....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ
आजकल राष्ट्रीयता, देशप्रेम, जन से संपृक्तता व भारतीयता एवं सहिष्णुता का कितना अभाव होगया है यह हाल की कुछ घटनाओं से स्पष्ट होजाता है ...
१.जयपुर लिट्. फेस्टीवल ....विश्व के १०० प्रसिद्द बुद्दिवादियोंमें कैसे कैसे लोग शुमार हैं कि एक छोटे से घटनाक्रम से ही उनकी विद्वता की कलाई खुलने लगती है....जो भारत के एक साहित्य फेस्टिवल में वह भी उत्तर भारत के हिन्दी भाषी नगर में भारतीय जनता के लिए .'आइडियज ऑफ़ इन्डियन रिपब्लिक ' विषय पर अंग्रेज़ी में भाषण देते हैं ..(यों तो भारतीय गणतंत्र का विषय एवं विषय का शीर्षक ही अंग्रेज़ी में क्यों रखा गया ...) एवं भाषा की अज्ञानता रहते इतने स्पष्ट भाव-शब्द व वाक्य नहीं बोल सकते कि मीडिया व जनता ठीक से समझे और उन्हें बाद में सफाई न देनी पड़े और सुप्रीम कोर्ट को फटकारना न पड़े |
यह अंग्रेज़ी भाषा की विद्वता व हिन्दी- या स्व-भाषा - भावों की समझ का फेर भी हो सकता है | राष्ट्रीयता , भारतीय-सहिष्णुता का अभाव शब्दों व उनके के प्रभाव के तात्विक-ज्ञान की कमी का भी | इस घटनाक्रम से यह भी पता चलता है कि हमारे तथाकथित 'बेस्ट नोन एकेडेमीशीयन ' समाजशास्त्री .... समाज की नब्ज व समाजशास्त्र के बारे में कितना जानते हैं एवं समाज के बारे में क्या धारणा रखते हैं |
२. विश्वरूपम ... ---- ऐसे व्यक्तियों की बुद्धि, ज्ञान एवं राष्ट्र-प्रेम को क्या कहा जाय जो एक छोटे से घटनाक्रम से धैर्य खोकर तुरंत देश छोड़ने की धमकी देने लगें ....इन्हें साहित्यकार व कलाकार कहने में भी हमें शर्म आनी चाहिए ये तो शुद्ध अहंकारी व धन्धेवाज़ हैं | चार फ़िल्में बना लेने वाला कोई भी व्यक्ति या उसका अहं इतना ऊंचा कभी नहीं हो सकता, न होता कि किसी भी एक तबके द्वारा उसके विचारों का विरोध करने पर वह देश को धमकी देने लगे | देश की सामाजिक व न्याय व्यवस्था पर जिसे धैर्यपूर्ण विश्वास ही न हो उन्हें वास्तव में ही देश छोड़ देना चाहिए | कोई भी अपूरणीय नहीं है इस देश के लिए |
घटनाओं का दूसरा पहलू यह भी है कि----दोनों घटनाओं , घटनाक्रमों एवं जन क्रिया-प्रतिक्रियाओं से प्रतीत होता है कि हम कितने असहिष्णु होगये हैं | बोलने, लिखने, प्रदर्शित करने की पूर्ण स्वतन्त्रता होनी ही चाहिए जब तक कि किसी में अनर्गल , असभ्य्तापूर्ण, गाली-गलौज़ की भाषा , चरित्र हरण आदि न हो |...यदि किसी को आपत्ति है तो वह उचित स्थान पर दर्ज कराये | क्रिया की प्रतिक्रया ( प्रभावित पक्ष द्वारा) भी असहिष्णुता है | सभी पक्षों द्वारा असहिष्णुता का परिचय दिया गया|
यह असहिष्णुता इस देश में कहाँ से आई ?? जिस देश में व दुनिया भर में हज़ारों रामायण हों, गीता हों ...सबके अपने-अपने अर्थ हों..सब अपने अपने प्रकार से कहने को स्वतंत्र हो ....किसी में सीता रावण की पुत्री...कहीं प्रेमिका, कहीं राम को नारी विरोधी ..कृष्ण को लम्पट ..सभी को अपनी-तरह से लिखने -कहने काअधिकार हो ....जिस देश में ब्रह्मा-विष्णु-शिव जैसे जाति -कुल अदि से परे सभी --देव-दानव-दैत्य-राक्षस सभी को एक सामान वरदान देने वाले पात्र रचे गए हों ... कोई ईश्वर को माने न माने , सभी धर्मों..जातियों के मिलन का यह देश ...कैसे इतना असहिष्णु होगया.....? विदेशी आक्रमणकारियों ..पहले मुगलों की हिन्दू-मुस्लिम में भेदभाव पूर्ण नीति, तत्पश्चात अंग्रेजों द्वारा भारतीय-अँगरेज़-योरपीय भेद-भाव नीति द्वारा.....
इसका एक ही उत्तर है....स्व-संस्कृति के विस्मरण से | स्वयं के विस्मरण से ....पर- संस्कृति के जाल से .... हमें पुनः स्मरण करना होगा कि-----
" हम कौन थे क्या होगये और क्या होंगे अभी ,
सोचें समस्याएँ यही बैठकर के हम सभी |"""""
१.जयपुर लिट्. फेस्टीवल ....विश्व के १०० प्रसिद्द बुद्दिवादियोंमें कैसे कैसे लोग शुमार हैं कि एक छोटे से घटनाक्रम से ही उनकी विद्वता की कलाई खुलने लगती है....जो भारत के एक साहित्य फेस्टिवल में वह भी उत्तर भारत के हिन्दी भाषी नगर में भारतीय जनता के लिए .'आइडियज ऑफ़ इन्डियन रिपब्लिक ' विषय पर अंग्रेज़ी में भाषण देते हैं ..(यों तो भारतीय गणतंत्र का विषय एवं विषय का शीर्षक ही अंग्रेज़ी में क्यों रखा गया ...) एवं भाषा की अज्ञानता रहते इतने स्पष्ट भाव-शब्द व वाक्य नहीं बोल सकते कि मीडिया व जनता ठीक से समझे और उन्हें बाद में सफाई न देनी पड़े और सुप्रीम कोर्ट को फटकारना न पड़े |
यह अंग्रेज़ी भाषा की विद्वता व हिन्दी- या स्व-भाषा - भावों की समझ का फेर भी हो सकता है | राष्ट्रीयता , भारतीय-सहिष्णुता का अभाव शब्दों व उनके के प्रभाव के तात्विक-ज्ञान की कमी का भी | इस घटनाक्रम से यह भी पता चलता है कि हमारे तथाकथित 'बेस्ट नोन एकेडेमीशीयन ' समाजशास्त्री .... समाज की नब्ज व समाजशास्त्र के बारे में कितना जानते हैं एवं समाज के बारे में क्या धारणा रखते हैं |
२. विश्वरूपम ... ---- ऐसे व्यक्तियों की बुद्धि, ज्ञान एवं राष्ट्र-प्रेम को क्या कहा जाय जो एक छोटे से घटनाक्रम से धैर्य खोकर तुरंत देश छोड़ने की धमकी देने लगें ....इन्हें साहित्यकार व कलाकार कहने में भी हमें शर्म आनी चाहिए ये तो शुद्ध अहंकारी व धन्धेवाज़ हैं | चार फ़िल्में बना लेने वाला कोई भी व्यक्ति या उसका अहं इतना ऊंचा कभी नहीं हो सकता, न होता कि किसी भी एक तबके द्वारा उसके विचारों का विरोध करने पर वह देश को धमकी देने लगे | देश की सामाजिक व न्याय व्यवस्था पर जिसे धैर्यपूर्ण विश्वास ही न हो उन्हें वास्तव में ही देश छोड़ देना चाहिए | कोई भी अपूरणीय नहीं है इस देश के लिए |
घटनाओं का दूसरा पहलू यह भी है कि----दोनों घटनाओं , घटनाक्रमों एवं जन क्रिया-प्रतिक्रियाओं से प्रतीत होता है कि हम कितने असहिष्णु होगये हैं | बोलने, लिखने, प्रदर्शित करने की पूर्ण स्वतन्त्रता होनी ही चाहिए जब तक कि किसी में अनर्गल , असभ्य्तापूर्ण, गाली-गलौज़ की भाषा , चरित्र हरण आदि न हो |...यदि किसी को आपत्ति है तो वह उचित स्थान पर दर्ज कराये | क्रिया की प्रतिक्रया ( प्रभावित पक्ष द्वारा) भी असहिष्णुता है | सभी पक्षों द्वारा असहिष्णुता का परिचय दिया गया|
यह असहिष्णुता इस देश में कहाँ से आई ?? जिस देश में व दुनिया भर में हज़ारों रामायण हों, गीता हों ...सबके अपने-अपने अर्थ हों..सब अपने अपने प्रकार से कहने को स्वतंत्र हो ....किसी में सीता रावण की पुत्री...कहीं प्रेमिका, कहीं राम को नारी विरोधी ..कृष्ण को लम्पट ..सभी को अपनी-तरह से लिखने -कहने काअधिकार हो ....जिस देश में ब्रह्मा-विष्णु-शिव जैसे जाति -कुल अदि से परे सभी --देव-दानव-दैत्य-राक्षस सभी को एक सामान वरदान देने वाले पात्र रचे गए हों ... कोई ईश्वर को माने न माने , सभी धर्मों..जातियों के मिलन का यह देश ...कैसे इतना असहिष्णु होगया.....? विदेशी आक्रमणकारियों ..पहले मुगलों की हिन्दू-मुस्लिम में भेदभाव पूर्ण नीति, तत्पश्चात अंग्रेजों द्वारा भारतीय-अँगरेज़-योरपीय भेद-भाव नीति द्वारा.....
इसका एक ही उत्तर है....स्व-संस्कृति के विस्मरण से | स्वयं के विस्मरण से ....पर- संस्कृति के जाल से .... हमें पुनः स्मरण करना होगा कि-----
" हम कौन थे क्या होगये और क्या होंगे अभी ,
सोचें समस्याएँ यही बैठकर के हम सभी |"""""