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डा श्याम गुप्त का ब्लोग...

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Lucknow, UP, India
एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं... काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद .. my blogs-- 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति... 2.drsbg.wordpres.com, 3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त

शुक्रवार, 29 जून 2018

मेरी चारधाम यात्रा ---भाग चार-----गंगोत्री--डा श्याम गुप्त

....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...



मेरी चारधाम यात्रा ---भाग चार-----
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पांचवां दिन --- २१-५-१८ उत्तरकाशी से गंगोत्री से उत्तरकाशी--
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(१०० किमी, ऊन्चाई ३०४८ M-)-
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---२१-५-१८--- प्रातः तड़के ही होटल से पैक नाश्ता लेकर हम लोग गंगोत्री के लिए निकल लिए | रास्ते में गंगनानी में गरम पानी के कुंड हैं | हम सुन्दर मनोहारी हर्षिल घाटी होते हुए सीधे गंगोत्री की और बढ़ गए |
हरसिल घाटी ----
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------गंगोत्री मार्ग पर स्थित हरसिल घाटी आर्श्ययजनक व सम्मोहक है समुद्र तल से 7860 फुट की ऊंचाई पर स्थित है। पूरी घाटी में नदी-नालों और जल प्रपातों की भरमार है। हर कहीं दूधिया जल धाराएं इस घाटी का मौन तोडने में डटी हैं। नदी झरनों के सौंदर्य के साथ-साथ इस घाटी के सघन देवदार के वन मनमोहक हैं। इसे हरिप्रयाग भी कहा जाता है|
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******ऋग्वेद में प्रकृति के मनोरम दृश्यों एवं प्रार्थनाओं के मन्त्र रूप में जो सार्वकालीन सर्वश्रेष्ठ साहित्यिक कृतियाँ हैं वे शायद यहीं रचे गए होंगे ********
-----------ऋग्वेद में वैदिक कालीन एक प्रातः का वर्णन कितना सुन्दर व सजीव है ---
“विचेदुच्छंत्यश्विना उपासः प्र वां ब्रह्माणि कारवो भरन्ते |
उर्ध्व भानुं सविता देवो अश्रेद वृहदग्नयः समिधा जरन्ते ||”
----हे अश्वनी द्वय ! उषा द्वारा अन्धकार हटाने पर स्तोता आपकी प्रार्थना करते हैं (स्वाध्याय, व्यायाम, योग आदि स्वास्थ्य वर्धक कृत्य की दैनिक चर्या )| सूर्या देवता ऊर्ध गामी होते हुए तेजस्विता धारण कर रहे हैं | यज्ञ में समिधाओं द्वारा अग्नि प्रज्वलित हो रही है | ...
तथा –
“एषा शुभ्रा न तन्वो विदार्नोहर्वेयस्नातो दृश्ये नो अस्थातु
अथ द्वेषो बाधमाना तमो स्युषा दिवो दुहिता ज्योतिषागात |
एषा प्रतीचि दुहिता दिवोन्हन पोषेव प्रदानिणते अणतः
व्युणतन्तो दाशुषे वार्याणि पुनः ज्योतिर्युवति पूर्वः पाक: ||”
----प्राची दिशा में उषा इस प्रकार आकर खड़ी होगई है जैसे सद्यस्नाता हो | वह अपने आंगिक सौन्दर्य से अनभिज्ञ है तथा उस सौन्दर्य के दर्शन हमें कराना चाहती है | संसार के समस्त द्वेष-अहंकार को दूर करती हुई दिवस-पुत्री यह उषा प्रकाश साथ लाई है, नतमस्तक होकर कल्याणी रमणी के सदृश्य पूर्व दिशि-पुत्री उषा मनुष्यों के सम्मुख खडी है | धार्मिक प्रवृत्ति के पुरुषों को ऐश्वर्य देती है | दिन का प्रकाश इसने पुनः सम्पूर्ण विश्व में फैला दिया है |
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-------यह भागीरथी नदी के किनारे, जलनधारी गढ़ के संगम पर एक घाटी में अवस्थित है।
-------मातृ एवं कैलाश पर्वत के अलावा उसकी दाहिनी तरफ श्रीकंठ चोटी है, जिसके पीछे केदारनाथ तथा सबसे पीछे बदंरपूंछ आता है।
-------यह वन्य बस्ती अपने प्राकृतिक सौंदर्य एवं मीठे सेब के लिये मशहूर है। हर्षिल के आकर्षण में हवादार एवं छाया युक्त सड़क, लंबे कगार, ऊंचे पर्वत, कोलाहली भागीरथी, सेबों के बागान, झरनें, सुनहले तथा हरे चारागाह आदि शामिल हैं।
--------हरसिल की सुन्दरता को राम तेरी गंगा मैली फिल्म में भी दिखाया जा चुका है। यहीं के एक झरने में फिल्म की नायिका मंदाकिनी को नहाते हुए दिखाया गया है।

गंगोत्री ----
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----गंगा नदी ( भागीरथी ) का उद्गम स्थान है। यह स्थान उत्तरकाशी से 100 किमी की दूरी पर स्थित है।
------भगवान श्री रामचंद्र के पूर्वज रघुकुल के चक्रवर्ती राजा भगीरथ ने यहां एक पवित्र शिलाखंड पर बैठकर भगवान शंकर की प्रचंड तपस्या की थी।
------देवी भागीरथी ने इसी स्थान पर धरती का स्पर्श किया। पांडवो ने भी महाभारत के युद्ध में मारे गये अपने परिजनो की आत्मिक शांति के निमित इसी स्थान पर आकर एक महान देव यज्ञ का अनुष्ठान
किया था।
------ शिवलिंग के रूप में एक नैसर्गिक चट्टान भागीरथी नदी में जलमग्न है। पौराणिक आख्यानो के अनुसार, भगवान शिव इस स्थान पर अपनी जटाओं को फैला कर बैठ गए और उन्होने गंगा माता को अपनी घुंघराली जटाओ में लपेट लिया। शीतकाल के आरंभ में जब गंगा का स्तर काफी अधिक नीचे चला जाता है तब उस अवसर पर ही उक्त पवित्र शिवलिंग के दर्शन होते है।
--------भागीरथी, घाटी के बाहर निकलकर केदारगंगा तथा भागीरथी के कोलाहल को छोड़कर जड़ गंगा से मिल जाती है, इस सुंदर घाटी के अंत में गंगा जी का मंदिर है।
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गंगाजी का मंदिर, ----
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समुद्र तल से 3042 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। भागीरथी के दाहिने ओर का परिवेश अत्यंत आकर्षक एवं मनोहारी है। पवित्र एवं उत्कृष्ठ मंदिर सफेद ग्रेनाइट के चमकदार 20 फीट ऊंचे पत्थरों से निर्मित है। दर्शक मंदिर की भव्यता एवं शुचिता देखकर सम्मोहित हुए बिना नही रहते।
--------मंदिर में लम्बी लाइन को पार करके गंगा माँ के दर्शन किये व प्रसाद लेकर फोटो आदि खींचे एवं एक वर्तन में गंगाजल लेकर तथा कुछ बाज़ार करने के बाद हम लोग वापस उत्तरकाशी के होटल में रात्रि २१-५-१८ विश्राम हेतु लौट गए |
गौमुख----
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गंगोत्री से 19 किलोमीटर दूर 3,892 मीटर की ऊंचाई पर स्थित गौमुख गंगोत्री ग्लेशियर का मुहाना तथा भागीरथी नदी का उद्गम स्थल है। गंगोत्री से यहां तक की दूरी पैदल या फिर ट्ट्टुओं पर सवार होकर पूरी की जाती है।
भैरों घाटी -----
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--- गंगोत्री से 9 किलोमीटर पर स्थित भैरों घाटी जड़ गंगा, जाह्नवी गंगा तथा भागीरथी के संगम पर स्थित है।
-------1985 से पहले जब जड़ गंगा पर संसार के सर्वोच्च झूला पुल सहित गंगोत्री तक मोटर गाड़ियों के लिये सड़क का निर्माण नहीं हुआ था, तीर्थयात्री लंका से भैरों घाटी तक घने देवदारों के बीच पैदल आते थे और फिर गंगोत्री जाते थे।
-------भैरों घाटी हिमालय का एक मनोरम दर्शन कराता है, जहां से आप भृगु पर्वत श्रृंखला, सुदर्शन, मातृ तथा चीड़वासा चोटियों के दर्शन कर सकते हैं।
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(----इस जड़गंगा के झूलापुल पर एक बार मेरी पोस्टिंग हुई थी, रेलवे ने यह पुल बनवाया था और हिमपात होने के कारण इंजी.सामान छूट गया था | गर्मियों में हिम पिघलने पर किसी ने शैतानी पूर्ण कृत्य द्वारा मेरी पोस्टिंग वहां करादी | परन्तु हमने एक फार्मासिस्ट को फर्स्ट एड की पोस्ट सहित वहां पोस्ट करा दिया था स्टाफ के लिए जो बचा हुआ सामान वापस लाने हेतु भेजा गया था | )
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नंदनवन तपोवन---
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गंगोत्री से 25 किलोमीटर दूर गंगोत्री ग्लेशियर के ऊपर एक कठिन ट्रेक नंदनवन ले जाती है । यहां से शिवलिंग चोटी का मनोरम दृश्य दिखता है। गंगोत्री नदी के मुहाने के पार तपोवन है जो अपने सुंदर यहां चारगाह के लिये मशहूर है तथा शिवलिंग चोटी के चारों तरफ फैला है।
भोजबासा----
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गंगोत्री से 14 किलोमीटर दूर है। यह जड़ गंगा तथा भागीरथी नदी के संगम पर है।
------ भोजपत्र पेड़ों की अधिकता के कारण इसे भोजबासा का नाम मिला | गौमुख जाते हुए इसका उपयोग पड़ाव की तरह होता है। रास्ते में आप किंवदन्त धार्मिक फूल ===ब्रह्मकमल देख सकते है जो ब्रह्मा का आसन है।====
केदारताल----
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गंगोत्री से 14 किलोमीटर दूर यह मनोरम झील समुद्र तल से 15,000 फीट ऊंचाई पर है | केदार ग्लेशियर के पिघलते बर्फ से बनी यह झील भागीरथी की सहायक केदारगंगा का उद्गम स्थल है, जिसे भगवान शिव द्वारा भागीदारी को दान मानते हैं।
-------समीप ही केदार खंड से सटा है मार्कण्डेयपुरी जहां मार्कण्डेय मुनि के तप किया तथा उन्हें भगवान विष्णु द्वारा सृष्टि के विनाश का दर्शन कराया गया। इसी प्रकार से मातंग ऋषि ने वर्षों तक बिना कुछ खाये-पीये यहां तप किया।
गंगा---
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---गंगोत्री में भागीरथी-गौमुख ग्लेशियर से...---केदारनाथ में मंदाकिनी -शतपथ ग्लेशियर व बद्रीनाथ में अलकनंदा भागीरथ खड़क ग्लेशियर से --- उत्तरकाशी स्थित पंचप्रयागों में अंतिम प्रयाग देवप्रयाग में अलकनंदा व भागीरथी के संगम के उपरांत ही इसे गंगा का नाम मिलता है |
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ऋगवेद में गंगा का वर्णन कहीं-कहीं ही मिलता है पर पुराणों में गंगा से संबंधित कहानियां वर्णित हैं| कहा जाता है कि एक प्रफुल्लित सुंदरी युवती का जन्म ब्रह्मदेव के कमंडल से हुआ। इस खास जन्म के बारे में दो विचार हैं।
----- एक की मान्यता है कि वामन रूप में राक्षस बलि से संसार को मुक्त कराने के बाद ब्रह्मदेव ने भगवान विष्णु का चरण धोया और इस जल को अपने कमंडल में भर लिया।
------ दूसरे का संबंध भगवान शिव से है जिन्होंने संगीत के दुरूपयोग से पीड़ित राग-रागिनी का उद्धार किया। जब भगवान शिव ने नारद मुनि ब्रह्मदेव तथा भगवान विष्णु के समक्ष गाना गाया तो इस संगीत के प्रभाव से भगवान विष्णु का पसीना बहकर निकलने लगा जो ब्रह्मा ने उसे अपने कमंडल में भर लिया। इसी कमंडल के जल से गंगा का जन्म हुआ और वह ब्रह्मा के संरक्षण में स्वर्ग में रहने लगी।

क्रमश-----शेष भाग पांच----आगे ------
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चित्र-हर्षिल घाटी----५ ..भागीरथी , झरने , हर्षिल घाटी ,पर्वतीय नदी, उषा व सूर्योदय बाराकोट ...
चित्र-१९-गंगोत्री की राह पर दूर से गौमुख
चित्र-२०-गंगोत्री मंदिर की राह पर
चित्र- २१-भागीरथ शिला व गंगा निकालने का स्थान ---
चित्र- २२-भागीरथी के किनारे –गंगोत्री पर
चित्र- २३-गंगोत्री मंदिर से गंगा का उद्गम गौमुख ग्लेशियर ..
चित्र—२४-गंगा जी का मुख्य-मंदिर प्रांगण में ...गंगोत्री
चित्र- २५-गौमुख ग्लेशियर गंगा का उद्गम ---













क्रमश ----भाग पांच ..आगे----


 

मेरी चारधाम यात्रा --भाग तीन----उत्तरकाशी --डा श्याम गुप्त

....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...


मेरी चारधाम यात्रा --भाग तीन----उत्तरकाशी
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चौथा दिन---- २०-५-१८ प्रातः - बारकोट से उत्तरकाशी—
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----१०० किमी -- १३५२ मी ऊंचाई --- २० -५-१८ को प्रातः बारकोट से उत्तरकाशी ४ घंटे का रास्ता --- होटल रिवर व्यू रिसोर्ट –भागीरथी तट---
उत्तरकाशी भ्रमण –२०-५-१८ ..
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उत्तरकाशी जिले में यमुना व गंगा दोनों नदियों का उद्गम स्थल है | उत्तरकाशी कस्बा भागीरथी नदी के तट पर स्थित है |
-------यह महाभारत काल का वारणावत ग्राम है जो वरुणावत पर्वत पर यह देवाधिदेव भगवान चंद्रमौलि शंकर का मूल निवास माना जाता है और यह कहा जाता है कि उन्होंने इस स्थान पर गोपी का रूप धारण करके तप किया था। जिस जगह उन्होंने तपस्या की, वह स्थान आज भी 'गोपेश्वर महादेव' के नाम से प्रसिद्ध है।
-------उत्तरकाशी में ही राजा भागीरथ ने तपस्या की थी और उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी ने उन्हें वरदान दिया था कि भगवान शिव धरती पर आ रही गंगा को धारण कर लेंगे ।
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प्राचीन समय में इसे विश्वनाथ की नगरी कहा जाता था। कालांतर में इसे उत्तरकाशी कहा जाने लगा। केदारखंड और पुराणों में उत्तरकाशी के लिए 'बाडाहाट' शब्द का प्रयोग किया गया है। पुराणों में इसे 'सौम्य काशी' भी कहा गया है। हिमालय की सुरम्य घाटी में उत्तरकाशी गंगोत्री मार्ग पर भागीरथी के दाएं तट पर स्थित है | चारों धामों के प्राचीन मार्ग यहीं से हैं|
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हिमालय के प्रसिद्द राज्य ब्रह्मपुर की राजधानी एवं भारत –तिब्बत के मध्य व्यापार का पारंपरिक स्थल रहा है जहां विदेशी व्यापारी नमक व रत्नों के व्यापार के लिए पहुँचते थे |
-------पारासर ऋषि की तप स्थली गंगनानी, सुखदेव मुनि की स्थली सुक्खी, रावण के हाथ से छूटा हुआ शिवलिंग स्थल लंका तथा बालखिल्य, एरावत, वरुणावत, इन्द्रकील व महेंद्र पर्वत आदि से घिरा हुआ देवों की क्रीड़ास्थली रहा है बाड़हाट |
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इसकी तुलना वास्तविक काशी (वाराणसी) से की जाती है। पवित्र स्थान उत्तरकाशी दो नदियों स्यालमगाड व कालीगाड के बीच में स्थित है, जिन्हें क्रमश: वरूणा एवं असी के नाम से भी जाना जाता है। ठीक इसी तरह वास्तविक काशी (वाराणसी) भी दो नदियों वरूणा व असी के मध्य स्थित है। दोनों ही स्थानों में सबसे पवित्र घाट मणिकर्णिकाघाट स्थित है तथा दोनों ही स्थान विश्वनाथ मदिंर को समर्पित हैं।
------- पौराणिक संदर्भ में उत्तरकाशी का अलग ही महत्व रहा है, प्राचीन काल में इसे बाड़ाहाट के नाम से भी जाना जाता था। इसे 'पंचकाशी' भी कहा जाता है। यही वस्तुतः मूल प्राचीन काशी है |
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यह भी कहा जाता है कि उत्तरकाशी के चामला की चौड़ी में परशुराम ने तप किया था। भगवान विष्णु के 24वें अवतार परशुराम को अस्त्र का देवता एवं परशु धारण करने के कारण योद्धा संत के रूप में भी जाना जाता है। वे सात मुनियों में से एक हैं जो चिरंजीवी हैं।
---------परशुराम ने अपने पिता जमदग्नि मुनि के आदेश पर अपनी माता रेणुका का सिर काट दिया था। उनकी आज्ञाकारिता से प्रसन्न होकर जमदग्नि मुनि ने उन्हें एक वरदान दिया। परशुराम ने अपनी माता के लिये पुनर्जीवन मांगा एवं वे जीवित हो गयीं। फिर भी वे मातृहत्या के दोषी थे एवं पिता ने उन्हें उत्तरकाशी जाकर प्रायश्चित करने को कहा। तब से उत्तरकाशी उनकी तपोस्थली बना।
--------कठोर तप को शांत करके सौम्य रूप धारण करने के कारण इसे 'सौम्य काशी' कहा गया |
काशी विश्वनाथ मंदिर--- ---------------------------------
--इस मंदिर की स्‍थापना परशुराम जी द्वारा की गई थी| यह वास्तव में मूल प्राचीन काशी विश्वनाथ मंदिर है | शिव का मूल धाम | मंदिर के समीप अच्छा बाज़ार है जहां हींग व कस्तूरी आदि भी बेची जारही थी |
 


शक्ति मंदिर --एवं विशालकाय त्रिशूल---
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-------एक ही परिसर में विश्वनाथ मंदिर के ठीक विपरित शक्ति मंदिर देवी पार्वती के अवतार में, शक्ति की देवी को समर्पित है।
-------- इस मंदिर के गौरव स्थल पर, 8 मीटर ऊंचा एक त्रिशूल है जो 1 मीटर व्यास का है जिसे शक्ति स्तंभ भी कहते हैं। त्रिशुल का प्रत्येक कांटा 2 मीटर लंबा है।
--------उत्तराखण्ड में यह सबसे पुराना अवशेष है।इस त्रिशूल का ऊपरी भाग लो‍हे का तथा निचला भाग तांबे का है। पौराणिक कथाओं के अनुसार देवी दुर्गा ने इसी त्रिशूल से दानवों को मारा था। बाद में इन्‍हीं के नाम पर यहां इस मंदिर की स्‍थापना की गई।
--------एक मतानुसार जब देवों तथा असुरों में युद्ध छिड़ा तो इस त्रिशूल को स्वर्ग से असूरों की हत्या के लिये भेजा गया। तब से यह पाताल में शेषनाग के मस्तक पर संतुलित है। यही कारण है कि छूने पर हिलता-डुलता है क्योंकि यह भूमि पर स्थिर नहीं है।
--------एक अन्य किंवदन्ती यह है भगवान शिव ने विशाल त्रिशूल से वक्रासुर राक्षस का बध किया था और
---------एक अन्य मतानुसार त्रिशूल पर खुदे संस्कृत लेखानुसार यह मंदिर राजा गोपेश्वर ने निर्मित कराया और उनके पुत्र महान योद्धा गुह ने त्रिशूल को बनवाया।
-------- ऐसा भी विश्वास है कि उत्तरकाशी का पूर्व नाम बड़ाहाट शक्ति स्तंभ से आया है, जिसमें बारह शक्तियों का समावेश है। बड़ाहाट बारह शब्द का बिगड़ा रूप है।
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स्कन्दपुराण के केदारखण्ड में इस स्थान का वर्णन सौम्यकाशी के नाम से किया गया है। मान्यता है कि द्वापर युग के महाभारत काल में ---------भगवान शिव ने किरात का रूप धारण करके यहीं पर अर्जुन से युद्ध किया था। महाभारत के उपायन पर्व में उत्तरकाशी के मूलवासियों जैसे किरातों, उत्तर कुरूओं, खासों, टंगनासों, कुनिनदासों एवं प्रतंगनासों का वर्णन है।
-------यहीं दुर्योधन ने पाण्डवों को मारने के लिये लाक्षागृह का निर्माण किया था।

नचिकेता ताल--
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-उत्तरकाशी के रास्ते में नचिकेता ताल का पट्ट दिखाई देता है, हरियाली से घिरे ताल के तट पर एक छोटा सा मंदिर भी है।
---------कहा जाता है कि कठोपनिषद के नायक बालक नचिकेता जो ऋषि उद्दालक के पुत्र थे जिन्हें स्वयं यम ने मृत्यु के रहस्य के बारे में बताया था, यमलोक जाते समय वे यहाँ ठहरे थे | यमलोक जाते समय वे यहाँ ठहरे थे |
---------------क्रमश-----शेष भाग चार--आगे---
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चित्र-१३- होटल रिवर व्यू रिसोर्ट –भागीरथी तट-पर
चित्र १४ काशी विश्नाथ मंदिर.....
.चित्र १५—उत्तरकाशी के इतिहास के बारे में सूचनापट
चित्र १६---शिव का विशाल त्रिशूल
चित्र-१७-भागीरथी के तटपर उत्तरकाशी
चित्र १८-उत्तरकाशी पर्वतीय वनों में लगी हुई आग ...

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मेरी चारधाम यात्रा ----भाग दो ---- – बारकोट से यमुनोत्री ----.

....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...


मेरी चारधाम यात्रा ----भाग दो ----
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तीसरे दिन – बारकोट से यमुनोत्री ----१९-५-१८...
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१९-५-१८ की तड़के सुबह ही बारकोट से यमुनोत्री के लिए प्रस्थान हुआ, जो वहां से जानकी चट्टी तक ३५ किमी है | हर्षिल घाटी या हरिप्रयाग की मनोरम वादियों व पर्वत श्रृंखलाओं से होते हुए जानकी चट्टी पहुंचे जो भारत का अंतिम गाँव है एवं चीन की सीमा के समीप है, २६५० मीटर ऊंचाई पर ऊंचे पर्वतों से घिरा---गर्म पानी के कुंडों व चश्मों के लिए विख्यात है|
-------यह बीफ गाँव में है इस स्थान का जानकी-सीता से कोइ सम्बन्ध नहीं है अपितु जानकी नाम की महिला द्वारा यहाँ यमुना तट पर एक धर्मशाला बनवाई गयी थी अतः यह गाँव जानकी चट्टी के नाम से विख्यात
हुआ |
-------यहाँ से ६ किमी संकरे चढ़ाई मार्ग द्वारा पैदल, खच्चरों, डांडी या पिट्ठू द्वारा यमुनोत्री तक जाया जाता है जो अत्यंत दुर्गम है | हमने यह मार्ग खच्चरों द्वारा तय किया |
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यमुनोत्री—मंदिर-----
----------------
----उत्तरकाशी जिले में १०७९७ फीट ऊंचाई पर बसा हुआ है | जिसमें काले संगमरमर की यमुना देवी की मूर्ति स्थापित है | पौराणिक गाथा के अनुसार यह असित मुनी का निवास था। यह
------- यमुनोत्तरी हिमनद से 5 मील नीचे दो वेगवती जलधाराओं के मध्य एक कठोर शैल पर स्थित है। तलहटी में दो शिलाओं के बीच जहाँ गरम जल का स्रोत है, यह तप्त कुंड ब्रह्मकुण्ड या सूर्यकुण्ड का तापक्रम लगभग 195 डिग्री फारनहाइट है,जो कि गढ़वाल के सभी तप्तकुण्ड में सबसे अधिक गरम है।
------- इससे एक विशेष ध्वनि निकलती है,जिसे "ओम् ध्वनि"कहा जाता है। इस आलू व चावल पोटली में डालने पर पकजाते हैं |
------- वहीं पर एक संकरे स्थान में यमुनाजी का मन्दिर है। मंदिर के एक और यमुना नदी का प्रवाह है जिससे यमुना जल भरकर यात्री लेजाते हैं | वस्तुतः शीतोष्ण जल का मिलन स्थल ही यमुनोत्तरी है।
-------यमुना को सूर्यपुत्री, यम सहोदरा और गंगा-यमुना को वैमातृक बहने कहा गया |
\
सूर्यकुण्ड के निकट दिव्यशिला है। जहाँ उष्ण जल नाली की सी ढलान लेकर निचले गौरीकुण्ड में जाता है,इस कुण्ड का निर्माण जमुनाबाई ने करवाया था,इसलिए इसे जमुनाबाई कुण्ड भी कहते है। इसे काफी लम्बा चौड़ा बनाया गया है,ताकि सूर्यकुण्ड का तप्तजल इसमें प्रसार पाकर कुछ ठण्डा हो जाय और यात्री स्नान कर सकें। गौरीकुण्ड के नीचे भी तप्तकुण्ड है।
-------यमुनोत्तरी से 4 मील ऊपर एक दुर्गम पहाड़ी पर सप्तर्षि कुण्ड की स्थिति बताई जाती है।विश्वास किया जाता है कि इस कुण्ड के किनारे सप्तॠषियों ने तप किया था।

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यमुनोत्री से यमुना का उद्गम यमुना नदी का स्रोत कालिंदी पर्वत मात्र एक किमी की दूरी पर है। यहां बंदरपूंछ चोटी के पश्चिमी अंत में फैले यमुनोत्री ग्लेशियर को देखना अत्यंत रोमांचक है। है। तीर्थ स्थल से एक किमी दूर यह स्थल 4421 मी. ऊँचाई पर स्थित है। दुर्गम चढ़ाई होने के कारण इस उद्गम स्थल पर जाना नहीं होपाता |

-------इसके शीर्ष पर बंदरपूंछ चोटी (६३५१ मी) गंगोत्री के सामने स्थित है। यमुनोत्री का वास्तविक स्रोत बर्फ की जमी हुई एक झील और हिमनद (चंपासर ग्लेसियर) है जो समुद्र तल से 4421 मीटर की ऊँचाई पर कालिंद पर्वत पर स्थित है। इस स्थान से लगभग 1 किमी आगे जाना संभव नहीं है क्योंकि यहां मार्ग अत्यधिक दुर्गम है। यही कारण है कि देवी का मंदिर पहाडी के तल पर स्थित है
-------- जब पाण्डव उत्तराखंड की तीर्थयात्रा में आए तो वे पहले यमुनोत्तरी, तब गंगोत्री फिर केदारनाथ-बद्रीनाथजी की ओर बढ़े थे तभी से उत्तराखंड की यात्रा वामावर्त की जाती है।
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------- यमुना मंदिर दर्शन यमुनोत्री से वापसी पुनः बारकोट होटल में रात्रिविश्राम १९-५-१८ |
-----------क्रमश --शेष आगे--भाग तीन----
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चित्र-७ अ व ब–हरसिल घाटी में भेड़ों का झुण्ड तथा खच्चरों द्वारा यमुनोत्री का ट्रेक ---
चित्र 8..–यमुनोत्री मंदिर व यमुना नदी ...
चित्र—९..यमुना माता मंदिर पर---
चित्र १०.-यमुनोत्री मंदिर पर सुष्माजी
चित्र-११ हर्षिल घाटी व भागीरथी
चित्र १२-बंदरपूंछ चोटी


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गम्भीर बीमारियों से बचाती है धूप..----चिकित्सकों की राय---डा श्याम गुप्त

                        ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...



गम्भीर बीमारियों से बचाती है धूप..----चिकित्सकों की राय---
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(मानव अपने लिए गड्ढे ढूंढ ही लेता है )
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                               आज से ५०-६० वर्ष पहले भी धूप के महत्त्व को चिकित्सक लोग काफी रेखांकित किया करते थे | विटामिन डी के लिए, हड्डियों की मज़बूती के लिए धूप की अत्यावश्यकता पर खूब बातें होती थीं |
------- कारण था मूलतः भारतीय महिलाओं के घूंघट में, बंद घरों, कमरों में जो कि परम्परा व संस्कार रूप में जाने जाते थे तथा गरीबी व अधिकाँश आबादी के छोटे छोटे कम प्रकाश वाले घरों में रहने के कारण | अतः टीबी, रक्तअल्पता, गठिया, हड्डियों आदि की गंभीर बीमारियाँ भारतीय महिलाओं –पुरुषों में खूब होती थीं |
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विभिन्न प्रयत्नों से देश समाज उन्नत हुआ, महिलायें प्रगतिशील हुईं, घर से बाहर आने जाने लगीं, नौकरी आदि भी खूब करने लगीं, आर्थिक प्रगति हुई और लोग भी बड़े बड़े घरों में रहने लगे | टीबी, एनीमिया आदि रोग कम होने लगे |
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परन्तु आज भी चिकित्सकों की वही राय - गम्भीर बीमारियों से बचाती है धूप..---क्यों |
------कहते हैं मानव अपने सुख-अभिलाषा व विलासप्रियता में अपने लिए गड्ढे ढूंढ ही लेता है |
--------आज भी चिकित्सकों को यही राय देनी पड़ रही है क्योंकि उसने विकास के साथ बड़े बड़े भवन, ऊंची ऊंची इमारतें के साथ प्रशीतनकक्ष , एयरकंडीशंड कमरे, घर, आफिस, वाहन, दुकानें, बाजार, मौल बना लिए...अधिकाधिक कमाने के लिए दिन रात कार्य में लगे रहने हेतु स्वयं को दफ्तरों, कारखानों में कैद कर लिया और धूप व खुले आकाश में प्रकाश उसके लिए फिर एक प्रश्न चिन्ह बन गये |

अर्थात वैचारिक अर्थ में हम वहीं के वहीं हैं |
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रविवार, 10 जून 2018

मेरी चारधाम यात्रा भाग एक--- डा श्याम गुप्त

                                     ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...














                       मेरी चारधाम यात्रा 
भाग एक---
      उत्तर भारत में हिमालय स्थित चारधाम यमुनोत्री, गंगोत्री, केदारनाथ व बद्रीनाथ भारतवर्ष के एवं हिन्दुओं के प्राचीनतम तथा पवित्रतम तीर्थस्थल हैं | हर किसी हिन्दू व भारतीय की जीवन में एक बार बदरीनाथधाम जाने की इच्छा मोक्ष की इच्छा के समान है | वास्तव में तो यह यात्रा माँ गंगा के चहुँ और की परिक्रमित यात्रा ही है |  गौमुख ग्लेशियर से भागीरथी और गंगोत्री एक ओर से नीलकंठ भागीरथ ग्लेशियर से अलकनंदा और उसकी पृष्ठभूमि में नर-नारायण पर्वत के मध्य बद्रीनाथ, उसी के दूसरे पृष्ठ से शतपथ ग्लेशियर से मंदाकिनी और केदारनाथ, और सामने  कालिंदी पर्वत की  बंदरपूंछ चोटी के पश्चिमी अंत में फैले  चंपासर ग्लेसियर से –यमुनोत्री- यमुना |
        अतः प्रोग्राम बनते ही मैं व सुषमाजी तुरंत ही बेंगलोर से लखनऊ आगये| लखनऊ से सत्यप्रकाश गुप्ता जी व पदमा जी, श्री कृष्ण कुमार सिन्हा एवं उनकी पत्नी तथा आगरा से डा राकेश गुप्ता, सुधा गुप्ता व उनका पुत्र राजुल ट्रेन द्वारा १७-५-२०१८ को हरिद्वार पहुंचे जहां से हम नौ लोगों को चार्मिंग यात्रा वालों के १० दिन के टूर पैकेज द्वारा चारधाम यात्रा को प्रस्थान करना था|
प्रथम दिन---दिनांक १७-५-१८ को होटल में विश्राम के बाद हम सभी हर की पौड़ी हरद्वार पर गंगा आरती में सम्मिलित हुए |
       हर की पौड़ी या हरि की पौड़ी का ब्रह्म कुंड हरिद्वार का मुख्य घाट है जहां गंगा पर्वतों को छोड़कर मैदान में उतरती है | समुद्रमंथन से प्राप्त अमृतकुम्भ से कुछ बूंदे यहाँ भी गिरी थीं, अतः यह स्थान भी मोक्ष का द्वार मानाजाता है | यही कनखल में दक्ष के यज्ञ स्थल है जिसमें शिवपत्नी सती ने आत्मदाह किया था | शाम को प्रतिदिन गंगा आरती का सुप्रसिद्ध व मनोहारी कार्यक्रम होता है | हरिद्वार को माया नगरी और कुंभ नगरी भी कहा जाता हैं |
      
   चित्र १-हर की पौड़ी --- चित्र २ ---गंगा आरती
 


दूसरे दिन हरिद्वार से बारकोट ----
         १८-५-१८ की प्रातः हम १२ सीटर टेम्पो ट्रेवेलर से हरिद्वार से मसूरी एवं केम्पटीफाल होते हुए बारकोट के लिए रवाना हुए जो हरिद्वार से २१० किमी है १३५२ मी ऊंचाई पर है जहां से यमुनोत्री जाते हैं| बारकोट ( या बड़ाकोट )  उत्तरकाशी ( या प्राचीन नाम बड़ाहाट ) का प्रवेश द्वार है एवं चारों ओर हिमालय की दुर्गम बंदरपूंछ पर्वत श्रेणी एवं अन्य ऊंची श्रेणियों के मध्य यमुना के किनारे पर बसा हुआ मनोरम स्थान है | रात्रि विश्राम किया गया |
      बड़कोट की पौराणिकता से संबंधित दो भिन्न विचार धाराएं स्थानीय रूप से प्रचलित हैं। एक का मत है कि महाभारत युग में बड़कोट राजा सहस्रबाहु के राज्य की राजधानी थी। हजार बाहुओं के समान शक्ति रखने वाला सहस्रबाहु अपना दरबार एक सपाट भूमि पर लगाता था बड़ा दरबार अर्थात बड़कोट। माना जाता है कि पांडवों ने वन पर्व के दौरान गंधमर्दन पर्वत पर जाते समय सहस्रबाहु का आतिथ्य स्वीकार किया गया था। यहां के कई कुंडों एवं मंदिरों का निर्माण पांडवों द्वारा हुआ, ऐसा
माना जाता है।

 
चित्र ४ व ५ ----बारकोट रात्रि में---होटल की बालकनी में सुषमाजी व मि.मिथिलेश सिन्हा तथा प्राचीन पर्वतीय छतें स्लेट पत्थर की खपरेल ---

 

चित्र -६ .बंदरपूंछ व अन्य चोटियों से घिरा बारकोट
      एक अन्य मत का दृढ़ विश्वास है कि बड़कोट मूल रूप से जमदग्नि मुनि और उनके पुत्र परशुराम की भूमि रही थी। कहा जाता है वास्तव में सहस्रबाहु दक्षिण में शासन करता था और चारधामों की यात्रा के लिये ही वह उत्तर आया था। उसका विवाह जमदग्नि मुनि की पत्नी रेणुका की बहन बेनुका से हुआ था।
--------यह तथ्य मौजूद है कि रवाँई एवं बड़कोट के लोग अपनी वंश परंपरा पांडवों , जिन्होंने एक ही स्त्री द्रोपदी से विवाह रचाया था, से जोड़ते हैं उस क्षेत्र के गांवों में मूल रूप से निर्वाहित प्राचीन परंपराओं में से एक है बहुपतित्व की प्रथा जिसमें कई पतियों को रखने का रिवाज है।