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डा श्याम गुप्त का ब्लोग...

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Lucknow, UP, India
एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं... काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद .. my blogs-- 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति... 2.drsbg.wordpres.com, 3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त

रविवार, 15 मई 2011

वैदिक साहित्य में सोम व सोमरस --1 ---डा श्याम गुप्त ....

                                                                ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
            सोम क्या है | प्राय विदेशी विद्वान  व अन्य सामान्य जन द्वारा वेदों में वर्णित सोम को सुरा या शराब मान बैठते हैं एवं वैदिक साहित्य व सनातन भारतीय  धर्म की , इन्द्रादि देवताओं की 'सोम पीत्वा' के कारण बुराइयां ढूँढने, गिनाने, सुनाने  लगते हैं | यह वास्तव में अज्ञान के कारण है |
           वस्तुतः प्रत्येक वस्तु, भाव व विचार, कार्य, प्रकृति   का जो सौम्य ,सम, समताकारी, कल्याणकारी ,शीतलकारी , सर्वश्रेष्ठ मूल भाव है वह 'सोम' है | सत्यं शिवं सुन्दरं  भाव है वह   "सोम" है | इसीलिये शिव के सिर पर सोम अर्थात चन्द्रमा विराजमान है | सौम्यता धारण के बिना कुछ भी कल्याणकारी नहीं होसकता |
             सोम एक दिव्य प्रवाह है जिसका  अंतरिक्ष से वर्षण होता है , किरणों , धाराओं आदि के साथ, जो मानव में कल्याणदायी भाव प्रस्फुटित करता है  | सोम एक प्रकार की वनस्पति भी है जो " सोमलता " कहलाती है जो मन, बुद्धि शरीर को समर्थ बनाती है |---ऋग्वेद ९/१/९६९८ के अनुसार ....."त्रिधातु वारण्म मधु "
            सोम सुरा नहीं है  ---सोम को   प्राय: सुरा ही समझ लिया जाता है | परन्तु वे भिन्न भिन्न हैं | ऋग्वेद ७/८६/५८२७ मैं  सुरा का अलग से वर्णन  है ......
".न स स्वो दक्षो वरुणाध्रतिः सा सुरा  मन्युर्विभीदको अचित्तिः |
अस्ति ज्यायान्कनीय्से उपारे स्वप्नाश्च वेद न्रितस्य प्रयोता ||  "     ---अर्थात...वह पाप ( न स ) स्वयं के दोष के कारण ( स्व दक्षो ) नहीं होता , अपितु मद्यपान (सुरा ), क्रोध ( मन्यु ) , जुआ (विभीदको ) और अज्ञान ( अचित्तिः ) आदि से उत्पन्न होता है | पाप के दुष्कर्मों में जो ज्येष्ठ , कुशल ( अति ज्याया ) हैं  वे कनिष्ठ, अल्पज्ञ  ( कनीयसे )को पाप में प्रवृत्त करते हैं | ऐसे  लोग वृत्ति बिगड़ जाने से स्वप्न  में भी पाप-रत रहते हैं |
            ऋग्वेद ८/२ में कहागया है --"-ह्रत्सु पीतासो युध्यन्ते दुर्यदासो न सुरायाम " ---हे इंद्र ! जिस प्रकार सुरा पीने के बाद लोग उन्मत्त होकर युद्ध करते हैं , वैसे ही यह सोमरस आपके ह्रदय में मंथन करता है |
             ऋग्वेद ३/८/२८८९- में कहागया है...." उपस्थाय मातर मन्नयह  तिग्मय पश्यदभि सोम मूध:"---उन्होंने ( इंद्र ने ) माता के स्तनों में दुग्ध  रूपी दीप्तिमान सोम को देखा |
              ऋग्वेद २/३७/२३७८ कहता है ..."सोमं  द्रविणोद पिव ऋतुभि: "   --अर्थात सोम व धन का ऋतु (मौसम व  नियम ) के अनुसार प्रयोग करना चाहिए |--अतः सोम एक पुष्टिदायक पेय पदार्थ था जो बादाम आदि की भांति सर्दी , गर्मी आदि  अलग अलग ऋतुओं में अलग अलग भाँति प्रयोग में लाया जाता था , जो सत्तू, आदि में मिला कर भी खाया जाता था |
                          ----क्रमश :  ---भाग २...सोम का विस्तृत, वैज्ञानिक  वर्णन व विवेचन........अगली पोस्ट में....