....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
जब आशा आकांक्षा इच्छा लोभ एवं भय मानव मन में पदार्पण कर जाते हैं तो उसका दृष्टिकोण स्व-केंद्रित होजाता है और निष्ठा सत्य व ईश्वर के अपेक्षा आत्म-निष्ठ होजाती है | तब .मन की यह स्थिति होती है कि –
“सच बोलने की चाहत तो बहुत थी लेकिन,
क्या करें हिम्मत ही न हम जुटा पाए |”
इस दृष्टिकोण में हम इतने किन्कर्तव्यविमूढ होजाते हैं कि चाहते हुए भी उचित समय पर तदनुरूप अनीति, अनैतिकता, अकर्म, दुष्कर्म अनाचार आदि का विरोध नहीं कर पाते | यह एक प्रकार का असुरक्षा भाव जनित आत्मरक्षार्थ भाव की उत्पत्ति के कारण होता है|
हम तब ( आज से युगों-सदियों पहले ) भी ऐसे ही थे ..आज भी |
महाभारत में द्रौपदी चीर-हरण ...के समय महापराक्रमी भीष्म आदि अनेकों लोगों के लिए भी यही सच है कि ..विभिन्न आशा आकांक्षा इच्छा लोभ एवं भय के कारण ही कहना चाहकर भी कोई विरोध नहीं कर पाया | महापराक्रमी भीष्म की भी महान कहलाने की इच्छा ही तो विरोध न कर पाने का कारण थी | यद्यपि बाद में लोगों ने, पराक्रमियों ने बड़ी-बड़ी प्रतिज्ञाएँ कीं, निभाईं गयीं, युद्ध हुआ |
आज दिल्ली वलात्कार केस में भी ...दो घंटे तक दो घायल प्राणी सड़क पर पड़े रहे परन्तु मोटर, कार, बसें, पैदल-यात्री निकलते रहे परन्तु किसी ने तुरंत अपने आप सहायता का फैसला नही लिया | इसी भय एवं आत्म-निष्ठता भाव के कारण सत्य व ईश्वर भाव को भुला दिया जाने के कारण| बाद में वही हम सब लोग एकत्रित होकर नारे लगाते रहे , मोमबत्ती जलाते रहे, कड़ी ठण्ड में भी नहीं डगमगाए टीवी के सामने, रेलियाँ भी करते रहे....| दूरदर्शन पर बहसें, वार्ताएं भी हुईं | विभिन्न वक्तव्य भी आये इसी आशा आकांक्षा इच्छा लोभ एवं भय के कारण उत्पन्न आत्मरक्षार्थ भाव हित कि कहीं हम पीछे न रह जायं | |
अन्य व्यवहारों, कलापों के बारे में भी यही सच है कि हम बदले नहीं, वहीं के वहीं हैं | भौतिक उन्नति से, अट्टालिकाओं में निवास, वस्त्राभूषणों से, महानगरों से भी मानव–आचरण बदला नहीं है | तब हम तलवारों से लड़ते थे, विरोधी को युद्ध में तलवारों से मौत के घाट उतारा करते थे, आज भी विरोधी का मुंह बंद करने, अपने स्वार्थ साधन हेतु कलम की तलवार से , झूठ ,चरित्र हनन आदि द्वारा मरणासन्न किया जाता है ...अपितु आज भी हत्या द्वारा भी | तब तलवार से युद्ध होता था आज वाकयुद्ध होता है, वार्ताएं, बहसें , आलेखबाज़ी |
अर्थात मानव वस्तुतः पहले भी वही था आज भी वही है | यह क्यों होता है ? क्यों मानव में यह दृष्टिकोण एवं आत्मरक्षार्थ भाव की उत्पत्ति होती है| वही आशा आकांक्षा इच्छा लोभ एवं भय के कारण वह सत्य व ईश्वर से दूर होजाता है |
परन्तु आगे प्रश्न यह है कि उसमें ये आशा आकांक्षा इच्छा लोभ एवं भय क्यों उत्पन्न होते है | क्योंकि वास्तव में वह अपने आचरण व व्यवहार में सत्य व ईश्वर को भुला कर उनसे से दूर होजाता है.... हम सब कुछ हैं, हम सब कुछ कर सकते हैं, मानव ही अपना भाग्यविधाता है इस अतिशय सोच के कारण ... भी उसमें आशा आकांक्षा इच्छा लोभ एवं भय आदि भाव उत्पन्न होते हैं| यहीं व्यवहारिक दृष्टिकोण की अपेक्षा चरित्र की महत्ता व्यक्त होती है जो सत्य, निष्ठा, अनुशासन, आचरण-शुचिता,एवं ईश्वर पर विश्वास से उत्पन्न होती है | यह एक क्रमिक –चक्रीय व्यवस्था है .......| शायद इसे ही कर्म-फल या भाग्य कहते हैं एवं शुचि-कर्मों, सत्य, धर्म व आचरण ,आत्म-विवास के साथ-साथ ,.... ईश्वर में आस्था का यही महत्ता है|
जब आशा आकांक्षा इच्छा लोभ एवं भय मानव मन में पदार्पण कर जाते हैं तो उसका दृष्टिकोण स्व-केंद्रित होजाता है और निष्ठा सत्य व ईश्वर के अपेक्षा आत्म-निष्ठ होजाती है | तब .मन की यह स्थिति होती है कि –
“सच बोलने की चाहत तो बहुत थी लेकिन,
क्या करें हिम्मत ही न हम जुटा पाए |”
इस दृष्टिकोण में हम इतने किन्कर्तव्यविमूढ होजाते हैं कि चाहते हुए भी उचित समय पर तदनुरूप अनीति, अनैतिकता, अकर्म, दुष्कर्म अनाचार आदि का विरोध नहीं कर पाते | यह एक प्रकार का असुरक्षा भाव जनित आत्मरक्षार्थ भाव की उत्पत्ति के कारण होता है|
हम तब ( आज से युगों-सदियों पहले ) भी ऐसे ही थे ..आज भी |
महाभारत में द्रौपदी चीर-हरण ...के समय महापराक्रमी भीष्म आदि अनेकों लोगों के लिए भी यही सच है कि ..विभिन्न आशा आकांक्षा इच्छा लोभ एवं भय के कारण ही कहना चाहकर भी कोई विरोध नहीं कर पाया | महापराक्रमी भीष्म की भी महान कहलाने की इच्छा ही तो विरोध न कर पाने का कारण थी | यद्यपि बाद में लोगों ने, पराक्रमियों ने बड़ी-बड़ी प्रतिज्ञाएँ कीं, निभाईं गयीं, युद्ध हुआ |
आज दिल्ली वलात्कार केस में भी ...दो घंटे तक दो घायल प्राणी सड़क पर पड़े रहे परन्तु मोटर, कार, बसें, पैदल-यात्री निकलते रहे परन्तु किसी ने तुरंत अपने आप सहायता का फैसला नही लिया | इसी भय एवं आत्म-निष्ठता भाव के कारण सत्य व ईश्वर भाव को भुला दिया जाने के कारण| बाद में वही हम सब लोग एकत्रित होकर नारे लगाते रहे , मोमबत्ती जलाते रहे, कड़ी ठण्ड में भी नहीं डगमगाए टीवी के सामने, रेलियाँ भी करते रहे....| दूरदर्शन पर बहसें, वार्ताएं भी हुईं | विभिन्न वक्तव्य भी आये इसी आशा आकांक्षा इच्छा लोभ एवं भय के कारण उत्पन्न आत्मरक्षार्थ भाव हित कि कहीं हम पीछे न रह जायं | |
अन्य व्यवहारों, कलापों के बारे में भी यही सच है कि हम बदले नहीं, वहीं के वहीं हैं | भौतिक उन्नति से, अट्टालिकाओं में निवास, वस्त्राभूषणों से, महानगरों से भी मानव–आचरण बदला नहीं है | तब हम तलवारों से लड़ते थे, विरोधी को युद्ध में तलवारों से मौत के घाट उतारा करते थे, आज भी विरोधी का मुंह बंद करने, अपने स्वार्थ साधन हेतु कलम की तलवार से , झूठ ,चरित्र हनन आदि द्वारा मरणासन्न किया जाता है ...अपितु आज भी हत्या द्वारा भी | तब तलवार से युद्ध होता था आज वाकयुद्ध होता है, वार्ताएं, बहसें , आलेखबाज़ी |
अर्थात मानव वस्तुतः पहले भी वही था आज भी वही है | यह क्यों होता है ? क्यों मानव में यह दृष्टिकोण एवं आत्मरक्षार्थ भाव की उत्पत्ति होती है| वही आशा आकांक्षा इच्छा लोभ एवं भय के कारण वह सत्य व ईश्वर से दूर होजाता है |
परन्तु आगे प्रश्न यह है कि उसमें ये आशा आकांक्षा इच्छा लोभ एवं भय क्यों उत्पन्न होते है | क्योंकि वास्तव में वह अपने आचरण व व्यवहार में सत्य व ईश्वर को भुला कर उनसे से दूर होजाता है.... हम सब कुछ हैं, हम सब कुछ कर सकते हैं, मानव ही अपना भाग्यविधाता है इस अतिशय सोच के कारण ... भी उसमें आशा आकांक्षा इच्छा लोभ एवं भय आदि भाव उत्पन्न होते हैं| यहीं व्यवहारिक दृष्टिकोण की अपेक्षा चरित्र की महत्ता व्यक्त होती है जो सत्य, निष्ठा, अनुशासन, आचरण-शुचिता,एवं ईश्वर पर विश्वास से उत्पन्न होती है | यह एक क्रमिक –चक्रीय व्यवस्था है .......| शायद इसे ही कर्म-फल या भाग्य कहते हैं एवं शुचि-कर्मों, सत्य, धर्म व आचरण ,आत्म-विवास के साथ-साथ ,.... ईश्वर में आस्था का यही महत्ता है|