....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
क्या वैज्ञानिक प्रगति के साथ
ज्ञान का क्षरण हो रहा है ? हाँ, निश्चय ही अति-भौतिक प्रगति के साथ मनुष्य का
शारीरिक व मानसिक क्षरण होता है| तेजी से
भौतिक या वैज्ञानिक प्रगति हेतु विभिन्न जानकारियों की आवश्यकता होती है, उनके
पीछे भागना होता है, स्वयं को अपडेट रखना होता है अतः विविध ज्ञानार्जन हेतु समय
ही नहीं होता | धीरे धीरे मन, मस्तिष्क ,शरीर आलसी व अकर्मण्य होने लगता है
मस्तिष्क में उच्च ज्ञान व संवेदना के तंत्र अवांछित ( disuse atrophy) होने लगते
हैं| असमय ही गंजापन, कम उम्र में वार्धक्य, मानसिक रोग आदि उत्पन्न होने लगते
हैं| तभी तो अमेरिका में सर्वाधिक मानसिक रोगी व मानसिक चिकत्सालय हैं |
टीवी को बुद्धू बक्सा इसीलिये तो कहा जाता
है | कहानी-कथा पढ़कर, सुनकर उसके वर्णनों की कल्पना मन-मस्तिष्क को उर्वरा बनाती
थी परन्तु सब कुछ सामने होने से वह कल्पना शक्ति प्रयोग ही नहीं हो पाती | यही
कार्य गूगल द्वारा हो रहा है प्रत्येक जानकारी तैयार मिलने पर उसकी खोज हेतु
ज्ञानार्जन, विविध उपक्रम करने की आवश्यकता ही नहीं, अतः स्मृति की आवश्यकता न
रहने से वह भी क्षीण होती जा रही है| बनावटी कल्पित फंतासी व विज्ञान कथाएं, बाल
कथाएं आदि जिनमें धर्म, समाज, ईश्वर, सभ्यता, संस्कृति का जिक्र नहीं या विकृत
आधुनिक रूप प्रदर्शन द्वारा इस सभी प्रकार के क्षरण में वृद्धि का कारक होती हैं| इस प्रकार मनुष्य बनावटी
सभ्यता, सम्वेदनशीलता, सामाजिकता के मध्य सिर्फ स्व में स्थित, आत्म-केन्द्रित
होकर पीछे की ओर...समष्टि से व्यष्टि की ओर प्रवाहित होने लगता है तथा सामाजिकता
से दूर होने से मानवता से भी कटने लगता है |
परन्तु प्रश्न यह भी है कि
वैज्ञानिक प्रगति व भौतिक उन्नति भी तो आवश्यक है | जैसा यजुर्वेद एवं ईशोपनिषद
में कहा गया है ...‘विद्यांचाविध्या यस्तद वेदोभय सह:....’ अर्थात
विद्या ( वास्तविक ईश्वरीय-मानवीय-शास्त्रीय ज्ञान ) एवं अविद्या ( सांसारिक
भौतिक-वैज्ञानिक ज्ञान- व्यवसायिक, प्रोफेशनल जानकारियाँ ) दोनों को ही साथ साथ
जानना चाहिए|
तो
क्या किया जाना चाहिए ? वस्तुतःअति-भौतिकता एवं तेजी से भागने की अपेक्षा,
शनै:-शनै : सम गति से धीरज के साथ प्रगति
पथ पर बढ़ना चाहिए, प्रकृति के साथ तादाम्य करके ...उससे विरोध या युद्ध करके नहीं,
मानव स्वयं को प्रकृति के अनुसार ढाले ..प्रकृति को तोड़े-मरोड़े नहीं | प्रगति के
साथ सदैव ईश्वर पर विश्वास, आस्था, श्रद्धा अर्थात ईश्वर- प्रणनिधान के साथ मानवीय व्यवहार के
पांच धर्म-तत्व ...धर्म, प्रेम, न्याय, संकल्प व धैर्य ...जो भगवान श्रीकृष्ण ने
द्रौपदी को बताये थे,जो उनकी मित्रता की रीढ़ बने ...वही उपरोक्त श्लोकार्ध के
द्वितीय अर्ध में कथन है ....
’अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा
विद्यायां अमृतंनुश्ते |’ ...अर्थात अविद्या से
मृत्यु को ( संसार को, भौतिकता को ) जीतकर विद्या से अमृतत्व ( जीवन संतुष्टि,
परमशान्ति, जीवन लक्ष्य-प्राप्ति का परमानंद, ब्रह्मानंद, मुक्ति मोक्ष कैवल्य)
प्राप्त करें |