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डा श्याम गुप्त का ब्लोग...

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Lucknow, UP, India
एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं... काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद .. my blogs-- 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति... 2.drsbg.wordpres.com, 3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त

शनिवार, 22 अप्रैल 2017

अगीत - त्रयी...---- भाग आठ ---डा श्याम गुप्त के कुछ अगीत ------





                            ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...


अगीत - त्रयी...---- भाग आठ ---डा श्याम गुप्त के कुछ अगीत ------


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--------अगीत कविता विधा के तीन स्तम्भ कवियों के परिचय साहित्यिक परिचय एवं रचनाओं का परिचय ---
अगीत कवि कुलगुरु साहित्यभूषण डा रंगनाथ मिश्र सत्य
महाकवि श्री जगत नारायण पांडे
महाकवि डा श्याम गुप्त-
\\
----- डा श्यामगुप्त के श्रेष्ठ अगीत ----
--- अगीत ---
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१.टोपी
वे राष्ट्र गान गाकर
भीड़ को देश पर मर मिटने की,
कसम दिलाकर;
बैठ गए लक्सरी कार में जाकर ;
टोपी पकडाई पी ऐ को
अगले वर्ष के लिए
रखे धुलाकर |

२.अगीत .....
प्रेम विह्वलता, विरह, भावातिरेक की धारा ,
बहती है जब मन में ,
अजस्र, अपरिमित, प्रवाहमान; तब-
गीत निस्रत होते हैं.
सरिता की अविरल धारा की तरह |
वही धारा, प्रश्नों को उत्तरित करती हुई
व्याख्या, विश्लेषण, सत्य को
जन -जन के लिए उद्घाटित करती हुई,
निस्रत निर्झरिणी बन कर -
अगीत बन जाती है | 

३.प्रकृति सुन्दरी का यौवन....
कम संसाधन
अधिक दोहन,
न नदिया में जल,
न बाग़-बगीचों का नगर |
न कोकिल की कूक
न मयूर की नृत्य सुषमा ,
कहीं अनावृष्टि कहीं अति-वृष्टि ;
किसने भ्रष्ट किया-
प्रकृति सुन्दरी का यौवन ?
 
४. संतुलन....
विकास हेतु,
संसाधन दोहन की नासमझ होड़,
अति-शोषण की अंधी दौड़,
प्रकृति का संतुलन देती है बिगाड़;
विकल हो जाते हैं-नदी सागर पहाड़,
नियामक व्यवस्था तभी करती है यह जुगाड़|
चेतावनी देती है,
सुनामी बनकर सब कुछ उजाड़ देती है,
अपना संतुलन सुधार लेती है |
 
५. माँ और आया
"अंग्रेज़ी आया ने,
हिन्दी मां को घर से निकाला;
देकर, फास्ट-फ़ूड ,पिज्जा, बर्गर -
क्रिकेट, केम्पा-कोला, कम्प्यूटरीकरण ,
उदारीकरण, वैश्वीकरण
का हवाला | "
 
६.अमर
"मरणोपरांत जीव,
यद्यपि मुक्त होजाता है ,
संसार से , पर--
कैद रहता है वह मन में ,
आत्मीयों के याद रूपी बंधन में ,
और होजाता है अमर | "
 
७.बंधन-मुक्ति
वह बंधन में थी
धर्म संस्कृति सुसंस्कारों का
चोला ओढ़कर,
अब वह मुक्त है, स्वतंत्र है
लाज व शर्मो-हया के वस्त्रों का
चोला छोड़कर |
 
८.कालपात्र
किसलिए काल
रचता है रचनाएँ
सम-सामयिक, तात्कालिक,
व सामयिक इतिहास के
सरोकारों को निबद्ध करता है ,
तथ्यों को बढ करता है |
एक कालपात्र होता है
साहित्य
तभी वह होता है कालजयी |
 
९. अनास्था
अपना दोष
ईश्वर के सिर
इंसान क्यों है इतना तंग नज़र !
क्या केवल कुछ पाने की इच्छा से थी, भक्ति-
नहीं थी आस्था, बस आसक्ति |
जो कष्टों के एक झटके से ही
टूट जाए ,
वह अनास्था
आस्था कब कहलाये |
 
१०. अर्थ
अर्थ स्वयं में एक अनर्थ है |
मन में भय चिंता भ्रम की
उत्पत्ति में समर्थ है |
इसकी प्राप्ति, रक्षण व उपयोग में भी
करना पड़ता है कठोर श्रम,
आज है, कल होगा या नहीं या होगा नष्ट
इसका नहीं है कोइ निश्चित क्रम|
अर्थ मानव के पतन में समर्थ है,
फिर भी जीवन के -
सभी अर्थों का अर्थ है |
\\
-----लयबद्ध अगीत----
\
११.
तुम जो सदा कहा करती थीं
मीत सदा मेरे बन रहना |
तुमने ही मुख फेर लिया क्यों
मैंने तो कुछ नहीं कहा था |
शायद तुमको नहीं पता था ,
मीत भला कहते हैं किसको |
मीत शब्द को नहीं पढ़ा था ,
तुमने मन के शब्दकोश में ||
१२.
" यह कंचन सा रूप तुम्हारा
निखर उठा सुरसरि धारा में;
अथवा सोनपरी सी कोई,
हुई अवतरित सहसा जल में ;
अथवा पद वंदन को उतरा,
स्वयं इंदु ही गंगाजल में |
१३.
तेरे मन की नर्म छुअन को,
बैरी मन पहचान न पाया|
तेरे तन की तप्त चुभन को,
मैं था रहा समझता माया |
अब बैठा यह सोच रहा हूँ
तुमने क्यों न मुझे समझाया |
ज्ञान ध्यान तप योग साधना,
में मैंने इस मन को रामाया |
यह भी तो माया संभ्रम है ,
यूंही हुआ पराया तुमसे |
\\
-----नव-अगीत ----
\
१४.प्रश्न
कितने शहीद ,
कब्र से उठकर पूछते हैं-
हम मरे किस देश के लिए ,
अल्लाह के, या-
ईश्वर के |
 
१५..बंधन
वह बंधन में थी ,
संस्कृति संस्कार सुरुचि के
परिधान कन्धों पर धारकर ;
अब वह मुक्त है ,
सहर्ष , कपडे उतारकर ||
 
१६.. दिशाहीन
मस्त हैं सब -
अपने काम काज, या -
मनोरंजन में; और -
खड़े हैं हर मोड़ पर
दिशाहीन ||
 
१७.. मेरा देश कहाँ
यह अ जा का ,
यह अ ज जा का ,
यह अन्य पिछड़ों का ,
यह सवर्णों का ;
कहाँ है मेरा देश ?

१८..तुम्हारी छवि
" मन के अंधियारे पटल पर ,
तुम्हारी छवि,
ज्योति-किरण सी लहराई;
एक नई कविता,
पुष्पित हो आई |
\\
-----त्रिपदा अगीत ----
\
१९..
खडे सडक इस पार रहे हम,
खडे सडक उस पार रहे तुम;
बीच में दुनिया रही भागती।
२०..
चर्चायें थीं स्वर्ग नरक की,
देखी तेरी वफ़ा-ज़फ़ा तो;
दोनों पाये तेरे द्वारे।।
२१..
क्यों पश्चिम अपनाया जाए,
सूरज उगता है पूरब में;
पश्चिम में तो ढलना निश्चित |
२२..
" पायल छनका कर दूर हुए,
हम कुछ ऐसे मज़बूर हुए ;
उस नाद-ब्रह्म मद चूर हुए |"
२३..
" मिटा सके भूखे की हसरत,
दो रोटी भी उपलब्ध नहीं ;
क्या करोगे ढूँढ कर अमृत | "
\\
-----लयबद्ध षटपदी अगीत----
\
२४..
पुरुष-धर्म से जो गिर जाता,
अवगुण युक्त वही पति करता;
पतिव्रत धर्म-हीन, नारी को |
अर्थ राज्य छल और दंभ हित,
नारी का प्रयोग जो करता;
वह नर कब निज धर्म निभाता ? ...
२५..
वह समाज जो नर-नारी को,
उचित धर्म-आदेश न देता |
राष्ट्र राज्य जो स्वार्थ नीति-हित,
प्रजा भाव हित कर्म न करता;
दुखी, अभाव-भाव नर-नारी,
भ्रष्ट, पतित होते तन मन से ||
२६..
माया-पुरुष रूप होते हैं,
नारी-नर के भाव जगत में |
इच्छा कर्म व प्रेम-शक्ति से ,
पुरुष स्वयं माया को रचता |
पुनः स्वयं ही जीव रूप धर,
माया जग में विचरण करता || …… शूर्पणखा से
२७..
" परम व्योम की इस अशान्ति से ,
द्वंद्व भाव कण-कण में उभरा ;
हलचल से गति मिली कणों को ,
अप:तत्व में साम्य जगत के |
गति से आहत नाद बने ,फिर -
शब्द वायु ऊर्जा जल और मन | .
२८.
" जग की इस अशांति-क्रंदन का,
लालच लोभ मोह-बंधन का |
भ्रष्ट पतित सत्ता गठबंधन,
यह सब क्यों, इस यक्ष -प्रश्न का |
एक यही उत्तर सीधा सा ;
भूल गया नर आप स्वयं को || " …. सृष्टि से
२९.
बालू से सागर के तट पर ,
खूब घरोंदे गए उकेरे |
वक्त की ऊंची लहर उठी जब,
सब कुछ आकर बहा ले गयी |
छोड़ गयी कुछ घोंघे-सीपी,
सजा लिए हमने दामन में | …प्रेम काव्य से
\\

-----त्रिपदा अगीत ग़ज़ल.----
\..
 
३०. बात करें
भग्न अतीत की न बात करें ,
व्यर्थ बात की क्या बात करें ;
अब नवोन्मेष की बात करें |
यदि महलों में जीवन हंसता ,
झोपडियों में जीवन पलता ;
क्या उंच-नीच की बात करें |
शीश झुकाएं क्यों पश्चिम को,
क्यों अतीत से हम भरमाएं ;
कुछ आदर्शों की बात करें |
शास्त्र बड़े-बूढ़े और बालक ,
है सम्मान देना, पाना तो ;
मत श्याम’व्यंग्य की बात करें |
---------------


 

प्लास्टिकासुर---डा श्याम गुप्त

                                    ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
 -------धरती दिवस -----
----------यूं तो धरती को प्रदूषित करने में सर्वाधिक हाथ हमारे अति-भौतिकतावादी जीवन व्यवहार का है | यहाँ हमारी धरती को कूड़ा घर बनाने में सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारक एवं जो प्राप्ति, उपयोग , उपस्थिति एवं समाप्ति के प्रयत्नों से सर्वाधिक प्रदूषण कारक है उस तत्व को निरूपित करती हुई , पृथ्वी दिवस पर ....एक अतुकांत काव्य-रचना प्रस्तुत है----
\
प्लास्टिकासुर
\

पंडितजी ने पत्रा पढ़ा, और-
गणना करके बताया,
जज़मान ! प्रभु के -
नए अवतार का समय है आया।

सुनकर छोटी बिटिया बोली,
उसने अपनी जिज्ञासा की पिटारी यूं खोली;
"महाराज, हम तो बड़ों से यही सुनते आये हैं,
बचपन से यही गुनते आये हैं, कि -
असुर - देव ,दनुज, नर, गन्धर्व की -ता है, तो वह-
ब्रह्मा, विष्णु या फिर शिव-शम्भो के
वरदान से ही सम्पन्न होता है।
प्रारम्भ में जग, उस महाबली के,
कार्यों से प्रसन्न होता है;
पर जब वही महाबलवान,
बनकर सर्व शक्तिमान,
करता है अत्याचार,
देव दनुज नर गन्धर्व हो जाते हैं लाचार,
सारी पृथ्वी पर मच जाता है हाहाकार;
तभी लेते हैं, प्रभु अवतार।
हमें तो नहीं दिखता कोई असुर आज,
फिर अवतार की क्या आवश्यकता है महाराज?"

पंडित जी सुनकर, हडबडाये, कसमसाए,
पत्रा बंद करके मन ही मन बुदबुदाए;
फिर, उत्तरीय कन्धों पर डालकर मुस्कुराए; बोले -
"सच है बिटिया, यही तो होता है,
असुर - देव,दनुज, नर, गन्धर्व की -
अति सुखाभिलाषा से ही उत्पन्न होता है।
प्रारम्भ में लोग उसके कौतुक को,
बाल-लीला समझकर प्रसन्न होते हैं।
युवावस्था में उसके आकर्षण में बंधकर
उसे और प्रश्रय देते हैं।
वही जब प्रौढ़ होकर दुःख देता है तो,
अपनी करनी को रोते हैं।
वही देवी आपदाओं को लाता है,फैलाता है;
अपनी आसुरी शक्ति को बढाता है, दिखाता है।

आज भी मौजूद हैं पृथ्वी पर, अनेकों असुर,
जिनमें सबसे भयावह है,' प्लास्टिकासुर '।
प्लास्टिक, जिसने कैसे कैसे सपने दिखाए थे,
दुनिया के कोने-कोने के लोग भरमाये थे।

वही
बन गया है, आज --
पर्यावरण का नासूर,
बड़े बड़े तारकासुरों से भी भयावह है
आज का ये प्लास्टिकासुर।।

 

Plastic ,The Demon of today---daa shyam gupta

                                  ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...


---------The earth Day ----- a poem on pollution ...Dr shyam gupta
\
--------Plastic ,The Demon of today------


The priest read the stars and wondered,
"Time of reincarnation of god",he thundered.


My young daughter,inquisitive and bold,
Smiled in amazement & thus she told,
"Since our childhood,we have heard,
When demon is born,in this world,
His powers are fortified by the boons of Tridev-
Either Brahma or Vishnu or great bestower Mahadev.
There is chaos on the earth& everywhere,
The god incarnate to make things fair.
Nowadays on earth no demon dwell,
Why incarnation of god do stars foretell.


The priest grumbled & closed his book,
Rearranged his Uttariya with a sarcastic look;
"True my child ! clever and bold.
"The Asur is born" , the priest thus told;
Of extreme lust of worldly yields,
Of people at large from every field.
Breath still there many dreaded Asurs,
Most seen high headed,Plasticasur.


The plastic the pulse of our civilization,
Have brought our life a colorful passion,
His magical clutches in an auspicious way,
Engulf the world in pollution like spiders pray.
That icon of luxury & fulfillment ,
Is today a cancer of environment.