....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
हिन्दी साहित्य और आज का समाज ....पर क्या कहा जाय ! विशद भाव में कोई अति उत्साह जनक स्थित नहीं है | आज हिन्दी साहित्य ही नहीं अपितु साहित्य ही समाज के हाशिये पर है | इस स्थिति के यद्यपि विभिन्न कारण गिनाये जा सकते हैं परन्तु मूल दोषी तो हम ही हैं...स्वयं साहित्यकार ही हैं | इसे हम नकार नहीं सकते | स्वयं के सामाजिक व साहित्यिक दायित्व से स्वयं साहित्यकार ही दूर होगये हैं |
यद्यपि आज काव्य व सभी साहित्य लिखा तो खूब जारहा है परन्तु पढ़ा नहीं जारहा ; क्योंकि आज कवि व साहित्यकार में काव्य-कौशल व गुणवत्ता की कमी है | धैर्य की कमी है | वह प्राय: अल्पज्ञता व मूल्यहीनता की स्थिति में है | समर्पण भाव की अपेक्षा निज हित लाभ प्रधान हो चला है | मूल्य हीन .......न तो अच्छा साहित्यकार हों सकता है न घास छीलने वाला |
कठिन शब्दावली, दूरस्थ भाव, शब्दाडम्बर, अमूर्तता , रहस्यमयता , चमत्कारिकता, उक्ति वैचित्र्य मय भाषा , क्लिष्ट -भाषा ....कला का चमत्कार तो होसकता है परन्तु जन जन, जन सामान्य से मुक्त भाव-सम्प्रेषण योग्य नहीं, साहित्य की उन्नयन कारक नहीं | इसी प्रकार अशुद्ध भाषा, शब्दावली व व्याकरण, अस्पष्ट भाव , कथ्य व विषय भाव ...साहित्य की अवनति कारक के साथ साथ जन सामान्य में असम्प्रेषण के कारण भ्रम, अनास्था व अरुचि उत्पन्न करती है |
आज कविता व साहित्य को न कोई पढ़ता है न सुनता है | स्थिति यह है कि कवि व साहित्यकार स्वयं ही लिखते हैं, प्रकाशित कराते हैं, स्वयं ही पढते, सुनते -सुनाते हैं | स्वयं साहित्यकार ही अन्य साहित्यकार के समारोह में उपस्थित होकर उत्साहवर्धन नहीं करते जब तक कि वहाँ स्वयं उनका मंचीय योगदान न हो | जब तक साहित्यकार निजी-हित वाली प्रवृत्ति से उभरकर साहित्य-समाज-संस्कृति हित की प्रवृत्ति का पोषण नहीं करेंगे ..समाज में साहित्य का प्रसारण नहीं होगा | आज के मूल्यहीनता के युग में यह आवश्यक भी है एवं साहित्यकार का नैतिक दायित्व भी |
हिन्दी साहित्य की इस स्थिति के अन्य कारण भी हैं | पाश्चात्य शिक्षा-संस्कृति शैली का उन्मुक्त फैलाव | राजनैतिक उठा-पटक, लोलुपता में किसी को साहित्य-समाज पर ध्यान देने का भान ही नहीं है | गली-गली में खुले समाचार-पत्र, राजनैतिक , व्यक्तिगत, संस्थागत समाचार पत्रों व पत्रिकाओं की भीड़ का उद्भव ; जहां साहित्यिक-भाव पोषण की अपेक्षा निज-हित, स्व-समाज हित, स्व-संस्था हित, स्व-संगठन, स्व-भाषा जैसे अनेकों स्व-हित-भाव प्रमुख होजाते हैं | साहित्य का अर्थ पत्रकारिता, समाचार-लेखन, अंग्रेज़ी-हिन्दी जासूसी उपन्यास लेखन , समाचार पत्र-पत्रिकाओं का सर्कुलेशन ही रह जाता है |
राज्यों के हिन्दी संस्थानों की कार्यशैली -क्रियाविधि भी काम चलाऊ ही है | साहित्य के प्रोत्साहन हेतु ठोस योजनाओं, कार्यों व कार्यान्वन की इच्छा का अभाव है | साहित्यिक संगठनों की गुट बाज़ी, विशिष्ट वर्गों, विषयों के खाँचों में बंटा साहित्य , यथा...नारी विमर्श, नारी साहित्य, बाल साहित्य, दलित साहित्य, दलित-विमर्श ...छंदीय काव्य संगठन, नव-गीत संस्था , प्रगतिशील साहित्यिक संस्था आदि अलगाव वादी साहित्य व साहित्यिक सोच ने मूल्यहीनता, गुण हीनता द्वारा पाठक वर्ग में -जन सामान्य में -स्वयं कवि-साहित्यकार वर्ग में , विज्ञ जनों में ...समाज में एक भ्रम, अनिश्चितता की स्थिति द्वारा एक वैचारिक व भाव शून्यता उत्पन्न की है | साहित्य कब दलित होता है ? क्या हम दलित वर्ग को समाज से पृथक करके देखना चाहते हैं ? सामाजिक -सांस्कृतिक समन्वय यदि साहित्यं , या समाज के बुद्धिवादी व विज्ञजन में सर्वोच्च पायदान पर स्थित साहित्यकार ही नहीं करेगा तो फिर कौन करेगा ? क्या नारी या नारी पर कोई गाथा समाज व पुरुष के बिना लिखी कही व सोची जा सकती है स्त्री-पुरुष कब पृथक पृथक जाने , कहे, गाये व सोचे गए या सोचे जा सकते हैं ? फिर नारी विमर्श का क्या अर्थ ? क्षेत्रीय बोलियों को हिन्दी भाषा से पृथक रचना -संसार के प्रचलन का प्रश्रय देने से , हिन्दी भाषा व साहित्यं की गतिमयता रुकी है | उर्दू-फारसी प्रधान गज़ल की हाला-प्याला वाली लुभावनी शैली ने भी हिन्दी कविता को हानि पहुंचाई है | प्रकाशकों, विक्रेताओं द्वारा बाजारवाद के प्रभाववश काव्य व साहित्यिक प्रकाशनों की उपेक्षा एक महत्वपूर्ण कारण है |
हिन्दी सिनेमा ने हिन्दी भाषा को प्रसारित तो किया है परन्तु समाज को साहित्य व साहित्यिकता से दूर किया है \ आज कल्पित विज्ञान कथाएं , फंतासी, अमेरिकन/योरोपियन अनूदित कथाओं पर आधारित चलचित्रों, नाटकों ,काव्य-कलाओं व अप-साहित्य ने भारतीय व हिन्दी साहित्य को चोट पहुंचाई है |अपने एतिहासिक , पौराणिक व जन जन में बसे साहित्य के निरूपण व पुनर्लेखन की उपेक्षा, जन जन के, जन सामान्य के व पाठक वर्ग के साहित्य से दूर होने का एक प्रमुख कारण है | यद्यपि अभी हाल में ही व यदा-कदा कुछ टीवी सीरयल अपने प्राचीन गौरव के प्रतिस्थापक बने व प्रसारित हुए हैं , जो एक शुभ लक्षण है |
इस प्रकार हिन्दी साहित्य के प्रचार प्रसार व गुणवत्ता का सारा भार विभिन्न व्यक्तिगत साहित्यिक व सांस्कृतिक संस्थाओं पर आजाता है जो प्राय: अर्थाभाव, समाज व स्थानीय शासन-प्रशासन के असहयोग के कारण क्रियाशील नहीं रह पातीं | फिर भी कुछ संस्थाएं विभिन्न कार्यक्रमों द्वारा यह गुरुतर दायित्व उठाये जारही हैं यह अँधेरे में आशा की किरण तो है ही |