....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
पुस्तक----ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद ------डा श्याम गुप्त ....
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----भाग तीन---
. भाग तीन
भाग दो में ब्रह्म को क्यों जानें, ब्रह्म विद्या क्यों, ईश्वर क्या व कौन है उसकी महत्ता ,,,,जीव का ईश्वर से तादाम्य व उसकी कर्म, सांसारिक कर्मों में एवं व्यष्टि व समष्टि की उन्नति में क्या योगदान है , आदि के बारे में औपनिषदिक दृष्टि का वर्णन किया गया था |
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प्रस्तुत भाग तीन में -----मन्त्र ९ से १४ तक .. मानव कर्तव्यों को कैसे करे, विद्या-अविद्या क्या है...ज्ञान व कर्म का तादाम्य कैसे किया जाय , मृत्यु व अमरता क्या व कैसे ...ताकि व्यक्ति के समुचित व्यवहार से समष्टि व जगत के जीवन व्यवहार में सौम्यता, तादाम्यता बनी रहे .....
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अन्धन्तम प्रविशन्ति ये sविद्यामुपाससते |
ततो भूय इव ते तमो यउ विद्याया रता: ||...९...
---------अविद्या-- पदार्थनिष्ठ विद्या अर्थात सांसारिक ज्ञान-विज्ञान, प्रोफेशनल ज्ञान आदि से उद्भूत कर्म को कहा गया है,
--------- विद्या-- आत्मविद्या अर्थात ज्ञान..वास्तविक मानवीयता युक्त ईश्वरीय-ज्ञान को कहा गया है |
-----अर्थात जो लोग ज्ञान की उपेक्षा करके सिर्फ कर्म, सांसारिक कर्म की ही उपासना करते हैं वे गहरे अन्धकार में गिरते हैं...अर्थात भ्रमों में घिरे रहकर विविध कष्टों, सांसारिक द्वंद्वों से युक्त रहते हैं | -------परन्तु जो कर्म की उपेक्षा करके सिर्फ ज्ञान में ही रत रहते हैं वे तो और भी अधिक अन्धकार को प्राप्त होते हैं |
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अन्येदेवाहुर्विद्यायां अन्यदाहुरविद्याया: |
इति शुश्रुम धीराणां ये नस्त द्विचचक्षिरे||....१०..
----- क्योंकि यह कहा जाता है कि विद्या अर्थात ज्ञान का और ही फल प्राप्त होता है अविद्या अर्थात कर्म का अन्य ही फल प्राप्त होता है | ऐसा हम उन धीर ज्ञानी पुरुषों से सुनते हैं जो हमारे लिए इस विषय पर उपदेश करते हैं |
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विद्यांचाविद्यां च यस्तत वेदोभय सह |
अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुते ||....११..
------अतः जो विद्या व अविद्या अर्थात ज्ञान व कर्म दोनों को साथ साथ जानता है एवं दोनों के समन्वय से कर्मों में प्रवृत्त रहता है वह कर्म से संसार में उचित व सुकृत्य रूप से प्रवृत्त होकर संसार सागर में तैरकर मृत्यु पर विजय प्राप्त करता है एवं विद्या अर्थात ज्ञान के मार्ग में प्रवृत्त होकर सत्कर्मों द्वारा अमरता को प्राप्त होता है |
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------ वस्तुतः अमरता, अमृत क्या हैं | अमृत प्राप्ति क्या है ? कर्म व ज्ञान क्या है ? शरीर में ज्ञानेन्द्रियाँ (आत्मा के ज्ञान गुण की सार्थकता हेतु ) व कर्मेन्द्रियाँ (आत्मा के कर्म गुण की सार्थकता हेतु ) दो ही प्रकार की इन्द्रियाँ होती हैं, आत्मा (या व्यक्ति ) मन के द्वारा इन इन्द्रियों का समन्वय करके जीव को ( स्वयं को ) कर्म में प्रवृत्त करता है |
-------- सिर्फ एक प्रकार की इन्द्रियाँ जीव को उचित कर्म में प्रवृत्त नहीं कर सकतीं | अतः निश्चय ही ज्ञान व कर्म दोनों को जानकर उनका प्रयोग साथ-साथ ही करना चाहिए तभी कोई भी कर्म या क्रिया सत्प्रवृत्ति में, सत्कार्य में फलीभूत होती है |
------- विना सिद्धांत जाने प्रायोगिक कर्म एवं बिना प्रायोगिक कर्म किये कोरा ज्ञान व्यर्थ ही है | ज्ञान को कार्य में परिणत करना ही मानव जीवन का उद्देश्य है क्योंकि सिर्फ ज्ञान मात्र का कोई फल नहीं होता अतः सिर्फ कर्म से अन्धकार में पड़ना एवं सिर्फ ज्ञान से और भी अधिक अन्धकार में रहना कहा गया है |
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-------ज्ञान से कर्म की महत्ता अधिक है परन्तु ज्ञान के बिना कर्म उचित ढंग से नहीं किया जा सकता | ईश्वरीय ज्ञान के बिना सारे कर्म निरुद्देश्य अकर्म ही होंगे जो आजकल प्राय्: देखने में आता है ..घातक अस्त्र-शस्त्र निर्माण की होड़ , धनसंचय की होड़, भ्रष्टाचार, अत्याचार,अनाचार, बलात्कार सभी उद्देश्यहीन अकर्म एवं उनसे उत्पन्न विकार-विकर्म एवं दुष्कर्म हैं जो आत्मा की मृत्यु के प्रतीक हैं इसी मृत्यु को पार करके अमरता प्राप्त करना उद्देश्य है मानव जीवन का ....जो उपनिषद् का मन्त्र है | यहीं से गीताकार ने कर्मयोग का पाठ लिया है | यह वेदों का शाश्वत सिद्धांत है जो सार्वकालिक उपयोगी है |
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अन्धतम: प्रविशन्ति ये sसम्भूति मुपासते |
ततो भूय इव ते तमो य उ सम्भूत्या रताः ||....१२..
------- सम्भूति अर्थात कार्य रूप प्रकृति ( स्थूल शरीर + सूक्ष्म शरीर = नश्वर भौतिक शरीर ) एवं ..
-----असम्भूति या विनाश ( अनश्वर )अर्थात कारण रूप प्रकृति ( कारण शरीर ...मूल आत्म तत्व ).|.......
-------जो सिर्फ असम्भूति अर्थात कारण शरीर ..आत्मा की ही उपासना करते हैं, अन्य शरीरों की उपेक्षा करके, वे घोर अन्धकार में गिरते हैं.....
-------और जो सिर्फ सम्भूति अर्थात भौतिक शरीर के पालन पोषण में ही व्यस्त रहते हैं, कारण शरीर... आत्मा की उपेक्षा करके, वे और भी अधिक अन्धकार में घिरते हैं |
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अन्यदेवाहु : सम्भवादन्यदाहुर सम्भवात |
इति शुश्रुम धीराणां ये नस्त द्विचच क्षिरे ||....१३....
..-------.कार्य प्रकृति की उपासना व कारण प्रकृति की उपासना ... सम्भूति योग व असम्भूति योग के भिन्न भिन्न परिणामी फल होते हैं जो धीर व विद्वान् उपदेशकों ने हमें बताया है |
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सम्भूतिंच विनाशंच यस्तद वेदोभय सह |
विनाशेन मृत्युं तीर्त्वा सम्भूत्याsमृतमश्नुते ||...१४...
------- जो कोई कार्यरूप प्रकृति ( सम्भूति---शरीर ) एवं विनाश( असम्भूति ) अर्थात नाशहीन कारण रूप प्रकृति --- आत्म तत्व, को साथ-साथ जानता है वह समयानुरूप नवीन सृजन एवं अवांछनीय का त्याग द्वारा संसार सागर में मृत्यु पर विजय प्राप्त करके अमरता को प्राप्त करता है |
-------- निश्चय ही जो लोग भौतिक शरीर... ( खान-पान, प्राणायाम ,शरीर की देखभाल , खाना-कमाना, परिवार का पालन-पोषण , आमाजिक कर्तव्यों का पालन )...की उपेक्षा करके, कर्म की, कमाने-धमाने की, संसार्रिक ज्ञान की उपेक्षा करके..... सिर्फ आत्मा, ईश्वर, अध्यात्म, ज्ञान आदि की खोज में ही लगे रहते हैं वे धन से, बल से क्षीण रहकर घोर कष्ट पाते हैं....
------ परन्तु जो सिर्फ भौतिक शरीर...रोटी, कपड़ा और मकान, मेरा-तेरा, धनसंपदा का जोड़-तोड़, शारीरिक सुख व भौतिक सुख प्राप्ति में ही लगे रहते हैं, ईश्वर प्राप्ति, ज्ञान प्राप्ति, अध्यात्मिक ज्ञान प्राप्ति, ईश्वर उपासना अदि की उपेक्षा करके ..... वे और भी अधिक घोर कष्टों, मानसिक द्वंद्वों में फंसे रहते हैं |
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-----अतः निर्दिष्ट है कि जैसा हमें विद्वान् बताते हैं कि दोनों की उपासना के भिन्न भिन्न फल मिलते हैं ..मनुष्य को भौतिकता व आध्यात्मिकता, शरीर व आत्मा, संसार व ईश्वर, ज्ञान व कर्म दोनों का ही उचित ज्ञान प्राप्त करके दोनों के समन्वय से चलना चाहिए |
------- संसार में नित्य सत्कर्म रूपी नव-सृजन एवं अकर्म, विकर्म व दुष्कर्म रूपी अवांछनीय का त्याग ही मानव का उद्देश्य होना चाहिए | एसा न कर पाना ही मृत्यु है और इसी समन्वय से चलना संसार में मृत्यु को पार करना व अमरता है | यह सार्वकालिक अनुशासन व नियम है |
" ज्ञान और संसार को, जो दोनों को ध्याय ,
माया बंधन पार कर अमरतत्व पाजाय |"
--क्रमश भाग चार .....