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डा श्याम गुप्त का ब्लोग...

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Lucknow, UP, India
एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं... काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद .. my blogs-- 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति... 2.drsbg.wordpres.com, 3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त

मंगलवार, 17 जुलाई 2012

छिद्रान्वेषण .... अकर्म व अनाधिकार अधिक ऊंचा उड़ने की ख्वाहिश के परिणाम....डा श्याम गुप्त



                                       ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...

१------------व्यर्थ  के कार्यों  व उनसे सेलिब्रिटी बनने के अकर्म का यह हश्र होता है ...संसार का क्या है हंस-सुन कर अपने काम से..... परन्तु अपने कर्मों का भोग तो व्यक्ति को स्वयं भोगना पडता है ..मरने के बाद भी जग-हँसाई व अपमान द्वारा.....


२- अपनी क्षमता से अधिक ऊंचा उड़ने की ख्व्वाहिश  व दूसरों के सहारे उठने व उड़ने की आकांक्षा ..व्यर्थ के कार्य ...अकर्म ...होती है |  इसका अधिकाँश परिणाम यही होता है-----

डा.श्याम गुप्त की.. संतुलित कहानी- अतिसुखासुर ...

                                  ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...


                    




                          पृथ्वी गाय का रूप धर कर ब्रह्मलोक पहुँची। उसी समय सभी देव-गण भी त्राहिमाम -त्राहिमाम कहते हुए ब्रह्म लोक पहुंचे। भगवान ! यह अतिसुखासुर व उसके मित्रगण, मंत्रीगण.. आतंकासुर, प्लास्टिकासुर, भ्रष्टासुर, कूड़ासुर..मंडली ने तीनों लोकों में त्राहि-त्राहि मचा रखी है , सभी एक साथ ' पितामह बचाइये' की गुहार करने लगे।
                           पृथ्वी बोली , भगवन! ये कूडासुर-प्लास्टिकासुर के आतंक से कब मुक्ति मिलेगी? प्रभो! बहुत समय से मैं अपने सारे शरीर में, गर्भ में, उदर में घाव सहकर भी पृथ्वी के मानवों-जीवों के हितार्थ सब कुछ धारण -धरण करती रही हूँ, सहन करती रही हूँ। अब तो मेरा सारा बदन भी जीर्ण-शीर्ण कर दिया है इन मानवों ने ही, इन असुरों के साथ मिलकर। अट्टालिकाओं के बोझ, खनन-यंत्रों आदि से मेरा शरीर, अंग-भंग करके रख दिया है। मेरे ह्रदय रूपी रक्त-भण्डार -सभी भूगर्भीय जलाशय सूखते जा रहे हैं। नदियों-नहरों रूपी रक्त-वाहिनियों में, नस-नस में कूडासुर व्याप्त है। अब तक तो फल-फूल, पत्ती-घास आदि के प्राकृतिक अंशों के उच्छिष्ट को तो मैं अपने उदर में पुनः समाहित कर लेती थी। वायुदेव, वरुणदेव सूर्यदेव, इंद्र, अग्नि आदि की सहायता-कृपा से उनका वातावरण में पुनर्समाहित कर लेती थी। परन्तु इस नवीन अप्राकृतिक असुर-तत्व कूडासुर के अंशों को तो मैं भी नाश नहीं कर पाती। सूर्य, अग्नि, वायु, वरुण आदि भी विवश हैं। न जाने कौन से दानवी-वाजीकरण विद्या से इस प्लास्टिकासुर का अवतार हुआ है कि यह मेरे, जल, अग्नि, वर्षा, धूप, वायु, गर्मी किसी के वश में नहीं आरहा है ! भोग, एश्वर्य ,सुख के लालच की राह दिखाकर इस अति-सुखासुर के मंत्री लोभासुर ने मानव को इतने वश में कर लिया है कि मानव स्वयं ही दानव बनने की कगार पर है।"
                           मातरिश्वा पवनदेव बड़े दीन स्वर में कहने लगे, 'देव, इस अतिसुखासुर नामक दैत्य के वशीकरण में मानव ने भी दानव का रूप धारण कर लिया है , और हमें विविध भांति से बंदी बनाया गया है। एयर-कंडीशन नामक तंत्र-शक्ति से हमारा स्वतंत्र विचरण तो आबद्ध हुआ ही है अब तो स्वयं मानव भी मुक्त गगन में विचरण योग्य नहीं रह गया है। कमरे के अंदर कृत्रिम शीतलता हेतु वायुमंडलीय वातावरण अति-गर्म होता जा रहा है। हम वर्षा करने लायक भी नहीं रह पारहे हैं।'
                          वरुणदेव बोले, 'पितामह! हमें तो मानवों ने स्वनिर्मित सागरों जिन्हें तरण-ताल कहते हैं , व् नकली जलधारा-फाउंटेन, शावर आदि में कैद कर लिया है। नदियों, झीलों, सागरों में अब लोग स्नान करने आते ही नहीं। उन्हें तो मल-मूत्र, विष्ठा, कूड़ा-करकट बहाने का स्रोत बना रखा है। मेरा स्वयं का नगर..सागर ..भी कूड़े के अम्बार से प्रदूषित है। जल-जीवों का अस्तित्व खतरे में है साथ में जीवन का अस्तित्व भी। आचमन योग्य जल बोतलों-पाउचों में आबद्ध होकर बिक्रय होने लगा है।.
                          परेशान ब्रह्मदेव ने अग्नि की ओर देखा तो वे कहने लगे,' प्रभु, मेरी स्वतंत्र गतिविधियों पर भी पावंदी लगा दी गयी है। बल्ब, सीएफएल ,ट्यूब, इलेक्ट्रिक-हीटर, गीज़र,हॉट-प्लेट, प्रेसर-कूकर, ओवन न जाने क्या क्या विविध शास्त्रों को मानव ने प्रयोग करके मेरे विविध रूपों को माइक्रोवेव,  इलेक्ट्रिक, इलेक्ट्रोनिक-शक्ति, सोलर-पावर आदि में सजाकर मेरे स्वतंत्र विचरण व् पंख फैलाकर उड़ने की शक्ति को स्तंभित कर रखा है।'
                           तभी देवर्षि नारद जी ..नारायण..नारायण के स्वर के साथ वीणा बजाते हुए अवतरित हुए, बोले,' श्रीहरि नारायण ही कुछ उपाय सुझा सकते हैं।.  ब्रह्मा जी तुरंत पृथ्वी व सभी देवों के साथ क्षीर-सागर स्थित नारायण-धाम पहुंचे। श्रीहरि विष्णु शेषशय्या पर शयनरत थे, माता लक्ष्मी उनके चरण दबा रहीं थी। मुस्कुराते हुए नारायण ने नेत्र खोले।
                       नारायण..नारायण...नारद जी ने हाथ जोड़ कर अभिवादन किया।
                       कहिये देवर्षि, 'संसार के क्या समाचार हैं।', विष्णु जी बोले। 'प्रणाम ब्रह्मदेव, स्वागत है।'
                       ब्रह्मा जी बोले , 'आप तो सर्वज्ञ हैं नारायण ! हे श्रीहरि, पृथ्वी व देवों के कष्ट दूर करने का उपाय बताएं।'
                       अपनी मोहिनी मुद्रा में मुस्कुराते हुए नारायण कहने लगे, 'मैं देख रहा हूँ कि मानव अपने मानवीय गुणों -सदाचरण, परोपकार, अपरिग्रह आदि को भूल चुका है। इसीलिये उसपर आसुरी तत्व हावी हो रहे हैं। लगता है इस बार दैत्यों ने नवीन व्यूह व कूटनीति रची है। मानव को आचरणहीन करके उसमें दानवत्व-असुरत्व भाव उत्पन्न करके, उनके द्वारा देवों को दाय-भाग, यज्ञ-भाग से बंचित करके देवों को कमजोर, श्रीहीन व असहाय करके स्वर्ग-लोक पर अधिकार हेतु नवीन रणनीति अपनाई है। क्योंकि हर बार मानव ही देवासुर संग्रामों में देवों का सहायक होता रहा है।'
                      'त्राहिमाम..त्राहिमाम...भगवन ! सबने करबद्ध होकर आशान्वित भाव से विष्णु की ओर देखा।'
                      'कुछ करिए, श्री हरि !,' ब्रह्माजी व नारद जी बोले। पृथ्वी भी कातर दृष्टि से टकटकी लगा कर विष्णु जी की ओर देखने लगी।
                      विष्णु जी गंभीर वाणी में कहने लगे,' हे देवो ! आप स्वयं ही अपने प्रमाद वश अकर्मण्यता व अहं के कारण असुरों को अपनी विविध शक्तियों का प्रयोग करने दिया करते हैं। उचित समय रहते उपयुक्त आवश्यक क्रियाशीलता प्रदर्शित नहीं करते। अतः मानव पर आसुरों का प्रभाव बढ़ने लगता है जो सृष्टि व देवत्व के लिय एवं स्वयं मानव के लिए घातक होता है।'
                    ' मै शीघ्र ही भूलोक पर श्री सत्याचरण जी व उनकी धर्मपत्नी श्रीमती धर्मचारिणी के पुत्र सदाचरण के रूप में अवतार लूंगा। लक्ष्मी जी सत्कर्म रूप से उपार्जित धन-धान्य श्री के रूप में, एवं शेष जी नीति-युक्त कर्म के रूप में जन्म लेंगें। श्री कमल-प्रकृति -प्रेम के रूप में, श्री चक्र--दुष्ट-दमनक जन सुखकारक राज्य-चक्र के रूप में , शंख -जन सद-सुविचार क्रान्ति तथा गदा कठोर धर्मानुशासन के रूप में मेरे साथ जन्म लेंगे। सारे देवता भी न्याय, धर्म, नीति, कर्म, सत्संग,करुणा, प्रेम, भक्ति व ज्ञान आदि के रूप में जन्म लेकर मानव आचरण को पुनर्स्थापित करेंगे।'
                  ' अति-सुखासुर में ही सभी अन्य असुरों -- प्लास्टिकासुर , कूडासुर, भ्रष्टासुर, आतंकासुर, लोभासुर आदि के प्राण बसते हैं। मैं उसका संहार करके, आसुरी माया का विनाश करके पृथ्वी का उद्धार करूंगा।.                  
                     इतना कहकर श्री हरि नारायण पुनः योग-निद्रा में लीन होगये। सारे देवता, ब्रह्माजी, पृथ्वी व नारद जी नारायण..नारायण..कहते हुए अपने-अपने धाम को पधारे।