....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
सहधर्मिणी – सह्कर्मिणी---कहानी ..
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और आजकल क्या नए नए विचार प्रश्रय पा रहे हैं, नवीन काव्य-रचना हेतु....मैं स्वयं तो बहुत समय से विचार मंथन कर रहा हूँ कि आखिर श्रीकृष्ण लौटकर गोकुल क्यों नहीं आये | राधा से विवाह क्यों नहीं किया ! श्री ने कहा, फिर कहने लगा ‘अच्छा बताओ गिरीश कि तुमने सुमि से विवाह क्यों नहीं किया?’
‘मैं जब तक अपने पैरों पर खडा होता, उसका विवाह होचुका था |’ मैंने कहा |
पर तुम्हारे पास समय था, तुम सक्षम थे, पीजी कर रहे थे | उससे कुछ रुकने को कह सकते थे | एक बार कहते तो रुकने को | क्या कभी कहा तुमने, श्री बोला |
नहीं कह सका |
क्यों ?
\
पर तुम इतने समय बाद, इस तरह यह सब क्यों पूछ रहे हो ?
मैं यह जानना चाह रहा हूँ, रहस्य...आखिर श्रीकृष्ण ने राधा से विवाह क्यों नहीं किया| दोनों कहानियां लगभग समान ही हैं और भी एसी कहानियां होंगीं संसार में, समाज में | मुझे लगता है कि कृष्ण भी गोकुल जाकर राधा से कह सकते थे, रुकने को, गुरुकुल से लौटकर विवाह कर सकते थे | पर वे गए ही नहीं लौटकर क्यों ? कितनी दूर है मथुरा से गोकुल | श्री ने कहा |
तुम भी नहीं जापाये, सिर्फ एक नदी के उस पार ..क्यों...श्री कहता गया| मैं समझता हूँ कि विश्व-विद्यालय मैं आने के पश्चात, सुमि की शिक्षा आदि व कालिज के अन्य आकर्षणों का तुलनात्मक भ्रम व भ्रान्ति कि वह तुम्हारे योग्य है भी या नहीं |
-शायद यही भाव कृष्ण का भी रहा हो ! महानगरीय व्यवस्था, रहन-सहन, राजनैतिक दायित्वों व कर्तव्यों के अनुपालन एवं अन्य विभिन्न दबाव, इच्छित न कर पाने, न कर पा सकने का तनाव ..टूटन...बिखराव | कृष्ण एक बार मिलते तो राधा से, कहते तो सही अपनी मजबूरियां, दायित्व की, कर्तव्य की ..| शायद यशोधरा की भांति राधा भी कहती होगी ..’सखि! वे मुझसे कह कर जाते | या हो सकता है यह कहती....
जाओ जाओ हे गिरिधारी |
रोकूँगी तो भी न रुकोगे छलिया छल-बल धारी |
तेरी बतियाँ प्रीति-रीति की, नीति जगत व्यौहारी|
तुमको बाँध प्रीति बंधन में, मैं आपुनि ही हारी |
जाओ देश समाज राष्ट्र हित, कान्हा भव भय हारी |
बंधन मुक्त करूँ नहिं छूटे, प्रेम-डोर यह न्यारी |
राह की बाधा बनूँ न, चाहे सूखे मन-फुलवारी |
श्याम, न मोहन, मोहनि-मन्त्र, न मोह, न मोहनि-हारी |
वाह ! वाह ! क्या बात है श्री, पर क्या पता वे मिले हों राधा से और राधा ने यही कहा हो |
अच्छा पकड़ा, श्री कहने लगा, पर वे तो गए ही नहीं थे मथुरा से, मिले ही नहीं राधा से | शायद उन्हें यह भय था कि एक बार मिलने पर वे किचित स्वयं ही कर्तव्य-पथ से च्युत होजायं, राधा को छोड़ ही न पायं |
-क्या तुम मेरे लिए भी यही कहना चाह रहे हो ? मैंने पूछा |
शायद ! श्री हंसने लगा | यह शंसय, असमंजस की किन्कर्तव्यविमूढ़ स्थिति ही स्पष्टतया कुछ तय न कर पाने का कारण रही हो और फिर बहुत देर हो चुकी थी, तीर का कमान से निकल जाना |
सही कहा श्री, आखिर हम पत्नी को सहधर्मिणी क्यों कहते हैं ?
‘ये बात को कहाँ से कहाँ ले जारहे हो !’ श्री ने आश्चर्य से कहा |
पत्नी को सहकर्मिणी नहीं कहा गया, क्यों ? मैं कहने लगा...स्त्री- सखी, प्रेमिका सहकर्मिणी हो सकती
मैं कहता गया, स्त्री माया रूप है, शक्ति-रूप, ऊर्जा-रूप वह अक्रिय-क्रियाशील ( सामान्य-पेसिव ) पात्र - रोल अदा करे तभी उन्नति होती है, जैसे वैदिक-पौराणिक काल में हुई | पत्नी सह-धर्मिणी है, सिर्फ सहकर्मिणी नहीं | हाँ, पुरुष के कार्य में यथासमय, यथासंभव, यथाशक्ति सहकर्म-धर्म निभा सकती है |
सह्कर्मिणी होने पर पुरुष भटकता है और सभ्यता अवनति की ओर | अतः पत्नी को सहकर्म नहीं सहजीवन व्यतीत करना है – सहधर्म | स्त्री-पुरुष के साथ साथ काम करने से उच्च विचार प्रश्रय नहीं पाते, व्यक्ति स्वतंत्र नहीं सोच पाता, विचारों को केंद्रित नहीं कर पाता |
‘यार ! क्या उल-जुलूल बोले चले जारहे हो, घर से लड़कर आये हो क्या ? श्री झल्लाया |
‘तभी तो, मै कहता गया, ‘पति-पत्नी सदा पृथक-पृथक शयन किया करते थे | राजा-रानियों के पृथक-पृथक महल व कक्ष हुआ करते थे | सिर्फ मिलने की इच्छा होने पर ही वे एक दूसरे के महल या कमरे में जाया करते थे | माया की नज़दीकी व्यक्ति को भरमाती है उच्च, विचारों से दूर करती है |
‘क्या विचित्र बात कह रहे हो, कथन–कहावत तो यही है कि प्रत्येक सफल व्यक्ति के पीछे नारी होती है |’
‘निश्चय ही, पर ये क्यों नहीं कहा गया कि सफल नारी के पीछे पुरुष होता है| नारी की तपस्या, त्याग, प्रेम, धैर्य, धरित्री जैसे महान गुणों व व्यक्तित्व की महानता के कारण ही तो पुरुष महान बनते हैं, सदा बने हैं | ‘
‘कुछ समझ में नहीं आया, तुम कहाँ भटक-भटका रहे हो | यह विषयान्तर है |’ श्री अधीरता से बोला |
“अति सर्वत्र वर्ज्ययेत”, मैंने कहा, अति प्रेम की भी बुरी होती है | मेरे विचार से इसी को स्थापित करने हेतु श्रीकृष्ण दोबारा गोकुल नहीं गए | राधा से नहीं मिले या विवाह नहीं किया |
प्रेम का भरण-पोषण या सहजीवन से कोई सम्बन्ध नहीं | प्रेम का सम्बन्ध कामेक्षा से है अथवा उच्चतम आत्मिक लगाव से, तदनुरूपता से | विवाह एक अनुबंध है कि हम तुम्हारे भरण-पोषण का बचन लेते हैं, तुम हमारे भरण-पोषण, लालन-पालन का | इसीलिये पति भर्तार है पत्नी भार्या |
मूल रूप में अत्यावश्यक मज़बूरी से अन्यथा स्त्रियों को सेवा या व्यवसाय आदि के बंधन में नहीं बंधना चाहिए | बस पुरुष व संतान का पालन-पोषण ही उनका कार्य होना चाहिए | जिसे स्वयं नारी ने ही मानव-इतिहास के प्रथम श्रम-विभाजन से समय स्वीकार किया था |’
-प्रेम उच्चतम अवस्था में, भावातिरेक अवस्था में भक्ति में परिवर्तित होजाता है और अगले सोपान... निर्विकल्प-भक्ति पर द्वैत का अद्वैत में लय होकर प्रिय के साथ तदनुरूपता में | ...
” जब में था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहिं |” .....
फिर संयोग..वियोग...योग..भोग..सुख-दुःख, मोह-शोक का कोई अर्थ..कोई द्वंद्व नहीं रह जाता | यही प्रेम का गोपी-भाव है....राधा-भाव है...|
राम, कृष्ण, लक्ष्मण आदि के निर्मोही होने का यही अर्थ है; अन्यथा गीता, भ्रमर-गीत, विप्रलंभ-काव्य, संयोग-श्रृंगार की महान कृतियाँ, महान कथाएं कैसे बनतीं |
राधा, माया है...महामाया...आदि-शक्ति...वह अनन्यतम है श्रीकृष्ण से ...जगत-माया है ...हलादिनी शक्ति है..चिच्छितशक्ति है ..सह्कर्मिणी है....ब्रह्म की| वह लौकिक पत्नी नहीं हो सकती ...उसे बिछुडना ही होता है ...ब्रह्म से...कृष्ण से ...गोलोक के नियमन हेतु
‘मान गए गुरु, क्या दूर की कौड़ी लाये हो |’ श्री द्विविधा-भाव में सोचता हुआ बोला |
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सहधर्मिणी – सह्कर्मिणी---कहानी ..
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और आजकल क्या नए नए विचार प्रश्रय पा रहे हैं, नवीन काव्य-रचना हेतु....मैं स्वयं तो बहुत समय से विचार मंथन कर रहा हूँ कि आखिर श्रीकृष्ण लौटकर गोकुल क्यों नहीं आये | राधा से विवाह क्यों नहीं किया ! श्री ने कहा, फिर कहने लगा ‘अच्छा बताओ गिरीश कि तुमने सुमि से विवाह क्यों नहीं किया?’
‘मैं जब तक अपने पैरों पर खडा होता, उसका विवाह होचुका था |’ मैंने कहा |
पर तुम्हारे पास समय था, तुम सक्षम थे, पीजी कर रहे थे | उससे कुछ रुकने को कह सकते थे | एक बार कहते तो रुकने को | क्या कभी कहा तुमने, श्री बोला |
नहीं कह सका |
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पर तुम इतने समय बाद, इस तरह यह सब क्यों पूछ रहे हो ?
मैं यह जानना चाह रहा हूँ, रहस्य...आखिर श्रीकृष्ण ने राधा से विवाह क्यों नहीं किया| दोनों कहानियां लगभग समान ही हैं और भी एसी कहानियां होंगीं संसार में, समाज में | मुझे लगता है कि कृष्ण भी गोकुल जाकर राधा से कह सकते थे, रुकने को, गुरुकुल से लौटकर विवाह कर सकते थे | पर वे गए ही नहीं लौटकर क्यों ? कितनी दूर है मथुरा से गोकुल | श्री ने कहा |
तुम भी नहीं जापाये, सिर्फ एक नदी के उस पार ..क्यों...श्री कहता गया| मैं समझता हूँ कि विश्व-विद्यालय मैं आने के पश्चात, सुमि की शिक्षा आदि व कालिज के अन्य आकर्षणों का तुलनात्मक भ्रम व भ्रान्ति कि वह तुम्हारे योग्य है भी या नहीं |
-शायद यही भाव कृष्ण का भी रहा हो ! महानगरीय व्यवस्था, रहन-सहन, राजनैतिक दायित्वों व कर्तव्यों के अनुपालन एवं अन्य विभिन्न दबाव, इच्छित न कर पाने, न कर पा सकने का तनाव ..टूटन...बिखराव | कृष्ण एक बार मिलते तो राधा से, कहते तो सही अपनी मजबूरियां, दायित्व की, कर्तव्य की ..| शायद यशोधरा की भांति राधा भी कहती होगी ..’सखि! वे मुझसे कह कर जाते | या हो सकता है यह कहती....
जाओ जाओ हे गिरिधारी |
रोकूँगी तो भी न रुकोगे छलिया छल-बल धारी |
तेरी बतियाँ प्रीति-रीति की, नीति जगत व्यौहारी|
तुमको बाँध प्रीति बंधन में, मैं आपुनि ही हारी |
जाओ देश समाज राष्ट्र हित, कान्हा भव भय हारी |
बंधन मुक्त करूँ नहिं छूटे, प्रेम-डोर यह न्यारी |
राह की बाधा बनूँ न, चाहे सूखे मन-फुलवारी |
श्याम, न मोहन, मोहनि-मन्त्र, न मोह, न मोहनि-हारी |
वाह ! वाह ! क्या बात है श्री, पर क्या पता वे मिले हों राधा से और राधा ने यही कहा हो |
अच्छा पकड़ा, श्री कहने लगा, पर वे तो गए ही नहीं थे मथुरा से, मिले ही नहीं राधा से | शायद उन्हें यह भय था कि एक बार मिलने पर वे किचित स्वयं ही कर्तव्य-पथ से च्युत होजायं, राधा को छोड़ ही न पायं |
-क्या तुम मेरे लिए भी यही कहना चाह रहे हो ? मैंने पूछा |
शायद ! श्री हंसने लगा | यह शंसय, असमंजस की किन्कर्तव्यविमूढ़ स्थिति ही स्पष्टतया कुछ तय न कर पाने का कारण रही हो और फिर बहुत देर हो चुकी थी, तीर का कमान से निकल जाना |
सही कहा श्री, आखिर हम पत्नी को सहधर्मिणी क्यों कहते हैं ?
‘ये बात को कहाँ से कहाँ ले जारहे हो !’ श्री ने आश्चर्य से कहा |
पत्नी को सहकर्मिणी नहीं कहा गया, क्यों ? मैं कहने लगा...स्त्री- सखी, प्रेमिका सहकर्मिणी हो सकती
मैं कहता गया, स्त्री माया रूप है, शक्ति-रूप, ऊर्जा-रूप वह अक्रिय-क्रियाशील ( सामान्य-पेसिव ) पात्र - रोल अदा करे तभी उन्नति होती है, जैसे वैदिक-पौराणिक काल में हुई | पत्नी सह-धर्मिणी है, सिर्फ सहकर्मिणी नहीं | हाँ, पुरुष के कार्य में यथासमय, यथासंभव, यथाशक्ति सहकर्म-धर्म निभा सकती है |
सह्कर्मिणी होने पर पुरुष भटकता है और सभ्यता अवनति की ओर | अतः पत्नी को सहकर्म नहीं सहजीवन व्यतीत करना है – सहधर्म | स्त्री-पुरुष के साथ साथ काम करने से उच्च विचार प्रश्रय नहीं पाते, व्यक्ति स्वतंत्र नहीं सोच पाता, विचारों को केंद्रित नहीं कर पाता |
‘यार ! क्या उल-जुलूल बोले चले जारहे हो, घर से लड़कर आये हो क्या ? श्री झल्लाया |
‘तभी तो, मै कहता गया, ‘पति-पत्नी सदा पृथक-पृथक शयन किया करते थे | राजा-रानियों के पृथक-पृथक महल व कक्ष हुआ करते थे | सिर्फ मिलने की इच्छा होने पर ही वे एक दूसरे के महल या कमरे में जाया करते थे | माया की नज़दीकी व्यक्ति को भरमाती है उच्च, विचारों से दूर करती है |
‘क्या विचित्र बात कह रहे हो, कथन–कहावत तो यही है कि प्रत्येक सफल व्यक्ति के पीछे नारी होती है |’
‘निश्चय ही, पर ये क्यों नहीं कहा गया कि सफल नारी के पीछे पुरुष होता है| नारी की तपस्या, त्याग, प्रेम, धैर्य, धरित्री जैसे महान गुणों व व्यक्तित्व की महानता के कारण ही तो पुरुष महान बनते हैं, सदा बने हैं | ‘
‘कुछ समझ में नहीं आया, तुम कहाँ भटक-भटका रहे हो | यह विषयान्तर है |’ श्री अधीरता से बोला |
“अति सर्वत्र वर्ज्ययेत”, मैंने कहा, अति प्रेम की भी बुरी होती है | मेरे विचार से इसी को स्थापित करने हेतु श्रीकृष्ण दोबारा गोकुल नहीं गए | राधा से नहीं मिले या विवाह नहीं किया |
प्रेम का भरण-पोषण या सहजीवन से कोई सम्बन्ध नहीं | प्रेम का सम्बन्ध कामेक्षा से है अथवा उच्चतम आत्मिक लगाव से, तदनुरूपता से | विवाह एक अनुबंध है कि हम तुम्हारे भरण-पोषण का बचन लेते हैं, तुम हमारे भरण-पोषण, लालन-पालन का | इसीलिये पति भर्तार है पत्नी भार्या |
मूल रूप में अत्यावश्यक मज़बूरी से अन्यथा स्त्रियों को सेवा या व्यवसाय आदि के बंधन में नहीं बंधना चाहिए | बस पुरुष व संतान का पालन-पोषण ही उनका कार्य होना चाहिए | जिसे स्वयं नारी ने ही मानव-इतिहास के प्रथम श्रम-विभाजन से समय स्वीकार किया था |’
-प्रेम उच्चतम अवस्था में, भावातिरेक अवस्था में भक्ति में परिवर्तित होजाता है और अगले सोपान... निर्विकल्प-भक्ति पर द्वैत का अद्वैत में लय होकर प्रिय के साथ तदनुरूपता में | ...
” जब में था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहिं |” .....
फिर संयोग..वियोग...योग..भोग..सुख-दुःख, मोह-शोक का कोई अर्थ..कोई द्वंद्व नहीं रह जाता | यही प्रेम का गोपी-भाव है....राधा-भाव है...|
राम, कृष्ण, लक्ष्मण आदि के निर्मोही होने का यही अर्थ है; अन्यथा गीता, भ्रमर-गीत, विप्रलंभ-काव्य, संयोग-श्रृंगार की महान कृतियाँ, महान कथाएं कैसे बनतीं |
राधा, माया है...महामाया...आदि-शक्ति...वह अनन्यतम है श्रीकृष्ण से ...जगत-माया है ...हलादिनी शक्ति है..चिच्छितशक्ति है ..सह्कर्मिणी है....ब्रह्म की| वह लौकिक पत्नी नहीं हो सकती ...उसे बिछुडना ही होता है ...ब्रह्म से...कृष्ण से ...गोलोक के नियमन हेतु
‘मान गए गुरु, क्या दूर की कौड़ी लाये हो |’ श्री द्विविधा-भाव में सोचता हुआ बोला |
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