ब्लॉग आर्काइव

डा श्याम गुप्त का ब्लोग...

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Lucknow, UP, India
एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं... काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद .. my blogs-- 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति... 2.drsbg.wordpres.com, 3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त

रविवार, 31 मई 2009

ब्लोग पर टिप्पणियों कीव्यथा- गाथा

टिप्पणियां स्वयम में बहुतउदास व  व्यथित हें कि, सभी ्ब्लोगर उन्हें, शायरी,राज्नीतिक, तीखे-व्यन्गात्मक ,चुटीले ब्लोगों पर ही अधिकतर  भेज रहे हैं,,पर गम्भीर,नीति परक, विवेचनात्मक, ग्यान, अध्यात्म,सामाजिक महत्व  आदिके विषयों के मन्च की सुखानुभूति नहीं करा रहे?????????????????????????????????????

शनिवार, 30 मई 2009

स्त्रियों से भेद भाव-

नन्ही परी लगेगी कूल ओर बिन्दास,बेबी बालों को स्ताइलिश लूक,फ़ेशन ओर ्स्टाइल,्ड्रेस, मेकप से फ़ायदा मिलता है जबर्दस्त,सज-संवर कर जायें इन्टर्व्यु  में,सुन्दर लड्की देख कर लोग आकर्शित होजाते हैं,  बच्चों के लिये सुन्दर डिज़्नी फ़ेन, -- नच्कैयाओं,हीरो हीरोइनों को सेलिब्रि्टी की तरह से पेश करना , ्पावर कपल्स पर रोज-रोज अतिरन्ज़ित बर्णन ( चाहे दूसरे रो्ज़ वे तलाक लेरहे हों)---आखिर ये हमें कहा ले जायगा?  
     वहीं, जहां हम चले जारहे हैं--सिविल सेवा में भी है स्त्रिओं से भेद भाव,, जैसी समाचारॊं की सुर्खियां तो यही कहतीं है,,यदि हम बचपन से ही यह सब देखते, सुनते ,महिमा मन्डित होते , पढते रहेंगे तो सिविल सेवा में भी वही न र-नारी होते हैं, लिन्ग भेद ,अहं, हीन भावना देखने को तो मिलेगी ही--वो हम से आगे क्यों?, चाहे पुरुश हो या नारी,, ये भागम भाग व ,प्रतियोगिता की बात है, पुरुश-पुरुश भेद भाव दिखता नहीं, जबकि महिला भेद भाव तुरन्त  प्रकाश में ला दिया जाता है।
        स्त्री विमर्श-पुरुष विमर्श, स्त्री या पुरुष प्रधान समाज़ नहीं ,,मानव प्रधान समाज़, मानव-मानव विमर्श की बात करें। बराबरी की नहीं, युक्त-युक्त उपयुक्तता के आदर  की बात हो तो बात बने।
           

बुधवार, 27 मई 2009

नारद पुराण--आदि सम्वाद दाता -का प्रथ्वी भ्रमण

आदि सम्वाद दाता नारद जी ने ,
प्रिथ्वी- भ्रमण का मन बनाया;
देखें कहां तक उन्नत हुई है ,
मेरी सम्वाद -प्रसार की विध्या-माया।
मेरे शिष्य,कार्य को कैसे आगे बढा रहे हैं;
ओर कैसे मेरे नाम का डन्का 
प्रथ्वी पर भी बज़ा रहे हैं।

कवि वेष में, वे अख्बार के दफ़्तर में आये, बोले-
नारद पुराण लिखा है, समीक्षा छपवानी है ।
सम्पादक जी बोले-
ये तो बडी पुरानी कहानी है, आज कि हिट हीरोइन तो रानी है ।
लोग कहेंगे , हम पुराण पन्थी हैं,
लोगों को भटकाते हैं;
कवि जी, हम तो धर्म निरपेक्ष कहलाते हैं ।
कोई ्धासूं, मार धाड ,लूट, बलात्कार,
हत्या,चोरी,पर्दाफ़ास या साक्षात्कार,
की खबर हो तो लाओ;
किसी हीरो-हीरोइन का रोमान्स लडवाओ,
अरे! अमिताभ पुराण या कैटरीना उवाच लिखा हो तो लाओ।
नारद जी सकपकाये,
तभी मुख्य सम्पादक जी,गुस्से से भुन भुनाते हुए आये,
सम्पादक पर झल्लाये, चिल्लाये;-
मूर्ख मेरा अखवार बन्द कराना चाहता है,
जिस पार्टी के चन्दे से चलता है,
उसी की आलोचना छापता है।

विचित्र पुरी में, काव्य -लोकार्पण समारोह था;
एक रिपो्टर सीट पर बैठा सो रहा था।
नारद जी ने पूछा- पत्रकार जी,ये क्या कर रहे हैं?
वे बोले- जी, रिपोर्टर जी तो हज़ारा श्री के ,
मच्च्छर मार अगरबत्ती के लान्चिन्ग पर आयोजित,
पन्चतारा होटल में काक टेल डिनर पर गये हैं  ।
में तो दैनिक भोगी फ़ोटोग्राफ़र हूं,
मुझसे कह गये हैं कि एक दो फ़ोटो खींच लाना,
समाचार तो बन ही गये हैं।

रामायण पाठ में,टी.वी. रिपोर्टर पधारे,कहने लगे-
जल्दी से लिख कर दे दें,
 यहां किस किस को क्या -क्या पढना-गाना है;
हमें तो मुख्यमन्त्रीका चुनाव भाषण ,
कवर करने जाना है  ।

नारद जी मायूस होकर,
नारायण-नारायण बडबडाये,
जिग्या्सा पूर्ति हेतु, शी्घ्र ही,
विष्णु धाम सिधाये॥

मंगलवार, 26 मई 2009

जब-जब सांझ ढले....


सांध्य गीत

जब -जब सांझ ढले ,
आजाती है याद तुम्हारी ,
मन इक स्वप्न पले....

खगकुल लौट के अपने अपने ,
नीड़को आते हैं ,
तरु शिखरों से ,इक दूजे को ,
गीत सुनाते है ।
तुलसी चौरे पर जब जब ,
वो संध्या दीप जले..... । ...आजाती है याद.....

मन्दिर के घंटों की स्वर ध्वनि ,
अनहद नाद सुनाये ।
गौधूली वेला में घर को ,
लौटी गाय रंभायें ।
चन्दा उगे क्षितिज के ऊपर
सूरज उधर ढले । ....जब जब ...

गाँवों में चौपालों पर और ,
शहर में चौराहों पर।
चख-चख चर्चाएँ चलतीं है ,
छत,पनघट ,राहों पर ।
चाँद -चकोरी ,नैन डोर की ,
चुप-चुप रीति चले।
..आजाती है याद तुम्हारी ,
...मन इक स्वप्न पले ।

कर्म का व्यवहारिक पक्ष

धर्म ,नेतिकता,व्यवहार ,कर्म का वास्तविक रूप क्या है ? जब अनिश्चयात्मकता , अनिर्णयता ,द्वंद्व ,-मन को घेरते हैं तो किस प्रकार निर्णय हो , अर्जुन की भांति कृष्ण आपके साथ न हों तब ?
इस बारे में भारतीय वांग्मय में बार-बार एक सूत्र आता है--""सत्यम ,शिवम् सुन्दरम "" , वस्तुत प्रत्येक कर्म ,वस्तु ,व्यवहार ,भाव के लिए यह एक महासूत्र है । प्रत्येक को इसीकी कसौटी पर रख कर देखना चाहिए। उदाहरण स्वरुप --
१.-कविता के लिए ---सत्य =ज्ञान का अनुशासन,संचय व वर्धन
----शिव =जीवन मूल्य ,युग निर्माण ,सामाजिक सरोकार
----सुंदर =जन रंज़न ,सुखानंद से ब्रह्मानंद -----अन्यथा कविता व्यर्थ ही होगी।
२.-मज़दूर के लिए ---सत्य =धन प्राप्ति
----शिव =ईमानदारी से ,श्रम से प्राप्त धन ही लेना चाहिए
----सुंदर =शरीर ,मन ,बल व आवश्यकता के अनुरूप जिसमें सुख प्राप्त हो वह कार्य करना । ३.-मकान बनाना या खरीदारी के लिये ---सत्य =आपके पास कितना धन है
----शिव = कितना स्थान ,कमरे या खरीद की आवश्यकता है ,स्थान ,पास-पड़ोस अच्छा है ,हवा,धूप, पानी की व्यवस्था ,ख़रीदी बस्तु प्रयोग होगी ्भी या सिर्फ़ कलेक्सन है।
-----सुंदर =एलीवेशन ,सामने से देखने में सुंदर ,आलिशान ,,बस्तु वास्तव में देखने में ,प्रयोग कराने में भी सुंदर है।
जीवन के पत्येक निर्णय में यही क्रम होना चाहिए।
--------------यहाँ यह भी महत्त्व पूर्ण है की --सत्य पहले है ,सुंदर अंत में , यदि किसी चयन की स्थिति हो तो उसी क्रम में चयन हो ।

सोमवार, 25 मई 2009

एक आधुनिक श्रृंगारी पद-- आधुनिका

सखी तेरी अनुपम छवि वारी ।
एक हाथ मोबाइल भाये , दूजे पर्स सुखारी ।
पल छिन-पल छिन बजे सखीरी विविध टोन मनहारी ।
यस ओके -यस ओके ,बाई , के स्वर अति सुखकारी ।
ऊंची एडी की सेंडल में केट -वाक् अति प्यारी।
भीनी भीनी सी बिखराए , सेंटकी खुशबू न्यारी।
नैनन चश्मा रूप निखारे ,श्याम ह्रदय बलिहारी ॥

शनिवार, 23 मई 2009

एक अफ़्साने में नेहरू की ह्कीकत-- हि.समा.

राम चन्द्र गुहा को अचानक नेहरू जी याद कैसे आगये? इसे कहिये वक्त ी नव्ज़ पकडना ।एक अन्ग्रेज़ी पुराना उपन्यास--में ये पढ कर समझ में आता है ्कि सारा  उपन्यास एक बात कहने के लिये लिखा गया है कि--अन्ग्रेज़ ही भारतअच्छी चीज़ें छोड गये थे(भारत तो तब भी अनपढ ,ज़ाहिल था ,अब भी है व रहेगा अगर हिन्दू की ज़िद पर अडा रहा तो ) जिन के बल पर भारत ,नेहरू,व सर्कार ठीक काम कर रही थी,व कर सकती है, जो हें--लोक्तन्त्र,ब्रिटिश शाशन प्रणाली,अभिव्यक्ति ओर धर्म की स्वतन्त्रता ,औरतों की आज़ादी,देश भक्ति(जैसे भारत तो इन से सदैव अन्जान ी है ओर ये अन्गरेज़ों की ईज़ाद हें) ---यह बात गुहा जैसे लोगों के दिमाग में नहीं आयेगी--अन्ग्रेज़ी  चश्मे के कारण।--अन्ग्रेजों व अन्गरेज़ी  केप्रचार का ठेका जो्ले रखा हे.। अपने मुंह मियां -मिट्ठू ??  
      वही हाव-भाव क्या अब भी जोर-शोर से नहीं चलरहे?
  ये ग्यान (या अग्यान) की पराकाष्ठा है ।

शुक्रवार, 22 मई 2009

कैनवास पर कविता

हिन्दी संस्थान, लखनऊ में जिन ,तथाकथित प्रसिद्ध चित्रकारों के चित्र हिन्दुस्तान अखवार ने दिए हैं ,निश्चय के साथ कहा जा सकता है किचारों चित्रों-पेंटिंग्स को किसी कवि को दिखाया जाय तो वह इन से सम्बब्धित इन कविताओं को किसी तरह से याद नहीं कर पायेगा। चित्रों व कविताओं -जिन पर वे बनाए गए हैं-में कोई सम्बन्ध नहीं है। सिर्फ़ पेंटर के अपने मष्तिष्क में व्याख्या से क्या होता है, सामान्य जन यदि सम्बन्ध नही कर पाता तो कला व्यर्थ ही है। जिस मानव के लिए ,कविता व कला है -क्या उसका पेंटिंग में होना आवश्यक नहीं है ? मानव रहित चित्र क्या अर्थ हीन कला नहीं है? क्या आज कल का कोई भी चित्रकार ,राजा रवि वर्मा आदि --जो सदैव मानव के साथ ,मानव से सम्बंधित कलाकृतियाँ सृजित करते थे ---की टक्कर का है? आज कौन सी कलाकृति उस टक्कर की है ? मानव के लिए ,मानव रहित कला का कोई प्रयोजन नहीं। कला कविता के जन से दूर व ह्रास का मुख्य कारण ही कवि व कलाकारों का अपने स्वयम्भू तात्पर्य, संयोजन ,उल्टे-सीधे व्याख्यात्मक व कवि-लेखक --पत्रकार-अखवार-व संस्थानों के अंतर्संबंध ,ताकि व्यर्थ की चित्रकारी ,अनुपयुक्तता को ढंका जा सके,,,आदि -आदि है।
कुछ मनोहारी ,तथ्यात्मक ,मानव के नज़दीक कला व कविता हो तो बात बने ,अन्यथा तो---
"" उष्ट्रानाम लग्न -वेलायाम ,गर्धभा स्तुति पाठका ;
परस्पर प्रशन्शन्ति ,अहो रूप महो ध्वनि ॥ ""

गुरुवार, 21 मई 2009

संस्कृति : दिलों में बसा एक भारत--हिंदु-समा-

अमेरिका में बसे लोग कहरहे हैं किवे दो भाषायें आसानी से बोलते है -हिन्दी,अंग्रेजी। टी शर्त पहनते हैं ,मक्दोनाल्ड में खाते हैं साथ में -रामायण पड़ते हैं ,मन्दिर जाते हैं ,हिन्दी गाने गाते हैं ,अतः अपनी संस्कृति के करीब हैं।
क्या मन्दिर जाना,हिन्दी फिल्में देखना, रामायण पढ़ना ,भारतीयता की निशानी है ?देश को याद कर लेना और अपने धंधे -व्यापार, में मस्त रहना -देश से जुड़े रहना है ?
यह तो वही है---गाँव तो बहुत अच्छा लगता है पर वहाँ ऐ-सी- नहीं है न !, हिन्दुस्तान तो सुंदर है पर वहाँ मोटी तनखा , नहीं है न ! गरमी वहुत है,लोग बनियान पहन कर घूमते हैं, एटीकेट नहीं है न !सिर्फ़ हिन्दी में बोलते हैं , हिन्दू - हिन्दी ,हिन्दुस्तान चिल्लाते रहते हैं , तरक्की नहीं करते।

धृति --धारण ,धैर्य ,धर्म -सम्प्रति रोगी -चिकित्सक व्यवहार सम्बन्ध .

व्यक्ति के सम्मुख -नैतिकता ,यथा - योग्य की समझ व पालन ,मानवीय गुणआदि जब उसका मार्ग दर्शन करने को नहीं होते तो-अति-भौतिकता , होड़ ,विलासप्रियता ,धन आधारित सोच व्यक्ति में अहं की रचना करती है । यह व्यक्ति से समाज में फ़ैल जाती है एवं पुनः चक्रीय व्यवस्थानुसार व्यक्तियों व समस्त समाज को धैर्य के धारण से विमुख कर देती है । यही अधर्म समाज में हर प्रकार की बुराइयां उत्पन्न करता है।
आज हर जगह अस्पतालों में (अन्य स्थानों में भी )इसी धैर्य -धन -धर्म के अभाव के कारण ही हंगामे होते हैं । रोगी व उसके तीमारदारों का अहं कि वह पैसा देता है अतः उसे हर जगह बे रोक टोक जाने देना चाहिए ,२४ घंटे हमें रोगी के पास रहने का अधिकार है। यही बाद में झगडा होने पर ग़लत इलाज़ का बहाना हो जाता है।
चिकित्सा कर्मचारी ,धन कमाने के सोच के कारण रोगी पर उचित ध्यान न देकर तीमारदारों को झगडा के लिए उचित खाद-पानी प्रदान करते हैं ।--- आग है दोनों तरफ़ बराबर लगी हुई।--
अति भौतिक सुख लिप्त हुए नर ,
मद्यपान आदिक बिषयों रत;
कपट, झूठ , छल और दुष्टता ,
के भावों को प्रश्रय देते;
भ्रष्टाचार आतंक बाद में ,
राष्ट्र , समाज लिप्त होजाता।।
--शूर्पनखा काव्य -उपन्यास से

बुधवार, 20 मई 2009

धूल छंटने और शोर घटने के बाद --हि-स-

पुष्पेश पन्त ठीक ही कहते हैं किआज भारत की आधी आबादी १६ से ३० वर्ष की है ,अतः १८ बर्ष से ऊपर के मत दाताओं का असर जवार्दस्त है ,उनकी महत्वाकांक्षाएं ,आशाएं ,अपेक्षाएं ,चिंताएं पुरुखों से भिन्न हैं । नेहरू युग,इंदिरा युग,से उन्हें क्या मतलव ,वे भूमंडली करण व उपभोक्ता वादी संस्कृति से अनुशासित हैं। ,बंधनों ,वर्जनाओं,निषेधों ,परम्परा से मुक्त हैं ,ये करोड़ों युवा मतदाता हिंदुत्व की निक्कारें पहिन लाठी भांजने को तेयार नहीं हैं। वे मोबाइल ,इन्टरनेट वाले लोग हैं । आतंकवाद को,राष्ट्रीय सुरक्षा ,व पूंजीवादी अमेरिका को खलनायक बना कर कोई उन्हें अपना वोट बैंक नही बना सकता ।
यही सत्य है ---आज सिर्फ़ युवा को ही नहीं अपितु अधिकाँश लोगों को ही ---इन सब बातों से कोई मतलव नहीं । उन्हें तो दिखावे की व्यवस्था, उधार की अर्थ व्यवस्था ,अधिक से अधिक धन कमाने व उडाने के रास्ते चाहिए ,चाहे वे किसी भी साधन से आयें । देश प्रेम,राष्ट्रीयता,नैतिकता पौराणिक गाथाएँ ,नीति, धर्म से इन्हें क्या वास्ता ?राम और कृष्ण की नैतिकता से इन्हें क्या वास्ता ,इन्हें तो बद्दी बड़ी नौकरियाँ ,पे पॅकेज चाहिए । जो भी दल,पार्टी,इस असलियत को समझी ,सपने दिखाए ,उसी के पीछे धाये। रही सही कसरहिंदुत्व के विरोधियों ने की जो अपने ही घर के भेदी हैं।क्या इसी कारणपार्कों में कंडोम की मशीनें ,वैश्यावृत्ति व शराब खोरी वाली सड़क का नाम बापू के नाम पर,व कार में ्विवाहिता से दुराचार के समाचार हैं आये दिन, व  मनमोहन सिंह दंगों को भुलाने की बातें कहते हें जबकि अपराधियों को दंड तक नही मिला है।
बस खाते-पीते रहो,खेलते-गाते ,नाचते -हंसते ,कमाते -मस्ती करते रहो ,आगे कौन सोचे। जो सोचे वह पुरातन पंथी व त्याज्य है।

सोमवार, 18 मई 2009

लोकतंत्र व चुनाव परिणाम के अर्थ

'लघु है पर विभु अर्थ बताये ,उसे मन्त्र कहते हैं ,
लघु काया बहु भार उठाये , उसे यंत्र कहते हैं ।
मिलें बीस प्रतिशत 'मत' जिसको उस नेता की -
बन जाए सरकार ,उसी को लोकतंत्र कहते हैं।। "
चुनाव परिणाम कुछ ख़ास दिशा नहीं अपितु जनता की अपने लाभ के प्रति ललक , युवा लोगों की कोई ख़ास दिशा न होकर प्राचीन को नकारना ,अपनी संस्कृति का विरोध ,नवीन के प्रति विना सोचे दौड़ का परिणाम है। विशिष्ट विषय व घटनाओं पर मुस्लिम व दलित वोटों का --जैसा चलरहा है वैसा ही चलता रहे -मध्यम मार्गी अपने स्वार्थवश लाभ --ध्रुवी करण है। पाश्चात्य रंग लिए ,हिन्दी ,हिन्दू,हिन्दुस्तान के विरुद्ध ,ध्रुवी करण है
लोकतंत्र -जनता का राज्य,जनता द्वारा ,जनता के लिए -अर्थात--जनता शासक,जनता चोर ,जनता दोषी,जनता न्यायाधीश ,, तो किसे कौन सज़ा दे ,क्यों दे ?,किसके लिए दे ? कोई किसी के प्रति जिम्मेवार नहीं। अतः जनता को स्वआत्मानुशाशन से नियमन करना ही चाहिए।
राज्य तंत्र --राजा दोषी व जिम्मेवार ,वह प्रजा को दंड देकर नियमित रखता है । जनता राजा के कार्यों पर niyantran - विभिन्न संस्थाए -पंचायत,विद्वत मंडली आदि द्वारा । परन्तु --राजा हो चोरी करे ,न्याय कौन पर जाय ? वाली स्थिती हो तो । अर्थात व्यक्तियों को स्व.नियमन करना पडेगा ।
अर्थात --हर परिस्थिति में व्यक्ति को स्वयं ही सदाचरण ,सद -व्यवहार वाला,कर्तव्य निष्ठ ,ईमान दार होना चाहिए ,हर व्यक्ति को , राज्य पद,अधिकार के पदों पर जो हैं उनका दायित्व अधिक होता है। तथा चाहे लोकतंत्र हो या राज्य तंत्र कोई फर्क नहीं पङता । तंत्र स्वयं में जड़ बस्तु है अच्छा-बुरा उसके गुणनहीं ;अच्छा बुरा जीव ,व्यक्ति होता है। उसे ही अच्छा होना चाहिए सब कुछ ठीक होगा।
यही तो धर्म कहता है। और जिसे हम भूल गए हैं। और यथा स्थित वादी -जैसा हे चलने दो वालों को समर्थन दे रहे हैं।

रविवार, 17 मई 2009

ग़ज़ल

एक छोटी बहरकी ग़ज़ल---

दर्दे-दिल भागये
ज़ख्म रास आगये।

तुमने पुकारा नहीं ,
हमीं पास आगये।

कोई तो बात करो,
मौसमे इश्क आगये।

जब भी ख्वाब आए,
तेरे अक्स आगये।

इवादत की खुदा की,
दिल में आप आगये।।

शुक्रवार, 15 मई 2009

परिवार दिवस पर विशेष --मानवता का पहला परिवार

जब मानव एकाकी था ,सिर्फ़ एक अकेला मानव शायद मनु या आदम ( मनुष्य,आदमी ,मैन) हाथ में एक हथौडानुमा हथियार लिए घूमता रहता था,एक अकेला । एक दिन अचानक घूमते-घूमते उसने एक अपने जैसे ही अन्य आकृति के जानवर ( व्यक्ति) को जाते हुए देखा। उसने छिप कर उसका पीछा किया। चलते -चलते वह आकृति एक गुफा के अन्दर चली गयी। उस मानव ने चुपके से गुफा के अन्दर प्रवेश किया तो देखा की एक उसके जैसा ही मानव बैठा फल आदि खा रहा है। उसकी आहात जानकर अचानक वह आकृति उठी और अपने हाथ के हथौदेनुमा हथियार को उठालिया। अपने जैसे ही आकृति को वह आश्चर्य से देख कर बोली-तुम कौन ? अचानक क्यों घुसे यहाँ ,अगर में हथौडा चलादेता तो ! पहला मानव चारों और देख कर बोला ,अच्छा तुम यहाँ रहते हो । मैं तुमसे अधिक बलशाली हूँ । मैं  भी तुम्हें मार सकता था । यह स्थान भी अधिक सुरक्षित नहीं है। तुम्हारे पास फल भी कम हें ,इसीलिये तुम कम जोर हो . अच्छा अब हम मित्र हैं ,मैंतुम्हें अपनी गुफा दिखाता हूँ।
दूसरा मानव उसकी गुफा देख कर प्रभावित हुआ। प्रसंशापूर्ण निगाहों से देखा . पहले मानंव ने कहा तुम यहाँ ही क्यों न ही n आजाते , मिलकर फल एकत्रित करेंगे और भोजन करे गे . उस
ने ध्यान से देखा, उसका हथौडा भी बहुत बड़ा है,उसकी गुफा भी अधिक बड़ी है ,उसके पास फल आदि भी अधिक मात्रा में एकत्रित हैं , उसने उसकी बाहों की पेशियाँ छू कर देखी ,वो अधिक मांसल ,कठोर थीं ,उसका शरीर भी उससे अधिक बड़ा था। दूसरे मानव ने कुछ सोचा और वह अपने फल आदि उठाकर पहले मानव की गुफा में आगया।
और यह वही प्रथम दिन था जव नारी ( शायद -शतरूपा या कामायिनी की श्रद्धा ) ने स्वेक्षा से पुरूष के साथ सह जीवन स्वीकार किया। यह प्रथम परिवार था। यह सहजीवन था। कोई किसी के आधीन नहीं। नर-नारी स्वयं में स्वच्छंद थे ,जीने ,रहने ,किसी के भी साथ रहने आदि के लिए।अन्य जीवों,पशु-पक्षियों की तरह । ,यद्यपि सिंहों, हंसों आदि उच्च जातियों की भांति प्रायः जीवन पर्यंत एक साथी के साथ ही रहने की मूल प्रवृत्ति तब भी थी अब की तरह,(निम्न जातियाँ ,कुत्ते,बिल्ली आदि की भांति कभी भी किसी के भी साथ नहीं.) और यह युगों तक चलता रहा।
जब संतानोत्पत्ति हुई,यह देखा गया की दोनों साथियों के भोजन इकट्ठा कराने जाने पर अन्य जानवरों आदि की भांति ,उनके बच्चे भी असुरक्षित रह जाते हें। तो किसी एक को घर रहने की आवश्यकता हुई । फल इकट्ठा कराने वाली सभ्यता में शारीरिक बल अधिक महत्वपूर्ण होने से पुरूष ने बाहर का कार्य सम्भाला। क्योंकि नारी स्वभावतः अधिक तीक्ष्ण बुद्धि,सामयिक बुद्धि,व त्वरित निर्णय क्षमता में कुशल थी अतः वह घर का ,परिवार का प्रबंधन कराने लगी। यह नारी -सत्तात्मक समाज की स्थापना थी। पुरूष का कार्य सिर्फ़ भोजन एकत्रित करना ,सुरक्षा व श्रमिक कार्य था। यह भी सहजीवन की ही परिपाटी थी। स्त्री-पुरूष कोई किसी के बंधन में नहीं था,सब अपना जीवन जीने के लिए स्वतंत्र थे। युगों तक यह प्रबंधन चलता रहा, आज भी कहीं कहीं दिखता है।
जब मानव कृषि आदि कार्यों से उन्नत हुआ । घुमक्कड़ ,घुमंतू समाज स्थिर हुआ ,भौतिक उन्नति,मकान,घर,कपडे,मुद्रा आदि का प्रचालन हुआ तो तो पुरूष व्यवशायिक कर्मों में अधिक समर्थ होने लगा ,स्त्री का दायरा घर रहा ,पुरूष के अधिकार बढ़ने लगे ,राजनीति ,धर्म,शास्त्र, आदि पर पुरुषों ने आवश्यक खोजें कीं ,अबंधित शारीरिक व यौन संबंधों के रोगों ,द्वंदों आदि रूप में विकार सम्मुख आने लगे तो नैतिक आचरण ,शुचिता,मर्यादाओं का बिकास हुआ। नारी -मर्यादा -बंधन प्रारंभ हुए। और समाज पुरूष-सत्तात्मक होगया। परन्तु सहजीवन अभी भी था। नारी मंत्री,सलाहकार,सहकार ,विदुषी के रूप में घर में रहते हुए भी स्वतंत्र व्यक्तित्व थी। यस्तु नार्यस्तु पूज्यन्ते ..का भाव रहा। महाकाव्य काल तक यह व्यवस्था चलती रही।
पश्च पौराणिक काल में अत्यधिक भौतिक उन्नति,मानवों के नैतिकता से गिराने के कारण ,धन की महत्ता के कारण सामाजिक -चारित्रिक पतन हुआ ,महिलाओं को पुरूष अहम् द्वारा उनका अधिकार छीना गया ( मुख्यतया ,घर,ज़मीन ,जायदाद ही कारण थे ) और पुरूष नारी का मालिक बन बैठा। आगे की व्यवस्था सब देख ही रहे हैं। इस सब के साथ साथ प्रत्येक युग में-अनाचारी होते ही रहते हैं । हर युग में अच्छाई-बुराई का युद्ध चलता रहता है । तभी राम व कृष्ण जन्म लेते हैं। और ---यदा यदा धर्मस्य --का क्रम होता है। नैतिक लोग नारी का सदैआदर  करते हैं ,बुरे नहीं --अतः बात वही है कि समाज व सिस्टम नहीं ,व्यक्ति ही खराव होकर समाज को ख़राब व बदनाम करता है।

अंतर्राष्ट्रीय फैमिली डे-

आप चाहे कुछ भी कहिये,मानिए ,गाइए ,चिल्लाइये पर युग सत्य यही है कि----

कुछ तुम कहो कुछ हम कहें ,कहती रहे ये ज़िंदगी ,
कुछ तुम सुनो कुछ हम सुनें ,सुनती रहे ये ज़िंदगी।

कुछ तुम झुको ,कुछ हम झुकें ,चलती रहे ये ज़िंदगी
बहकें जो साथ साथ तो , ढलती रहे ये ज़िंदगी ॥
और
कहानी हमारी तुम्हारी न होती ,
न ये गीत होते ,न संगीत होता।
सुमुखि ! तुम अगर जो हमारे न होते,
सजनि! जो अगर हम तुम्हारे न होते।

गुरुवार, 14 मई 2009

श्याम स्मृति --आधुनिक मनु स्मृति ......

१.

वह बंधन में थी ,

बंटकर,

माँ ,पुत्री, पत्नी के रिश्तों में ।

अब ,वह मुक्त है ,

बंटनेके लिए ,

किश्तों में॥



२।

वह बंधन में थी ,

पिता ,पति, पुत्र के ,

आज वह मुक्त है ,

पिता,पति,पुत्र से,

स्वयं के लिए उन्मुक्त है ,

शोषण ,हिंसा ,तलाक के लिए ,

उपयुक्त है ॥





वह दिन रात खटती थी ,

पति,परिवार की सेवा में ।

अब वह दिन भर खटती है,

अधिक बोनस के लिए,

कंपनी की सेवा में ,

बाज़ार में ॥



४-

वह बंधन में थी ,

संसकृति ,संस्कार ,सुरुचि के,

परिधान ,

कन्धों पर धारकर।

अब वह मुक्त है,

सहर्ष ,कपडे उतार कर॥





वह पैदल जाता था,

दिन भर खपता था,

कमाने को चार पैसे ।

आज वह ,

हवाई जहाज में घूमता है,

देश भर में,

दिन भर खपता है,

कंपनी के काम से,

कमाने को चार पैसे॥

६-
वह कमाता था ,चार पैसे,
खाने को,दो रोटी ।
अब वह कमाता है,
चार सौ रुपये,
पर खा पाता है,
वही दो रोटी॥









बुधवार, 13 मई 2009

श्याम मधुशाला

शराव पीने से बड़ी मस्ती सी छाती है ,
सारी दुनिया रंगीन नज़र आती है ।
बड़े फख्र से कहते हैं वो ,जो पीता ही नहीं ,
जीना क्या जाने ,जिंदगी वो जीता ही नहीं ।।

पर जब घूँट से पेट में जाकर ,
सुरा रक्त में लहराती ।
तन के रोम-रोम पर जब ,
भरपूर असर है दिखलाती ।

होजाता है मस्त स्वयं में ,
तब मदिरा पीने वाला ।
चढ़ता है उस पर खुमार ,
जब गले में ढलती है हाला।

हमने ऐसे लोग भी देखे ,
कभी न देखी मधुशाला।
सुख से स्वस्थ जिंदगी जीते ,
कहाँ जिए पीने वाला।

क्या जीना पीने वाले का,
जग का है देखा भाला।
जीते जाएँ मर मर कर,
पीते जाएँ भर भर हाला।

घूँट में कडुवाहट भरती है,
सीने में उठती ज्वाला ।
पीने वाला क्यों पीता है,
समझ न सकी स्वयं हाला ।

पहली बार जो पीता है ,तो,
लगती है कडुवी हाला ।
संगी साथी जो हें शराबी ,
कहते स्वाद है मतवाला ।

देशी, ठर्रा और विदेशी ,
रम,व्हिस्कीजिन का प्याला।
सुंदर -सुंदर सजी बोतलें ,
ललचाये पीने वाला।

स्वाद की क्षमता घट जाती है ,
मुख में स्वाद नहीं रहता ।
कडुवा हो या तेज कसैला ,
पता नहीं चलने वाला।

बस आदत सी पड़ जाती है ,
नहीं मिले उलझन होती।
बार बार ,फ़िर फ़िर पीने को ,
मचले फ़िर पीने वाला।

पीते पीते पेट में अल्सर ,
फेल जिगर को कर डाला।
अंग अंग में रच बस जाए,
बदन खोखला कर डाला।

निर्णय क्षमता खो जाती है,
हाथ पाँव कम्पन करते।
भला ड्राइविंग कैसे होगी,
नस नस में बहती हाला।

दुर्घटना कर बेठे पीकर,
कैसे घर जाए पाला।
पत्नी सदा रही चिल्लाती ,
क्यों घर ले आए हाला।

बच्चे भी जो पीना सीखें ,
सोचो क्या होनेवाला, ।
गली गली में सब पहचानें ,
ये जाता पीने वाला।

जाम पे जाम शराबी पीता ,
साकी डालता जा हाला।
घर के कपड़े बर्तन गिरवी ,
रख आया हिम्मत वाला।

नौकर सेवक मालिक मुंशी ,
नर-नारी हों हम प्याला,
रिश्ते नाते टूट जायं सब,
मर्यादा को धो डाला।

पार्टी में तो बड़ी शान से ,
नांचें पी पी कर हाला ।
पति-पत्नी घर आकर लड़ते,
झगडा करवाती हाला।

झूम झूम कर चला शरावी ,
भरी गले तक है हाला ।
डगमग डगमग चला सड़क पर ,
दिखे न गड्डा या नाला ।

गिरा लड़खडाकर नाली में ,
कीचड ने मुंह भर डाला।
मेरा घर है कहाँ ,पूछता,
बोल न पाये मतवाला।

जेब में पैसे भरे टनाटन ,
तब देता साकी प्याला ।
पास नहीं अब फूटी कौडी ,
कैसे अब पाये हाला।

संगी साथी नहीं पूछते ,
क़र्ज़ नहीं देता लाला।
हाथ पाँव भी साथ न देते ,
हाला ने क्या कर डाला।

लस्सी दूध का सेवन करते ,
खास केसर खुशबू वाला।
भज़न कीर्तन में जो रमते ,
राम नाम की जपते माला।

पुरखे कहते कभी न करना ,
कोई नशा न चखना हाला।
बन मतवाला प्रभु चरणों का,
राम नाम का पीलो प्याला।

मन्दिर-मस्जिद सच्चाई पर,
चलने की हैं राह बताते।
और लड़ खडा कर नाली की ,
राह दिखाती मधुशाला।

मन ही मन हैं सोच रहे अब,
श्याम क्या हमने कर डाला।
क्यों हमने चखलीयह हाला ,
क्यों जा बैठे मधुशाला॥




मंगलवार, 12 मई 2009

ग़ज़ल की गज़लें

१. ग़ज़ल होती है --
शेर मतले का रहे ,तो ग़ज़ल होती है ।
शेर मक्ते का रहे तो ग़ज़ल होती है ।

रदीफ़ और काफिया रहे ,तो ग़ज़ल होती है ,
बहर हो सुर ताल लयहो ,वो ग़ज़ल होती है।

पाँच से ज्यादा हों शेर ,तो ग़ज़ल होती है ,
बात खाशो -आम की हो ,वो ग़ज़ल होती है।

ग़ज़ल की क्या बात यारो ,वो तो ग़ज़ल होती है ,
ग़ज़ल की हो बात जिसमें ,वो ग़ज़ल होती है।

ग़ज़ल कहने का भी इक अंदाजे ख़ास होता है,
कहने का अंदाज़ जुदा हो तो ग़ज़ल होती है।

ग़ज़ल तो बस इक अंदाजे -बयाँ है श्याम ,
श्याम तो जो कहदें वो ग़ज़ल होती है॥

२-कैसी --कैसी गज़लें ---

शेर मतले का न हो ,तो कुंवारी ग़ज़ल होती है।

हो काफिया ही जो नहीं ,बेचारी ग़ज़ल होती है।

और भी मतले हों ,हुस्ने तारी ग़ज़ल होती है ,

हर शेर ही मतला हो ,हुस्ने-हजारी ग़ज़ल होती है।

हो रदीफ़ काफिया नहीं ,नाकारी ग़ज़ल होती है,

मकता बगैर हो ग़ज़ल वो मारी ग़ज़ल होती है।

मतला भी ,मक्ता भी ,रदीफ़ काफिया भी हो ,

सोची ,समझ के ,लिख के ,सुधारी ग़ज़ल होती है ।

हो बहर में ,सुर ताल लय में ,प्यारी ग़ज़ल होती है ,

सब कुछ हो कायदे में ,वो संवारी ग़ज़ल होती है।

हर शेर एक भाव हो, वो जारी ग़ज़ल होती है,

हर शेर नया अंदाज़ हो ,वो भारी ग़ज़ल होती है।

मस्ती में कहदें झूम के ,गुदाज्कारी ग़ज़ल होती है,

उनसे तो जो कुछ भी कहें ,मनोहारी ग़ज़ल होती है।

जो वार दूर तक करे , करारी ग़ज़ल होती है,

छलनी हो दिले- आशिक ,वो शिकारी ग़ज़ल होती है।

हो दर्दे-दिल की बात ,दिलदारी ग़ज़ल होती है,

मिलने का करें वायदा ,मुतदारी ग़ज़ल होती है।

तू गाता चल ऐ यार ! कोई कायदा न देख ,

कुछ अपना ही अंदाज़ हो ,खुद्दारी ग़ज़ल होती है ।

जो उस की राह में कहो ,इकरारी ग़ज़ल होती है,

अंदाजे-बयाँ हो श्याम का ,वो न्यारी ग़ज़ल होती है॥

रविवार, 10 मई 2009

मैया मोरी मैं नहिं माखन खायो --मदर्स डे पर

        ्वन्दे मातरम 

शनिवार, 9 मई 2009

-एक गज़ल --ख्वाहिशें

ख्वाहिशों की कोई इन्तिहा नही होती,
पूरी् मगर  हर ख्वाहिश सदा नहीं होती।

जिसके हकदार  हो वो तुझे मिलेगा जरूर ,
न समझ ख्वाहिशें हकीकत ज़दा नहीं होतीं।

काबिलियत व कोशि्शें ही तय करतीं हें हक,
असफ़लता की वज़ह किस्मत सदा नहीं होती ।

हर बात की कोई वज़ह हो ती है ज़रूर ,
किस्मत के् दोष की बात बज़ा नहीं होती।

सही दिशा में सही को्शिशें करें यदि श्याम,
कोई वज़ह नहीं कोशिश सफ़ल नहीं होती ॥ 

शुक्रवार, 8 मई 2009

कुछ पल जिन्दगी के.....

हम चाहते ही रह गये चा्हें नही उन्हें,


वो हाथ लेकर हाथ में कस्में दिला गये।

आंखों की राह आये वो दिल मेंसमा गये ,

कैसे बतायें कब मिले कब दिल में आगये ।

घर,विद्यालय व तीरथधाम

समाचार-सी एम् एस शिक्षकों का -घर और विद्यालय से बढ़करकोई न तीरथ धाम -पर जन जागरण मोर्चा ---हि -समाचार---०८-०५-०९ । --
बिना सोचे समझे , अंग्रेजियत लादे ,हिन्दी भाषा के व कथन के निहितार्थ समझे विना प्रचारित किया गया जुमलाहै यह --मुख्यतया अंग्रेजी प्रचारक स्कूल का--
--जुमले का अर्थ निकलता है कि वे कहना चाहते हैं कि--तीरथ धामों की कोई ख़ास महत्ता नहीं है ,क्या यह तीरथ धामों के बहाने हिन्दू धर्म पर प्रहार है? या अशुद्ध हिन्दी लेखन ।
-----बस्तुतःकहना चाहिए --"घर और विद्यालय महत्त्व पूर्ण तीरथ धाम " या "घर और विद्यालय बच्चों के लिए महत्वपूर्ण तीरथ धाम " । बच्चों को संदेश भी जाता है --घर-स्कूल की भी एवं तीर्थों की भी महत्ता का, यह आधुनिक व सांस्कृतिक समन्वय है ,युगानुरूप ---कब समझेंगे हमारे शिक्षा क्षेत्र ।

गुरुवार, 7 मई 2009

माँ -दिवस पर -वन्दना

चित्र -त्रि मातृका -नरी सेमरी ,मथुरा (गोरी ,काली ,सांवली )
(-महा सरस्वती ,महाकाली ,महा लक्ष्मी )
हे माँ !
हे माँ ! तुम जब दिव्य रसों की ,
दिव्य -लोक से वर्षा करतीं ;
निर्मल बुद्दि,विवेक ज्ञान की ,
सभी प्रेरणा मिलती जग को ।
ज्ञान भाव से सकल विश्व को ,
करें पल्लवित मातु शारदे ! --शूर्पनखा से

माँ
जितने भी पद नाम सात्विक ,
उसके पीछे ' माँ ' होती है।
चाहे धर्मात्मा ,महात्मा ,
आत्मा हो अथवा परमात्मा

जो महान सत्कार्य जगत के ,
उनके पीछे माँ होती है।
चाहे हो वह माँ कौशल्या ,
जीजाबाई या यसुमति माँ ।

पूर्ण शब्द माँ ,पूर्ण ग्रन्थ माँ ,
शिशु बाणी का प्रथम शब्द माँ ।
जीवन की हर एक सफलता ,
की पहली सीढी होती माँ ।

माँ असीम है वह अनुपम है,
क्षमा दया श्रृद्धा का सागर ।
कभी नहीं रीती हो पाती ,
माँ की ममता रूपी गागर ।

माँ मानव की प्रथम गुरु है ,
सभी सृजन का मूल तंत्र माँ
विस्मृत ब्रह्मा की स्फुरणा ,
वाणी रूपी मूल मन्त्र माँ ।

सीमित तुच्छ बुद्धि यह कैसे ,
कर पाये माँ का गुण गान ।
श्याम करें पद -वंदन माँ ही ,
करती वाणी ,बुद्धि प्रदान॥
-प्रेम काव्य -डा श्याम गुप्त


त्रि-मातृका--नरीसेमरी ,मथुरा --गोरी,काली,सांवली --महा काली ,महा लक्ष्मी ,महासरस्वती

बुधवार, 6 मई 2009

ज्ञानामृत --

जो ग्रंथों का बाचन करते ,वे अज्ञानी से मानीं हैं।
और ग्रन्थ पाठक से मानी ,नित्य अध्ययन करनेवाला।

अध्यायी से अधिक श्रेष्ठ है ,जो है ज्ञान तत्त्व का ज्ञाता ।
और ज्ञान को कृति में लाकर ,श्रेष्ठ कर्म को करने वाला।

आत्म ज्ञान ही सर्व श्रेष्ठ है ,सब विद्या -धन देने वाला।
जो निज को पहचान गया है ,वह पाये अमृत मतवाला।

जो सब को निज में ही जाने ,सब में अपने को पहचाने ।
आत्म लीं वह निर्विकार है ,उसको मिले मुक्ति का प्याला।

भेदा-भेद ,फला-फल से जो ,मुक्त उसे ही अमृत मिलता ।
कैसे प्राप्त उसे कर सकता,असत कर्म को करने वाला॥ -
-----डॉ श्याम गुप्त (प्रेम काव्य )

द वाइल्ड फैमिली इन- आराम के मूड


one in a billion shot

मंगलवार, 5 मई 2009

कुछ नज्में व कतए

नज़्म ------
रात के सन्नाटे में ,
नाचते हैं-
जलतीं ,बुझतीं विजलियों की तरह ,
कभी चमकते ,कभी बुझते -
ये जगनू ।
गोया कि इशारा करते हैं ,
उठना-गिरना ,बनना-मिटना ,जीना -मरना -
तो शाश्वत है।

याद आते हैं वे दिन ,
हम न थे कैद ;
दर्द की दीवारों में ।
मस्त उड़ते थे हम ,
हवाओं में ,नजारों में।

कतए --------
ज़िंदगी एक दर्द का समंदर है ,
जाने क्या -क्या इसके अन्दर है।
कभी तूफाँ समेटे डराती है ,
कभी एक पाकीजा मंज़र है।

रात और दिन के बीच उम्र खटती रही ,
उम्र बढ़ती रही ,या कि उम्र घटती रही ।
जिसने कभी भूलकर भी याद न किया 'श्याम ,
उम्र भर उनकी याद में उम्र कटती रही।

सोमवार, 4 मई 2009

गरमी ---घनाक्षरी छंद --८ पंक्तियाँ ,वार्णिक छंद

1.श्याम घनाक्षरी --३३ वर्ण ,१८-१५ , अंत -दो गुरु (म गण )



दहन सी दहकै द्वार- देहरी दगर- दगर,

कली कुञ्ज कुञ्ज ,क्यारी क्यारी कुम्हिलाई है।

पावक प्रतीति पवन ,परसि पुष्प,पात -पात ,

जरै तरु गात डाली -डाली मुरझाई है।

जेठ की दुपहरी रही तपाय सखि अंग-अंग,

मलय बयार मन मार अलसाई है।

तपेंनगर -गावं ,छावं ढूढ़ रही शीतल ठावं ,

धरती गगन श्याम आगि सी लगाई है॥
मनहरण -३१ वर्ण ,१६-१५ ----

सुनसान गलियाँ वन बाग़ बाज़ार पड़े ,

जीभ को निकाल श्वान हांफते से जारहे ।

कोई पड़े ऐ -सी कक्ष कोई लेटे तरु छाँह ,

कोई झलें पंखा कोई कूलर चला रहे ।

जब कहीं आवश्यक कार्य से है जाना पड़े ,

पौछते पसीना तेज कदमों से जारहे।

ऐनक लगाए ,श्याम छतरी लिए हैं हाथ ,

नर नारी सबही,पसीने से नहा रहे।।

--मदनहरण३२ वर्ण ,१६-१६ या ८,८,८,८, अंत -गुरु ,गुरु ---

टप टप टप टप ,न्ग बहे स्वेद धार ,

जिमि उतरि गिरि-श्रृंग ,जलधार आई है ।

बहै घाटी मध्य करि,विविध प्रदेश पार ,

बनी धार सरिता जाय सिन्धु मैं समाई है ।

खुले खुले केश श्याम ,ढीले बस्त्र तिय देह,

उमंगें उरोज उर , उमंग उमंगाई है।

ताप से तपे हैं तन ,ताप तपें तन मन ,

निरखि नैन नेह ,नेह निर्झर समाई है।।



चुप चुप चकित न चहकि रहे खग वृन्द ,

सारिका ने शुक से यूँ न चौंच भीलड़ाई है ,

बाज़ और कपोत बैठे एक ही तरु डाल,

मूषक ओ विडाल भूल बैठे शत्रुताई है।

नाग -मोर एक ठांव ,सिंह -मृग एक छाँव ,

धरती मनहुं तपो भूमि जिमि सुहाई है।

श्याम ,गज-ग्राह मिलि बैठे सरिता के कूल ,

जेठ बांटें बातें साधु भाव जग लाई है ।
मनहरण ----

हर गली गाँव हर नगर मग ठांव ,

जन जन जल शीतल पेय हैं पिला रहे ।

कहीं हैं मिष्ठान्न बाटें, कहीं है ठंडाई घुटे ,
मीठे जल की भी कोई प्याऊ लगवा रहे ।
राह रोकि हाथ जोरि ठंडा जल भेंट कर ,
हर तप्त राही को ही ठंडक दिला रहे।
भुवन भास्कर धरि मार्तंड रूप श्याम ,
उंच नीच भाव मनहु मन के मिटा रहे॥









रविवार, 3 मई 2009

नज़्म --आज फ़िर असहाय होकर रह गया है आसमां . |

आज फ़िर असहाय होकर रह गया है आसमां
खून से लथ पथ दिखे हर मुस्कुराती दास्ताँ ।
कहकहे हर और हैं पर शक्ल सूरत मातमी ,
हर तरफ़ है गहमा गहमी ,बेजुवां हर आदमी।

हर तरफ़ है धुंध-धुंआ ,साँस ली जाती नहीं ,
ज़िंदगी अब इस शहर मैं ,खुल के मुस्काती नहीं
कह न पायें आदमी को पूछता कोई नहीं ,
यूँ तो हैं रहबर बहुत दे साथ वह कोई नहीं।

हर शख्स ही खोले हुए है राहतों की इक दुकां
किंतु सुनता कब है कोई आहटों की दास्ताँ।

हैं खड़ी चहुँ और वे ,वीरान ऊंची मंजिलें,
दौड़ते रोबोट जैसे लोग बनकर हस्तियाँ ।
भीख अब भी माँगते हैं लोग गलियों राह पर ,
फ़िर नुमाया हैं ,मलिन ,बदनाम ,भूखी बस्तियां।

ठूंठ से वे होगये हरियाले पीपल नीम सब ,
हर तरफ़ हर लम्हा होतीं कौरवों सी मस्तियाँ ।
यूँ तो हम बदले बहुत ,छूने लगे हैं आसमां ,
ज़िंदगी लेकिन वही है ,सिर्फ़ बदले हैं मुकां ।

आज फ़िर असहाय होकर रह गया है आसमां ,
खून से लथ पथ दिखे हर मुस्कुराती दास्ताँ ॥





शनिवार, 2 मई 2009

छंद का विस्तृत आकाश -

वे जो छंदोबद्ध कविता ही की बात करते हैं , वस्तुतः छंद,कविता ,काव्य-कला व साहित्य का अर्थ ही नहीं जानते, एवं संकुचित अर्थ व विचार धारा के पोषक हैं। वे केवल तुकांत कविता को ही छंदोबद्ध कविता कहते हैं। कुछ तो केवल वार्णिक छंदों -कवित्त,सवैया ,कुण्डली -को ही छंद समझते हैं।छंद क्या है ?, कविता क्या है?
वस्तुतः कविता,काव्य-कला, गीत आदि नाम तो बाद मैं आए । आविर्भाव तो छंद -नाम ही हुआ है। छंद ही कविता का वास्तविक सर्व प्रथम नाम है।श्रृष्टि महाकाव्य- में श्रृष्टि निर्माण की प्रक्रिया में कवि कहता है--
चतुर्मुख के चार मुखों से ,
ऋक,यजु ,साम ,अथर्व वेद सब ;
छंद शास्त्र का हुआ अवतरण ,
विविध ज्ञान जगती मैं आया। ----श्रृष्टि खंड से।
वास्तव में प्रत्येक कविता ही छंद है। प्राचीन रीतियों के अनुसार आज भी विवाहोपरांत ,प्रथम दिवस पर दुल्हा -दुल्हिन को छंद -पकैया खेल
खिलाया जाता है (कविता नहीं)। इसमें दौनों कविता मैं ही बातें करते हैं। इसके दो अर्थ हैं --१.कविता का असली नाम छंद है.,छंद ही कविता है। २ काव्य -कला जीवन के कितने करीब है । जो छंद बनाने मैं प्रवीणता ,ज्ञान की कसौटी है ,वह संसार -चक्र में जाने के लिए उपयुक्त है । आगे आने वाला जीवन छंद की भांति अनुशाषित परन्तु निर्बंध ,लालित्य पूर्ण ,विवेक पूर्ण ,सहज ,सरल ,गतिमय व तुकांत -अतुकांत की तरह प्रत्येक आरोह-अवरोह को झेलने में समर्थ रहे।
अतः छंद ही कविता है ,हर कविता छंद है -तुकांत,अतुकांत ;गीत-अगीत आदि। छंद का अपना विस्तृत आकाश है । आकाश को छोटा न कर।

शुक्रवार, 1 मई 2009

उत्सव प्रियः मानवाः

मनुष्य सदैव से ही उत्सव प्रिय है। यह मानव की( वस्तुतः जीव की ) सबसे आदिम प्रवृत्तियों मैं से एक है। यह उत्सव -प्रियता मानव मन को ऋणात्मकविचारों से हटाकर गुणात्मक सोच,विचार,कर्म द्वारा आशा, विश्वास ,श्रृद्धा व भक्ति के लिए प्रेरित करती है,जो जीवन मैं सफलता का मूल मन्त्र है एवं सुख-दुःख,आशा-निराशा,सफलता-असफलता आदि के द्वंद्व -द्वय ,( जो मानव के अंतःकरण चतुष्टय -चित,बुद्धि, मन ,अंहकार -के साथ उत्पन्न हैं ,अवश्यम्भावी हैं। ) को सहर्ष झेल कर आगे बढ़ने की प्रेरणा देते हैं।
भारतीय संसकारिता के परिप्रेक्ष्य मैं यह बात और स्पष्ट रूप से दृष्टिगत होती है; क्योंकि प्रत्येक वस्तु,भाव,व्यवहार,समय व अवस्था मैं -भाव भूमि -भारतीय संस्कारिता की मूल व रीढ़ भावः-बस्तु है। यहाँ प्रत्येक कार्य के साथ -साथ ही आराम व मनोरंजन की प्रक्रिया भी चलती रहती है । जन्मपूर्व ,जन्म ,अन्नप्राशन,shikshaa , विवाह आदि मृत्यु व मृत्यु उपरांत भी --प्रत्येक बिन्दु पर एवं मेले -ठेले ,पर्व-त्यौहार लगभग प्रत्येक दिन ,माह ,वर्ष -प्रत्येक बिन्दु पर उत्सव -कार्य के साथ-साथ चलता रहता है। पश्चिम की भांति --काम,काम,काम और फ़िर आराम व मनोरंजन के लिए सप्ताहांत मैं विशेष प्रक्रिया अपनाना ।
क्या ,अति भागमभाग,अति तीव्रता से दौड़ना ,चाहे भौतिक बिकास के लिए ही सही (क्योंकि मानवीय,व्यवहारिक व आध्यात्मिक बिकास सदैव क्रमिक व निरंतरता की सामान्य गति से ही होता है। ) वस्तुत आवश्यक है ?
यही है भारतीय संस्कारिता की द्र्ड़ता ,निरंतरता ,जीवन्तता ,प्रियता जो इसे अमिट्ता व अमरता प्रदान करती है। यह सनातन- धर्म धारा है।