....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
शासन -प्रशासन में भ्रष्टाचार की गाथा तो बहुत पुरानी है और सर्वाधिक चर्चित है। यद्यपि प्राचीन समय में प्रायः दुश्मन के भेद लेने के लिए, किला भेदने आदि के रूप में युद्धकाल में ही उत्कोच के रूप में इस प्रथा का प्रयोग किया जाता था | वह भी पाश्चात्य प्रभाव से भारत में फैलना प्रारम्भ हुआ | सिकंदर व तत्पश्चात विदेशियों के आक्रमण के फलस्वरूप छल-छद्म द्वारा युद्ध जीतने की प्रथा प्रारम्भ हुई और राज्यकर्मचारियों व अधिकारियों आदि को उत्कोच की भी ; जो मुगलों के काल में और अधिक प्रभावी हुई | भारत में शासन -प्रशासन में भ्रष्टाचार का अधिक प्रचलन ईस्ट इंडिया कंपनी के समय अफसरों द्वारा पिटे-पिटाए भारतीय राजे- महाराजे, नबाव आदि को चुप रखने के लिए डालियाँ आदि भेजने से हुई , जो स्वयं उनके अपने अफसरों -मातहतों में ( भारत में पोस्टिंग या वापस जाने की सिफारिस हेतु ) प्रचलित होकर रस्म बन गयी | हिन्दुस्तानी चपरासी /बाबू जो बहुत कम पगार वाले होते थे (-अफसर सदैव अँगरेज़ होते थे ) अफसरों को खुश करने के लिए , उनकी नक़ल हेतु अपना ज़लवा दिखाने के लिए सामान्य जन से भेंट लेने लगे और रिश्वत --भ्रष्टाचार का तंत्र स्थापित होने लगा | बाद में ब्रिटिश शासन में बड़े बड़े दफ्तर, पुलिस , मालगुजारी , चुंगी, लगान, क़ानून , अदालतें व भिन्न भिन्न करों आदि का क्रूरतापूर्वक बसूली व देश-संपदा दोहन के क्रम में भ्रष्टाचार प्रगति पाता गया | शासन-प्रशासन रूपी शेर के मुंह लगा हुआ खून स्वतन्त्रता के पश्चात विज्ञजनों/ राजनेताओं द्वारा कोई निश्चित भारतीय प्रणाली व उच्च -प्रतीकों की स्थापना की बजाय आजादी के फल बटोरना प्रारम्भ कर देने से सभी --जन जन इसी कमाने खाने में में जुट गया और भ्रष्टाचार बढ़ता ही गया , जो अन्य कारणों से ऊपर ..राजनेताओं और नीचे सामान्य जन जन में विषाणु की भांति प्रभावी होता गया, और रही सही कसर तथाकथित प्रगतिशीलता , उदारवादीनीति के तहत विदेशी संस्कृति, अति-सुविधाभोगी जीवन पद्धति बाज़ारवादी संस्कृति, बहु-देशीय कंपनियों के बाजार पर कब्जे से पूरी होगई ... जैसी आज स्थिति है , कोई काम किसी भी दफ्तर में बिना सुविधा शुल्क चुकाए नहीं होता |
क्या होना चाहिए---- सबसे कठिन कार्य है , क्योंकि सभी ऊपर से नीचे तक एक दूसरे से जुड़े होते हैं अतः कौन किसके विरुद्ध कहे, लिखे, गवाही दे, एक्शन ले ?
२-सरकारी व प्राइवेट सभी दफ्तरों आदि में पारदर्शिता के उपाय करने चाहिए, प्रत्येक कार्य के लिए समय-सीमा निर्धारित होनी चाहिए |
३-मानवीय लिप्सा व सुविधाभोगी संस्कृति की रोक थाम------विज्ञान, तकनीक, व आधुनीकरण के अन्धानुकरण में हर जगह वातानुकूलित संयन्त्र, हर हाथ में अनावश्यक मोबाइल, कम्प्यूटर, लेपटोप,आई-पोड आदि व पश्चिम के अन्धानुकरण में धन- शराव, शराव-शबाव का प्रदर्शन व अन्धाधुन्ध प्रयोग। परिवार तो मोलेक्यूलर होगये परन्तु हर परिवार - चार घर, चार कार, चार एसी, चार लेपटोप वाला होगय, यह सब व्यक्ति को रिश्वत खोरी की और आकर्षित करता है |
अधिक पैसा-कमाई व अधिक मोटी-मोटी पगार—शेयर, बचत, विदेशी-कर्ज़, लोन-संस्क्रिति के कारण “जितने का भी मिले, जैसे भी मिले, जहां भी मिले- लेलो” की नीति पनपने से भ्रष्ट-आचरण व भ्रष्टाचार को पैर पसारने की अनुमति मिलती है।
४-बहुत से अकर्मों को प्रश्रय न देना —हर आदमी का शेयर में लगे रहना, अनावश्यक बचत, अधिकाधिक खेल, संगीत, मनोरंजन, फ़ूहड-हास्य, शास्त्र-धर्म-न्रीति के विरोधी प्रहसन, सीरियल, नाटक । विदेशी नकलपर नाटक, अन्ग्रेज़ी/ व हिन्दुस्तानी अन्ग्रेजों की लिखी, तथाकथित विदेशी पुरस्कार प्राप्त व्यर्थ की बडी-बडी पुस्तकें,---ईश-निन्दा-शास्त्र निन्दा पर अनावश्यक आलेख । प्रायोजित लेखकों, तथाकथित इतिहासकारों, कालम-लेखकों जो सिर्फ़ धन्धे के लिये, पैसे के लिये -–बच्चों, स्त्री, मनोविज्ञान के नाम पर माता-पिता को सीख आदि द्वारा- आने वाली संतति में अश्रद्धा, अनास्था के बीज डालते हैं—और सब चलता है-की सीख द्वारा उसे अनाचरण व भ्रष्टाचार के मार्ग पर जाने को जाने-अनजाने बढावा देते हैं ।
५ -अनाचरण-दुराचरण—उपरोक्त जीवन प्रणाली –का प्रभावी परिणाम, मानवीय दुराचरण होता है और भ्रष्टाचार का मूल कारक बनता है। मनुष्य के भ्रष्टाचार के कारण ही भ्रष्टाचार संस्थागत होने लगता है और समाज में पसारने लगता है ,फिर समेटे नहीं सिमटता |