....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
डा श्याम गुप्त के दोहे....
आदि अभाव अकाम अज,
अगुन अगोचर आप,
अमित अखंड अनाम
भजि,श्याम मिटें त्रय-ताप |
त्रिभुवन गुरु औ जगत
गुरु, जो प्रत्यक्ष सुनाम,
जन्म मरण से मुक्ति
दे, ईश्वर करूं प्रणाम |
हे माँ! ज्ञान
प्रदायिनी,ते छवि निज उर धार,
सुमिरन कर दोहे रचूं,
महिमा अपरम्पार |
श्याम सदा मन में
बसें, राधाश्री घनश्याम,
राधे राधे नित जपें, ऐसे श्रीघनश्याम |
अंतर ज्योति जलै
प्रखर, होय ज्ञान आभास,
गुरु जब अंतर बसि
करें,गोविंद नाम प्रकाश |
शत शत वर्षों में
नहीं, संभव निष्कृति मान,
करते जो संतान हित,
मातु-पिता वलिदान |
धर्म हेतु करते रहें
,काव्य साधना कर्म,
जग को दिखलाते रहें,
शुभ कर्मों का मर्म |
श्याम जो सुत हो एक
ही,पर हो साधु स्वभाव,
कुल आनंदित रहे
ज्यों, चाँद-चांदनी भाव |
नारी सम्मति हो
जहां, आँगन पावन होय,
कार्य सकल निष्फल
वहां, जहां न आदर सोय|
हितकारी भोजन
करें,खाएं जो ऋतु योग्य,
कम खाएं पैदल चलें,
रहें स्वस्थ आरोग्य |
अपने लिए कमाय औ,
केवल खुद ही खाय,
श्याम पापमय अन्न
है, जो न साधु को जाय |
काव्य स्वयं का हो
लिखा, माला निज गुंथ पाय,
चन्दन जो निज कर
घिसा, अति ही शोभा पाय|
आयु कर्म धन
विद्वता, कुल शोभा अनुसार,
उचित वेश धारण करें,
वाणी बुद्धि विचार |
सबको निज में देखता,
निज को सब में जान,
सोई रूप अभेद है,
श्याम यही है ज्ञान |
विद्या धर्म
अकाम्यता, वेद-विहित सब कर्म,
ज्ञान-कर्म के योग
में, निहित सनातन धर्म |
कर्म के फल की
कामना,माने उचित न कोय,
लेकिन पूर्ण
अकाम्यता,श्याम न जग में होय |
फल की जो इच्छा
नहीं, धर्माधर्म अलिप्त,
राग द्वेष दुःख से
परे, सोई जीवन्मुक्त |
ज्ञाता ज्ञान औ
ज्ञेय का, भेद रहे नहिं रूप,
वह तो स्वयं प्रकाश
है, परमानंद स्वरुप |
सींचे बिन मुरझा
गयी, सदाचार की मूल,
श्याम कहाँ फूलें
फलें, संस्कार के फूल |
इस संसार असार में,
श्याम प्रेम ही सार,
प्रेम करे दोनों
मिलें, ज्ञान और संसार |
तिर्यक भाव व कर्म
को, चित लावे नहिं कोय,
मन लावै तो मन बसे,
श्याम त्रिभंगी सोय |
घिरी परिजनों से
प्रिया, बैठे हैं मन मार,
पर चितवन से होरहा,
नयनों का व्यापार |
झूठहि उठना बैठना, झूठ मान सम्मान,
अब है झूठ सा अवगुण,
श्याम’ गुणों की खान |
घर को सेवै सेविका,
पत्नी सेवै अन्य,
छुट्टी लें तब मिल सकें,
सो पति-पत्नी धन्य |
श्याम सुखद दोउ भाव
हैं, या सोने के रंग,
सोहे रजनी अंक, और
सोहे सजनी अंग |
पनघट ताल कुआ मिटे,
मिटी नीम की छांह,
इस विकास के कारने,
उजड़ा सारा गाँव |
चन्द्र दरस को
सुन्दरी, घूंघट लियो उघारि ,
चित चकोर चितबत चकित,
दो दो चन्द्र निहारि|
भ्रकुटि तानि बरजै सुमुखि, मन ही मन ललचाय,
पिचकारी ते श्याम की, तन मन सब रंगि जाय ।
पिचकारी ते श्याम की, तन मन सब रंगि जाय ।
अपनी लाज लुटा रही,
द्रुपद-सुता बाज़ार,
इन चीरों का क्या
करूँ, कृष्ण खड़े लाचार |
ईश्वर अल्लाह कब
मिले, हमें झगड़ते यार,
फिर मानव क्यों
व्यर्थ ही करता है तकरार |
सर्द पश्चिमी हवा
में, ठिठुरा हिन्दुस्तान,
लिए पूर्वी धूप अब,
उगें सूर्य भगवान |