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डा श्याम गुप्त का ब्लोग...

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Lucknow, UP, India
एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं... काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद .. my blogs-- 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति... 2.drsbg.wordpres.com, 3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त

सोमवार, 15 अक्तूबर 2012

अगीत साहित्य दर्पण --अध्याय ६ ---अगीत का कलापक्ष भाग १--डा श्याम गुप्त

                                       ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...

                                                 अगीत का कला पक्ष (भाग एक )

                          यद्यपि अगीत रचनाकार शब्द-विन्यास, अलंकार, रस, लक्षणाओं आदि काव्य के कलापक्ष पर अधिक आधारित नहीं रहता क्योंकि अगीत विधा--क्रान्ति व रूढिवादिता के विरुद्ध से उपजा है  तथा संक्षिप्तता, विषय वैविध्य, सहज भाव-सम्प्रेषणता व अभिधेयता से जन जन संप्रेषणीयता उसका मुख्य लक्ष्य है | तथापि छंद-विधा  व गीत का समानधर्मा होने के कारण अगीत में भी पर्याप्त मात्रा में आवश्यक रस, छंद, अलंकार व अन्य काव्य-गुण सहज रूप में स्वतः ही आजाते हैं |
                          वस्तुतः रचना की ऊंचाई पर पहुँच कर कवि सचेष्ट लक्षणा व अलन्कारादि  विधानों का परित्याग कर देता है | रचना के उच्च भाव स्तर पर पहुँच कर कवि अलन्कारादि  लक्षण विधानों की निरर्थकता से परिचित हो जाता है तथा अर्थ रचना के सर्वोच्च धरातल पर पहुँच कर भाषा भी  सादृश्य विधान के सम्पूर्ण छल-छद्मों का परित्याग कर देती है | तभी अर्थ व भाव रचना की सर्वोच्च परिधि दृश्यमान होती है | अगीत रचनाकार भी मुख्यतः भाव-संपदा प्रधान रचनाधर्मी होता है अतः सोद्देश्य लक्षणादि  में नहीं उलझता | परन्तु जहां काव्य है वहाँ कथ्य में कलापक्ष स्वतः ही सहज वृत्ति से  आजाता है, क्योंकि कविता व काव्य-रचना स्वयं ही अप्रतिम कला है | इस प्रकार  " अमित अरथ  आखर अति थोरे " की अभिधेयता के साथ-साथ अगीत काव्य में ..रस, छंद, अलंकार , लक्षणादि सभी काव्य-गुण प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं | प्रमुख अगीत रचनाकार व अगीत पर विभिन्न साहित्यिक-शास्त्रीय  आलेखों के लेखक श्री सोहन लाल सुबुद्ध , श्री पार्थो सेन, डा रंगनाथ मिश्र 'सत्य' एवं डा श्याम गुप्त आदि द्वारा अगीत विधा के विभिन्न भाव व कला पक्षों पर विविध आलेखों द्वारा समय समय पर प्रकाश डाला जाता रहा है | उदाहरणार्थ ----सोहन लाल सुबुद्ध द्वारा---'अगीत काव्य में  अलंकार योजना ' व  "काव्य के गुण व अगीत '...'हिन्दी काव्य में नारी चित्रण'...डा सत्य के अगीत; एक काव्यशास्त्रीय दृष्टि '.....पार्थोसेन  द्वारा..'अगीत कविता व वैचारिक क्रान्ति'.....तथा मेरे द्वारा ( डा श्याम गुप्त)...'विचार क्रान्ति व अगीत कविता'...'समष्टि व जन सामान्य हित काव्य गुण '..एवं 'हिन्दी साहित्य की विकास यात्रा में निरालायुग से आगे विकास की धारा है अगीत '...आदि |
                                काव्य का कला पक्ष काव्य की शोभा बढाने के साथ साथ सौन्दर्यमयता, रसात्मकता व आनंदानुभूति से जन-जन रंजन के साथ विषय-भाव की रुचिकरता व सरलता से सम्प्रेषणता  बढ़ाकर  अंतर की गहराई को स्पर्श करके दीर्घजीवी प्रभाव छोडने वाला बनाता है | परन्तु अत्यधिक सचेष्ट लक्षणात्मकता  भाषा व विषय को बोझिल बनाती है एवं विषय व काव्य जन सामान्य के लिए दुरूह होजाता है |एवं उसका जन-रंजन व वास्तविक उद्देश्य पीछे छूट जाता है , पाण्डित्याम्बर व बुद्धि-विलास प्रमुख होजाता है | अतः सहज व समुचित कलात्मकता अगीत का उद्देश्य है |
                                 शिल्पसौन्दर्य, शब्दसौन्दर्य व भाव सौंदर्य ( रस, छंद, अलंकार योजना ) द्वारा अर्थ- सौंदर्य की उत्पत्ति (अभिधा, लक्षणा, व्यंजना ) का उपयोग करके अर्थ-प्रतीति द्वारा विषय के भाव व विषय बोध को पाठक के मन में रंजित किया जाता है | इस प्रकार काव्य का कलापक्ष प्रमुखतः तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है |
(अ ) रस, छंद, अलंकार योजना --शब्द-शिल्प व अनुभूति सौंदर्य |
(ब)  काव्य के गुण --माधुर्य , ओज , प्रसाद ---अर्थ व भाव सौंदर्य |
(स्) कथ्य-शक्तियाँ ---अभिधा , लक्षणा , व्यंजना ----शब्द व अर्थ-प्रतीति |
                    अगीत के कलापक्ष पर समुचित प्रकाश डालने के लिए उपरोक्त तीनों वर्गों पर संक्षिप्त व सोदाहरण विवरण समीचीन होगा |

(अ) अगीत में रस, छंद अलंकार योजना ----
                        अगीत कविता में लगभग सभी  रसों का परिपाक समुचित मात्रा में हुआ है | सामाजिक एवं समतामूलक समाज के उदेश्य प्रधान विधा होने के कारण यद्यपि शांत, करुणा, हास्य ..रसों को अधिक देखा जाता है तथापि सभी रसों का उचित मात्रा में  उपयोग हुआ है |
                   वीर रस का उदाहरण प्रस्तुत है ....
" हम क्षत्री है वन में मृगया,
करना तो खेल हमारा  है |
तुम जैसे दुष्ट मृग-दलों को,
हम  सदा  खोजते  रहते  हैं |
चाहे  काल स्वयं सम्मुख हो,
नहीं मृत्यु से डरते हैं हम || "                           ---शूर्पणखा काव्य उपन्यास से ( डा श्याम गुप्त )

         रौद्र रस का एक उदाहरण पं. जगत नारायण पांडे के महाकाव्य सौमित्र गुणाकर से दृष्टव्य करें --
" क्रोध देखकर भृगु नायक का,
मंद हुई  गति धारा-गगन की;
मौन  सभा मंडप में छाया |
बोले,' कौन दुष्ट है जिसने -
भंग किया पिनाक यह शिव का ;
उत्तर नहीं मिला तो तत्क्षण ,
कर दूंगा निर्वीर्य धारा को || "

             श्रृंगार रस का एक उदाहरण देखें -----
" नैन नैन मिल गए सुन्दरी,
नैना  लिए झुके भला क्यों ;
मिलते क्या बस झुक जाने को |"                        ----त्रिपदा अगीत ( डा श्याम गुप्त )

           भक्ति रस ---का एक उदाहरण प्रस्तुत है....
" मां वाणी !
मुझको ज्ञान दो 
कभी न आये मुझमें  स्वार्थ ,
करता  रहूँ सदा परमार्थ ;
पीडाओं को हर दे मां !
कभी  न सत्पथ से-
मैं भटकूं 
करता रहूँ तुम्हारा ध्यान | "                         ------डा सत्य

                हास्य कवि व व्यंगकार सुभाष हुडदंगी का एक हास्य-व्यंग्य प्रस्तुत है-----
" जब आँखों से आँखों को मिलाया 
तो  हुश्न और प्यार नज़र आया;
मगर जब नखरे पे नखरा उठाया ,
तो मान यूँ गुनुगुनाया --
'कुए में कूद के मर जाना,
यार तुम शादी मत करना |"

                वैराग्य, वीभत्स व करूण रस के उदाहरण भी रंजनीय हैं-----
" मरणोपरांत जीव,
यद्यपि मुक्त होजाता है ,
संसार से , पर--
कैद रहता है वह मन में ,
आत्मीयों के याद रूपी बंधन में ,
और होजाता है अमर | "                       ----डा श्याम गुप्त

" जार जार लुंगी में,
लिपटाये  आबरू ;
पसीने से तर,
 भीगा जारहा है-
आदमी |"                                        ----धन सिंह मेहता

" केवल बचे रह गए कान,
जिव्हा आतातायी ने छीनी ;
माध्यम से-
भग्नावशेष के ,
कहते अपनी क्रूर कहानी | "              ------गिरीश चन्द्र वर्मा 'दोषी '

" झुरमुट के कोने में,
कमर का दर्द लपेटे
दाने बीनती परछाई;
जमान ढूँढ रहा है 
खुद को किसी ढेर में | "                    ----जगत नारायण पांडे

                 अगीत के विविध छंद व उनका रचना विधान का वर्णन विस्तृत रूप से अध्याय चार में  किया गया है | लय व गति काव्य-विधा के अपरिहार्य तत्व व विशेषताएं हैं जो इसे गद्य -विधा से पृथक करती है  | यति --काव्य को संगीतमयता के आरोह-अवरोह के साथ कथ्य व भाव को अगले स्तर पर परिवर्तन की स्पष्टता से विषय सम्प्रेषण को आगे बढाती है | तुकांत बद्धता ..काव्य के शिल्प सौंदर्य को बढाती है परन्तु संक्षिप्तता, शीघ्र भाव सम्प्रेषणता व अर्थ प्रतीति का ह्रास करती है |अतः वैदिक छंदों व ऋचाओं की अनुरूपता व तादाम्य लेते हुए अगीत मूलतः अतुकांत छंद है | हाँ लय व गति इसके अनिवार्य तत्व हैं तथा तुकांत , यति, मात्रा व गेयता का बंधन नहीं है | अगीत वस्तुतः अतुकांत गीत है |

                   अलंकार , साहित्य को शब्द-शिल्प व अर्थ-सौंदर्य प्रदान करते हैं | साहित्य में आभूषण की भांति प्रयुक्त होते हैं | यद्यपि प्रत्येक वस्तु, भाव व क्रिया के अनिवार्य गुण-रूप-तत्व ...." सत्यं शिवम्  सुन्दरं " के अनुसार सौंदर्य अर्थात अलंकरण काव्य का अंतिम मंतव्य होना चाहिए , तथापि अलंकारों के योगदान को नकारा नहीं जा सकता | अतः अगीत में भी पर्याप्त मात्रा में अलंकार प्रयुक्त हुए हैं | मुक्य-मुख्य शब्दालंकार व अर्थालंकार के उदाहरण प्रस्तुत हैं |

                अनुप्रास अलंकार ----
" आधुनिक कविता  की 
सटीली, पथरीली, रपटीली -
गलियों के बीच ,
अगीत ने सत्य ही 
अपना मार्ग प्रशस्त किया है ;
अनुरोधों, विरोधों, अवरोधों के बीच 
उसने सीना तां कर जिया है | "                      ---- पाण्डेय रामेन्द्र ( अन्त्यानुप्रास )

" शिक्षित सज्जन सुकृत संगठित 
बने क्रान्ति में स्वयं सहायक | "                   ----- डा श्याम गुप्त (शूर्पणखा खंडकाव्य से )

                 उपमा अलंकार -----

" बिंदुओं सी रातें 
गगन से दिन बनें ,
तीन ऋतु बीत जाएँ ,
बस यूँही | "                                                 -----मंजू सक्सेना        

" बहती नदी के प्रबल प्रवाह सा,
उनीदी  तारिकाओं के प्रकाश सा,
कभी तीब्र होती आकांक्षाओं सा,
मैदानों पर बहती समतल धारा सा ,
नन्हे शिशुओं के तुतले बोलों सा ,
यह तो जीवन है  | "                                    -----स्नेह-प्रभा ( मालोपमा )


                     रूपक अलंकार ------

" खिले अगीत गीत हर आनन्,
तुम हो इस युग के चतुरानन |"                     ---- अनिल किशोर शुक्ल 'निडर'

" कामिनी के पुलके अंग् अंग्,
नयन वाण आकर हैं घेरे | "                         ---- सोहन लाल सुबुद्ध

" पायल छनका कर दूर हुए,
हम कुछ ऐसे मज़बूर हुए ;
उस नाद-ब्रह्म मद चूर हुए |"                       --- त्रिपदा अगीत ( डा श्याम गुप्त )


                    यमक अलंकार -----
" जब आसमान से
 झांका चाँद,
याद आई, आँखें डबडबाईं ,
आंसुओं में तैरने लगा
एक चाँद | "                                    --तथा ..         

" सोना,
रजनी में सजनी में सुहाता है,
मन को लुभाता है |
अत्यधिक  सोना घातक है ,
कलयुग में सोना पातक है | "                         ----सुरेन्द्र कुमार वर्मा

                      उत्प्रेक्षा अलंकार ------

" यह कंचन सा रूप तुम्हारा 
निखर उठा सुरसरि धारा में;
अथवा  सोन परी सी कोई,
 हुई अवतरित सहसा जल में ;
अथवा पद वंदन को उतरा,
स्वयं इंदु ही गंगाजल  में | "                               ----डा श्याम गुप्त

" क्या ये स्वयं काम देव हैं,
अथवा द्वय अश्विनी बंधु  ये |"                          ---- शूर्पणखा खंड-काव्य से


                        अगीत में श्लेष अलंकार के उदाहरण की एक झलक देखें -----
" दीपक देता है प्रकाश ,
स्वयं अँधेरे में रहता है | 
सुख-दुःख सहकर ही तो नर,
औरों को सुख देता है | "                                     ---राम प्रकाश राम

"चलना ही नियति हमारी है,
जलना ही प्रगति हमारी है |"                              ----डा सत्य 

                            संशय या संदेह अलंकार ------
" सांझ की गोधूली की बेला में ,
प्रफुल्लित चांदनी में ;
अमृत की अभिलाषा लिए ,
निहार रही थी एक टक,
झुरमुट में चकवा-चकवी का मिलन ;
प्रिया  प्रियतम से,
 मोह का पान कर रही थी ;
या यह कोरी कल्पना थी | "                                   ----- घनश्याम दास गुप्ता


                               अतिशयोक्ति अलंकार -----
' नव षोडशि सी इठला करके ,
मुस्काती तिरछी चितवन से |
बोली रघुबर से शूर्पणखा ,
सुन्दर पुरुष नहीं तुम जैसा ;
मेरे जैसी सुन्दर नारी,
नहीं जगत में है कोई भी ||"                          ---- डा श्याम गुप्त ( शूर्पणखा खंड-काव्य से )


          ---क्रमश: ......अगीत साहित्य दर्पण  अध्याय -६ -भाग दो ...अगली पोस्ट में ...