....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
आजकल पितृ-पक्ष अर्थात पितृ तर्पण दिवस, श्राद्ध-दिवस चल रहे हैं | श्राद्ध अर्थात श्रद्धा व्यक्त करना-पितृव्यों के प्रति| वस्तुतः पितृ कौन हैं ? यद्यपि संस्कृत में पितृ पिता को कहा जाता है और श्राद्ध भी हम सब अपने अपने मृत पिता का ही करते हैं ..परन्तु विशद सन्दर्भ में पिछली तीन पीढ़ियों तक एवं वास्तविक भाव में अपने सभी पिछली पीढ़ियों को पितृ या पितर कहा जाता है जो पितृ-लोक में अवस्थित रहते हैं | मान्यता है कि मृत्यु के पश्चात आत्मा दिव्य शरीर प्राप्त कर पितृलोक को चली जाती है | अतः यदि वास्तव में देखा जाय तो प्रत्येक मनुष्य के मूल पितृ एक ही होंगे जहां से यह मानव- जाति प्रारम्भ हुई | अतः वास्तव में यह पर्व समस्त मानव जाति के पूर्वजों के तर्पण अर्थात संतुष्टि हेतु प्रत्येक व्यक्ति द्वारा किया जाने वाला कृतित्व है जो अपना व्यक्तिगत होते हुए भी समाजगत अपितु विश्व कल्याण हेतु कर्म है | और अधित तात्विकता से देखें तो यह अपने ही मूल आदि- आत्म-तत्व --जब वह ब्रह्म से विलग होती है --के तर्पण या संतुष्टि हेतु कर्म है अतः वह स्वयं के शुद्धीकरण की प्रक्रिया भी है | अतः यह समस्त संसार की चराचर की , कण कण की तृप्ति की क्रियाविधि है ...स्वयं की भी |
पितृ लोक पृथ्वी से ऊपर अंतरिक्ष के पार कहा जाता है ( तैत्तरीय ब्राह्मण ) | अर्थात वस्तुतः पितृ पर्व पर दान आदि की परम्परा में दान की गयी वस्तुओं, श्राद्ध कर्ता के श्रृद्धा-आदर आदि शुद्ध मनोभावों, विचारों का प्रभाव पृथ्वी से लेकर अंतरिक्ष के पार द्यूलोक द्युलोक (समस्त ब्रह्माण्ड ) तक विस्तार का भाव निहित है , उसीप्रकार जैसे यज्ञ से समस्त वायुमंडल व ब्रह्माण्ड के पवित्रीकरण व विशुद्धीकरण का भाव निहित होता है | इसे हम वैचारिक, मानसिक व भाविक यज्ञ की संज्ञा भी दे सकते हैं |
सृष्टि के प्रारम्भ में ही देव, पितृ, मानवों व रुद्रों की दिशाएँ व स्थिति निश्चित कर दी गयीं थीं | पूर्व दिशा देवों के लिये( शायद आदि-मूल देवता सूर्य --सूर्योदय के कारण ), दक्षिण पितरों के लिए ( मृत्यु से सम्बंधित यम आदि लोक भी दक्षिण में स्थित माने गए हैं ), पश्चिम मनुष्यों (आदि- मानव भारत में अवतरित होकर पश्चिम में फैलता गया ) व उत्तर रुद्रों ( मानव व देवों के मध्य प्राकृतिक शक्तियां ) के लिए निश्चित की गयीं |
क्रिया विधान -- लोक कथाओं आदि के अनुसार सिर्फ घास के एक तिनके को पितरों के नाम से गाय या किसी भी प्राणी को खिला देने पर भी पितृ तर्पण विधान पूर्ण होता है ...अर्थात मंतव्य व भावना ही प्रधान है --अपनी अपनी सक्षमता- सामर्थ्यानुसार |
श्राद्ध -- कौवे व पीपल आदि .... वस्तुतः श्राद्ध कर्म प्रकृति के प्रति श्रृद्धा-प्रकट का विधान भी है| ब्राह्मणों के बाद गाय, कौवा, चींटी , व कुत्ते को ग्रास डालने का एवं पीपल को जल देने का विधान है |
मृत्यु के बाद जीव किसी भी योनि में जन्म ले सकता है। कौवे को पितृ पक्ष में आमंत्रित करने के पीछे एक और मान्यता है। यह पक्षी कागभुसुंड समाज से है। कागभुसुंड भगवान शिव का परम भक्त था, धर्म ग्रंथों में इसका उल्लेख है। इसलिए कौवे को आमंत्रित कर परिवार के लोग भगवान शिव से अपने कल्याण और अनिष्ट से बचने की कामना करते हैं। कौवे व पीपल को पितरों
का प्रतीक माना जाता है।
विज्ञान के अनुसार -- ब्राहमण= मानव, गाय = स्तनपायी प्राणी, चींटी = कीट
योनी का प्राणी, कौवा = पक्षी योनी का प्राणी, पीपल = वनस्पति ...अर्थात सभी प्राणी-जगत के संतुष्टि
का भाव |
पर्यावरण भावानुसार --- गाय, चींटियाँ व कुत्ता हमारी घरेलू खान-पान उच्छिष्ट
की सफाई करते हैं, कौवा- सफाई कर्मी की भांति कार्य करता है, पीपल - भारी मात्रा में वायु का
शुद्धीकरण करता है अतः पूज्य हैं |
आजकल हमने पर्यावरण इतना प्रदूषित कर दिया है तथा प्रकृति से इतने दूर होगये हैं कि कौवे, कम ही दिखाई देते हैं चींटियों को अब कोई दाना डालता ही नहीं है | पीपल भी बहुमंजिली इमारतों के झुण्ड में कम ही दिखाई देते हैं |.... प्रस्तुत है एक अगीत ....
" वह कौवा अब,
बच्चे के हाथ से रोटी छीनने ;
शहर से दो मील दूर
ठूंठ से खड़े
नीम के वृक्ष से
आता है | "