....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
हर आदमी के सर पै बैठा आज आदमी ।
छत ढूँढता अपने ही सर की आज आदमी |
आलमारियों में बंद हों बहुरंगी खिलौने ,
आकाशी मंजिलों में बंद आज आदमी |
वो चींटियों की पंक्तियों की भांति सड़क पर,
दाने जुटाने रेंगता है आज आदमी |
लड़ते थे पेंच पतंग के, अँखियों के पेच भी |
वो खेल और खिलाड़ी ढूंढें आज आदमी |
वो खोया खोया चाँद और खुला असमान ,
ख़्वाबों में ऊंचे, भूल बैठा आज आदमी |
रंगीनियाँ छतों की होतीं जो सुबहो-शाम,
भूला वो आशिकी के मंज़र, आज आदमी |
कहने को सुख-साधन सभी,पर लीक में बंधे,
उड़ने की चाह में है उलझा आज आदमी | .
हर आदमी है त्रस्त, मगर होंठ बंद हैं,
अपने ही मकड़-जाल बंधा आज आदमी ||
अँखियों के वो झरोखे, सखियों की बातचीत,
बस श्याम' ग़ज़लों में ही पढ़ता आज आदमी ||
हर आदमी के सर पै बैठा आज आदमी ।
छत ढूँढता अपने ही सर की आज आदमी |
आलमारियों में बंद हों बहुरंगी खिलौने ,
आकाशी मंजिलों में बंद आज आदमी |
वो चींटियों की पंक्तियों की भांति सड़क पर,
दाने जुटाने रेंगता है आज आदमी |
लड़ते थे पेंच पतंग के, अँखियों के पेच भी |
वो खेल और खिलाड़ी ढूंढें आज आदमी |
वो खोया खोया चाँद और खुला असमान ,
ख़्वाबों में ऊंचे, भूल बैठा आज आदमी |
रंगीनियाँ छतों की होतीं जो सुबहो-शाम,
भूला वो आशिकी के मंज़र, आज आदमी |
कहने को सुख-साधन सभी,पर लीक में बंधे,
उड़ने की चाह में है उलझा आज आदमी | .
हर आदमी है त्रस्त, मगर होंठ बंद हैं,
अपने ही मकड़-जाल बंधा आज आदमी ||
अँखियों के वो झरोखे, सखियों की बातचीत,
बस श्याम' ग़ज़लों में ही पढ़ता आज आदमी ||