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डा श्याम गुप्त का ब्लोग...

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Lucknow, UP, India
एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं... काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद .. my blogs-- 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति... 2.drsbg.wordpres.com, 3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त

बुधवार, 29 फ़रवरी 2012

इन्द्रधनुष.....अंक -तीन.-----स्त्री-पुरुष विमर्श पर..... डा श्याम गुप्त का का उपन्यास ....

                           ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...


      
        ’ इन्द्रधनुष’ ------ स्त्री-पुरुष विमर्श पर एक नवीन दृष्टि प्रदायक उपन्यास (शीघ्र प्रकाश्य ....)....पिछले अंक से क्रमश:......

                                           अंक -तीन 

       एनाटोमी डिसेक्शन हाल  की सीट पर मैंने पूछा ,' सुमित्रा जी ,सियाटिक नर्व को कहाँ से निकाला जाय , बिलकुल दिमाग से ही उतर गया है ?
       है भी !, जाने क्या क्या भरे रखते हैं,  दिमाग में ?
       उसने हाथ से चाकू लगभग छीन कर चुपचाप चीरा लगाकर फेसिया तक खोल दिया , बोली ' आगे बढूँ या ...'
         'अभी के लिए बहुत है ', मैंने कहा ,' एक दम आगे बढ़ना ठीक नहीं ...
                  " आपने चिलमन ज़रा सरका दिया ,
                     हमने जीने का  सहारा  पालिया ।"
                   वह चुपचाप अपना प्रेक्टिकल करती रही । बाहर आकर बोली ,' कृष्ण जी उधार बराबर ।'
           'और सूद!', मैंने कहा ।
           'सूद' वह आश्चर्य से देखने लगी !
           ' वणिक पुत्र हूँ ना ।'
           ' क्या सूद चाहिए ?' वह सोचती हुई बोली ।
           'हुम   sss.... चलो दोस्ती करलें,  मैंने कहा ।
            ओह ! वह सीने पर हाथ रखकर निश्वांस छोड़ती हुई बोली , ' ठीक है, मेरा तो नाम ही सुमित्रा है, सुखद-सुहाने मित्रों वाली, स्वयं अच्छी मित्र है जो, जो मित्र बनाती है तो बनाती है;  नहीं तो नहीं ।'
            निभाती भी है ?, मैंने कहा ।
           ' इट डिपेंड्स'...जो जिस लायक हो । सात कदम तो चल ही लिए हैं, वह मुस्कुराकर कहने लगी ।
            'चलो काफी होजाय '  मैंने आमंत्रण दे डाला ।
            काफी टेबल पर बैठकर मैंने उसका हाथ छुआ तो प्रश्नवाचक नज़रों से देख कर बोली ,' उंगली पकड़कर हाथ पकड़ना चाहते हैं ? ऐसे  तो आप नहीं लगते मिस्टर .....।
              ' कृष्ण गोपाल ', मैंने कहा ।
              'पता है, किसी भ्रम या उम्मीद में मत रहना । आशाएं विष की पुड़ियाँ होती हैं, कष्टदायी, बचे रहना ।
              सुमित्रा जी, हमारा भी कुछ आत्म- सम्मान है । वैसे भी मैं नारी-सम्मान व पुरुष-सम्मान दोनों को ही समान  महत्व देता हूँ । नारी का हर रूप मेरे लिए सम्मान जनक है ।  मैं  'नारी तुम केवल श्रृद्धा हो ' के साथ साथ आत्मसम्मान, विश्वास से भरपूर मर्यादित नारी की, पुरुष के  कंधे से कन्धा मिला कर चलती हुई नारी की छवि का कायल हूँ ।  जब तक तुम स्वयं नहीं चाहोगी, मैं कुछ नहीं चाहूंगा ।
               वाह ! क्या बात है । हम खुश हुए । वह वरद-हस्त मुद्रा में मुस्कुराई ।
              सच सुमित्रा, यदि शिक्षा व स्त्री-शिक्षा के इतने प्रचार-प्रसार के पश्चात् भी शोषण व उत्प्रीणन जारी रहे तो क्या लाभ ?  मैं बातें नहीं,  कर्म पर विश्वास करता हूँ, परन्तु यथातथ्य विचारोपरांत ।  यह शोषण-उत्प्रीणन चक्र अब रुकना ही चाहिए ।  पर जब तक  नारी स्वयं आगे नहीं आयेगी, क्या होगा ? नारी-शोषण  में कुछ नारियां ही तो भूमिका में होती हैं ।  आखिर हेलन या बैजयंतीमाला को कौन  विवश करता है अर्धनग्न नृत्य के लिए ?  चंद पैसे ।  क्या आगे चलकर कमाई का यह ज़रिया वैश्यावृत्ति का नया अवतार नहीं बन सकता ।'
               आखिर नारी क्या चाहती है ?  नारी स्वातंत्र्य का क्या अर्थ हो ?  मेरे विचार में स्त्री को भी पुरुषों की भाँति सभी कार्यों की छूट होनी चाहिए । हाँ, साथ ही सामाजिक मर्यादाएं, शास्त्र मर्यादाएं व स्वयं स्त्री सुलभ मर्यादाओं की रक्षा करते हुए स्वतंत्र जीवन का उपभोग करें ।  आखिर पुरुष भी तो स्वतंत्र है, परन्तु शास्त्रीय, सामाजिक व पुरुषोचि मर्यादा निभाये बगैर समाज उसे भी कब आदर देता है ।  वही स्त्री के लिए भी है । भारतीय समाज में प्राणी मात्र के लिए सभी स्वतन्त्रता सदा से ही हैं ।  हाँ, गलत लोग, गलत स्त्री तो हर समाज में सदा से होते आये हैं व रहेंगे ।  इससे सामाजिक संरचना थोड़े ही बुरी होजाती है ।अतः उसे कोसा जाय , यह ठीक नहीं । और  'समाज को बदल डालो'  यह नारा ही अनुचित है अपितु  'स्वयं को बदलो ' नारा होना चाहिए । यही एकमात्र उपाय है आपसी समन्वय का एवं स्त्री-पुरुष, समाज-राष्ट्र की भलाई  व उन्नति का ।
               ब्रेवो! ब्रेवो !, वह ताली बजाती हुई बोली । पर यह भाषण तो मुझे देना चाहिए ।' और हाँ ....वह सोचती हुई बोली, ' ये शब्द व भाव तो कहीं पढ़े हुए लगते हैं ।'
                         " फिजाओं में  भी  गूंजेंगे कभी ये स्वर हमारे,
                          आप चाहें इन स्वरों में हम सजालें सुर तुम्हारे ।"   
               ठहरो, वह बोली,  'आपका पूरा नाम क्या है ?'
              इतनी जल्दी भूल गयीं ? श्री कृष्ण गोपाल गर्ग ।
              हूँ, शायरी, नारी विमर्श पर वही तार्किक भाव-उक्तियाँ ,कथोपकथन, कविता भी .....किसी पत्रिका में पढ़ती रही हूँ ।  कृष्ण गोपाल ..क्या तुम.. 'केजी'  के नाम से  ' नई आवाज ' में लिखते हो ?  तुम 'केजी' हो !...मैं समझती थी कोई मिडिल एज का व्यक्ति होगा ।
           मैं उसकी तीब्र बुद्धि का कायल होकर रह गया, और आँखों में आँखें डाल कर मुस्कुराया ।
           वह हंसी, उन्मुक्त हंसी ।  कमीज की कालर ऊंचे करने के अंदाज़ में बोली,  ' ये हम हैं, उड़ती चिडिया के पर गिन लेते हैं । तो तुम यहाँ क्या कर रहे हो ?  तुम्हें किसी यूनिवर्सिटी में  'प्रोफ़ेसर आफ प्रोफेसी' होना चाहिए।'
             ' भई !  बातों से ही तो  काम नहीं चलता न,  कुछ खाने -पीने का भी तो जुगाड़ होना चाहए । फिर मेडीकल से अच्छा और क्या होसकता है,  बातें की बातें , काम धंधा भी, सेवा भी ....और तुमसे जो मिलना था सिर खपाने के लिए, ताकि पूरा प्रोफ़ेसर बना जा सके ।'  मैंने हंसते हुए कहा ।
              ' आई एम् इम्प्रेस्ड ',  मैं तो केजी की फैन हूँ ।  बधाई, अब कोई कविता सुना ही दो ।'...वह गालों को हथेली पर रखकर, कोहनी मेज पर टिका कर श्रोता वाले अंदाज़ में बैठ गयी ।  मैंने सुनाया....
                              " मैंने सपनों में देखी थी ,
                              इक मधुर सलौनी सी काया ।
                                      *                *
                               अधखिले कमल लतिका जैसी , 
                                अधरों की कलियाँ खिली हुईं ।
                                क्या इन्हें चूम लूं यह कहते,
                                वह होजाती है  छुई - मुई ।
                                         *              *
                               तुमको देखा मैंने पाया,
                               यह तो तुम ही थीं मधुर प्रिये ।।"

             मैं आनंदानुभूति से सरावोर हो गयी हूँ केजी ! वह बोली ।
            तो दोस्ती पक्की ।
             हाँ ।
            क्यों ?
            "ज्ञान वैविध्य, बिना लाग लपेट बातें , नारी सम्मान भाव...नारी मन को छूते हैं,  कृष्ण . और तुम्हें ?
            "तुम्हारा आत्मविश्वास, सुलझे विचार और काव्यानुराग "..मुझे पसंद है सुमित्रा ।
            " कहीं यह ' पहली नज़र में प्यार' .. का मामला तो नहीं बन रहा " ,  अचानक उसने सतर्क निगाहों से पूछा ।
            हाँ शायद,  मैंने कहा ...और तुम....?
            पता नहीं,  नहीं कर सकती , मजबूर हूँ  ।  पर मित्रता से पीछे नहीं हटूंगी ।
           क्यों मज़बूर हो भई ?
           दिल के हाथों ..के जी, जी । तुम पहले क्यों नहीं मिले । मैं वाग्दत्ता हूँ,रमेश को बहुत प्यार करती हूं । शादी भी करूंगी ।...वह अरुणिम होते हुए चेहरे से कहती गयी ।   
           ' ये रमेश कौन भाग्यवान है ?'
           ' मेरा पहला प्यार,  हम एक दूसरे को बहुत चाहते हैं । दिल्ली में एमबीबीएस कर रहा है ।',  उसने पर्स में से फोटो निकाल कर दिखाते हुए कहा,  ' बहुत प्यारा  इंसान है'।    
           'और मैं....?
           "तुम...!...तुम...."  वह जैसे ख्यालों से बाहर आती हुई बोली,  'तुम...तुम हो..अप्रतिम...बौद्धिक सखा...राधा के श्याम ...और मैं तुम्हारी काव्यानुरागिनी, समझे..।'  वह सिर से सिर टकराते हुए बोली ।
            अब मैं आनंदानुभूति से सराबोर हूँ, सुमि !
            साथ छोड़कर भागोगे तो नहीं ?
            नहीं.....
                         " हम तुम चाहे मिल पायं नहीं ,
                           जीवन में न तेरा साथ रहे ।
                           मैं यादों का मधुमास बनूँ ,
                          जो प्रतिपल तेरे साथ रहे ।।" 
          तो क्या देवदास बन जाओगे ? वह हंसी ।
           क्या मैं इतना मूर्ख लगता हूँ ?........
                            " छोड़ दे सारी दुनिया किसी के लिए ,
                              यह मुनासिव नहीं आदमी के लिए ।"

                                                         -----क्रमश:......  अंक-तीन का शेष  ..अगली पोस्ट में ..... 

सोमवार, 27 फ़रवरी 2012

कहानी...एक मुलाक़ात ..बस यूंही ...डा श्याम गुप्त ....

                              ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...

          चाचा चल रहे हैं, केबुल लाइन देखने जारहा हूँ किरावली । रास्ते में अपने गाँव रुक जाइए बापस में लेलूंगा । भतीजे संजय  ने अचानक ही पूछा । 
           मैं छुट्टियों में अपने शहर आया हुआ था और हम लोग कई दिन से अपने पैत्रिक  गाँव के बारे में चर्चा कर रहे थे  कि  अचानक संजय ने पूछ लिया ।  
          ठीक है चलते हैं, मैंने कहा।  हम मोटर साइकल पर अपने गाँव को चल दिए जो शहर से लगभग १८ की मी था ।  गाँव पहुँच कर मैंने संजय से कहा, अच्छा तुम अपना काम करके आओ तब तक मैं घूमकर आता हूँ ।
          मैं  घूमता रहा ..मंदिर, खेत ..कुआ..रहंट ..कहीं कहीं नालियों में बहता हुआ ठंडा ठंडा पारदर्शी पानी ..जो आजकल अधिकाँश कुए-रहंट  की बजाय ट्यूब-वैल से पाइपों द्वारा नालियों में भेजा जारहा था । पोखर के नज़दीक पहुंचकर मैं पुरानी यादों में खोजाता हूँ ..नहर से ...पोखर में धीरे धीरे आता हुआ पानी  फिर उतरता हुआ पानी.... वर्षा में  पानी व मेढकों से भरा हुआ पोखर, मेढकों को पकड़ते हुए ...टर्र-टर्र की  'धैवत'  ध्वनि के समवेत स्वर में गाते हुए मेढकों का संगीत ...बच्चों का तैरना ..डुबकी लगाना...और पानी पर पत्थरों को तैराने की प्रतियोगिता....पोखर के किनारे चलते चलते  मैं अचानक एक पत्थर उठा कर तेज़ी से पोखर में फैंकता हूँ ...पत्थर तेजी से तैरता सा कुलांचें मारता हुआ दूसरी ओर तक चला जाता है । मैं स्वतः ही मुस्कुराने लगता हूँ । 
            उई ! कौन है रे !  ...अचानक एक तेज़ आवाज से मेरा ध्यान भंग होता है । मैं सर उठाकर दूसरी ओर देखता हूँ । आवाज कुछ जानी पहचानी लगती है । पत्थर तैरता हुआ शायद दूसरी और जाकर किसी किनारे खड़ी हुई महिला को या पानी पीते हुए जानवर को लग गया है ।
               कौन है रे ! जो इतने बड़े होकर भी कंकड़ चला रहे हो पोखर में । तब तक मैं क्षमा-मुद्रा  में आता हुआ...किनारे किनारे चलता हुआ समीप आ पहुंचता हूं । आवाज कुछ और अधिक पहचानी सी लगती है ।
             अरे, तुम हो ! 'बनिया का छोरा ' ! आश्चर्य मिश्रित स्वर में महिला कहने लगी । तुम तो शहर में जाकर डाक्टर बन गए हो । अभी भी पत्थर फैंकते हो पोखर में .. । जानवरों को हड़का दिया न । तुम यहाँ कैसे !
            मैं झेंपते हुए मुस्कुराया ..तो तुम हो..."जाटिनी की छोरी "...
            क्या पुरानी बचपन की याद आगई है ?
            क्यों, क्या तुम्हें नहीं आती ?
            नहीं ।
            मुझे भी नहीं ..... मैंने कहा ।
            तो पत्थर क्यों चला रहे  हो, भूले नहीं हो ।
             क्या ?
            अरे पत्थर चलाना, और क्या ।
             अरे नहीं, बस यूं ही । तुम तो शादी करके, अन्य गाँव चली गयीं थी ।
            क्यों ? क्या तुम चाहते हो कि मैं भैया के घर नहीं आऊँ । कल ही तो आई हूँ अतरसों चली जाऊंगी ।सोचा गाय को पानी पिला लाऊँ, पोखर देख आऊँ ...पर तुम यहाँ क्या कर रहे हो ?
              क्यों ? क्या तुम चाहती हो कि  मैं तुम्हारे गाँव आऊँ भी नहीं ।
              नहीं, मेरा वो मतलब नहीं । फिर मेरा गाँव क्या ...तुम्हारा भी  तो गाँव है ...रोज आओ ।
              तुम रोज आओगी क्या ।
              अब ज्यादा न बोलो, अपना रास्ता नापो ।
              वही तो कर रहा हूँ ।
              'क्या हुआ कम्मो । उसकी तेज आवाज शायद भाभी ने सुन ली थी । कम्मो जल्दी से बोली ,’कुछ नहीं भाभी बस ज़रा पैर फिसलने लगा था”
              'इस उम्र में तो पैर संभालकर रखा करो, लाड़ो ।'  भाभी ने हंसते हुए कहा, 'ननदोई जी को क्या जबाव देंगे हम ।' ...कहते कहते सरला भाभी नज़दीक आगई थी । फिर अचानक मुझे सामने देखकर, झेंपकर चुप होते हुए बोली,'  अरे कौन ! रमेश बाबू हैं ......लालाजी  के बेटे । यहाँ कहाँ,  तुम तो सुना है शहर में बड़े डाक्टर होगये हो । ....तो पुरानी मुलाक़ात हो रही थी । वे भोंहें चढ़ाकर कम्मो की ओर देखते हुए बोलीं ।'
                 अरे भाभी तुम तो बस .......कम्मो बोली ।
                 भाभी मैं एक काम से इधर से गुज़र रहा था तो मैंने सोचा कि अपना गाँव देखता जाऊं, पुरानी यादें ताज़ा करलूं । मुद्दतों बाद तो इधर से गुज़रा हूँ ।
                 अच्छा किया ....अरे ! मेरी तो दाल चूल्हे पर रखी है......चलो कम्मो  जल्दी पानी पिला कर आओ ....कहती हुई वो तेजी से चली गयीं । मुस्कुराती हुई कम्मो पीछे-पीछे गाय को हांकते  हुए चलदी ।     
                  

रविवार, 26 फ़रवरी 2012

इन्द्रधनुष-----स्त्री-पुरुष विमर्श पर डा श्याम गुप्त का का उपन्यास ....

                                 ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...


        ’ इन्द्रधनुष’ ------ स्त्री-पुरुष विमर्श पर एक नवीन दृष्टि प्रदायक उपन्यास (शीघ्र प्रकाश्य ....)
                                             
                                                      अंक एक 

सुमि तुम !
के जी ! अहोभाग्य , क्या तुमने पुकारा ?
नहीं ।
मैंने भी नहीं, फिर....
हरि इच्छा, मैंने कहा ।
वही खिलखिलाती हुई उन्मुक्त हंसी ।
        चलो , समय ने मेहरबान होकर एक बार फिर साथ साथ चलने का अवसर दिया । सच बताऊँ , आज सचमुच मैंने याद किया था ...जाने क्यों .....खैर छोडो । कहाँ जाना है, सुमि ने पूछा ।
बंबई , असोशियेशन की कान्फ्रेंस है
क्या नेता बन गए हो ? सुमि ने पूछा ।
नहीं , मैंने कहा---
           'आसमाँ की तो नहीं चाहत है मुझको ,
            मैं चला हूँ बस जमीन के गीत गाने ।'
हूँ, वही तेवर,अच्छा लगा ।
और तुम कहाँ जा रही हो ?
वहीं जहां तुम ।
गुड---'वहीं है आशियाँ मेरा जहां तू मुस्कुराई है।'
        पी जी  परीक्षा लेने जा रही हूँ , मेडीकल कालेज में प्रोफ़ेसर हूँ । सुमि ने बताया ।
अच्छा मेरी जगह तुम घेरे हुए हो ।
ये क्या बात हुई ।
          अच्छा स्त्रियों के सर्विस करने के बारे में तुम्हारे विचार क्या हैं ? उसकी सामाजिक उपादेयता व अनुपादेयता क्या है?
           तुमतो मिलते ही शुरू होगये, श्योरली तुम्हारे दिमाग में कुछ चल रहा है । इतने वर्षों बाद मिले हैं और....
                     ' न हाल पूछा न चाल, मिलते ही शुरू होगये,
                      पूछो तो कहाँ थे, क्या थे और अब क्या होगये ।'   
          वाह ! क्या बात है..क्या बात है....मैंने कहा। अच्छा किस विशेषज्ञता की परीक्षा लेने आई हो , तुम किस डिसिप्लिन में विशेषज्ञ हो ?
 मैंने एम् एस, स्त्री चिकित्सा विज्ञान में किया है ।
मैंने.......
एम् एस सर्जरी ...मुझे पता है  तुम्हारे लेखों व पुस्तकों से ।
हूँ, वेरी स्मार्ट..हमसे तेज !
           " मेरे ख्याल से हायर प्रोफेशनल्स, चिकित्सक, उच्च अधिकारी, प्रोफ़ेसर आदि की उच्च स्थिति से अन्यथा सेवा स्त्रियों को नहीं करनी चाहिए, जब तक विशेष परिस्थिति न हो । उन्हें स्वयं का व्यक्तिगत विशेषज्ञ कर्म, व्यबसाय करना चाहिए जहां वे स्वयं ही 'बॉस' हैं । क्योंकि मातहत सेवाओं में तो स्त्रियों के होने से शोषण-चक्र को ही बढ़ावा मिलता है । सिर्फ सर्विस के लिए या समय काटने के लिए , यूंही और आय बढाने के लिए सर्विस का लाभ नहीं है । यदि आप 'हाईली पेड' नहीं हैं तो आपको घर व दफ्तर दोनों का दायित्व संभालना पडेगा और बहुत से समझौते करने पड़ेंगे ।" सुमि ने स्पष्ट किया ।
 अब अपनी भी कहदो, पेट में पच नहीं रहा होगा ।
      " यदि सारी स्त्रियाँ सर्विस करने लगें तो देश में दोसौ प्रतिशत स्थान तो होंगे नहीं; ज़ाहिर है कि वे  पुरुषों का ही स्थान लेंगी और पुरुषों में बेरोज़गारी का कारण बनेंगीं। कोई पति-पत्नी युगल अधिक कमाएगा व अधिक खर्चेगा, कोई दोनों ही बेरोज़गार होंगे, कोई एक ही, अतः सामाजिक असमानता,असमंजसता,भ्रष्टाचरण को बढ़ावा मिलेगा । कुछ पुरुष स्त्रियों की कमाई पर मौज उड़ायेंगे कुछ ताने बरसाएंगे । अतः पारिवारिक द्वंद्व भी बढ़ेंगे । यदि स्त्रियाँ सामान्यतः नौकरी न करें तो लगभग सभी युवक रोज़गार पायेंगे व सामाजिक समरसता रहेगी । पुरुष स्वयमेव समुचित  वेतन के भागी होंगे ।"
             'किन्तु प्राचीन व प्रागैतिहासिक  युगों में भी तो सदा स्त्री-पुरुष दोनों साथ साथ काम करते थे ।' सुमि ने प्रश्न उठाया, 'मध्यकाल में और आज भी अधिकाँश वर्गों में, गाँवों में भी स्त्रियां पुरुषों के साथ साथ सभी कार्य करती हैं । फिर उनकी आर्थिक सुरक्षा का दायित्व किस पर होगा ?'
         निश्चय ही पति -परिवार के साथ कार्य करना, खेतों पर कार्य, व्यवसाय संभालना तो सदा से ही नारी करती आरही है । कैकेयी का युद्ध में साथ देना, रानियों का अन्तःपुर की व्यवस्था संभालना, राधा का नेतृत्व, द्रौपदी का अन्तःपुर संचालन तो प्रसिद्ध हैं । परन्तु प्रश्न अन्य की चाकरी करने का है, सेवा का है, जो सामंती व्यवस्था की देन है  तथा स्त्री-पुरुष उत्प्रीडन, शोषण  व द्वंद्व की  परिणामी स्थिति उत्पन्न करती है । मैंने कहा ।
        हूं, बात में दम तो है । क्या-क्या और कहाँ तक सोचते रहते हो , अभी तक । वह हंसते हुए कहती गयी ।    'अच्छा कहाँ ठहरोगी ?' मैंने पूछा ।
मेडीकल कालेज के गेस्ट हाउस में । और तुम ?
मेरीन ड्राइव पर ।
सागर तीरे..... किनारे बैठने की आदत गयी नहीं अभी तक । वेरी बेड ।
          ' मुझे आवाज़ देती है उमड़ती धार नदिया की 
           किनारे इसलिए ही तो मुझे अब रास आते हैं ।'....अरे गेस्ट हाउस है , चर्च गेट पर , मैंने बताया ।
चलो साथ साथ मेरीन ड्राइव पर घूमने का आनंद लेंगे । पुरानी यादें ताजा करेंगे ।
रमेश कहाँ है ? मैंने पूछा ।
दिल्ली, बड़ा सा नर्सिंग होम है, अच्छा चलता है ।
क्या सोचने लगे ?
यही कि तुमने अपना नर्सिंग होम क्यों नहीं ज्वाइन किया !
            'तुम्हारे कारण केजी ...लिखने पढ़ने की बुरी आदत पडगई है न । प्राइवेट नर्सिंग होम में तो इतना समय ही नहीं मिलता । दिन भर काम में जुटे रहो, लोग चैन से बैठने ही कहाँ देते हैं ।' वह हँसने लगी , फिर बोली. अरे ..डोंट बी डिप्रेस्ड...वास्तव में तो वह सर्जीकल क्लिनिक है, गायानोकोलोजी  नहीं  बाप-बेटे मिल कर चला लेते हैं । फिर मेडीकल कालेज से भी तो सम्बद्दता रहनी चाहिए न ।
तुम्हारी शायरी और डांस ?
फुर्सत ही कहाँ है ।
और फेमिली ?
प्लान्ड, एक बेटा है, एमबीबीएस कर रहा है ,पिटा का हाथ बंटाता है। बेटी एमसीए करके अपने पति के पास ।
सुखी हो ?
बहुत, अब तुम बताओ ।
एक प्यारी सी हाउस मेनेजर पत्नी है सुभी ..सुभद्रा । बेटा  बी टेक  कर रहा है और बेटी  एम बी ए ...बस ।
सदा की तरह संतुष्ट और परम सुखी, वह बोली, और कविता ?
क्या दो पर्याप्त नहीं  हैं ?  मैं हंसा ।
तुम्हें याद है अब तक वो पागलपन !
           'जमाने के  कभी में साथ  यारा  चल नहीं पाया ,
            मगर यादें मुझे अब भी जवाँदिल करती जाती हैं।'
मैं किसी नयी काव्य-रचना की बात कर रही हूँ ।
पता है, एक नवीन संग्रह छापा है ..' तेरे नाम ' ।
'मेरे नाम '
नहीं -'तेरे नाम '।
ओह!  मेरे नाम क्या है उसमें ?
           "तू ही मितवा है तेरा नाम तू ही तू जमाने में ।
           जमाने नाम तेरे और क्या अब मैं भला करदूं ।".........देखलेना, कल सुबह पेश करूंगा।
और वह साइक्लिस्ट ?
अपने पति के पास, मैंने हंसते हुए कहा ।
 हूँ, और क्या ख़ास उपलब्धि इस बीच, मैंने पूछा ।
अमेरिका व आस्ट्रेलिया का प्रोफेशनल दौरा, और छः माह  अमेरिका प्रवास ।
वाह! अमेरिका में  हमें याद किया या नहीं ।
नहीं, पर तुम बहुत याद आते रहे । वह मुस्कुराने लगी ।
इसका क्या अर्थ ? मैंने साश्चर्य पूछा ।
 भूलने, याद न करने और याद आने में फर्ख है ......
         'अब भला याद करें भी तो तुम्हें कैसे करें ,
          हम तो भूले ही नहीं सुन के मुस्कुराओगे ।'
वाह ! मान गए सुमि ।
तो अब मुझे और क्या चाहिए ।
 हूँ, बड़ा सुन्दर एडवांस देश है अमेरिका, खुले लोग, खुले विचार  कैसा लगा ?
हाँ , खुली खुली सड़कें ,मीलों दूर तक फ़ैली हुयी, साफ़-सुथरी बड़ी-बड़ी इमारतें , शानदार केम्पस , चमचमाती हुई गाड़ियां , स्वर्ग का सा असीम नैसर्गिक सौंदर्य ....।
तो लौट क्यों आई हो ?
वहां के जी  नहीं है न, वह हंसकर कहने लगी ।
मैं हंसा...फिर बोली ......'जननी जन्म भूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी'..   है न ।
मैं सोचता हूँ ..मुझे भी हो आना चाहिए ।
      ' वास्तव में वहां कुछ नहीं है के जी, वहां मूलतः खाओ-पियो -मौज उडाओ संस्कृति है । वहां सब कुछ बिकता है, देह से लेकर ज्ञान अनुभव तक....चित्रकारी भी बेचने के लिए, पर्यटन भी उसकी फिल्म बेचने के लिए, मैत्री भी खबर बेचने के लिए । अब तो कोख भी बिकती है । जो बिकाऊ नहीं है वह बेकार है ।' वह कहती गयी ।' वे लोग तुम्हें कुछ नहीं दे पायेंगे.. के जी, हाँ तुम उन्हें बहुत कुछ दे सकते हो ।
       ' ठीक है सुमि, पर हम निगेटिव लोगों से ही अधिक सीखते हैं । जैसे असफलताएं  हमें  बहुत सिखा जाती हैं बजाय सफलताओं के । नकारात्मकता का एक सकारात्मक पक्ष यह भी है कि हम इनसे बहुत कुछ सीख सकते हैं ।'
        वाह ! क्या बात  है के जी...नकारात्मकता का भी सकारात्मक पहलू । चलो सो जाओ, सुबह बातें होंगी, फ्री टाइम में मेरीन-ड्राइव घूमना है तुम्हारे साथ, बहुत सी बातें करनी हैं ।
                राजधानी एक्सप्रेस तेजी से भागी जारही थी । सामने की बर्थ पर सुमि कम्बल ओढ़ कर सोने के उपक्रम  में थी और मेरी कल्पना यादों के पंख लगा कर तीस वर्ष पहले के काल में गोते लगाने लगी ।
                                       
                                                        अंक -दो.....

                      
                    सुमित्रा कुलकर्णी, कर्नल रामदास की इकलौती पुत्री, मेडीकल कालिज में मेरी सहपाठी,बीच पार्टनर, सीट पार्टनर; सौम्य, सुन्दर, साहसी, निडर, वाकपटु, स्मार्ट, तेज-तर्रार । लगभग सभी विषयों में पारंगत; स्वतंत्र,  स्पष्ट व् खुले विचारों वाली, वर्तमान में जीने वाली, मेरी परम मित्र।  हमारी प्रथम मुलाक़ात कुछ यूं हुई ।
            चिकित्सा महाविद्यालय में प्रथम वर्ष, रेगिंग जोर-शोर से जारी थी हम सभी नए छात्र क्लास रूम में बैठे थे , प्रोफ. सिंह के इंतजार में । अचानक द्वितीय वर्ष के सीनियर छात्र कक्ष में घुस आये और रेगिंग प्रारम्भ । आदेश हुआ --सभी लडके जल्दी से अपनी क्लास की न. १ से लेकर न. १० तक ब्यूटी-टापर्स लड़कियों के नाम की लिस्ट लिख कर दें । हाँ -कारण भी बताएं ।  जों जितनी देर करेगा उतने ही थप्पड़ों का हकदार होगा ।
           अभी तक तो क्लास में लड़कों के नाम भी ठीक तरह से ज्ञात  नहीं होपाये थे, लड़कियों की  तो बात ही क्या ।  घबराहट में उपस्थिति रजिस्टर में मेरे से दो स्थान आगे सुमित्रा नाम आता था वही लिख दिया । आगे क्या होना है इसका तो किसी को ज्ञान ही कहाँ था ।
             सभी कागजों को सरसरी तौर पर देखकर सीनियर छात्र ने एक कागज़ निकाल कर हंसते हुए कहा.....  ' कौन है यह, सिर्फ एक ही नाम, एक मैं और एक तू ,..अच्छा,  श्री कृष्ण गोपाल गर्ग जी ...आइये डाक्टर साहब , पढ़िए जोर से क्या लिखा है आपने ।'
               सबको काटो तो  खून नहीं ।  खैर, डरते-डरते मैंने सुमित्रा कुलकर्णी का नाम पढ़ा और कारण की कोई और नाम याद ही नहीं है ।  सारी क्लास ठहाकों से गूँज उठी । सुमित्रा ने आश्चर्य मिश्रित क्रोध से मेरी और देखा तो मैंने हाथ जोड़ दिए । क्लास में फिर ठहाके गूंजे । सजा दीगयी -परसों तक सारी लड़कियों के नाम लिख कर देने हैं और गुण भी ।  सोमवार  ७.३० ए एम, यहीं पर ...साथ में  'डिसेक्टर'  के पहले पृष्ठ को भी रट कर सुनाना है..शब्द व शब्द ।
               ' रेगिंग का वास्तविक उद्देश्य शिक्षकों, छात्रों, सीनियर व  जूनियर साथियों , महिला-पुरुष साथियों में आपसी संवाद,  विचार-विनिमय, सहृदयता, अंतरंगता का माहौल बनाना है ताकि पांच वर्ष के कठोर अध्ययन- साधना का क्रम व कठिन परिश्रम का लम्बा समय तनाव रहित व सामान्य रहे । पूरा विद्यालय एक परिवार की भाँति रहे। आपसी ताल मेल द्वारा ज्ञान, व्यवसायिक ज्ञान व व्यवहारिक ज्ञान का तालमेल बने, जो अभी तक सिर्फ पुस्तकीय -एकेडेमिक ज्ञान तक सीमित था।  इसका उद्देश्य अंतर्मुखी व्यक्तित्व को बहिर्मुखी बनाना भी है ।  यह चिकित्सा जैसे सामाजिक -सेवा व्यवसाय क्षेत्र व व्यवहार जगत में उतरने के लिए आवश्यक है । सेवा, सौहार्द, सदाशयता सहृदयता, मानवीयता आदि भाव छात्रों  के अन्दर उत्पन्न हों तथा अन्दर छिपी हुई प्रतिभा , अतिरिक्त सर्जनात्मकता को बाहर लाना भी इसका उद्देश्य है ।'......नवागंतुक छात्रों की स्वागत-समारोह या रेगिंग पार्टी के अवसर पर चिकित्सा महाविद्यालय के प्रिंसीपल -डाक्टर के सी मेहता..एम एस, ऍफ़ आर सी एस (लन्दन) ,ऍफ़ आर सी एस ( एडिनबरा )...रेगिंग पर अपना अभिभाषण प्रस्तुत करते हुए उसकी उपादेयता व आवश्यकता पर प्रकाश डाल रहे थे , जिसका जोर से करतल-ध्वनि से स्वागत किया गया ।
           रेगिंग पार्टी प्रथम वर्ष के नवागंतुक  छात्रों को सीनियर छात्रों द्वारा दी जाती है । तत्पश्चात रेगिंग  को पूरी तरह समाप्त समझा जाता है ।फिर प्रारम्भ होती है अध्ययन-अध्यापन की कठोर साधना, लगभग प्रत्येक वरिष्ठ क्षात्रों व अध्यापकों के सहयोग से ।
         जूनियर व सीनियर क्षात्रों द्वारा विभिन्न सांस्कृतिक आयोजन-कार्यक्रमों के पश्चात रात्रिभोज के साथ समारोह समाप्त हुआ तो सभी छात्र  आपस में हंसी-मज़ाक के साथ-साथ आने वाले पांच वर्षों के भावी जीवन के विविध तानों-बानों के भाव -स्वप्नों  में  उतराते हुए चल दिए ।
        मैंने चलते हुए सुमित्रा से कहा, 'सुमित्रा जी, आपका गायन वास्तव में सुन्दर था, बहुत-सुन्दर ।
         'आपको नाम या होगया मेरा ?'   उसने गर्दन टेडी करके पूछा ।
         'एस, ऑफकोर्स ', मैंने उसे घूरते हुए पूछा , क्यों ?
          कुछ नहीं , वह मुस्कुराती हुई चल दी  ।
                           
                                 * *                              **                                    **                  
 
                  फिजियो-लेब में सुमित्रा मेंढक आगे बढाते हुए बोली, कृष्ण जी ये मेंढक ज़रा 'पिथ' कर देंगे ।
                  क्यों, क्या हुआ।  मैंने हाथ आगे बढाते हुए पूछा ?
                  अभी ज़िंदा है,  और बार-बार फिसल जाता है । 
                  तो क्या मरे को 'पिथ' किया जाना चाहिए ? मैंने मेंढक को पकड़ते हुए कहा, 'ब्यूटीफुल' ।
                 कौन? क्या ! उसने चौंक कर पूछा ।
                 ऑफकोर्स, मेंढक,  मैंने कहा,  देखो कितना सुन्दर है,  है  न ?
                 आपके जैसा है, वह चिढ कर बोली ।
                 मैं तुम्हें सुन्दर लगता हूँ ?
                  नहीं, मेंढक... वह मुस्कुराई ।
                   अच्छा, तभी यह इतना सुन्दर है,  मैंने नहले पर दहला जड़ा ।  देखो इसकी सुन्दर टांगें चीन में बड़े चाव से खाई जाती हैं ।
                    इतनी अच्छी लगती हैं तो पैक करके रखदूं, ले जाने के लिए; उसने शरारत से कहा ।
                  टांगें तो तुम्हारी  भी अच्छी हैं, सुन्दर ....क्या उन्हें भी.....।
                  शट अप, क्या बकवास है ।
                  जो दिख रहा है वही कहा रहा हूँ ।
                  हूँ ! वह पैरों की तरफ सलवार व जूते देखने लगी ।
                 ' सब दिखता है,  आर-पार, एक्स रे निगाहें होनी चाहिए ।',  मैंने सीरियस होकर उसे ऊपर से नीचे तक घूरकर देखते हुए कहा । वह हड़बड़ा कर दुपट्टा सीने पर सम्हालती हुई एप्रन के बटन बंद करने लगी । मैं हंसने लगा तो सुमित्रा सर पकड़ कर स्टूल पर बैठ गयी । बोली ..
             चुप करो,  मेरा मेंढक बापस करो, फेल कराना है क्या ?
             'लो हाज़िर है तुम्हारा मेंढक'  मैंने एक कदम उसकी तरफ आगे बढ़कर मेंढक देते हुए कहा,'क़र्ज़ रहा'।
 वह चुपचाप अपना प्रेक्टीकल करने लगी  ।


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               रात्रि  के लगभग नौ बजे जब लाइब्रेरी से   'स्वच्छ व पेय जल'  एवं दुग्ध की संरचना '...पर सिर मार कर बाहर आया तो सुमित्रा आगे-आगे चली  जारही थी, अकेली ।  मैंने उसके साथ आकर चलते चलते पूछा ...'अरे!  इतनी रात कहाँ से ?'
       जहां से आप ।
      ओह!  बीच में रास्ता सुनसान है, आपको डर नहीं लगेगा, क्या हास्टल छोड़ दूं ?
       अजीब हैं, डर की क्या बात है ?  वह बोली ।
      ओके,  गुड नाईट , बाय, मैंने कहा और आगे बढ़ गया ।
      'थैंक्स गाड ' जल्दी पीछा छूटा, वह बड़-बडाई ।
      पर सात कदम तो चल ही लिए हैं , मैंने  मुड़कर मुस्कुराते हुए  कहा ।
      क्या मतलब?', उसने सर उठाकर देखा ।
      बाय, मैंने चलते हुए कहा ।

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                      स्पोर्ट्स वीक के अंतिम दिन छात्राओं के लिए  'मटका दौड़ '  व छात्रों के लिए  'गधा दौड़'  का आयोजन था ।  लड़कियों को रंग से भरा हुआ घडा सिर पर रखकर दौड़ना था । या तो भीगने के डर से धीरे धीरे चलकर रेस हार जाएँ, या तेजी से दौड़कर  सारे कपडे रंग से भिगोलें । कपडे भी सफ़ेद ही होने चाहिए ।
                          सुमित्रा तेजी से दौड़कर यथास्थान पहुँची तो कपडे पूरी तरह से लाल रंग से सराबोर थे और शरीर से चिपक कर रह गए थे । चेहरा पूरी तरह से लाल रंग से रंगा हुआ था। कम या अधिक सभी लड़कियों का यही हाल था मानो  हरे, पीले, लाल रंग में डुबकी लगा कर आयी हों । कुछ तो बीच में ही घडा फैंक कर भाग खड़ी हुईं । मैंने अचानक सुमित्रा के सामने आकर कहा , ' क्या जीतने के चक्कर में पूरा भीगने के आवश्यकता थी ?'
                        वह अचकचा गयी, फिर बोली, आप  क्या जानें ...इस तरह भीगने में कितना आनंद आता है, भीगने का भीगना,  जीत प्रशंसा व् पुरस्कार अलग से बोनस में ।  दुगुने लाभ के बात है । समझे ? तन से  मन से रंग जाने को जी करता है ।
                      और आप ही कौन से कम एक्साईटेड थे, वह कहने लगी,  ' गधे को ऐसे दौड़ा रहे थे जैसे खानदानी गधा -सवारी  गांठने वाले हों । और गधा भी क्या खानदानी गधा निकला -जिद्दी ..कि मैं तो ऐसे गधे के साथ नहीं दौड़ता । और न दौड़ा तो न दौड़ा ।
           मैं  उसे घूरकर देखने लगा तो मुस्कुराती हुई दौड़कर लड़कियों के झुण्ड में गायब होगई ।


                        ..............क्रमश :  अंक तीन ....अगली पोस्ट में ......
 





मंगलवार, 14 फ़रवरी 2012

वेलेंटाइन डे- पर विशेष ..... प्रेम का स्वरूप--......डा श्याम गुप्त....

                           ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
            सृष्टि के समय उत्पन्न प्राणि-जगत में भाव-जगत की उत्पत्ति के समय सृष्टा द्वारा सर्वप्रथम उत्पन्न भाव था...स्नेह ..जिसके कारण प्राणि-जगत में संबंधों की अभिव्यक्ति प्रारम्भ हुई और सभी  विभिन्न भावों, प्रेम से लेकर द्वेष-द्वन्द्व तक,  का प्रादुर्भाव हुआ ।  सभी भावों के मूल, मानव मेधा के लिये  अपारगम्य इस ..प्रेम .के स्वरूप को जो लौकिक से लेकर अनहद-नाद की भांति उच्चतम अध्यात्म भाव तक  विस्तरित है  किसी भी एक दिवस या व्यक्ति तक सीमित करना असम्भव है ।