बिना कर्म उचित ढंग से नहीं किया जा सकता | ईश्वरीय ज्ञान के बिना सारे कर्म निरुद्देश्य अकर्म ही होंगे जो आजकल प्राय्: देखने में आता है ..घातक अस्त्र-शस्त्र निर्माण की होड़ , धनसंचय की होड़, भ्रष्टाचार, अत्याचार,अनाचार, बलात्कार सभी उद्देश्यहीन अकर्म एवं उनसे उत्पन्न विकार-विकर्म एवं दुष्कर्म हैं जो आत्मा की मृत्यु के प्रतीक हैं इसी मृत्यु को पार करके अमरता प्राप्त करना उद्देश्य है मानव जीवन का ....जो उपनिषद् का मन्त्र है | यहीं से गीताकार ने कर्मयोग का पाठ लिया है | यह वेदों का शाश्वत सिद्धांत है जो सार्वकालिक उपयोगी है |
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अन्धतम: प्रविशन्ति ये sसम्भूति मुपासते |
ततो भूय इव ते तमो य उ सम्भूत्या रताः ||....१२..
------- सम्भूति अर्थात कार्य रूप प्रकृति ( स्थूल शरीर + सूक्ष्म शरीर = नश्वर भौतिक शरीर ) एवं ..
-----असम्भूति या विनाश ( अनश्वर )अर्थात कारण रूप प्रकृति ( कारण शरीर ...मूल आत्म तत्व ).|.......
-------जो सिर्फ असम्भूति अर्थात कारण शरीर ..आत्मा की ही उपासना करते हैं, अन्य शरीरों की उपेक्षा करके, वे घोर अन्धकार में गिरते हैं.....
-------और जो सिर्फ सम्भूति अर्थात भौतिक शरीर के पालन पोषण में ही व्यस्त रहते हैं, कारण शरीर... आत्मा की उपेक्षा करके, वे और भी अधिक अन्धकार में घिरते हैं |
\
अन्यदेवाहु : सम्भवादन्यदाहुर सम्भवात |
इति शुश्रुम धीराणां ये नस्त द्विचच क्षिरे ||....१३....

..-------.कार्य प्रकृति की उपासना व कारण प्रकृति की उपासना ... सम्भूति योग व असम्भूति योग के भिन्न भिन्न परिणामी फल होते हैं जो धीर व विद्वान् उपदेशकों ने हमें बताया है |
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सम्भूतिंच विनाशंच यस्तद वेदोभय सह |
विनाशेन मृत्युं तीर्त्वा सम्भूत्याsमृतमश्नुते ||...१४...
------- जो कोई कार्यरूप प्रकृति ( सम्भूति---शरीर ) एवं विनाश( असम्भूति ) अर्थात नाशहीन कारण रूप प्रकृति --- आत्म तत्व, को साथ-साथ जानता है वह समयानुरूप नवीन सृजन एवं अवांछनीय का त्याग द्वारा संसार सागर में मृत्यु पर विजय प्राप्त करके अमरता को प्राप्त करता है |
-------- निश्चय ही जो लोग भौतिक शरीर... ( खान-पान, प्राणायाम ,शरीर की देखभाल , खाना-कमाना, परिवार का पालन-पोषण , आमाजिक कर्तव्यों का पालन )...की उपेक्षा करके, कर्म की, कमाने-धमाने की, संसार्रिक ज्ञान की उपेक्षा करके..... सिर्फ आत्मा, ईश्वर, अध्यात्म, ज्ञान आदि की खोज में ही लगे रहते हैं वे धन से, बल से क्षीण रहकर घोर कष्ट पाते हैं....
------ परन्तु जो सिर्फ भौतिक शरीर...रोटी, कपड़ा और मकान, मेरा-तेरा, धनसंपदा का जोड़-तोड़, शारीरिक सुख व भौतिक सुख प्राप्ति में ही लगे रहते हैं, ईश्वर प्राप्ति, ज्ञान प्राप्ति, अध्यात्मिक ज्ञान प्राप्ति, ईश्वर उपासना अदि की उपेक्षा करके ..... वे और भी अधिक घोर कष्टों, मानसिक द्वंद्वों में फंसे रहते हैं |
\
-----अतः निर्दिष्ट है कि जैसा हमें विद्वान् बताते हैं कि दोनों की उपासना के भिन्न भिन्न फल मिलते हैं ..मनुष्य को भौतिकता व आध्यात्मिकता, शरीर व आत्मा, संसार व ईश्वर, ज्ञान व कर्म दोनों का ही उचित ज्ञान प्राप्त करके दोनों के समन्वय से चलना चाहिए |
------- संसार में नित्य सत्कर्म रूपी नव-सृजन एवं अकर्म, विकर्म व दुष्कर्म रूपी अवांछनीय का त्याग ही मानव का उद्देश्य होना चाहिए | एसा न कर पाना ही मृत्यु है और इसी समन्वय से चलना संसार में मृत्यु को पार करना व अमरता है | यह सार्वकालिक अनुशासन व नियम है |

" ज्ञान और संसार को, जो दोनों को ध्याय ,
माया बंधन पार कर अमरतत्व पाजाय |"

--क्रमश भाग चार .....
 
 
 

 

गुरुवार, 27 अप्रैल 2017

पुस्तक----ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद -----आत्म- कथ्य---भाग दो -डा श्याम गुप्त .


               ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...


पुस्तक----ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद ------डा श्याम गुप्त ....
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------आत्म- कथ्य –डा श्याम गुप्त -----क्रमश -भाग एक से आगे ---


भाग दो 


-------- प्रथम भाग के तीन मन्त्रों में मानव के मूल कर्तव्यों को बताया गया है कि ...सबकुछ ईश्वर से नियमित है एवं वह सर्वव्यापक है, अतः जगत के पदार्थों को अपना ही न मानकर, ममता को न जोड़कर सिर्फ प्रयोगाधिकार से भोगना चाहिए | कर्म करना आवश्यक है परन्तु उसे अपना कर्त्तव्य व धर्म मानकर करना चाहिए , आत्मा के प्रतिकूल कर्म नहीं करना चाहिए एवं किसी की वस्तु एवं उसके स्वत्व का हनन नहीं करें |

---------इस द्वितीय भाग में मन्त्र 4 से 8 तक में ब्रह्म विद्या के मूल तत्वों एवं ब्रह्म के गुणों का वर्णन है ....
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अनेजदेकं मनसो ज़वीयो नैनद्देवा आप्नुवन पूर्वंमर्षत|
तद्धावतोsन्यान्यत्येति तिष्ठत्तस्मिन्नपो मातरिश्वा दधाति||..४
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-------वह ब्रह्म अचल,एक ही एवं मन से भी अधिक वेगवान है तथा सर्वप्रथम है, प्रत्येक स्थान पर पहले से ही व्याप्त है | उसे इन्द्रियों से प्राप्त (देखा, सुना,अनुभव आदि ) नहीं किया जा सकता क्योंकि वह इन्द्रियों को प्राप्त नहीं है | वह अचल होते हुए भी अन्य सभी दौड़ने वालों से तीब्र गति से प्रत्येक स्थान पर पहुँच जाता है क्योंकि वह पहले से ही सर्वत्र व्याप्त है | वही समस्त वायु, जल आदि विश्व को धारण करता है |
\
तदेज़ति तन्नैजति तद्दूरे तद्वन्तिके |
तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बाह्यतः ||...५ ..
-------वह ब्रह्म गतिशील भी है अर्थात सब को गतिदेता परन्तु वह स्थिर भी है क्योंकि वह स्वयं गति में नहीं आता | वह दूर भी हैक्योंकि समस्त संसार में व्याप्त ..विभु है और सबके समीप भी क्योंकि सबके अंतर में स्थित प्रभु भी है | वह सबके अन्दर भी स्थित है एवं सबको आवृत्त भी किये हुए है , अर्थात सबकुछ उसके अन्दर स्थित है |.
\
यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्येवानुपश्यति |
सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते ||...६...
-------जो कोई समस्त चल-अचल जगत को परमेश्वर में ( एवं आत्म-तत्व में ) ही स्थित देखता समझता है तथा सम्पूर्ण जगत में परमेश्वर को ( एवं आत्म तत्व को ) ही स्थित देखता समझता है वह भ्रमित नहीं होता, घृणा नहीं करता अतः आत्मानुरूप कर्मों के करने से निंदा का पात्र नहीं बनता |
\
यस्मिन्त्सर्वाणि भूतान्यात्मैवा भू द्विजानतः |
तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यत: ||...७....
---------जब व्यक्ति यह उपरोक्त मर्म जाना लेता है कि आत्मतत्व ही समस्त भूतों....चल-अचल संसार में व्याप्त है वह सबको आत्म में स्थित मानकर सबको स्वयं में ही मानकर अभूत .अर्थात एकत्व -भाव होजाता है | ऐसे सबको समत संसार को एक सामान देखने समझाने वाले को न कोई मोह रहता है न शोक ...वह ममत्व से परे परमात्म-रूप ही होजाता है | उसका ध्येय ईश्वरार्पण |
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स पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रण-
मस्नाविरंशुद्धमपापविद्धम |
कविर्मनीषी परिभू स्वयन्भूर्याथातथ्यतो
sर्थान- व्यदधाच्छाश्वतीभ्य: समाभ्यः ||....८....
---------और वह ईश्वर परि अगात ,,,सर्वत्र व्यापक, शुक्रं....जगत का उत्पादक, अकायम...शरीर रहित, अव्रणम ...विकार रहित ,अस्नाविरम ..बंधनों से मुक्त, पवित्र,पाप बंधन से रहित कविः...सूक्ष्मदर्शी , ज्ञानी, मनीषी, सर्वोपरि, सर्वव्याप्त ( परिभू). स्वयंभू ....स्वयंसिद्ध , अनादि है | उसने प्रजा अर्थात जीव के लिए समाभ्य अनादिकाल से यातातथ्यतः अर्थात यथायोग्य ..ठीक ठीक कर्मफल का विधान कर रखा है, सदा ही सबके लिए उचित साधनों व अनुशासन की व्यवस्था करता है |
\\
-----------अर्थात...... आखिर कोई ब्रह्म के, उसके गुणों के, ब्रह्म विद्या के बारे में क्यों जाने ? ईश्वर को क्यों माने, इसका वास्तविक जीवन में क्या कोई महत्व है ?
--------वस्तुतः हमारा, व्यक्ति का, मानव मात्र का उद्देश्य ब्रह्म को जानना, वर्णन करना ज्ञान बघारना आदि ही नहीं अपितु वास्तव में तो ब्रह्म के गुण जानकर, समस्त संसार को ईश्वरमय एवं ईश्वर को संसार मय....आत्ममय ..समस्त विश्व को एकत्व जानकर मानकर, ईश्वर व आत्मतत्व का एकत्व जानकर विश्वबंधुत्व के पथ पर बढ़ना, समत्व से, समता भाव से कर्म करना एवं वर्णित ईश्वरीय गुणों को आत्म में, स्वयं में समाविष्ट करके शारीरिक, मानसिक व आत्मिक उन्नति द्वारा ...व्यष्टि, समष्टि, राष्ट्र, विश्व व मानवता की उन्नति ही इस विद्या का ध्येय है |

---------क्रमश भाग तीन , अगले अंक में ---

पुस्तक----ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद ------------आत्म- कथ्य –डा श्याम गुप्त ..भाग एक---

                                   ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...





पुस्तक----ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद ------डा श्याम गुप्त ....
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------आत्म- कथ्य –डा श्याम गुप्त -----
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------छात्र जीवन में आर्य समाज के ग्रन्थों एवं स्वामी दयानंद रचित ‘सत्यार्थ प्रकाश’ से वैदिक साहित्य एवं उसकी परंपरा से परिचय हुआ, क्योंकि भारतीय संस्कृति के पुजारी पूज्य पिताजी, स्वामी जी से अत्यंत प्रभावित थे | ------तत्पश्चात वेदों के एक प्राचीन संस्करण से उनके पारंपरिक कर्मकांडीय तथा बहु-अर्थीय अर्थार्थ से परिचय हुआ एवं गोरखपुर से प्रकाशित वेदों के पारंपरिक संस्करण तथा गायत्री परिवार के आचार्यवर श्रीराम शर्मा जी के वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी परिचय हुआ|
-------इस विशाल एवं बहु-आयामी, बहुमुखी ज्ञान का तनिक सा आस्वादन ही ज्ञान चक्षुओं को विभोर कर देता है | विभिन्न उपनिषदों से परिचय होने पर मुझे प्रतीत हुआ कि मानव-जीवन के सद-आचरण एवं उचित-जीवन व्यवहार ही समस्त वैदिक साहित्य के ज्ञान का मूलभाव है | ईशोपनिषद उस समस्त ज्ञान का मूल है |
--------महात्मा नारायण स्वामी के ‘उपनिषद् रहस्य’ एवं सस्ता साहित्य प्रकाशन द्वारा प्रकाशित आचार्य विनोवा भावे जी के ‘ईशावास्यवृत्ति’ के अध्ययन से यह धारणा और पुष्ट हुई |
--------बस इन्हीं समस्त विचारों, भावों के आधार पर मुझे सरल हिन्दी में ईशोपनिषद के १८ मन्त्रों के काव्यभावानुवाद लिखने की अन्तःप्रेरणा प्राप्त हुई प्रस्तुत कृति के रूप में |
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--------- विश्व के प्राचीनतम व सर्वश्रेष्ठ ज्ञान के भण्डार 'वेद' , जिनके बारे में कथन है कि जो कुछ भी कहीं है वह वेदों में है और जो वेदों में नहीं है वह कहीं नहीं , के ज्ञान ...परा व अपरा विद्या के आधार उपनिषद् हैं जो भारतीय मनीषा, ज्ञान, विद्या, संस्कृति व आचरण-व्यवहार के आधार तत्व हैं | उपनिषद् भवन की आधार शिला 'ईशोपनिषद ' है जिसमें समस्त वेदों व उपनिषद् शिक्षा का सार है | ईशोपनिषद यजुर्वेद का चालीसवां अध्याय है जो परा व अपरा ब्रह्म-विद्या का मूल है अन्य सभी उपनिषद् उसी का विस्तार हैं |
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---------वेदों के मन्त्रों का भाव मूलतः दो रूपों में प्राप्त होता है ...
१. उपदेश रूप में --जहाँ मानव अपने कर्म में स्वतंत्र है वह उपदेश उस रूप में ग्रहण करे न करे...
२. नियम रूप में -- जो प्राकृतिक नियम रूप हैं एवं अनुल्लंघनीय हैं |
--------ईशोपनिषद में ईश्वर, जीव, संसार, कर्म, कर्त्तव्य, धर्म, सत्य, व्यवहार एवं उनका तादाम्य 18 मन्त्रों में देदिया गया है, जो आज भी प्रासंगिक हैं , समीचीन हैं एवं अनुकरणीय व पालनीय हैं | इसकी सैकड़ों टीकाएँ --- विधर्मी दाराशिकोह, जिसे इसके अध्ययन के बाद ही शान्ति मिली द्वारा फारसी में.... जर्मन विद्वान् शोपेन्हावर को अपनी प्रसिद्ध फिलासफी त्याग कर इसी से संतुष्टि प्राप्त हुई| शंकराचार्य की अद्वैतपरक...रामानुजाचार्य की विशिष्टाद्वेतपरक एवं माधवाचार्य की द्वैतपरक टीकाएँ इस उपनिषद् की महत्ता का वर्णन करती हैं |
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ईशोपनिषद के 18 मन्त्रों में चार भागों में सबकुछ कह दिया गया है | ये हैं--
१.प्रथम भाग...मन्त्र १ से ३ .... कर्तव्य-पंचक -मानव जीवन के मूल कर्त्तव्य ..
२.द्वितीय भाग....मन्त्र ४ से ८... ईश्वर के गुण -ब्रह्म विद्या मूलक सिद्धांत व ईश्वर के गुण व ईश्वर क्यों ...
३.तृतीय भाग....मन्त्र ९ से १४ ...मानव कर्तव्य एवं ब्रह्म प्राप्ति विधि ज्ञान-अज्ञान, यम-नियम, मानव के कर्त्तव्य, विद्या-अविद्या, संसार, ब्रह्म-विद्या प्राप्ति, प्रकृति, कार्य-कारण, मृत्यु-अमरत्व ....आत्मा-शरीर…..
४.चतुर्थ भाग ..... मन्त्र १५ से १८....आत्मरूपता, ईश्वर से तादाम्य, ईश्वर प्राप्ति-.सत्य, धर्म, कर्म, ईश्वर-जीव का मिलन, आत्मा-शरीर का अंतिम परिणाम |
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----- प्रथम भाग ------
\ ( मन्त्र १ से ३ तक )
ईशावास्यं इदं सर्वं यत्किंच जगात्याम् जगत|
तेन त्यक्तेन भुंजीथा मा गृधःकस्यस्विद्धनम || १....
-------इस जगत में अर्थात पृथ्वी पर, संसार में जो कुछ भी चल-अचल, स्थावर, जंगम , प्राणी आदि वस्तु है वह.ईश्वर की माया से आच्छादित है अर्थात उसके अनुशासन से नियमित है | उन सभी पदार्थों को त्याग से अर्थात सिर्फ उपयोगार्थ दिए हुए समझकर उपयोग रूप में ही भोगना चाहिए, क्योंकि यह धन किसी का भी नहीं हुआ है अतः किसी प्रकार के भी धन व अन्य के स्वत्व-स्वामित्व का लालच व ग्रहण नहीं करना चाहिए |
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कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतम समाः |
एवंत्वयि नान्यथेतो sति न कर्म लिप्यते नरः ||..२..
-------यहाँ मानव कर्मों को करते हुए १०० वर्ष जीने की इच्छा करे, अर्थात कर्म के बिना, श्रम के बिना जीने की इच्छा व्यर्थ है | कर्म करने से अन्य जीने का कोई भी उचित मार्ग नहीं है क्योंकि इस प्रकार उद्देश्यपूर्ण, ईश्वर का ही सबकुछ मानकर, इन्द्रियों को वश में रखकर आत्मा की आवाज़ के अनुसार जीवन जीने से मनुष्य कर्मों में लिप्त नहीं होता.... अर्थात अनुचित कर्मों में, ममत्व में लिप्त नहीं होता, अपना-तेरा, सांसारिक द्वंद्व दुष्कर्म, विकर्म आदि उससे लिप्त नहीं होते |
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.असुर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसावृता |
तांस्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये के चात्महनो जनाः ||-३ ...
------ जो आत्मा के घातक अर्थात ईश्वर आधारित व आत्मा के विरुद्ध , केवल शरीर व इन्द्रियों आदि की शक्ति व इच्छानुसार सद्विवेकआदि की उपेक्षा करके कर्म ( या अपकर्म आदि ) करते हैं वे अन्धकारमय लोकों में पड़ते हैं अर्थात विभिन्न कष्टों, मानसिक कष्टों, सांसारिक द्वेष-द्वंद्व रूपी यातनाओं में फंसते हैं |
\\
-------- निश्चय ही मानव का आत्म... स्वयं शक्ति का केंद्र है उस शक्ति के अनुसार चलना, मन वाणी शरीर से कर्म करना ही उचित है यही आस्तिकता है, ईश्वर-भक्ति है, अन्य कोई मार्ग नहीं है| इस ईश्वर .. श्रेष्ठ -इच्छा एवं आत्म-शक्ति से ही समस्त विश्व संचालित है, आच्छादित है, अनुशासित है ..
तू ही तू है ,
सब कहीं है |
सब वस्तु ईश्वर की न मानना अर्थात धन एवं अपने स्वत्व को ईश्वर से पृथक मानना.. मैं ,ममत्व..ममता, मैं -तू का द्वैत ही समस्त दुखों, द्वंद्वों, घृणा आदि का मूल है| ...
सब कुछ ईश्वर के ऊपर छोडो यारो ,
अच्छे कर्मों का फल है अच्छा ही होता |
----------कर्म- संसार का अटूट नियम है ..जगत में कोई भी वस्तु क्रिया रहित नहीं होती, अतः कर्मनिष्ठ होना ही मानव की नियति है | परन्तु जो लोग अपनी आत्मा ( सेल्फ कोंशियस ) के विपरीत, मूल नियम के विरुद्ध, ईश्वरीय नियम के विरुद्ध अर्थात प्रतिकूल कर्म करते हैं वे विविध कष्टों को प्राप्त होते हैं|
"" मिलता तुझको वही सदा जो तू बोता है |""
--------यही आत्मप्रेरणा से चरित्र निर्माण का मार्ग है |


क्रमश ---- द्वितीय भाग----मन्त्र ४ से ८ तक-----
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बुधवार, 26 अप्रैल 2017

सखीं संग राधाजी दर्शन पाए----‘श्याम सवैया छंद...श्याम गुप्त...

                       ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...

सखीं संग राधाजी दर्शन पाए----‘श्याम सवैया छंद...श्याम गुप्त...

-----सखीं संग राधाजी दर्शन पाए------..
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चित्रकूट के घाट पर भई संतन की भीर,
तुलसी दास चन्दन घिसें तिलक देत रघुबीर |

-------इस घटना को चाहे कुछ लोग कल्पित रचना मानते हों परन्तु रचना में अन्तर्निहित जो भगवद भक्ति, जो कल्पना व भावना के अंतर्संबंध का जो सत्य स्वरुप आनंद है, रसानंद है, ब्रह्मानंद है, वह अनिर्वचनीय है |


\\--उसी प्रकार ---
-------यदि आपको बिहारी जी के विग्रह के दर्शन रूपी रसानंद के साथ तुरंत ही राधाजी के सचल स्वरुप के दर्शन –सुख का आनंद प्राप्त होजाय तो वह अनिर्वचनीय परमानंद वर्णनातीत है, मोक्ष स्वरुप है | 
 
--------- एसी ही एक सत्य घटना का काव्यमय वर्णन प्रस्तुत है | जिसके लिए मैंने सवैया छंद के नवीन प्रारूप का सृजन किया और उसे ‘श्याम सवैया छंद’ का नाम दिया |
( श्याम सवैया छंद –छः पंक्तियाँ, वर्णिक, २४ वर्ण, अंत यगण )


**** सखीं संग राधाजी दर्शन पाए..***** १.
श्रृद्धा जगी उर भक्ति पगी प्रभु रीति सुहाई जो निज मन मांहीं |
कान्हा की वंसी जु मन मैं बजी सुख आनंद रीति सजी मन मांहीं|
राधा की मथुरा बुलावे लगी मन मीत बसें उर प्रीति सुहाई |
देखें चलें कहूँ कुञ्ज कुटीर में बैठे मिलहिं कान्हा राधिका पाहीं |
उर प्रीति उमंग भरे मन मांहि चले मथुरा की सुन्दर छाहीं |
देखी जो मथुरा की दीन दशा मन भाव भरे अँखियाँ भरि आईं ||

२.
ऐसी बेहाल सी गलियाँ परीं दोउ लोचन नीर कपोल पे आये |
तिहूँ लोक ते न्यारी ये पावन भूमि जन्मे जहं देवकी लाल सुहाए |
टूटी परीं सड़कें चहुँ और हैं लता औ पता भरि धूरि नहाए |
हैं गोप कहाँ कहँ श्याम सखा किट गोपी कुञ्ज कतहूँ नहिं पाए |
कित न्यारे से खेल कन्हैया के कहूँ गोपीन की पग राह न पाए |
हाय यही है मथुरा नगर जहं लीला धरन लीला धरि आये ||
३.
रिक्शा चलाय रहे ब्रज वाल किट ग्वाल-गुपाल के खेल सुहाए |
गोरस की नदियाँ बहें कित गली राहन कीचड़ नीर बहाए |
कुंकुम केसरि की धूर कहाँ धुंआ डीज़ल कौ चहुँ ओर उडाये |
माखन मिसरी के ढेर कितें चहुँ ओर तो कूड़न ढेर सजाये |
सोची चले वृन्दावन धाम मिलें वृंदा वन बहु भाँति सुहाए |
दोलत ऊबड़-खाबड़ राह औ फाँकत धूल वृन्दावन आये ||
४.
कालिंदी कूल जो निरखें लगे मन शीतल कुञ्ज कुटीर निहारे ,
कौन सो निरमल पावन नीर औ पाए कहूँ न कदम्ब के डारे |
नाथ के कालिया नाग प्रभो जो किये तुम पावन जमुना के धारे |
कारी सी माटी के रंग को जल हैं प्रदूषित कालिंदी कूल किनारे |
दुई सौ गज की चौड़ी नदिया कटि छीन तिया सी बहे बहु धारे |
कौन प्रदूषण नाग कों नाथि कें पावन नीर को नाथ सुधारे ||
५.
गोवरधन गिरिराज वही जेहि श्याम धरे ब्रज वृन्द बचाए |
खोजी थके हरियाली छटा पग राह कहूं औ कतहूँ नहिं पाए |
सूखे से ठूंठ से ब्रक्ष कदम्ब कटे फटे गिरि पाहन बिखराये |
शीर्ण विदीर्ण किये अंग भंग गिरिराज बने हैं कबंध सुहाए |
सब ताल तलैया हैं कीच भरे गिरिराज परे रहें नीर बहाए |
कौन प्रदूषन, खननासुर संहार करहि ब्रजधाम बचाए ||
६.
मंदिर देखि बिहारी लला मन आनंद शीतल नयन जुड़ाने |
हिय हर्षित आनंद रूप लखे, मन भाव, मनों प्रभु मुसकाने |
बोले उदास से नैन किये अति ही सुख आनंद हम तौ सजाने |
देखी तुमहूँ मथुरा की दशा हम कैसें रहें यहाँ रोज लजाने |
अपने अपने सुख चैन लसे मथुरा के नागर धीर सयाने |
श्याम कछू अब तुमहिं करौ, हम तौ यहाँ पाहन रूप समाने ||
७.
भाव भरे कर जोरि कें दोऊ, भरे मन बाहर गलियन आये |
बांस फटे लिए हाथन में सखियन संग राधाजू भेष बनाए |
नागरि चतुर सी मथुरा कीं रहीं घूमि नगर में धूम मचाये |
हौले से राधा सरूप नै पायं हमारे जो दीन्हीं लकुटियां लगाए |
जोरि दोऊ कर शीश नवाय हम कीन्हों प्रनाम हिये हुलसाये |
जीवन धन्य सुफल भयो श्याम, सखीं संग राधाजी दर्शन पाए ||


 

मंगलवार, 25 अप्रैल 2017

श्याम स्मृति- १७४.....पत्नी-सह-धर्मिणी..... डा श्याम गुप्त

                                         ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...

श्याम स्मृति- १७४.....पत्नी-सह-धर्मिणी.....

               पत्नी को सहकर्मिणी नहीं कहा गया, क्यों? स्त्री, सखी, प्रेमिका, सहकर्मिणी हो सकती है, स्त्री माया रूप है, शक्ति-रूप, ऊर्जा-रूप वह अक्रिय-क्रियाशील ( सामान्य-पेसिव ) पात्र, रोल अदा करे तभी उन्नति होती है, जैसे वैदिक-पौराणिक काल में हुई |

------पत्नी सह-धर्मिणी है, केवल सहकर्मिणी नहीं | हाँ, पुरुष के कार्य में यथासमय, यथासंभव, यथाशक्ति सहकर्म-धर्म निभा सकती है | सह्कर्मिणी होने पर पुरुष भटकता है और सभ्यता अवनति की ओर | अतः पत्नी को सहकर्म नहीं सहजीवन व्यतीत करना है – सहधर्म |

------स्त्री-पुरुष के साथ-साथ काम करने से उच्च विचार प्रश्रय नहीं पाते, व्यक्ति स्वतंत्र नहीं सोच पाता, विचारों को केंद्रित नहीं कर पाता, हाँ भौतिक कर्मों व उनसे सम्बंधित विचारों की बात पृथक है| |

------ तभी तो पति-पत्नी सदा पृथक-पृथक शयन किया करते थे | राजा-रानियों के पृथक-पृथक महल व कक्ष हुआ करते थे | सिर्फ मिलने की इच्छा होने पर ही वे एक दूसरे के महल या कमरे में जाया करते थे | माया की नज़दीकी व्यक्ति को भरमाती है, उच्च विचारों से दूर करती है |

----- यूं तो कहा जाता है कि प्रत्येक सफल व्यक्ति के पीछे नारी होती है, पर ये क्यों नहीं कहा गया कि सफल नारी के पीछे पुरुष होता है |

------नारी की तपस्या, त्याग, प्रेम, धैर्य, धरित्री जैसे महान गुणों व व्यक्तित्व की महानता के कारण ही तो पुरुष महान बनते हैं, सदा बने हैं, जो नारी का भी समादर कर पाते हैं और दोनों के समन्वय से समाज व सभ्यता नित नए सोपान चढ़ती है| 

शनिवार, 22 अप्रैल 2017

अगीत - त्रयी...---- भाग आठ ---डा श्याम गुप्त के कुछ अगीत ------





                            ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...


अगीत - त्रयी...---- भाग आठ ---डा श्याम गुप्त के कुछ अगीत ------


|
--------अगीत कविता विधा के तीन स्तम्भ कवियों के परिचय साहित्यिक परिचय एवं रचनाओं का परिचय ---
अगीत कवि कुलगुरु साहित्यभूषण डा रंगनाथ मिश्र सत्य
महाकवि श्री जगत नारायण पांडे
महाकवि डा श्याम गुप्त-
\\
----- डा श्यामगुप्त के श्रेष्ठ अगीत ----
--- अगीत ---
\
१.टोपी
वे राष्ट्र गान गाकर
भीड़ को देश पर मर मिटने की,
कसम दिलाकर;
बैठ गए लक्सरी कार में जाकर ;
टोपी पकडाई पी ऐ को
अगले वर्ष के लिए
रखे धुलाकर |

२.अगीत .....
प्रेम विह्वलता, विरह, भावातिरेक की धारा ,
बहती है जब मन में ,
अजस्र, अपरिमित, प्रवाहमान; तब-
गीत निस्रत होते हैं.
सरिता की अविरल धारा की तरह |
वही धारा, प्रश्नों को उत्तरित करती हुई
व्याख्या, विश्लेषण, सत्य को
जन -जन के लिए उद्घाटित करती हुई,
निस्रत निर्झरिणी बन कर -
अगीत बन जाती है | 

३.प्रकृति सुन्दरी का यौवन....
कम संसाधन
अधिक दोहन,
न नदिया में जल,
न बाग़-बगीचों का नगर |
न कोकिल की कूक
न मयूर की नृत्य सुषमा ,
कहीं अनावृष्टि कहीं अति-वृष्टि ;
किसने भ्रष्ट किया-
प्रकृति सुन्दरी का यौवन ?
 
४. संतुलन....
विकास हेतु,
संसाधन दोहन की नासमझ होड़,
अति-शोषण की अंधी दौड़,
प्रकृति का संतुलन देती है बिगाड़;
विकल हो जाते हैं-नदी सागर पहाड़,
नियामक व्यवस्था तभी करती है यह जुगाड़|
चेतावनी देती है,
सुनामी बनकर सब कुछ उजाड़ देती है,
अपना संतुलन सुधार लेती है |
 
५. माँ और आया
"अंग्रेज़ी आया ने,
हिन्दी मां को घर से निकाला;
देकर, फास्ट-फ़ूड ,पिज्जा, बर्गर -
क्रिकेट, केम्पा-कोला, कम्प्यूटरीकरण ,
उदारीकरण, वैश्वीकरण
का हवाला | "
 
६.अमर
"मरणोपरांत जीव,
यद्यपि मुक्त होजाता है ,
संसार से , पर--
कैद रहता है वह मन में ,
आत्मीयों के याद रूपी बंधन में ,
और होजाता है अमर | "
 
७.बंधन-मुक्ति
वह बंधन में थी
धर्म संस्कृति सुसंस्कारों का
चोला ओढ़कर,
अब वह मुक्त है, स्वतंत्र है
लाज व शर्मो-हया के वस्त्रों का
चोला छोड़कर |
 
८.कालपात्र
किसलिए काल
रचता है रचनाएँ
सम-सामयिक, तात्कालिक,
व सामयिक इतिहास के
सरोकारों को निबद्ध करता है ,
तथ्यों को बढ करता है |
एक कालपात्र होता है
साहित्य
तभी वह होता है कालजयी |
 
९. अनास्था
अपना दोष
ईश्वर के सिर
इंसान क्यों है इतना तंग नज़र !
क्या केवल कुछ पाने की इच्छा से थी, भक्ति-
नहीं थी आस्था, बस आसक्ति |
जो कष्टों के एक झटके से ही
टूट जाए ,
वह अनास्था
आस्था कब कहलाये |
 
१०. अर्थ
अर्थ स्वयं में एक अनर्थ है |
मन में भय चिंता भ्रम की
उत्पत्ति में समर्थ है |
इसकी प्राप्ति, रक्षण व उपयोग में भी
करना पड़ता है कठोर श्रम,
आज है, कल होगा या नहीं या होगा नष्ट
इसका नहीं है कोइ निश्चित क्रम|
अर्थ मानव के पतन में समर्थ है,
फिर भी जीवन के -
सभी अर्थों का अर्थ है |
\\
-----लयबद्ध अगीत----
\
११.
तुम जो सदा कहा करती थीं
मीत सदा मेरे बन रहना |
तुमने ही मुख फेर लिया क्यों
मैंने तो कुछ नहीं कहा था |
शायद तुमको नहीं पता था ,
मीत भला कहते हैं किसको |
मीत शब्द को नहीं पढ़ा था ,
तुमने मन के शब्दकोश में ||
१२.
" यह कंचन सा रूप तुम्हारा
निखर उठा सुरसरि धारा में;
अथवा सोनपरी सी कोई,
हुई अवतरित सहसा जल में ;
अथवा पद वंदन को उतरा,
स्वयं इंदु ही गंगाजल में |
१३.
तेरे मन की नर्म छुअन को,
बैरी मन पहचान न पाया|
तेरे तन की तप्त चुभन को,
मैं था रहा समझता माया |
अब बैठा यह सोच रहा हूँ
तुमने क्यों न मुझे समझाया |
ज्ञान ध्यान तप योग साधना,
में मैंने इस मन को रामाया |
यह भी तो माया संभ्रम है ,
यूंही हुआ पराया तुमसे |
\\
-----नव-अगीत ----
\
१४.प्रश्न
कितने शहीद ,
कब्र से उठकर पूछते हैं-
हम मरे किस देश के लिए ,
अल्लाह के, या-
ईश्वर के |
 
१५..बंधन
वह बंधन में थी ,
संस्कृति संस्कार सुरुचि के
परिधान कन्धों पर धारकर ;
अब वह मुक्त है ,
सहर्ष , कपडे उतारकर ||
 
१६.. दिशाहीन
मस्त हैं सब -
अपने काम काज, या -
मनोरंजन में; और -
खड़े हैं हर मोड़ पर
दिशाहीन ||
 
१७.. मेरा देश कहाँ
यह अ जा का ,
यह अ ज जा का ,
यह अन्य पिछड़ों का ,
यह सवर्णों का ;
कहाँ है मेरा देश ?

१८..तुम्हारी छवि
" मन के अंधियारे पटल पर ,
तुम्हारी छवि,
ज्योति-किरण सी लहराई;
एक नई कविता,
पुष्पित हो आई |
\\
-----त्रिपदा अगीत ----
\
१९..
खडे सडक इस पार रहे हम,
खडे सडक उस पार रहे तुम;
बीच में दुनिया रही भागती।
२०..
चर्चायें थीं स्वर्ग नरक की,
देखी तेरी वफ़ा-ज़फ़ा तो;
दोनों पाये तेरे द्वारे।।
२१..
क्यों पश्चिम अपनाया जाए,
सूरज उगता है पूरब में;
पश्चिम में तो ढलना निश्चित |
२२..
" पायल छनका कर दूर हुए,
हम कुछ ऐसे मज़बूर हुए ;
उस नाद-ब्रह्म मद चूर हुए |"
२३..
" मिटा सके भूखे की हसरत,
दो रोटी भी उपलब्ध नहीं ;
क्या करोगे ढूँढ कर अमृत | "
\\
-----लयबद्ध षटपदी अगीत----
\
२४..
पुरुष-धर्म से जो गिर जाता,
अवगुण युक्त वही पति करता;
पतिव्रत धर्म-हीन, नारी को |
अर्थ राज्य छल और दंभ हित,
नारी का प्रयोग जो करता;
वह नर कब निज धर्म निभाता ? ...
२५..
वह समाज जो नर-नारी को,
उचित धर्म-आदेश न देता |
राष्ट्र राज्य जो स्वार्थ नीति-हित,
प्रजा भाव हित कर्म न करता;
दुखी, अभाव-भाव नर-नारी,
भ्रष्ट, पतित होते तन मन से ||
२६..
माया-पुरुष रूप होते हैं,
नारी-नर के भाव जगत में |
इच्छा कर्म व प्रेम-शक्ति से ,
पुरुष स्वयं माया को रचता |
पुनः स्वयं ही जीव रूप धर,
माया जग में विचरण करता || …… शूर्पणखा से
२७..
" परम व्योम की इस अशान्ति से ,
द्वंद्व भाव कण-कण में उभरा ;
हलचल से गति मिली कणों को ,
अप:तत्व में साम्य जगत के |
गति से आहत नाद बने ,फिर -
शब्द वायु ऊर्जा जल और मन | .
२८.
" जग की इस अशांति-क्रंदन का,
लालच लोभ मोह-बंधन का |
भ्रष्ट पतित सत्ता गठबंधन,
यह सब क्यों, इस यक्ष -प्रश्न का |
एक यही उत्तर सीधा सा ;
भूल गया नर आप स्वयं को || " …. सृष्टि से
२९.
बालू से सागर के तट पर ,
खूब घरोंदे गए उकेरे |
वक्त की ऊंची लहर उठी जब,
सब कुछ आकर बहा ले गयी |
छोड़ गयी कुछ घोंघे-सीपी,
सजा लिए हमने दामन में | …प्रेम काव्य से
\\

-----त्रिपदा अगीत ग़ज़ल.----
\..
 
३०. बात करें
भग्न अतीत की न बात करें ,
व्यर्थ बात की क्या बात करें ;
अब नवोन्मेष की बात करें |
यदि महलों में जीवन हंसता ,
झोपडियों में जीवन पलता ;
क्या उंच-नीच की बात करें |
शीश झुकाएं क्यों पश्चिम को,
क्यों अतीत से हम भरमाएं ;
कुछ आदर्शों की बात करें |
शास्त्र बड़े-बूढ़े और बालक ,
है सम्मान देना, पाना तो ;
मत श्याम’व्यंग्य की बात करें |
---------------


 

प्लास्टिकासुर---डा श्याम गुप्त

                                    ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
 -------धरती दिवस -----
----------यूं तो धरती को प्रदूषित करने में सर्वाधिक हाथ हमारे अति-भौतिकतावादी जीवन व्यवहार का है | यहाँ हमारी धरती को कूड़ा घर बनाने में सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारक एवं जो प्राप्ति, उपयोग , उपस्थिति एवं समाप्ति के प्रयत्नों से सर्वाधिक प्रदूषण कारक है उस तत्व को निरूपित करती हुई , पृथ्वी दिवस पर ....एक अतुकांत काव्य-रचना प्रस्तुत है----
\
प्लास्टिकासुर
\

पंडितजी ने पत्रा पढ़ा, और-
गणना करके बताया,
जज़मान ! प्रभु के -
नए अवतार का समय है आया।

सुनकर छोटी बिटिया बोली,
उसने अपनी जिज्ञासा की पिटारी यूं खोली;
"महाराज, हम तो बड़ों से यही सुनते आये हैं,
बचपन से यही गुनते आये हैं, कि -
असुर - देव ,दनुज, नर, गन्धर्व की -ता है, तो वह-
ब्रह्मा, विष्णु या फिर शिव-शम्भो के
वरदान से ही सम्पन्न होता है।
प्रारम्भ में जग, उस महाबली के,
कार्यों से प्रसन्न होता है;
पर जब वही महाबलवान,
बनकर सर्व शक्तिमान,
करता है अत्याचार,
देव दनुज नर गन्धर्व हो जाते हैं लाचार,
सारी पृथ्वी पर मच जाता है हाहाकार;
तभी लेते हैं, प्रभु अवतार।
हमें तो नहीं दिखता कोई असुर आज,
फिर अवतार की क्या आवश्यकता है महाराज?"

पंडित जी सुनकर, हडबडाये, कसमसाए,
पत्रा बंद करके मन ही मन बुदबुदाए;
फिर, उत्तरीय कन्धों पर डालकर मुस्कुराए; बोले -
"सच है बिटिया, यही तो होता है,
असुर - देव,दनुज, नर, गन्धर्व की -
अति सुखाभिलाषा से ही उत्पन्न होता है।
प्रारम्भ में लोग उसके कौतुक को,
बाल-लीला समझकर प्रसन्न होते हैं।
युवावस्था में उसके आकर्षण में बंधकर
उसे और प्रश्रय देते हैं।
वही जब प्रौढ़ होकर दुःख देता है तो,
अपनी करनी को रोते हैं।
वही देवी आपदाओं को लाता है,फैलाता है;
अपनी आसुरी शक्ति को बढाता है, दिखाता है।

आज भी मौजूद हैं पृथ्वी पर, अनेकों असुर,
जिनमें सबसे भयावह है,' प्लास्टिकासुर '।
प्लास्टिक, जिसने कैसे कैसे सपने दिखाए थे,
दुनिया के कोने-कोने के लोग भरमाये थे।

वही
बन गया है, आज --
पर्यावरण का नासूर,
बड़े बड़े तारकासुरों से भी भयावह है
आज का ये प्लास्टिकासुर।।

 

Plastic ,The Demon of today---daa shyam gupta

                                  ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...


---------The earth Day ----- a poem on pollution ...Dr shyam gupta
\
--------Plastic ,The Demon of today------


The priest read the stars and wondered,
"Time of reincarnation of god",he thundered.


My young daughter,inquisitive and bold,
Smiled in amazement & thus she told,
"Since our childhood,we have heard,
When demon is born,in this world,
His powers are fortified by the boons of Tridev-
Either Brahma or Vishnu or great bestower Mahadev.
There is chaos on the earth& everywhere,
The god incarnate to make things fair.
Nowadays on earth no demon dwell,
Why incarnation of god do stars foretell.


The priest grumbled & closed his book,
Rearranged his Uttariya with a sarcastic look;
"True my child ! clever and bold.
"The Asur is born" , the priest thus told;
Of extreme lust of worldly yields,
Of people at large from every field.
Breath still there many dreaded Asurs,
Most seen high headed,Plasticasur.


The plastic the pulse of our civilization,
Have brought our life a colorful passion,
His magical clutches in an auspicious way,
Engulf the world in pollution like spiders pray.
That icon of luxury & fulfillment ,
Is today a cancer of environment.


 

बुधवार, 19 अप्रैल 2017

अगीत - त्रयी...---- भाग सात---डा श्याम गुप्त का वक्तव्य व परिचय----डा श्याम गुप्त

                    ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...

 अगीत - त्रयी...---- भाग सात---डा श्याम गुप्त---------



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|
--------अगीत कविता विधा के तीन स्तम्भ कवियों के परिचय साहित्यिक परिचय एवं रचनाओं का परिचय ---

अगीत कवि कुलगुरु साहित्यभूषण डा रंगनाथ मिश्र सत्य
महाकवि श्री जगत नारायण पांडे
महाकवि डा श्याम गुप्त-



                     भाग सात------ डा श्याम गुप्त का वक्तव्य व परिचय ----




---वक्तव्य --
------- “काव्य सौन्दर्य प्रधान हो या सत्य प्रधान, इस पर पूर्व व पश्चिम के विद्वानों में मतभेद हो सकता है, आचार्यों के अपने अपने तर्क व मत हैं | सृष्टि के प्रत्येक वस्तु-भाव की भाँति कविता भी ‘सत्यं शिवं सुन्दरं‘ होनी चाहिए | साहित्य का कार्य सिर्फ मनोरंजन व जनरंजन न होकर समाज को एक उचित दिशा देना भी होता है, और सत्य के बिना कोइ दिशा, दिशा नहीं हो सकती | केवल कलापक्ष को सजाने हेतु एतिहासिक, भौगोलिक व तथ्यात्मक सत्य को अनदेखा नहीं करना चाहिए | ---काव्य निर्झरिणी से
\
-------- “साहित्य व काव्य किसी विशेष समाज, शाखा व समूह या विषय के लिए न होकर समग्र समाज के लिए, सबके लिए होता है| अतः उसे किसी भाषा, गुट या शाखा विशेष की संकीर्णता की रचनाधर्मिता न होकर भाषा व काव्य की समस्त शक्तियों, भावों, तथ्यों, शब्द-भावों व सम्भावनाओं का उपयोग करना होता है | प्रवाह व लय काव्य की विशेषताएं हैं जो काव्य-विषय व भावसम्प्रेषण क्षमता की आवश्यकतानुसार छंदोबद्ध काव्य में भी हो सकती है एवं छंद-मुक्त काव्य में भी| अतः गीत-अगीत कोई विवाद का विषय नहीं है |”
--शूर्पणखा अगीत काव्य उपन्यास से
\
-------- “ समाज में जब कभी भी विश्रृंखलता उत्पन्न होती है तो उसका मूल कारण मानव मन में नैतिक बल की कमी होता है भौतिकता के अतिप्रवाह में शौर्य, नैतिकता, सामाजिकता, धर्म, अध्यात्म, व्यवहारगत शुचिता, धैर्य, संतोष, समता, अनुशासन आदि उदात्त भावों की कमी से असंयमता पनपती है | अपने इतिहास, शास्त्र, पुराण, गाथाएँ, भाषा व ज्ञान को जाने बिना भागम-भाम में नवीन अनजाने मार्ग पर चल देना अंधकूप की और चलना ही है | आज की विश्रृंखलता का यही कारण है |” ------- शूर्पणखा से
\
--------- ‘ मेरे विचार से समस्या-प्रधान व तार्किक विषयों को मुक्त-छंद रचनाओं में सुगमता से कहा जा सकता है, जो जनसामान्य के लिए सुबोध होती हैं|’ --काव्य मुक्तामृत से

\\
.
----जीवन परिचय
\
------------- चिकित्सा व साहित्य जगत में जाना पहचाना नाम, चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक डा एस बी गुप्ता व साहित्यकार डा श्याम गुप्त का जन्म पश्चिमी उत्तरप्रदेश के ग्राम मिढाकुर, जिला आगरा में १० नवंबर १९४४ ई में हुआ | आपके पिता का नाम स्व.जगन्नाथ प्रसाद गुप्त व माता स्व.श्रीमती रामभेजी देवी हैं; पत्नी का नाम श्रीमती सुषमा गुप्ता है जो हिन्दी में स्तानाकोत्तर हैं एवं स्वयं भी एक कवियत्री व गायिका हैं | आपके एक पुत्र व एक पुत्री हैं | पुत्र श्री निर्विकार बेंगलोर में फिलिप्स कंपनी में वरिष्ठ प्रोजेक्ट प्रवन्धक व पुत्रवधू श्रीमती रीना गुप्ता क्रीडेन्शियल कंपनी की फाइनेंशियल सलाहकार व प्रवन्धक हैं | पुत्री दीपिका गुप्ता प्रवंधन में स्नातकोत्तर व दामाद श्री शैलेश अग्रहरि फिलिप्स पूना में महाप्रवन्धक पद पर हैं |
\
------- डा श्याम गुप्त की समस्त शिक्षा-दीक्षा आगरा नगर में ही हुई | सेंट जांस स्कूल आगरा, राजकीय इंटर कालिज आगरा व सेंट जांस डिग्री कालिज आगरा से अकादमिक शिक्षा के उपरांत उन्होंने सरोजिनी नायडू चिकित्सा महाविद्यालय आगरा ( आगरा विश्वविद्यालय ) से चिकित्सा शास्त्र में स्नातक की उपाधि एम् बी बी एस व शल्य-क्रिया विशेषज्ञता में स्नातकोत्तर ‘मास्टर आफ सर्जरी’ की उपाधि प्राप्त की | इस दौरान देश- विदेश की चिकित्सा पत्रिकाओं व शोध पत्रिकाओं में उनके चिकित्सा आलेख व शोध आलेख छपते रहे | चिकित्सा महाविद्यालय में दो वर्ष तक रेज़ीडेंट-सर्जन के पद पर कार्य के उपरान्त आप भारतीय रेलवे के चिकित्सा विभाग में देश के विभिन्न पदों व नगरों में कार्यरत रहे एवं उत्तर रेलवे मंडल चिकित्सालय, लखनऊ से वरिष्ठ चिकित्सा-अधीक्षक के पद से सेवानिवृत्त हुए | सम्प्रति उनका स्थायी निवास लखनऊ है |
--- संपर्क— सुश्यानिदी, के-३४८, आशियाना, लखनऊ-२२६०१२ (उ प्र), भारत, मो-०९४१५१५६४६४, ईमेल- drgupta04@gmail.com 

\\
-----साहित्यिक परिचय ---
\
--------धर्म, अध्यात्म के वातावरण -- रामायण के सस्वर पाठ से दिनचर्या प्रारम्भ करने वाली व चाकी-चूल्हे से लेकर देवी-देवता, मंदिर की पूजा-अर्चना करने वाली माँ व झंडा-गीत एवं देशभक्ति के गीतों के गायकों की टोली के नायक, देश-भक्ति व सर्व-धर्म, सम-भाव भावना प्रधान पिता के सान्निध्य में वाल्यावस्था में ही कविता-प्रेम प्रस्फुटित हो चुका था |
\
--------शिक्षाकाल से ही आगरा नगर की पत्र-पत्रिकाओं में कवितायें व आलेख प्रकाशित होते रहे | आगरा से प्रकाशित " युवांतर" साप्ताहिक के वे वैज्ञानिक-सम्पादक रहे एवं बाद में लखनऊ नगर से प्रकाशित -“निरोगी संसार " मासिक के नियमित लेखक व सम्पादकीय सलाहकार |
\
---------- आप हिन्दी भाषा में खड़ी-बोली व ब्रज-भाषा एवं अंग्रेज़ी भाषाओं के साहित्य में रचनारत हैं | ब्रज क्षेत्र के होने के कारण वे कृष्ण के अनन्य भक्त भी हैं उनके पद एवं अन्य तमाम रचनाएँ कृष्ण व राधा पर आधारित हैं एवं ब्रजभाषा में काव्य-रचना भी करते हैं |
\
---------हिन्दी-साहित्य की गद्य व पद्य दोनों विधाओं की गीत, अगीत, नवगीत .छंदोवद्ध-काव्य, ग़ज़ल, कथा-कहानी, आलेख, निवंध, समीक्षा, उपन्यास, नाटिकाएं सभी में वे समान रूप से रचनारत हैं |
\
-------आप कविता की अगीत विधा के सशक्त अगीतकार कवि, सन्घीय समीक्षा पद्धति के समीक्षक व सन्तुलित कहानी के कहानी कार के रूप में भी प्रतिष्ठित हैं | वे लखनऊ की विभिन्न साहित्यिक संस्थाओं से सम्वद्ध हैं, एवं अगीत परिषद, प्रतिष्ठा व चेतना परिषद के आजीवन सदस्य हैं| आप अनेक काव्य रचनाओं के सहयोगी रचनाकार हैं व कई रचनाओं की भूमिका के लेखक भी हैं|
\
--------अंतरजाल ( इंटरनेट ) पर विभिन्न ई-पत्रिकाओं हिन्दी साहित्य मंच, रचनाकार, हिन्दी-कुन्ज, हिन्द-युग्म, कल्किओन-हिन्दी व कल्किओन-अन्ग्रेज़ी आदि के लेखक एवं सहयोगी रचनाकार हैं | श्याम स्मृति The world of my thoughts .., साहित्य श्याम, हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व विजानाति-विजानाति-विज्ञान उनके स्वतंत्र चिट्ठे (ब्लॉग) हैं एवं कई सामुदायिक चिठ्ठों के सहयोगी रचनाकार व सलाहकार |
\
-----उनके अपने स्वयं के विशिष्ट विचार-मंथन के क्रमिक विचार-बिंदु ‘श्याम स्मृति’ के नाम से अंतरजाल पर प्रकाशित होते हैं| अब तक उनके द्वारा लगभग १५० गीत, १५० ग़ज़ल, १५० गीत-अगीत छंद, ६० कथाएं व अनेक आलेख, वैज्ञानिक-दार्शनिक, वैदिक-पौराणिक विज्ञान व धर्म-दर्शन एवं भारतीय पुरा इतिहास तथा विविध विषयों पर आलेख और निवंध तथा कई पुस्तकों की समीक्षाएं आदि लिखी जा चुकी हैं |
\
-------उनकी शैली मूलतः उद्बोधन, देशप्रेम, उपदेशात्मक व दार्शनिक है जो यथा-विषयानुसार होती है| श्रृंगार की एवं ललित रचनाओं में रीतिकालीन अलंकार युक्त शैली में शास्त्रीय छंद घनाक्षरी, दोहे, पद, सवैये आदि उन्होंने लिखे हैं| भावात्मक एवं व्यंगात्मक शैली का भी उन्होंने प्रयोग किया है स्पष्ट भाव-सम्प्रेषण हेतु| मूलतः वे अभिधात्मक कथ्य-शैली का प्रयोग करते हैं| आपको व आपकी विभिन्न कृतियों को विभिन्न संस्थाओं व संस्थानों द्वारा अनेक सम्मान व पुरस्कार प्राप्त हो चुके हैं|
\
-------------डा गुप्त ने कई नवीन छंदों की सृष्टि भी की है ..उदाहरणार्थ...अगीत-विधा के ..लयबद्ध-अगीत, षटपदी अगीत, त्रिपदा अगीत , नव-अगीत छंद व त्रिपदा अगीत ग़ज़ल...तथा गीति विधा के " श्याम सवैया छंद " व पंचक श्याम सवैया छंद |
\
----------आपकी प्रकाशित कृतियां---काव्य-दूत, काव्य निर्झरिणी, काव्यमुक्तामृत (सभी काव्य-संग्रह), सृष्टि-अगीत विधा महाकाव्य, प्रेम काव्य—गीति-विधा महाकाव्य, शूर्पणखा-अगीत-विधा काव्य-उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास --नारी विमर्श पर एवं अगीत विधा कविता के विधि-विधान पर शास्त्रीय-ग्रन्थ "अगीत साहित्य दर्पण तथा ब्रजभाषा में विभिन्न काव्य-विधाओं का संग्रह ‘ब्रज बांसुरी’ एवं शायरी काव्य विधा में ‘कुछ शायरी की बात होजाए’ हैं | अन्य शीघ्र प्रकाश्य कृतियाँ में ---गीत संग्रह, ग़ज़ल संग्रह, अगीत संग्रह, कथा-संग्रह, श्याम दोहा संग्रह, काव्य-कंकरियाँ व श्याम-स्मृति एवं ईशोपनिषद का काव्य-भावानुवाद आदि हैं |




                                                       -----क्रमश भाग आठ----डा श्याम गुप्त के कुछ अगीत----


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सोमवार, 17 अप्रैल 2017

पुरुषत्व,स्त्रीत्व ... प्राकृतिक-संतुलन तथा आज की स्थिति--डा श्याम गुप्त ...

                            ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ... ]


 *पुरुषत्व,स्त्रीत्व ... प्राकृतिक-संतुलन तथा आज की स्थिति *****..


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-----सृष्टि का ज्ञात कारण है ईषत-इच्छा…..’एकोहं बहुस्याम”….. यही जीवन का उद्देश्य भी है । जीवन के लिये युगल-रूप की आवश्यकता होती है । अकेला तो ब्रह्म भी रमण नहीं कर सका….
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---"”स: एकाकी, नैव रेमे । स द्वितीयमैच्छत ।“
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--------तत्व दर्शन में ..ब्रह्म-माया, पुरुष-प्रकृति …वैदिक साहित्य में ..योषा-वृषा …संसार में……नर-नारी…। ब्रह्म स्वयं माया को उत्पन्न करता है…अर्थात माया स्वयं ब्रह्म में अवस्थित है……जो रूप-सृष्टि का सृजन करती है, अत: जीव-शरीर में-- माया-ब्रह्म अर्थात पुरुष व स्त्री दोनों भाव होते हैं।
-------शरीर - माया, प्रकृति अर्थात स्त्री-भाव होता है । अत: प्रत्येक शरीर में स्त्री-भाव व पुरुष-भाव अभिन्न हैं। आधुनिक विज्ञान भी मानता है कि जीव में ( अर्थात स्त्री-पुरुष दोनों में ही) दोनों तत्व-भाव होते हैं। गुणाधिकता (सेक्स हार्मोन्स या माया-ब्रह्म भाव की) के कारण….स्त्री, स्त्री बनती है…पुरुष, पुरुष ।
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---------तत्वज्ञान एवं परमाणु-विज्ञान के अनुसार इलेक्ट्रोन- ऋणात्मक-भाव है …स्त्री रूप है । उसमें गति है, ग्रहण-भाव है। प्रोटोन..पुरुष है….अपने केन्द्र में स्थित, स्थिर, सबसे अनजान, अज्ञानी-भाव रूप, अपने अहं में युक्त, आक्रामक, अशान्त …धनात्मक भाव ।
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------स्त्री- पुरुष के चारों ओर घूमती हुई उसे खींचती है,यद्यपि खिंचती हुई लगती है, खिंचती भी है,आकर्षित करती है,आकर्षित होती हुई प्रतीत भी होती है| इसप्रकार वह पुरुष की आक्रामकता, अशान्ति को शमित करती है, धनात्मकता को….नयूट्रल, सहज़, शान्ति भाव करती है….यह परमाणु का, प्रकृति का सहज़ सन्तुलन है।
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---------वेदों व गीता के अनुसार शुद्ध-ब्रह्म या पुरुष अकर्मा है, मायालिप्त जीव रूप में पुरुष कर्म करता है |
-------माया व प्रकृति की भांति ही स्त्री- स्वयं कार्य नहीं करती अपितु पुरुष को अपनी ओर खींचकर, सहज़ व शान्त करके कार्य कराती है परन्तु स्वय़ं कार्य करती हुई भाषती है, प्रतीत होती है।
-----नारी –पुरुष के चारों ओर घूमते हुए भी कभी स्वयं आगे बढकर पहल नहीं करती, पुरुष की ओर खिंचने का अभिनय करते हुए उसे अपनी ओर खींचती है। वह सहनशीला है। पुरुष आक्रामक है, उसी का शमन स्त्री करती है, जीवन के लिये, उसे पुरुषार्थ प्राप्ति हेतु, मोक्ष हेतु ।
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-----------भारतीय दर्शन के अनुसार जीवन के चार पुरुषार्थ हैं - धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष…. स्त्री –धर्म (गुणात्मकता) व काम (ऋणात्मकता) रूप है, पुरुष….अर्थ (धनात्मकता) व काम (ऋणात्मकता ) रूप है….
-------स्त्री-- पुरुष की धनात्मकता को सहज़-भाव करके मुक्ति की प्राप्ति कराती है। यह स्त्री का स्त्रीत्व है। कबीर गाते हैं….“हरि मोरे पीउ मैं हरि की बहुरिया…”…अर्थात मूल-ब्रह्म पुरुष-रूप है अकर्मा, परन्तु जीव रूप में ब्रह्म ( मैं ) मूलत:…स्त्री-भाव है ताकि संतुलन रहे। अत: यदि पुरुष अर्थात नर…भी यदि स्वयं नारी की ओर खिंचकर स्त्रीत्व-भाव धारण करे, ग्रहण करे तो उसके अहम, धनात्मकता, आक्रामकता का शमन सरल हो तथा जीवन, पुरुषार्थ व मोक्ष-प्राप्ति सहज़ होजाय ।
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-------प्रश्न यह उठता है कि यदि नारी स्वयं ही पुरुष-भाव ग्रहण करने लगे, अपनाने लगे तो ? यही आज होरहा है ।
-----पुरुष तो जो युगों पहले था वही अब भी है । ब्रह्म नहीं बदलता, वह अकर्मा है, अकेला कुछ नहीं है। ब्रह्म का मायायुक्त रूप, पुरुष जीवरूप तो नारीरूपी पूर्ण स्त्रीत्व-भाव से ही बदलता है, धनात्मकता, पुरुषत्व शमित होता है, उसका अह्म-क्षीण होता है, शान्त-शीतल होता है, क्योंकि उसमें भी स्त्रीत्व-भाव सम्मिलित है।
--------परन्तु स्त्री आज अपने स्त्रीत्व को छोडकर पुरुषत्व की ओर बढ रही है। आचार्य रज़नीश (ओशो)- का कथन है कि-
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" ’यदि स्त्री, पुरुष जैसा होने की चेष्टा करेगी तो जगत में जो भी मूल्यवान तत्व है वह खोजायगा ।"
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----------हम बडे प्रसन्न हो रहे हैं कि लडकियां, लडकों की भांति आगे बढ रही है। माता-पिता बडे गर्व से कह रहे हैं कि हम लडके–लडकियों में कोई भेद नही करते खाने, पहनने, घूमने, शिक्षा सभी मैं बराबरी कर रही हैं, जो क्षेत्र अब तक लडकों के, पुरुषों के माने जाते थे उनमें लडकियां नाम कमा रही है।
----------परन्तु क्या लडकियां स्त्री-सुलभ कार्य, आचरण-व्यवहार कर रही हैं? मूल भेद तो है ही...सृष्टि महाकाव्य में कहा गया है ....
' भेद बना है, बना रहेगा,
भेद-भाव व्यवहार नहीं हो | '

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-------------क्या आज की शिक्षा उन्हें नारीत्व की शिक्षा दे रही है? आज सारी शिक्षा-व्यवस्था तथा समाज भी भौतिकता के अज्ञान में फ़ंसकर लडकियों को लड़का बनने दे रहा है।
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-------यदि स्त्री स्वयं ही पुरुषत्व व पुरुष-भाव की आक्रमकता, अहं-भाव, धनात्मक्ता ग्रहण करलेगी तो उसका सहज़ ऋणात्मक-भाव, उसका कृतित्व, उसका आकर्षण समाप्त हो जायगा। वह पुरुष की अह्मन्यता, धनात्मकता को कैसे शमन करेगी?
-----पुरुष-पुरुष अहं का टकराव विसन्गतियों को जन्म देगा। नारी के स्त्रीत्व की हानि से उसके आकर्षणहीन होने से वह सिर्फ़ भोग-उपभोग की बस्तु बनकर रह् जायगी ।
-------पुरुषों के साथ-साथ चलना, उनके कन्धे से कन्धा मिला कर चलना एक पृथक बात है आवश्यक भी है परन्तु लडकों जैसा बनना, व्यवहार, जीवनचर्या एक पृथक बात। ---------आज नारी को आवश्यकता शिक्षा की है, साक्षरता की है, उचित ज्ञान की है। आवश्यकता स्त्री-पुरुष समता की है, समानता की नहीं, स्त्रियोचित ज्ञान, व्यवहार जीवनचर्या त्यागकर पुरुषोचित कर्म व व्यवहार की नहीं…..।



 

रविवार, 16 अप्रैल 2017

अगीत - त्रयी...---- भाग छः ------------श्री जगत नारायण पांडे---डा श्याम गुप्त ..

....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...


अगीत - त्रयी...---- भाग छः ------------श्री जगत नारायण पांडे----
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--------अगीत कविता विधा के तीन स्तम्भ कवियों के परिचय साहित्यिक परिचय एवं रचनाओं का परिचय ---
अगीत कवि कुलगुरु साहित्यभूषण डा रंगनाथ मिश्र सत्य
महाकवि श्री जगत नारायण पांडे
महाकवि डा श्याम गुप्त-
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श्री जगत नारायण पांडे के कुछ अगीत -----
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----- अगीत छंद----
१.
लिखता हूँ कविता
आखिर मैं किसलिए,
उत्तर दिया मन ने
अपने ही मन के लिए |
सत्य ने कहा रंग को
बिखरने दो जगत में
सार्थक होजायगी
तभी तेरी कविता |
२.
भूल गया अपना नाम
धुंए और शोर से
प्रदूषण के दूषण से
उड़ नहीं पाता हीरामन
घायल हैं पंख
रुंधा है कंठ
कैसे बोले राम राम |
३.
झुरमुट के कोने में
कमर का दर्द लपेटे
दाने बीनती परछाईं |
जमाना ढूंढ रहा है
खुद को किसी ढेर में |
४.
साधन और संकल्प
अन्योन्याश्रित हैं |
छूट गया अगर साथ
मलते रहेंगे हाथ,
धरे रह जायेंगे फिर
अंधेर में अरमान सब
सुलगने के लिए बस |

५.
काल की लहरों पर
मिलते बिछुड़ते रहे
प्रश्नों ने मांगे जब
उत्तर हम देते रहे
उत्तर न पा सके
अपने ही प्रश्न मगर |
६.
गिरेबां चमन के
होगये चाक
खिजाँ से आशना हुए
रहगुजर का निजाम है
दस्तो-पा खून आलूद हैं
मायूस है दिल गम से
कातिल का नाम पर हम न लेंगे |
७.
मात्र एक अहंकार
देता है जन्म विवेकहीनता को,
शून्य हो जाती है
अपनी पहचान, और-
विलीन होजाता है
सत्य का आकार |
८.
अक्षर और शब्द
गूंगे नहीं होते हैं !
कला आती नहीं
सामर्थ्य भी है नहीं
शब्दकोश केवल
पलटते रह जायेंगे !
अनुभव की कसौटी
रचती है नया कोश
रहता नहीं निरर्थक कोई शब्द |

९.
प्रथम रश्मि का आँचल
मृदुल पवन की लहर
तुहिन के मुक्ताकण
पल्लवों पर ठिठककर
गतिमान कर देते हैं
कवि की कल्पना के
प्राणों को अविरल |
१०.
कर रहे हो हत्या तुम
कन्या के भ्रूण की !
कर रहे हो पाप, छीन कर जीवन
भविष्य की मां का तुम |
जन्म देगा कौन फिर
अवतारों पैगम्बरों को
अवरुद्ध कर रहे क्यों
भविष्य की गति को तुम |
११.
उंच और नीच, दलित और पीड़ित
सबका है योगदान
राष्ट्र की प्रगति में
भूलें ये कभी न हम |
समरसता बंधुत्व से
सिंचित कर राष्ट्र को
उगाते रहें सदा
प्रगति के बीज |
१२.
आदिम युग में जाने क्यों
जी रहा है आज भी
सभी समाज यह
करके पैने नाखून
धंसा रहा है सीने में
इंसानियत के
क्यों आखिर ?
१३.
एक क्षितिज पर
उगता है सूरज
और डूब जाता है
दूसरे क्षितिज पर |
देखा नहीं कभी उसे चलते हुए
अपनी राह भटक कर |
१४.
क्या होगा आखिर
फूलों का, बहारों का
चांदनी का, हवाओं का
खुशनुमा नजारों का
मोती भी शबनमी,
सूख सब जायंगे
जलती रही धरती अगर
सूनी होजायगी
कलम की माँग फिर|
१५.
लूट में बंदी युवक से मैंने कहा,
’शक्ति यह-लगाओ देश की रक्षा में ‘
नेताओं की कृपा से-
लूटमार करके मैं
करता हूँ ऐश, फिर-
फ़ायदा क्या है भला
सीमा पर खून बहाने से ,
बोला वह धीमे से |
\
----गतिमय सप्तपदी अगीत छंद ---
. ..(महाकाव्य सौमित्र गुणाकर से)
१६.
चला जारहा मानव ऊपर
चिंता नहीं धरा की किंचित
भाग रहा है अपने से ही
संग निराशा की गठरी ले |
पंथ प्रकाशित हो संयम का
दे वरदान ज्योति का हे मां !
करून वन्दना रामानुज की | ..
१७.
गणनायक की कृपादृष्टि से
मां वाणी ने दिया सहारा
खुले कपट बुद्धि के जब, तब,
हुए शब्द-अक्षर संयोजितफ
पाई शक्ति लेखनी ने, फिर |
रामानुज की विमल कथा का
प्रणयन है अगीत शैली में |
१८.
स्रोत सृष्टि के लगे सूखने
सुख के सब आधार मिट गए |
लोभ मोह मद काम क्रोध की
महिमा का विस्तार होगया
ह्रास होगया सत्संगति का
क्षीण हुए सामाजिक बंधन
असंतुलन होगया सृष्टि का |....
१९.
सुनकर धनुष यज्ञ की चर्चा
विश्वामित्र होगये पुलकित |
राम लक्ष्मण को प्रेरित कर
जागृत की उत्कंठा मन में ,
धनुष यज्ञ दर्शन करने की |
अनुज सहित प्रभु की सहमति पा
चले साथ मुनिवर मिथिला को |
२०.
किया सुदृड़ भूतल लक्ष्मण ने
लेपन करके मृदा भित्ति पर |
भिन्न भिन्न पुष्पों के रंग से
रचना की सुन्दर चित्रों की |
प्रभु की पर्णकुटी से हटकर
था विशाल वटबृक्ष अवस्थित
स्वयं व्यवस्थित हुए वहां पर |
\
. .. खंड काव्य – मोह और पश्चाताप से -----
२१.
छुब्ध होरहा है हर मानव
पनप रहा है वैर निरंतर |
राम और शिव के अभाव में
विकल होरहीं मर्यादाएं ,
व्याप्त होरहा विष चन्दन में |
पीडाएं हर सकूं जगत की
ज्ञान मुझे दो प्रभु प्रणयन का |
२२.
काम क्रोध मद लोभ मोह सब
भाव बंधन के करक है बस,
ऋषि मुनि देव असुर औ मानव
माया से बच सका न कोइ
पश्चाताप शरण प्रभु की, है
मार्ग मुक्ति का हर कल्मष से
हो जाता अंतर्मन निर्मल |
२३.
नारद विष्णु भक्त थे ज्ञानी
काम विजय से उपज मोह ने
काम-क्रोध ने अहंकार ने
निरत लोक-कल्याण भक्त को
विचलित किया पंथ से, लेकिन
शाप भोग कर श्री हरि ने फिर
किया निवारण उनके भ्रम को |
२४.
सीता के प्रति चिंता को फिर
व्यक्त किया शबरी से प्रभु ने
बोली,’ अधमाधम नारी को
दर्शन देकर धन्य किया है
आगे ऋष्यमूक पर्वत पर
प्रभु ! हनुमान ,सुकंठ मिलेंगे
देंगे वह सहयोग आपको |
२५.
अहंकार का नाश होगया
नष्ट हुआ असुरों का संकुल
स्थिर हुआ शान्ति का शासन
हुए प्रसन्न संतगण, मुनिजन
होने लगे यज्ञ निष्कंटक
राम राज्य के शुभारम्भ की
शंखध्वनि गूंजी लंका में |
\
-----नवअगीत छंद ( अगीतिका से )-----
२६.
अँधेरे में छिपा लेते हैं पाप
दिन में पर रखते हैं
चेहरा ,
हर दम साफ़ |
२७.
सब के सब टूट गए
निष्ठा के प्रतिमान
जीवित संबंधों के
तटबंध डूब गए
स्रोत संकल्पों के रीत गए |
२८.
सिद्धांत का अभाव
डराता है सत्य को
यही है –
सत्ता का स्वभाव |

२९.
संकल्प ले चुके हम
पोलियो मुक्त जीवन का |
धर्म और आतंक के
विष से मुक्ति का
संकल्प भी तो लें हम |
३०.
बैठा था पनघट पर
अधूरी प्यास लिए
अतृप्त मन का
कर दिया तर्पण
नयनों ने छलककर |
--------क्रमश भाग सात---- महाकवि डा श्याम गुप्त .....

शनिवार, 15 अप्रैल 2017

पुनर्मूषकोभव --आलेख --स्त्री-पुरुष विमर्श ---- डा श्याम गुप्त

                             ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...


------पुनर्मूषकोभव --आलेख --स्त्री-पुरुष विमर्श ----

------मैं अपने मित्रों से जब कभी भी अपना यह विचित्र सा लगने वाला मत या तर्क प्रस्तुत करता हूँ कि--
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-- ‘आज की विभिन्न सामाजिक व नारी-पुरुष समस्याओं का कारण स्त्रियों का घर से बाहर निकल कर सेवा कार्य में लिप्त होजाना है ‘..---
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-----.तो तुरंत मुझे तीब्र प्रतिक्रियाओं का सामना करना पड़ता है ...’आपके विचार पुरानपंथी हैं’...एसा भी कहीं होता है....अपने विचार बदलिए....आधुनिक विचार रखिये....अब स्त्रियाँ स्वतंत्र होचुकी हैं....वे क्यों न नौकरी अदि कार्य करें ?..पुराने शास्त्रों का ज़माना गया, आजके युग में उनका कोइ अर्थ नहीं ...और विभिन्न रटे हुए तर्क- क्या पुराने समय में ये सब नहीं होता था राम को दशरथ/ माँ में निकाल दिया, भाई-भाई में युद्द्ध नहीं हुआ था क्या आदि आदि ..|
---------क्योंकि सभी की बहू-बेटियाँ सेवाकार्यों अर्थात कमाने में ..आफिस कार्यों में संलग्न हैं, अत: वे सामान्यतः... सभी यही कर रहे हैं...आजकल ये आधुनिक समय का चलन है...हम आगे बढ़ रहे हैं ...आदि प्रारम्भिक विचारों से आगे सोच ही नही पाते |
------इस विषय को कुछ और स्पष्ट करने हेतु कुछ तथ्यों को हम निम्न क्रम में प्रस्तुत करेंगे----
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१. जब मानव –आदि रूप में जंगल में रहता था, नर-नारी दोनों ही स्वतंत्र थे, अपने अपने लिए शिकार करते या फल एकत्र करते थे | कुछ आदि मानव झुंडों, समूहों में भी रहते थे , परन्तु सभी नर-नारी स्वतंत्र थे उन्मुक्त सेक्स था अन्य प्राणियों की भांति| न कोइ द्वंद्व न शिकवा-शिकायत |युगों तक यह चलता रहा |
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२.
-----जब मानव पर्वतों की गुफाओं, पेड़ों, से उतर कर झौपडियों / घरों में रहने लगा, कृषि व अन्य आर्थिक तत्वों का विकास हुआ, समाज, संस्कृति, ग्रामों-नगरों आदि का विकास होने लगा तो परिवार व्यवस्था प्रारम्भ हुई, तो संतति सुरक्षा हेतु नारी ने सायं ही गृहकार्य को प्राथमिकता दी और पुरुष ने घर चलाने, पालन पोषण का भार स्वीकार किया|
-------अब केवल पुरुष कमाता था , बाहर जाकर कार्य, सेवा, नौकरी आदि करता था | स्त्रियाँ गृहकार्य, संतति पालन-पोषण, पुरुष की आवश्यकताओं का ध्यान रखना , पढ़ने पढ़ाने , कला, साहित्य आदि कर्म में निरत थीं | कुछ स्त्रियाँ किसी मजबूरी वश सेवा कर्म करती थीं परन्तु दासी कर्म आदि जिसे अधिक सम्मान से नहीं देखा जाता था |
-------गृहकार्य आदि से निवृत्त पुरुष ने बड़े बड़े विचार, ज्ञान, सामाजिक नियम आदि पर सोचा एवं वेद-पुराण –शास्त्र आदि का प्रणयन किया| नीति नियम , व्यवहार के ,आचरण के तत्व स्थापित किये, विवाह संस्था का उदय हुआ, स्त्री-पुरुष दोनों के लियी आचार संहिता बनी | समाज में स्थायित्व, समता व आदर्श व्यवस्था थी, स्त्री-पुरुष, पति-पत्नी बनकर अपने अपने कार्यों में संतुष्ट रहकर जीवन व्यतीत करते थे |
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३. आज के युग में पुनः स्त्री स्त्री-स्वतंत्रता के नाम पर, घर से बाहर निकालकर, सेवाकार्य में रत रहकर , स्वतंत्र नौकरी व आय के साधन प्राप्त करके, पुरुषों की बराबरी के नाम पर अपने स्त्रियोचित गुण व कर्तव्यों का बलिदान , पुरुषों के कार्यों को अपने कन्धों पर ले रही है, एवं पुरुष पालन-पोषण हेतु नौकरी के साथ साथ गृह कार्य में भी बराबरी के रूप में हिस्सा बंटा रहा है |
--------अर्थात दोनों स्वतंत्र हैं—दोनों अपने अपने लिए कमाते हैं, दोनों ही घर का कार्य, संतति पालन पोषण का कार्य करते हैं| स्त्री अपने घर के कार्य की अपेक्षा पर-दास्य कर्म को अदिक महत्ता दे रही है| अर्थात प्रारम्भिक --डिविज़न ऑफ़ लेवर—जो संतान के हित में बनाया गया था समाप्त है| दोनों पति-पत्नी केवल सेक्स / बच्चे के लिए मिलते हैं| इससे आगे बढकर वह भी आवश्यक नहीं है व सब कहीं से भी प्राप्त किया जा सकता है |
------अर्थात नारी नारी न रहकर, पुरुष पुरुष न रहकर दोनों – पुरुष + नारी बनते जारहे हैं| पुरुष का पौरुष, नारी की स्वाभाविक स्त्रीत्व सौम्यता समाप्त होकर पुनः जंगल-युग के आदि मानव की भांति केवल प्राणी-मानव रह गया है | पुनर्मूषकोभव |
------ हम पुनः वहीं आगये हैं जहां से चले थे | जिसका परिणाम है कि जिस प्रकार पश्चिमी सभ्यता में स्त्री-पुरुषों में समन्वय न होने के कारण पुरुषों के भी सामान्य भौतिक कर्मों में लिप्त होने से कभी, कोइ कहीं वेद, शास्त्र, पुराण नहीं लिखे गए |
-------आज यहाँ भी पुरुषों के घरेलू कार्यों में लिप्त होने से कोइ उच्च विचार, अपने स्वयं के विचारों , सामाजिक, सांस्कृतिक, मानवीय आचरण के सद-विचारों का उदय नहीं होपारहा है | हाँ पश्चिम की सभ्यता की नक़ल से काम चलाया जा रहा है| यूं तो लोग खुश भी हैं, अज्ञानजनित प्रसन्नता से |

 

शुक्रवार, 14 अप्रैल 2017

अगीत - त्रयी...---- भाग पांच ------------श्री जगत नारायण पांडे---- डा श्याम गुप्त

                              ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...



अगीत - त्रयी...---- भाग पांच ------------श्री जगत नारायण पांडे----
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--------अगीत कविता विधा के तीन स्तम्भ कवियों के परिचय साहित्यिक परिचय एवं रचनाओं का परिचय ---
अगीत कवि कुलगुरु डा रंगनाथ मिश्र सत्य
महाकवि श्री जगत नारायण पांडे
महाकवि डा श्याम गुप्त-


महाकवि श्री जगत नारायण पांडे
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वक्तव्य ..
“अहंकार की संतुष्टि न होने से संशय, भ्रम, लोभ मोहादि का जन्म होता है जिनकी पूर्ति न होने से क्रोध होता है जो अंततः विनाश का कारण बनता है | अहंकारजन्य विकार अनुशासन, सामाजिक-समरसता और लोक मंगल को नष्ट करते हैं और सृष्टि का संतुलन बिगड़ जाता है |”
“संस्कृत छंद अतुकांत होते हुए भी लय एवं गेयता से पूर्ण होते हैं | अगीत, अतुकांत, तुकांत एवं अगेय अथवा लयबद्ध एवं गेय होते हैं|”
"अगीत पांच से दस पंक्तियों के बीच अपने आकार को ग्रहण करके भावगत-तथ्य को सम्पूर्णता से प्रेषित करता है|”
|
जीवन परिचय....
साहित्य की प्रत्येक विधा ...गद्य-पद्य, गीत-अगीत, छंद-ग़ज़ल सभी में समान रूप से सिद्धहस्त एवं रचनारत तथा कविता की अगीत-विधा के गति-प्रदायक महाकवि श्री जगत नारायण पांडे का जन्म लखनऊ के कान्यकुब्ज परवार में सं. १९३३ में हुआ| कुछ अपरिहार्य कारणों से आपकी शिक्षा-दीक्षा बिलम्ब से प्रारम्भ हुई| आलमबाग, लखनऊ के अमरूदही बाग़ मोहल्ले में घर के समीप ही प्राइमरी स्कूल से आपने चहर्रुम तक शिक्षा पाई परन्तु उर्दू में भी ज्ञान प्राप्त कर लिया | स्कूल के हेडमास्टर श्री वृन्दाबख्स ने उनकी लगन देख कर उन्हें अंग्रेज़ी की शिक्षा देकर ‘कान्यकुब्ज कालेज में दाखिले योग्य बनादिया| जहां से आपने हाईस्कूल व इंटर की परीक्षा पास की | वे अपने पिता के साथ रामायण की मंडली में रामायण पाठ, भजन-कीर्तन भी किया करते थे, जिसने उन्हें देवी-देवताओं के प्रति भक्ति भावना प्रधान बना दिया| इसी परिवेश के चलते उन्होंने बी ऐ, एल एल बी तक शिक्षा प्राप्त की | कालिज की हिंदी गतिविधियों में वे बराबर भाग लेते रहे|
.
आपका विवाह सीतापुर निवासी स्व. शिवनारायण मिश्र की की पुत्री मालती से हुआ | आपके चार संताने हैं बड़े पुत्र विजय का व्यवसाय है, छोटे पुत्र केशव पांडे एम् ऐ एल एल बी,एडवोकेट है व तीसरे पुत्र राजीव जेसी आईएसएफ़ में इन्स्पेक्टर हैं| सबसे बड़ी पुत्री हैं जो बीऐ हैं एवं उनका विवाह डा रमेश चन्द्र शर्मा से हुआ है|
अधिवक्ता के रूप में आप दीवानी व फौजदारी के मुकदमों में निष्णात थे एवं अन्य अधिवक्ता भी उनसे परामर्श लेते थे| न्यायालय में होने वाले सांस्कृतिक कार्यों में उनका योगदान रहता था| आप विधिक सेवा प्राधिकरण के मानद सदस्य भी रहे| ऐसी महान विधिक व साहित्यिक विभूति महाकवि पं .जगत नारायण पांडे १६ फरवरी २००७ ई. को भगवदधाम प्रयाण कर गए |
|
साहित्यिक परिचय—
आपकी साहित्यिक यात्रा का सूत्रपात कालिज के दिनों से ही होचुका था| तत्पश्चात वकालत के व्यवसाय के साथ साथ ही वे काव्यसाधना में भी रत रहे| हिन्दी, अंग्रीजी, उर्दू पर उनका अच्छा अधिकार था एवं संस्कृत भाषा का भी अच्छा ज्ञान था| काव्य की हर विधा-- गद्य-पद्य, गीत अगीत, छंद , हाइकू ,ग़ज़ल, मुक्तक, संतुलित कहानियां, व्यंग्य आलेख आदि पर उनका समानाधिकार था| देश की विभिन्न पात्र-पत्रिकाओं में उनकी रचनाएँ प्रकाशन के अतिरिक्त ,आकाशवाणी से काव्यपाठ के अतिरिक्त दूरदर्शन पर पत्रोत्तर कार्यक्रम को भी स्थान दिया गया | लगभग २० काव्य-कृतियों की भूमिकाएं भी उन्होंने लिखी है जिनमें श्री वीरेन्द्र अंशुमाली की ‘तात्याटोपे’ मधुकर अस्थाना की ‘वक्त आदमखोर’, डा योगेश गुप्ता की कृति’ अंतर-क्षितिज’ एवं महाकवि डा श्याम गुप्त के अगीत महाकाव्य ‘सृष्टि’ व अतुकांत काव्यसंग्रह ‘काव्य-मुक्तामृत‘ उल्लेखनीय हैं |
अगीत काव्य विधा को उन्होंने पूरे मनोयोग से अपनाया एवं निखारने व गति प्रदान करने में अतुलनीय सहयोग दिया| अगीत विधा में अगीत के नवीन छंद गतिमय सप्तपदी अगीत की रचना की जिसमें आपने प्रथम खंडकाव्य ‘मोह व पश्चाताप’ एवं प्रथम महाकाव्य ‘सौमित्र गुणाकर‘ की रचना करके आपने अगीत-विधा को निखारने एवं अग्रगामी होने में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई| आपके ३३१ अगीतों का संग्रह ‘अगीतिका’ भी प्रकाशित है| शिव-पार्वती विवाह के विषय पर सवैया व बरवै छंदों में आपने ‘इदम शिवाय’ कृति की भी रचना की है|
पता--५६५/१०, अम्ररूदही बाग़,
आलमबाग ,लखनऊ
              .क्रमश ---भाग छः ---श्री जगत नारायण पांडे के कुछ अगीत ...
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