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डा श्याम गुप्त का ब्लोग...

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Lucknow, UP, India
एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं... काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद .. my blogs-- 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति... 2.drsbg.wordpres.com, 3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त

शुक्रवार, 1 मई 2009

उत्सव प्रियः मानवाः

मनुष्य सदैव से ही उत्सव प्रिय है। यह मानव की( वस्तुतः जीव की ) सबसे आदिम प्रवृत्तियों मैं से एक है। यह उत्सव -प्रियता मानव मन को ऋणात्मकविचारों से हटाकर गुणात्मक सोच,विचार,कर्म द्वारा आशा, विश्वास ,श्रृद्धा व भक्ति के लिए प्रेरित करती है,जो जीवन मैं सफलता का मूल मन्त्र है एवं सुख-दुःख,आशा-निराशा,सफलता-असफलता आदि के द्वंद्व -द्वय ,( जो मानव के अंतःकरण चतुष्टय -चित,बुद्धि, मन ,अंहकार -के साथ उत्पन्न हैं ,अवश्यम्भावी हैं। ) को सहर्ष झेल कर आगे बढ़ने की प्रेरणा देते हैं।
भारतीय संसकारिता के परिप्रेक्ष्य मैं यह बात और स्पष्ट रूप से दृष्टिगत होती है; क्योंकि प्रत्येक वस्तु,भाव,व्यवहार,समय व अवस्था मैं -भाव भूमि -भारतीय संस्कारिता की मूल व रीढ़ भावः-बस्तु है। यहाँ प्रत्येक कार्य के साथ -साथ ही आराम व मनोरंजन की प्रक्रिया भी चलती रहती है । जन्मपूर्व ,जन्म ,अन्नप्राशन,shikshaa , विवाह आदि मृत्यु व मृत्यु उपरांत भी --प्रत्येक बिन्दु पर एवं मेले -ठेले ,पर्व-त्यौहार लगभग प्रत्येक दिन ,माह ,वर्ष -प्रत्येक बिन्दु पर उत्सव -कार्य के साथ-साथ चलता रहता है। पश्चिम की भांति --काम,काम,काम और फ़िर आराम व मनोरंजन के लिए सप्ताहांत मैं विशेष प्रक्रिया अपनाना ।
क्या ,अति भागमभाग,अति तीव्रता से दौड़ना ,चाहे भौतिक बिकास के लिए ही सही (क्योंकि मानवीय,व्यवहारिक व आध्यात्मिक बिकास सदैव क्रमिक व निरंतरता की सामान्य गति से ही होता है। ) वस्तुत आवश्यक है ?
यही है भारतीय संस्कारिता की द्र्ड़ता ,निरंतरता ,जीवन्तता ,प्रियता जो इसे अमिट्ता व अमरता प्रदान करती है। यह सनातन- धर्म धारा है।