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डा श्याम गुप्त का ब्लोग...

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Lucknow, UP, India
एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं... काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद .. my blogs-- 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति... 2.drsbg.wordpres.com, 3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त

सोमवार, 10 जुलाई 2023

डॉ.श्याम गुप्त की लघुकथायेँ--कथा 36 से 41 तक--

....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...


३६.न चाहते हुए भी

     अबकी बार आप भी एक गाउन सिला लीजिये न अपने लिए| सलाइयां चलाते चलाते शशि कहती है|

     अच्छा, हाँ, मैं कहता हूँ| वैसे गाउन से क्या लाभ, यह तो अंग्रेज़ी सिस्टम है| हमारे यहाँ तो इतनी सर्दी पड़ती ही नहीं|

      वाह, आजकल तो सभी अफसर पहनते हैं|

      अच्छा, अच्छा कहकर मैं चुप होजाता हूँ| न चाहते हुए भी मैं हाँ कह लेता हूँ| न चाहते हुए भी हम कितने कार्य यूंही करते जाते हैं| व्यर्थ बहस करने के झंझट में कौन पड़े |

                         

 

 ३७. विकास या पतन ...

      यहाँ लड़कियां, स्त्रियाँ सब खाए-पिए, हैवी बदन वाली, भारी बेडौल शरीर व नितम्बों वालीं, अनियमित चाल वालीं जो टाईट जींस-पेंट टॉप में और अधिक उभरकर आती है, दिखाई देती हैं|’ मल्टी-स्टोरी रेजिडेंन्शियल बिल्डिंग के भ्रमणपथ पर स्थानीय मित्रों के साथ घूमते हुए मैंने कहा|

      हाँ, सभी आधुनिका, पढी-लिखी नारी हैं| अच्छी पगार-पैकेज पाने वालीं या पाने वाले या बिजनेस वाले अपेक्षाकृत अमीर लोगों की पत्नी, बहू-बेटियाँ हैं| ठाठ-बाट से रहने वालीं, लिपी-पुती, पेंट-जींस में रहने वालीं|’ शुक्ला जी बोले|

     भई, अब वो कम खाने वाली, बचा-खुचा खाने वाली, गम खाने वाली स्त्रियाँ थोड़े ही रह गयी हैं| तरक्की पर है समाज| अब नारी वो पतली-दुबली, कृशकाय अबला नहीं रही|’ जोशीजी कहने लगे|

      हाँ सही है, परन्तु कहाँ है वह ग्लेमर, सहज-प्राकृतिक सौन्दर्य जो साधारण वस्त्रों में, रूखा-सूखा खाकर भी प्रसन्न रहने वाली सामान्य महिला में होता है, कवि की कल्पना की उसकनक छरी सी कामिनीमें, जिसके लिए मजनूँ, फरहाद, सदाबृक्ष, रांझा जीवन वार देते थे|’ मैंने प्रश्न किया, शायद स्वयं से ही|

 


     वस्तुतः अति-अभिजात्यता, अत्याधुनिकता सदैव ही स्त्रैण-भाव की कमी व नारी में पुरुषत्व-भाव लाती है| अप्राकृतिकता व नारी के सहज आकर्षण की कमी उत्पन्न करती है| यह सदा से ही होता आया है| पहले भी राजकुमार प्रायः राजकुमारियों को छोड़कर किसी दासी, दासी-पुत्री या सामान्य ग्रामीण बाला को पसंद करने लगता था, रानी बनाने हेतु| जाने कितनी गाथाएँ हैं| ’मैंने कहा|

     आज भी तो, शुक्ला जी कहने लगे, ‘साहब प्रायः घरेलू नौकरानी, मातहत, कामगार, सेक्रेटरी के आकर्षण में बह जाते हैं| पश्चिम-समाज में तो यह काफी सामान्य बात है, साहब का, मालिक का, सेविका से, घर की व्यवस्थापिका से, मातहत से शादी कर लेना| आज अभिजात्य में प्रेम, प्रेम के त्याग भाव आदि के न रह जाने से स्त्रियोचित लावण्य-सौन्दर्य नहीं दिख रहा है| कमाऊ पत्नी देर रात तक बाहर रहने वाली पत्नी के युग में,  फैशन, चमक-धमक के युग में, केवल शारीरिक आकर्षण व आवश्यकता ही प्रधान रह गयी है| विवाह भी आज बस सहजीवन रह गया है, एक सौदा, कांट्रेक्ट..|’

     सही कह रहे हैं शुक्ला जी’, मैंने कहा, ‘कहाँ रहा वह अटूट बंधन, प्रेम, भक्ति, त्याग का आकर्षण-बंधन| अतः पुरुष भी भ्रमित भाव, शारीरिक आकर्षण में बह जाता है, कहीं भी| स्त्री-पुरुष अहं, ईगो, झगड़े, तलाक व पुनर्विवाह के मामले सामान्य होते जा रहे हैं|’ 

     पर यह उन्नति-प्रगति का दौर है, बौद्धिकता के विकास का, कब तक वहीं पड़े रहेंगे’, सुराना जी कहने लगे, ‘कि नारी पुरुष की अभ्यर्थना में खड़ी रहे| अरे,अच्छा कमाते हैं तो सुख क्यों न उठायें| लड़कियां किसी से कम थोड़े ही हैं,बराबरी का दौर है|’ 

        हाँ वह तो है, ‘पर इसमें नारी, स्त्री, पत्नी, रानी न रहकर सिर्फ भोग्या ही रह गयी है| यह विकास है या पतन|

 

३८. हूँ तो उनकी निगाह में ...

      एक अक्लमंद कंजूस था| उसके पास एक रुपये का सिक्का था (पुराने दिनों १रु.बहुत बड़ी पूँजी हुआ करती थी) परन्तु वह उसे तुडाना नहीं चाहता था| उसके पास ओडने के लिए कम्बल नहीं था| सर्दी की रात में जब ठिठुरता था तो वह रोज रात में संकल्प करता था कि कल ही अवश्य ही कम्बल खरीदेगा| परन्तु दिन होते ही उसका संकल्प जबाव देजाता और मुट्ठी में रुपया बाँध कर कह उठता -मर जैहें पर तोहि न भुनैहें’ |

       आज भी यह कथा है नवीनता के आधुनिक युगानुसार चल रही है | यहाँ फेसबुक मीडिया पर कुछ ग्रुप एडमिन हैं जो कुछ लोगों के कथ्य प्रस्तुतीकरण, तथ्य स्पष्टीकरण व विषय प्रकटीकरण के अंदाज़ के अंतर्गत स्पष्ट आलोचना, समीक्षा के महत्त्व को जानते भी हैं, मानते भी हैं, प्रभावित भी हैं परन्तु स्व की महत्ता गौरव हेतु स्वीकार नहीं करना चाहते और सदा के लिए खोना भी नहीं चाहते, अतः शायराना अंदाज़ में अपने फेसबुक ग्रुप पर उन्हें हर बार कुछकुछ समय के लिए ब्लॉक करके मीठी धमकी प्रदान करते रहते हैं | अर्थात झटके की अपेक्षा धीरे धीरे हलाल करना| सब बहुत कायल हैं उनके इस सुन्दर अंदाज़ के ----

             वो दुश्मनी से देखते हैं देखते तो हैं,

              मैं शाद हूँ कि हूँ तो उनकी निगाह में |

३९. सुख-दुःख ....

       क्यों दुखी दिखाई दे रहे हो, रामदीन, क्या सेठजी ने डांट दिया है| सेठजी के बचपन के मित्र डॉ. सुरेश जी ने सेठ दीनदयालजी के सेवक से पूछा| ‘नहीं हुज़ूर, वे मालिक हैं|’

      सेठजी ठीक तो हैं, सुख से तो हैं|’ ‘हाँ हुज़ूर’, रामदीन बोला|

      तो तुम क्यों दुखी हो !’     

      बस यूंही हुज़ूर | हमारा, गरीबों का सेठजी से क्या मुकाबला |’

      क्यों ?’

      वे सेठजी हैं हुज़ूर,सब सुख हैं| मैं भी अपने बेटे को पढ़ा-लिखाकर सेठ बनाऊंगा ताकि कोई दुःख न रहे|’

      क्यों क्या तुम सुखी नहीं हो|’

      गरीब का क्या सुख हुज़ूर|’

      एसी बात नहीं है रामदीन’, अच्छा बताओ, सुरेश जी पूछने लगे,क्या सेठजी रोटी नहीं खाते|’


      हाँ हुज़ूर|’

     और तुम क्या खाते हो ?, वही रोटी हुज़ूर और क्या खायेंगे,’ रामदीन दीनता से बोला|

     फिर सेठजी और तुममें क्या अंतर है?’

     वे काजू खा लेते हैं, मैं मूंगफली भी नहीं खा पाता|’

    अच्छा तो यह इच्छा होने पर पूर्ति की बात है, वैसे तो सभी लोग रोटी ही खाते हैं| ‘

     सांस में हवा की बजाय कुछ और लेते हैं?’

      नहीं हुज़ूर| वे जल की बजाय केवल दूध व लस्सी लेते हैं|’

      क्या रोज लस्सी पीते हैं|’

      नहीं, रोज रोज कौन पी सकता है, हुज़ूर, पर मैं तो कभी-कभी भी नहीं पी पाता|’

      ओह! तो कभी कभी के लिए इतना झंझट|’

      मैं समझा नहीं हुज़ूर |’

      वे खटिया पर सोते हैं, तुम भी|’ ‘हाँ,पर वे गद्दे व तकिया पर सोते हैं, मैं चटाई पर|’

      तुम्हें चटाई पर नींद आजाती है |’

      जी हुज़ूर, गरीब को तो चटाई पर भी नींद आजाती है| दिन भर हाड-तोड़ परिश्रम जो करना पड़ता है|’ 

      और सेठजी को ...?’

      उन्हें देर से आती है हुज़ूर, कभी पैर दवाता हूँ, कभी कभी नींद की गोली भी लेते हैं|’

      यही तो सुख-दुःख है रामदीन’, डॉ. सुरेश कहने लगे| ‘उन्हें गद्दों पर नींद नहीं आती| गरीबी में पैसे नहीं थे, भूखा रहना पड़ता था, नींद खूब आती थी| फिर खूब परिश्रम किया, कमाया हर तरह से| अब सब कुछ है तो ब्लड प्रेसर व मधुमेह लग गया| खा नहीं पाते, नींद नहीं आती|’

        तब था कौर न खाय को भूख लगे अति जोर,

        अब छत्तीस व्यंजन धरे भूख लियो मुख मोर |

अतः जो जहां है,जैसा है उसी में खुश रहो, मस्त रहो ...समझे| ‘

जी हुज़ूर | ‘

                                

 ४०.समय नियोजन ....

    पापा मैं थक गयी हूँ भागते भागते| कहीं से कोई काल ही नहीं आती| पता नहीं क्या बात है कोइ नियोक्ता मुझसे इम्प्रेस नहीं होता! मैं भी एमबीऐ हूँ| मेरा सबसे झगड़ा क्यों होजाता है | स्पष्ट व सही तथ्य कोई सुनना ही नहीं चाहता |

      स्पष्टवक्ता व कटुवक्ता में अंतर होता है|’

     नहीं, सिफारिस वाले जगह घेर लेते हैं|’

     हो सकता है, पर देखो बेटा, स्कूल कालिज क्यों होते हैं, शिक्षा के लिए| शिक्षा का अर्थ केवल विषयों को पढ़ना व परीक्षा पास करना ही नहीं होता अपितु अन्य छात्र, टीचर, व लोग कैसे व्यवहार करते हैं, अनुशासन, उठना, बैठना, बोलचाल कैसे करते हैं आदि सांसारिक व्यवहार भी सीखना होता है|’

     तुमने विषयों पर भी पूर्ण क्षमता प्राप्त नहीं की और सिर्फ फैशन, मौज-मस्ती, घूमना-फिरना, सिनेमा खेलकूद आदि में रहकर व्यबहार के तौर-तरीके भी नहीं जाने| अर्थात विद्यार्थी जीवनकाल का पूर्ण सदुपयोग नहीं किया| मौज मस्ती आदि तो बाद के गृहस्थ जीवनकाल में करना ही है|’

     पर पापा, आजकल तो सभी स्कूल कालेजों में ये सब होते हैं, सभी करते हैं | ‘

   स्कूल कालिज संस्थान भी नियोजित, औपचारिक व व्यवहारिक शिक्षा की अपेक्षा विज्ञापन जुटाने, करने, जुगाड़, नंबर एक बनने के फेर में रहते हैं| तमाम फंक्शन, फेट, शो, भ्रमण आदि का दिखावा करके |  हर कार्य उचित समय पर ही ठीक रहता है व करना होता है| यदि आप छात्र जीवन में ही मौज-मस्ती कर लेंगे तो आगे के जीवन में क्या करेंगे|’

    तो क्या स्कूल कालिज में फंक्शन खेलकूद आदि न हों?’

 

    क्यों नहीं, पर वार्षिक खेलकूद, व्यायाम आदि तो सदा से ही होते आये हैं| बात आर्थिक भाव के जुड़ जाने की है जो फेट, शो आदि में रहती है| बच्चों से दुकानें खुलवाना, स्टाल पर, घर घर जाकर चन्दा एकत्र करवाना आदि व्यर्थ के अकार्य हैं जो नहीं होने चाहिए|’

      स्कूल कालिज के जीवन में जितने  प्रकार के व्यक्तियों से आपका साथ व सान्निध्य होता है, इंटरेक्शन होता है,बातचीत होती है उतना जीवन में कभी नहीं होगा| यहाँ पर सब आपके बराबर, हमउम्र होते हैं जबकि आगे सभी स्थानों पर जूनियर, सीनियर, कुलीग, बौस होंगे और यहाँ एक लिमिटेड इन्ट्रेक्शन हैप्रोफेशनल, आफीसियल| अतः विविध व्यक्तियों के विचार, विविध स्थानों, तबकों, समुदायों व समृद्धि-भाव वाले व्यक्तियों के विचार-भाव व व्यवहार सीखने का छात्र जीवन सर्वोचित समय है| तुमने उसका उपयोग नहीं किया, इसलिए आपकी किसी से बनती नही है, आप किसी को अपना नहीं बना पाते, इम्प्रेस नहीं कर पाते|’

      वैसे भी आजकल अधिकाँश यही तो होरहा है, इम्प्रेशन की अपेक्षा जुगाड़ से नियुक्तियां हो रही हैं जो चक्रीय क्रम में समाज को प्रभावित करती हैं, अव्यवस्था उत्पन्न करती हैं, विश्रन्खलता फैलाती हैं एवं भ्रष्टाचार व अनाचार की जननी हैं| जिसमें न शत प्रतिशत उच्चकोटि का ज्ञान है न रिश्वत की इच्छा, मन व क्षमता, न उचित व्यवहार कुशलता, सटीक कथन, उच्चारण क्षमता, वह कुछ नहीं कर पाता और तुम्हारी तरह फ्रस्टेटेड रहता है|’

     आई मस्ट बी रीयली सॉरी पापा |’ 

 

४१.


लघुकथा

 

      अरे आप तो तमाम ग्रंथों कथा-कहानियों, काव्य-महाकाव्यों आदि के प्रणेता और हिन्दी साहित्य विभूषण, साहित्याचार्य  आदि जाने क्या क्या, अब ये फेसबुक पर लघुकथा आदि कहना-लिखना व लम्बे-लम्बे टिप्पणी, बहस, तर्क आदि का नया शौक क्या है| लोग आपको उलटा-सीधा भी खूब बोल देते हैं|’, शीला जी मोबाइल देखते हुए कहने लगीं|

       जी, उलटा सीधा तो राम व कृष्ण, शिव, देवताओं, शास्त्रों, धर्म को भी लोग बोलते रहते हैं, इससे क्या| आप जानती हैं कि मैं कोई कार्य बिना किसी उद्देश्य के नहीं करता|’

       तो क्या?’

       इस बहाने बच्चों को, नए साहित्यकारों के लिए भी कुछ शास्त्र, धर्म, पौराणिक कथाएं, अपनी संस्कृति, विविध विषयक पुरा व शास्त्रीय तत्वज्ञान का निरूपण-वर्णन होजाता है, बहस-तर्क, विवेचना व बातों बातों में, नयी पीढी के विचार भी मिल जाते हैं| यूँ तो कोई सुनने-सुनाने को तैयार ही नहीं होता|’  

      लघुकथा भी कुछ है या यूंही बस चार पांच पंक्तियों में केवल प्रस्तुत-प्रचलित बातें लिखदी जाती हैं | बिना स्पष्ट समाधान प्रस्तुति के कहानी, कथा, साहित्य क्या |’ 

      हाँ, सच है,  फिर भी ये कथाएं तो है ही तथा एक सोच तो छोड़ती ही हैं, जनमानस में समाधान सोचने हेतु |’