
(ऐ)बेंगलूर में एक बड़े माल में एक रेस्तरां है--साहिब, सिंध, सुलतान --एक रेल के कोच एवं रेल के ही विभिन्न फीचर्स --बेरे ,टी टी ई , गार्ड, आदि का रूप लिए हुए , सीटें -अंग्रेजों के ज़माने की साहिबों ( अँगरेज़ साहिबों ) के सलून की भांति , भोजन मेन्यू --लार्ड साहिब का मुर्ग जोश, नाना साहब की पसंद रायता, लक्ष्मी बाई की कढ़ी, आदि-आदि ,उस रेल कार में सीटी भी बजाती है , अनाउंस भी होता है | १९५३ में भारत की प्रथम ट्रेन की नक़ल -स्वरुप पर यह दस्तर खान बनाया गया है , अंग्रेज़ी हर प्रकार की शराब आदि भी उपलब्ध है , अर्थात सभी प्रकार से अंग्रेज़ी राज की यादें ताज़ा करें | साथ ही हमारी सबसे बड़ी शर्म का वाक्य भी भोजन मेन्यू में लिखा है ,जो अँगरेज़ व यूरोपियन बड़े फख्र से कहते थे--"दे केम दे शौ दे कोंकर्ड" (वे आए उनहोंने देखा , उन्होंने जीत लिया )| खाना बहुत महँगा है , हाँ क्वालिटी साधारण - लोग बड़े फख्र से बहुत देर इंतज़ार करके , बहाँखाने में बड़ा गर्व महसूस करते हैं | क्या ये हमारी हीन भावना की ग्रंथि नही है, कि चलोहमने भी साहबी मज़ा लिया -थे साहबों की नकल कर ली, साहबी नक़ल की पुरानी दमित इच्छा की पूर्ति | कब तक हम सिर्फ़ धंधे की खातिर अपनी शर्म, ईमान को बेचते रहेंगे ---सोचें --सरकार, धंधे बाज़, जनता, बेंगलूर के नव-धनाड्य अंग्रेज़ी दां इन्फो-टेकी और हम सब | कब तक मानसिक गुलाम रहेंगे आख़िर ??????????
(बी)--उधर हमारे समाचार पत्र- बड़े दो-टूक आदि की बड़ी -बड़ी बातें बघारते रहते हैं, पर उपदेश कुशल बहुतेरे , स्वयं क्या कर रहे हैं , अन्धाविश्वाशों को बढ़ावा , देखें आज का हैडर---चित्र १। ऊपर । सभी समस्याओं का समाधान , विना काम-धाम किए , सिर्फ़ पैसे खर्च करके | वाह !!!!!!!!!!!!!!!! क्या बात है , हम आधुनिक युगी होरहे हैं ।
---हमतो बस यही कहेंगे ---"शर्म आती है पर नहीं आती "