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डा श्याम गुप्त का ब्लोग...

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Lucknow, UP, India
एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं... काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद .. my blogs-- 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति... 2.drsbg.wordpres.com, 3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त

रविवार, 9 फ़रवरी 2014

अजनबी तुम भी थे अजनबी हम भी थे.......डा श्याम गुप्त....

                              ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...




अजनबी तुम भी थे, अजनबी हम भी थे,
साथ चलते रहे अजनबी की तरह ।।

हम तो मुड़ मुड़ के राहों में देखा किये,
तुम भी देखोगे मुड़ सोचते ही रहे।
तुम ने देखा हंसकर कभी इस तरफ,
यूं ही चलते रहे अजनबी की तरह॥

मैं तो सपनों में तुमको सजाता रहा,
तुम पुकारोगे मुझको मनाता रहा।
तुमने मुझको कभी यूं पुकारा नहीं,
स्वप्न से ही रहे अजनबी की तरह

मैंने मंदिर में मस्जिद में सिज़दे किये,
साथ आकर कभी तुम भी सिज़दा करो।
तुम कभी पास आकर रुके ही नहीं ,
यूं ही चलते गए अजनबी की तरह॥

अपने गीतों में तुमको सजाते रहे,
छंद बनाकर तुम्ही मुस्कुराते रहे।
तुम कभी मन का संगीत बन कर मिलो,
यह मनाते रहे गुनगुनाते रहे

तुमने मेरा कोई गीत गाया नहीं ,
यूं ही सुनते रहे अजनबी से बने॥

कुछ कदम जो तेरे साथ हम चल लिए,
ज़िंदगी के कई रंग हम जीलिये।
मैं मनाता रहा तुम कभी यह कहो,
साथ मेरे चलो हर खुशी के लिए।

साथ चलने को तुमने कहा ही नहीं,
हम भी चलते गए अजनबी से बने