....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
उचित नहीं व्यवहार यह, नहीं शास्त्र अनुकूल ,
चीर मांगतीं गोपियाँ करें विविधि मनुहार ,
क्यों जल में उतरीं सभी ,सारे वस्त्र उतार |
सारे वस्त्र उतार , लाज अब कैसी मन में ,
वही आत्मा तुझमें मुझमें सकल भुवन में |
कण कण में ,मैं ही बसा, मेरा ही तन नीर ,
मुझसे कैसी लाज लें ,तट पर आकर चीर ||
उचित नहीं व्यवहार यह, नहीं शास्त्र अनुकूल ,
नंगे हो जल में घुसें, मर्यादा प्रतिकूल |
मर्यादा प्रतिकूल, श्याम ने दिया ज्ञान यह,
दोनों बांह उठाय , वचन दें सभी आज यह |
करें समर्पण पूर्ण, लगाएं मुझ में ही चित ,
कभी न हो यह भूल, भाव समझें सब समुचित ||
कोई रहा न देख अब , सब है सूना शांत,
चाहे जो मन की करो, चहुँ दिशि है एकांत |
चहुँ दिशि है एकांत, करो सब पाप-पुण्य अब ,
पर नर की यह भूल, देखता है ईश्वर सब |
कण कण बसता ईश , हर जगह देखे सोई ,
सोच समझ ,कर कर्म, न छिपता उससे कोई ||