नवीन राह पग धरो....२३ जनवरी नेताजी सुभाष बोस के जन्मदिवस पर --प्रयाण गीत ---
न तुम निराश हो कि,
पूछता हमें नहीं कोई |
न तुम निराश हो कि,
सूझती न राह अब कोई ||
हर तरफ है स्वार्थ और-
दंभ की हवा चली |
कराहती मनुष्यता, औ-
आस्था गयी छली ||
मनुष्य ही मनुष्यता का,
शत्रु होरहा है अब |
सज़ा रहा स्वयं के ,
विनाश का ही साज़ सब ||
आदमी को आदमी से,
प्रीति-भाव ही नहीं|
न्याय सत की बात अब,
कोई समझ पाता नहीं ||
हाँ राजनीति आजकी,
कुटिलता नीति होगई |
हाँ रीति-नीति आज सब,
अनीति प्रीति हो गयी ||
हाँ धर्म नीति ,शास्त्र से,
विभिन्न रीति बन गयी |
औ कर्म-नीति स्वार्थ से,
अभिन्न हुई तन गयी ||
मानते हैं सत को आज
पूछता ही कौन है |
काक गाते रागिनी,औ
कीर-पिक मौन हैं ||
न देश राष्ट्र भक्ति की,
भावना उभर रही |
न राष्ट्र-देश हेतु ,कोई-
कामना संवर रही ||
सुख-साधनों की भीड़ में,
हम अकेले होगये|
मीत मौज मस्तियों के,
मेले कहीं खोगये ||
कवि और शायर भी कहाँ ,
अब , राष्ट्र गीत गारहे |
चारणों के वेश में ,
हैं वन्दना सुना रहे ||
हाँ आज काली रात है,
आयेगा नव प्रभात भी |
चढ़ेगा सूर्य फिर वही,
फैलेगा नव-प्रकाश भी ||
निज शास्त्र नीति भूलकर,
अप-भाव नीति बह चले |
बैठ करके कागजों की,
नाव में हैं हम चले ||
थका नहीं प्रताप था,
जो जीतने की चाह थी |
झुका नहीं सुभाष था ,
क्या जूझने की राह थी ||
न कोई साथ दे अगर,
जो राह में,न गम करो |
अकेले ही चले चलो,
न तुम रुको न तुम डरो ||
जो धीर हैं भला कभी,
रुकावटों से कब रुके |
है वीर,जो न दुश्मनों के,
सामने कभी झुके ||
न भटको सत्य राह से,
न छोडो राह , आस की |
वो राह चलके आयगी,
स्वयं तुम्हारे पास ही ||
तुम सपूत देश के ,
यूं कंटकों से क्यों डरो |
नव दीप लिए हाथ में,
नवीन राह पग धरो ||
न तुम निराश हो कि,
पूछता हमें नहीं कोई |
न तुम निराश हो कि,
सूझती न राह अब कोई ||
हर तरफ है स्वार्थ और-
दंभ की हवा चली |
कराहती मनुष्यता, औ-
आस्था गयी छली ||
मनुष्य ही मनुष्यता का,
शत्रु होरहा है अब |
सज़ा रहा स्वयं के ,
विनाश का ही साज़ सब ||
आदमी को आदमी से,
प्रीति-भाव ही नहीं|
न्याय सत की बात अब,
कोई समझ पाता नहीं ||
हाँ राजनीति आजकी,
कुटिलता नीति होगई |
हाँ रीति-नीति आज सब,
अनीति प्रीति हो गयी ||
हाँ धर्म नीति ,शास्त्र से,
विभिन्न रीति बन गयी |
औ कर्म-नीति स्वार्थ से,
अभिन्न हुई तन गयी ||
मानते हैं सत को आज
पूछता ही कौन है |
काक गाते रागिनी,औ
कीर-पिक मौन हैं ||
न देश राष्ट्र भक्ति की,
भावना उभर रही |
न राष्ट्र-देश हेतु ,कोई-
कामना संवर रही ||
सुख-साधनों की भीड़ में,
हम अकेले होगये|
मीत मौज मस्तियों के,
मेले कहीं खोगये ||
कवि और शायर भी कहाँ ,
अब , राष्ट्र गीत गारहे |
चारणों के वेश में ,
हैं वन्दना सुना रहे ||
हाँ आज काली रात है,
आयेगा नव प्रभात भी |
चढ़ेगा सूर्य फिर वही,
फैलेगा नव-प्रकाश भी ||
निज शास्त्र नीति भूलकर,
अप-भाव नीति बह चले |
बैठ करके कागजों की,
नाव में हैं हम चले ||
थका नहीं प्रताप था,
जो जीतने की चाह थी |
झुका नहीं सुभाष था ,
क्या जूझने की राह थी ||
न कोई साथ दे अगर,
जो राह में,न गम करो |
अकेले ही चले चलो,
न तुम रुको न तुम डरो ||
जो धीर हैं भला कभी,
रुकावटों से कब रुके |
है वीर,जो न दुश्मनों के,
सामने कभी झुके ||
न भटको सत्य राह से,
न छोडो राह , आस की |
वो राह चलके आयगी,
स्वयं तुम्हारे पास ही ||
तुम सपूत देश के ,
यूं कंटकों से क्यों डरो |
नव दीप लिए हाथ में,
नवीन राह पग धरो ||