ब्लॉग आर्काइव

डा श्याम गुप्त का ब्लोग...

मेरी फ़ोटो
Lucknow, UP, India
एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं... काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद .. my blogs-- 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति... 2.drsbg.wordpres.com, 3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त

शनिवार, 23 अप्रैल 2011

भ्रष्टाचार के कारण--तीन- --न्याय-व्यवस्था........डा श्याम गुप्त.....

                                                                            ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ... 
                  कहा जाता है कि न्याय की देवी की आंखों पर पट्टी बंधी  होती है , परन्तु न्यायाधीश व न्यायालय के अन्य कर्मचारी तो मनुष्य ही होते हैं और उनकी आँखें खुली होती हैं | उनमें भी मानवीय गुणावगुण होते ही हैं | सामान्य जन में यह निश्चित धारणा है की अदालतों में कोई काम  पैसे दिए बिना नहीं होता, और वह भी खुले आम , सामान्य दफ्तरों की भाँति चोरी चोरी नहीं  | अब यह धारणा क्यों व कैसे बनी ? सभी जानते हैं | 
                न्याय एक पवित्र  व्यापार है  व न्यायालय पवित्र स्थान, वे शासन व राजनीति से स्वतंत्र इकाई मानी जाती है  , परन्तु आज के मानवीय आचरण के  गिरावट के समय में यह व्यवस्था भी कैसे शुद्ध रह सकती है | न्याय के समाज और व्यक्ति पर दूरगामी व सर्वतोमुखी प्रभाव होते हैं | इसी के चलते जन-लोकपाल बिल में न्यायालयों को भी लाने की बात होरही है | मेरे विचार में कुछ मूल बातें एसी हैं जो इनके प्रति जनता में भय  का वातावरण बनाती हैं और भ्रष्टाचार के लिए भाव भूमि...
१-न्यायालय की अवमानना---- न्यायालय के विरुद्ध कुछ भी कथन, टिप्पणी आदि  अवमानना  मान लिया जाता है, जो नागरिक के अधिकार का हरण है ...अवमानना न्याय की होती है.....न्यायालय व न्यायाधीश की नहीं ---अवमानना न्याय की नहीं होनी चाहिए ..यदि कोई न्याय द्वारा पारित आदेशों का पालन नहीं करे तो वह अवमानना हो सकती है परन्तु टिप्पणी व राय प्रस्तुत करना  नहीं , न्यायालय में न्याय-आसन पर उपस्थित न्यायाधीश के न्याय के  विरुद्ध  कथन अवमानना है परन्तु अन्य स्थान पर उनके विरुद्ध कोई कथन या व्यक्तिगत कथन आदि  न्याय के नहीं, सामान्य नागरिक के सन्दर्भ में  माना जाना चाहिये | होता यह है क़ि नागरिक का कुछ भी बोलना अवमानना मान लिया जाता है और जनता में व्याप्त भय ..भ्रष्टाचार का कारण बनता है | 
२- स्वयं संज्ञान लेना--- होता यह है क़ि प्रायः तमाम व्यक्तिगत कारणों से न्यायकर्ता, स्वयं संज्ञान के अधिकार का प्रयोग करके किसी को भी वारंट तक भेज देते हैं जो भ्रष्टाचार का कारक है | अत्यंत आवश्यक समाज व जन-जीवन से सम्बंधित कलापों के अन्यथा यह अधिकार नहीं होना चाहिए .... इस अवस्था में वे  स्वयं न्यायकर्ता न होकर,  सामान्य व्यक्ति की भाँति नियमानुसार अन्य अदालत में अपना वाद पेश करें |
३- कहीं भी न्यायालय -- न्याय सिर्फ न्याय-आसन पर ही होना चाहिये , कहीं भी या  घर पर नहीं , नियमित रूप से पूरे समय चेंबर में न बैठना भी एक बहुत बड़ी असुविधा है न्याय के लिए | और --"न्याय में देरी का अर्थ न्याय न मिलना "..जैसे जुमले इसीलिये बन जाते हैं |
३- विशेष अधिकार -- न्याय कर्ताओं को सुविधा आदि के लिए प्रशासनिक अधिकारियों की भाँति  व्यवहार नहीं करना चाहिए ,  विशेष अधिकार  भी अनाधिकार चेष्टा को प्रश्रय देते हैं |