....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
ईशोपनिषद के षष्ठ मन्त्र- यस्तु सर्वाणि भूतानि आत्मन्येवा नुपश्यति |
सर्व भूतेषु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते || ---का
काव्य भावानुवाद ...
कुंजिका- यस्तु= जो कोई भी...सर्वाणि = सम्पूर्ण ...भूतानि= चराचर
जगत को...आत्मनि एव = आत्मा या परमात्मा में ही ...अनुपश्यति =देखता है ...च
सर्वभूतेषु = और सभी चराचर जगत में ...आत्मानं= आत्मा या परमात्मा को ...ततो=इससे
वह ...न विजुगुप्सते=भ्रमित नहीं होता, घृणा नहीं करता, निन्दित नहीं होता |
मूलार्थ- जो समस्त विश्व को स्वयं में ही व परमात्मा में ही स्थित
देखता है एवं स्वयं व परमात्मा को ही समस्त विश्व में स्थित देखता है वह अपने
कर्मों के हेतु भ्रमित नहीं होता न किसी से घृणा करता है अतः संसार में निंदा का
पात्र नहीं होता |
सारे जग को अपने जैसा,
अपने को सारे जग जैसा |
जिसने देखा समझा माना,
कब घृणा किसी से कर पाया |
सब भूत जीव जड़ जंगम में,
वह आत्मतत्व उपस्थित है |
उस आत्मतत्व में ही सब कुछ,
यह सकल चराचर स्थित है |
जो जान गया, वह ब्रह्म स्वयं,
कण-कण, पत्ते पत्ते में है |
जग का कण-कण, यह सकल सृष्टि,
अंतर में उसी ब्रह्म के है |
‘मुझ में संसार समाया है’,
यह समझ, आत्मरत होकर भी |
‘मैं व्याप्त सकल जग में असीम’,
परमार्थ भाव युत होजाता |
वह भ्रमित नहीं होपाता है,
स्पष्ट दृष्टि पाजायेगा |
सांसारिक भ्रम, उलझन, माया,
सांसारिक भ्रम, उलझन, माया,
में उलझ नहीं रह जाएगा |
वह ब्रह्म ह्रदय में स्थित हो,
शुचि प्रेम सुधारस बरसाता |
सब को ही ब्रह्म समझलें यदि,
सब विश्व प्रेममय होजाता |
नर आत्मतत्व को सुगठित कर,
परमार्थ तत्व लय होजाए |
मैं ही वह तत्व सनातन हूँ,
यूं भक्तिमार्ग दृढ होजाये |
भक्तिमार्ग पर चलता प्राणी,
कर्मयोग पथ पाजाता है |
उस परम अर्थ को प्राप्त हुआ,
परमार्थ राह अपनाता है |