....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
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ईशोपनिषद के प्रथम मन्त्र .के द्वितीय भाग ..”तेन त्यक्तेन भुंजीथा..." का काव्य-भावानुवाद......
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कुंजिका – तेन = उसी के /उसे...त्यक्तेन= उपयोगार्थ दिए हुए /त्याग के भाव से...भुंजीथा = भोगकर /भोगना चाहिए ...
\
मूलार्थ- उसके द्वारा उपयोगार्थ दिए हुए पदार्थों को ही भोगना चाहिए, उसे ईश्वर का दिया हुआ ही समझकर ( प्राकृतिक सहज रूप से प्राप्य)...अथवा उसे त्याग के रूप में, अनासक्त भाव से भोगना चाहिए |
\
सब कुछ ईश्वर की ही माया,
तेरा मेरा कुछ भी नहीं है |
जग को अपना समझ न रे नर !
तू तेरा सब कुछ वह ही है |
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ईशोपनिषद के प्रथम मन्त्र .के द्वितीय भाग ..”तेन त्यक्तेन भुंजीथा..." का काव्य-भावानुवाद......
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कुंजिका – तेन = उसी के /उसे...त्यक्तेन= उपयोगार्थ दिए हुए /त्याग के भाव से...भुंजीथा = भोगकर /भोगना चाहिए ...
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मूलार्थ- उसके द्वारा उपयोगार्थ दिए हुए पदार्थों को ही भोगना चाहिए, उसे ईश्वर का दिया हुआ ही समझकर ( प्राकृतिक सहज रूप से प्राप्य)...अथवा उसे त्याग के रूप में, अनासक्त भाव से भोगना चाहिए |
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सब कुछ ईश्वर की ही माया,
तेरा मेरा कुछ भी नहीं है |
जग को अपना समझ न रे नर !
तू तेरा सब कुछ वह ही है |
पर है कर्म-भाव आवश्यक,
कर्म बिना कब रह पाया नर |
यह जग बना भोग हित तेरे,
जीव अंश तू, तू ही ईश्वर |
उसे त्याग के भाव से भोगें,
कर्मों में आसक्ति न रख कर|
बिना स्वार्थ, बिन फल की इच्छा,
जो जैसा मिल जाए पाकर |
कर्मयोग है यही, बनाता -
जीवनमार्ग सहज, शुचि, रुचिकर |
जग में रहकर भी नहिं जग में,
होता लिप्त कर्मयोगी नर |
पंक मध्य ज्यों रहे जलज दल,
पंक प्रभाव न होता उस पर |
सब कुछ भोग-कर्म भी करता,
पर योगी कहलाये वह नर ||
--------क्रमश-आगे प्रथम मन्त्र के तृतीय भाग का काव्यभावानुवाद ----
कर्म बिना कब रह पाया नर |
यह जग बना भोग हित तेरे,
जीव अंश तू, तू ही ईश्वर |
उसे त्याग के भाव से भोगें,
कर्मों में आसक्ति न रख कर|
बिना स्वार्थ, बिन फल की इच्छा,
जो जैसा मिल जाए पाकर |
कर्मयोग है यही, बनाता -
जीवनमार्ग सहज, शुचि, रुचिकर |
जग में रहकर भी नहिं जग में,
होता लिप्त कर्मयोगी नर |
पंक मध्य ज्यों रहे जलज दल,
पंक प्रभाव न होता उस पर |
सब कुछ भोग-कर्म भी करता,
पर योगी कहलाये वह नर ||
--------क्रमश-आगे प्रथम मन्त्र के तृतीय भाग का काव्यभावानुवाद ----