....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
श्याम स्मृतियाँ----१६ से २०-----
श्याम स्मृतियाँ----१६ से २०-----
श्याम स्मृति-१६.परम्परा
-आसमाँ और भी हैं...
परम्पराएं सीडियां है प्रगति की, सदा पालन योग्य, अनुभव व ज्ञान
के भण्डार परन्तु सीडियां चढने हेतु होती हैं, आगे बढ़ने हेतु | ज्ञान कोई
स्थिर जलतल नहीं अपितु गतिशील समय है, मानवता का प्रगति-पथ है, पथदीप है जो आगे चलना सिखाता है, नवीन
राहें दिखाता है | परंपरा के नाम पर रूढ़िवादिता, जड़ता, अप्रगतिशीलता
मानवता के प्रति अक्ष्म्य अपराध है |
आजकल, सदा से समाज की सर्वोच्च स्तर पर स्थित साहित्य जगत में भी, यह परम्परा
के नाम पर रूढ़िवादिता के दर्शन हो रहे हैं | वेद ही अंतिम सत्य है, सिर्फ सनातनी छंदों
में ही कविता करें, छंदमुक्त कविता ने कविता की अत्यंत हानि की है आदि कथन प्राय: सुनने को
मिलते हैं | परन्तु हम भूल जाते हैं कि वेद स्वयं
नेति-नेति कहते हैं, अर्थात नै इति, यह अंत नहीं है..आसमां और
भी हैं |
श्याम स्मृति-१७. शिक्षा क्षेत्र में पतन के कारण ..
शिक्षा क्षेत्र में पतन आता जा रहा है, आज शिक्षा एक तप, साधना व परमार्थ
न होकर व्यवसाय होगई है, स्कूल-कालेज, संस्थान खोलना अच्छा व लाभ का धंधा माना जा रहा है
जो व्यवसायिक कर्म परमार्थ-हित, कर्तव्य माने जाते थे वे प्रोफेशन हो गए हैं | यूं तो हर
पतन का कारण मानव का अति-भौतिकता में लिप्तता होता है, शिक्षा में
पतन के दो मूल कारण मुझे समझ में आते हैं |
एक--तमाम विद्यालय, चिकित्सा-विद्यालय, इन्जीनियरिंग
व प्रवंधन आदि व्यवायिक संस्थान व्यक्तिगत हाथों में दे दिए गए हैं और उस विषय विशेष
के प्रोफेशनल्स से अन्य व्यक्तियों द्वारा चलाये जा रहे हैं जिनमें सिर्फ कमाने-खाने का भाव
रहता है |
दो--- अधिकाँश व्यक्तिगत संस्थाएं, सेवानिवृत्त व्यक्तियों
को प्रोफेशनल्स को नियोजित करती हैं क्योंकि कम सेलेरी में ही काम चलजाता है| शिक्षा जैसे
कर्म के लिए पूरी ऊर्जा, इच्छा-शक्ति, अनुप्राणित मन, प्राण व ज्ञान चाहिए |
सेवानिवृत्त
व्यक्ति थका-थकाया होता है वह बस समय काटने को नियोजन चाहता है, बोनस में कुछ पैसे
भी कमा लिए जायं तो बुरा क्या है | आखिर सेवानिवृत्ति तक कितना दम-ख़म, कितना ज्ञान
व कितनी कर्म इच्छा-शक्ति बच रहती है? अन्यथा उसे सेवा से निवृत्त किया
ही क्यों जाता| इस प्रथा के कारण, जो अभी कुछ वर्षों से ही काफी प्रचलित हुई है मरते
दम तक और कमा लिया जाये की लालच पूर्ण इच्छा के साथ, तमाम नव-युवाओं के कमाने के अधिकार का भी हनन होता
है और उनके भविष्य की हानि एवं युवा ऊर्जा का प्रयोग में न आना भटकाव का कारण बन सकता
है |
क्या निश्चय ही यह विचार का विषय नहीं है
|
श्याम स्मृति-१८. अविश्वास और
विश्वास व साहित्य.....
यह कहा जा
रहा है, और सच भी है, कि अब साहित्य का समाज व मानव पर प्रभाव नहीं पड रहा
है| उसका मानव आचरण व व्यवहार सुधार पर सत्प्रभाव नहीं पड रहा | हुआ क्या
है ?.....
हुआ सिर्फ
इतना है कि कल हम जिन साहित्य, कथाएं, कहानियों गाथाओं, घटनाओं के वर्णन व सुने हुए तथ्यों व पौराणिक
कथ्यों-तथ्यों को ज्ञान व अनुभव मान कर विश्वास करते थे, तर्क करते
थे और इन तर्क, दर्शन, धर्म को महत्त्व देते थे उन पर बहस, वाद-विवाद भी
होते थे | आज हम उन्हें पुराणपंथी, कल्पित, मिथ्या, अवैज्ञानिक कह कर उन पर अविश्वास करते हैं, नकार देते
हैं | धर्म, दर्शन ,तर्क व सोचने के लिए किसी के पास समय ही नहीं है | इसे निठल्लों
का काम माना जा रहा है|
अतः समाज
पर साहित्य का उचित सद्भावी प्रभाव नहीं होरहा है| साहित्य समाज पर प्रभावी नहीं रहा
और न ही समाज में सत्साहित्य का प्रसार होरहा |
श्याम स्मृति-१९. त्रिदेव .
यदि त्रिदेव
या ईश्वर सिर्फ कल्पना ही है तो किसने की इतनी सुन्दर कल्पना और उस कल्पना का शिल्पी
क्या त्रिदेव से कम होगा | कहानीकार, कथाकार, साहित्यकार, कवि व उनकी कल्पनाओं को हम जाने क्या क्या
उपमाएं देते रहते हैं | तो इस परिकल्पना का अनादर क्यों ?
श्याम स्मृति-२०. यदि पति माना हैं तो ...
यदि पति माना है तो पति-सेवा धर्म निभाना पत्नी का कर्तव्य है चाहे वह लूला
हो, लंगडा हो, अंधा-कोडी हो | जैसा अनुसूया सीता से कहती हैं | शैव्या के
कोढी पति व अंधे च्यवन ऋषि की पत्नी राजा शर्याति की राजकुमारी सुकन्या की पतिसेवा
की कथाएं प्रसिद्द हैं | सीता भी राम को जंगल में छोड़कर नहीं भागी | परन्तु गंगा, उर्वशी जैसी
तमाम बुद्धिमती स्त्रियों ने विवाह संस्था को नहीं माना, किसी को पति नहीं माना | वैदिक काल
में सरस्वती ने भी नहीं |
इसीलिये तो शादी में गुण मिलाये जाते हैं, जन्म पत्री देखी जाती है सारा परिवार, कुटुम्ब, खानदान सम्मिलित
होता है | तब किसी को पति स्वीकारा जाता है | आजकल लड़की भी देखती है बात करती है |
पुरुष ब्रह्म है नारी प्रकृति, वह शक्ति है ब्रह्म की | ब्रह्म उसके
द्वारा ही कार्य करता है परन्तु फिर भी प्रकृति स्वतंत्र नहीं है, ब्रह्म की
इच्छा से ही कार्य करती है | अतः नारी इच्छानुसार ही चले वही उचित रहता है | यदि पति माना
है तो निभाना ही चाहिए चाहे कैसा भी हो| इसीलिये तो
पति की उम्र अधिक रखी गयी है ताकि अनुभव-ज्ञान के आधार पर नारी आदर करे पुरुष का और अनुभवी
पुरुष सदा मान रखे अपने साथी का, बड़ों द्वारा छोटों के समादर करने वाले भावानुशासन
के अनुसार |