....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
----(वाल्मीकि रामायण, सर्ग – 46/15-16) वह स्पष्ट करते हैं कि उनके इस निर्णय में परिवर्तन के लिए कोई ज़ोर न डाले और आदेश देते हैं कि सीता को वन में भेजने की व्यवस्था की जाए।
----इस प्रकार कहते-कहते श्रीरघुनाथजी के दोनों नेत्र आंसुओं से भर गए। फिर वे धर्मात्मा श्रीराम अपने भाइयों के साथ महल में चले गए। उस समय उनका हृदय शोक से व्याकुल था और वे हाथी के समान लंबी सांस खींच रहे थे।
अथार्धदिवसे गत्वा भागीरथ्या जलाशयम् ।
निरीक्ष्य लक्ष्मणो दीनः प्ररुरोद महास्वनः ॥ २४ ॥
सीता तु परमायत्ता दृष्ट्वा लक्ष्मणमातुरम् ।
उवाच वाक्यं धर्मज्ञा किमिदं रुद्यते त्वया ॥ २५ ॥ (वाल्मीकि रामायण, सर्ग – 46/24-25)
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सिद्धार्थ गौतम ने भी जब अचानक एक रात पत्नी यशोधरा और बेटे राहुल को सोता छोड़ महाभिनिष्क्रमण किया था और जीवन के सच्चे अर्थ की तलाश में निकल पड़े तो उनका वह कदम परिवार के लिए कठोर कहा जा सकता है। लेकिन सभी को ज्ञात है कि बुद्ध के रूप में उन्होंने विश्व को क्या दिया।
मर्यादा पुरुषोत्तम राम --- राम नवमी पर विशेष ---
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प्रायः यह कहा जाता है कि ‘’राम एक अच्छे राजा थे किन्तु बुरे पति” परन्तु उन्हें गहराई से परखा जाय तो ज्ञात होगा कि कि सीता के त्याग के बाद राम कितने दुखी हुए थे और किस तरह आंसू बहा रहे थे। राम में वही मानवीय गुणावगुण मिलते हैं जो उस काल खंड में किसी भी राजपुरुष में हो सकते हैं |
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जो लोग सीता के परित्याग के लिए राम की आलोचना करते हैं, वे राम का ऐसा स्वरूप पेश करते हैं कि वे एक पत्थर-दिल और सत्ता-लोलुप इंसान थे | उनको अपना सिंहासन इतना प्रिय था कि उसको खोने के भय से सीता को ही वनवास दे दिया जबकि वह जानते थे कि सीता निष्कलंक हैं। वे भूल जाते हैं कि राम को यदि सिंहासन इतना ही प्रिय होता तो वह उसे ठुकराकर 14 वर्ष के लिए वनवास क्यों जाते |
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जब लक्ष्मण सीता को वाल्मीकि आश्रम में छोड़कर आए तो वे नीचे मुख किए दुखी मन से सीधे अन्दर चले गए। उन्होंने देखा, श्रीरघुनाथजी दुखी होकर एक सिंहासन पर बैठे हैं और उनके दोनों नेत्र आंसुओं से भरे हैं।
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प्रायः यह कहा जाता है कि ‘’राम एक अच्छे राजा थे किन्तु बुरे पति” परन्तु उन्हें गहराई से परखा जाय तो ज्ञात होगा कि कि सीता के त्याग के बाद राम कितने दुखी हुए थे और किस तरह आंसू बहा रहे थे। राम में वही मानवीय गुणावगुण मिलते हैं जो उस काल खंड में किसी भी राजपुरुष में हो सकते हैं |
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जो लोग सीता के परित्याग के लिए राम की आलोचना करते हैं, वे राम का ऐसा स्वरूप पेश करते हैं कि वे एक पत्थर-दिल और सत्ता-लोलुप इंसान थे | उनको अपना सिंहासन इतना प्रिय था कि उसको खोने के भय से सीता को ही वनवास दे दिया जबकि वह जानते थे कि सीता निष्कलंक हैं। वे भूल जाते हैं कि राम को यदि सिंहासन इतना ही प्रिय होता तो वह उसे ठुकराकर 14 वर्ष के लिए वनवास क्यों जाते |
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जब लक्ष्मण सीता को वाल्मीकि आश्रम में छोड़कर आए तो वे नीचे मुख किए दुखी मन से सीधे अन्दर चले गए। उन्होंने देखा, श्रीरघुनाथजी दुखी होकर एक सिंहासन पर बैठे हैं और उनके दोनों नेत्र आंसुओं से भरे हैं।
राज्ञस्तु भवनद्वारि सोऽवतीर्य नरोत्तमः ।
अवाङ्मुखो दीनमनाः प्रविवेशानिवारितः ॥ ५ ॥
स दृष्ट्वा राघवं दीनं आसीनं परमासने ।
नेत्राभ्यामश्रुपूर्णाभ्यां ददर्शाग्रजमग्रतः ॥ ६ (वाल्मीकि रामायण, उत्तरकांड, सर्ग – 52/5-6)
अवाङ्मुखो दीनमनाः प्रविवेशानिवारितः ॥ ५ ॥
स दृष्ट्वा राघवं दीनं आसीनं परमासने ।
नेत्राभ्यामश्रुपूर्णाभ्यां ददर्शाग्रजमग्रतः ॥ ६ (वाल्मीकि रामायण, उत्तरकांड, सर्ग – 52/5-6)
----- इस अवस्था में बड़े भाई को सामने देख दुखी मन से लक्ष्मण ने उनके दोनों पैर पकड़ लिए और हाथ जोड़कर चित्त को एकाग्र करके वे दीन वाणी में बोले – ‘वीर महाराज की आज्ञा शिरोधार्य करके मैं उन शुभ आचारवाली, यशस्विनी जनककिशोरी सीता को गंगातट पर वाल्मीकि के शुभ आश्रम के समीप निर्दिष्ट स्थान में छोड़कर पुनः आपके श्रीचरणों की सेवा के लिए यहां लौट आया हूं। पुरुषसिंह ! आप शोक न करें। काल की ऐसी ही गति है। आप जैसे बुद्धिमान और मनस्वी मनुष्य शोक नहीं करते हैं।
जग्राह चरणौ तस्य लक्ष्मणो दीनचेतनः ।
उवाच दीनया वाचा प्राञ्जलिः सुसमाहितः ॥ ७ ॥
आर्यस्याज्ञां पुरस्कृत्य विसृज्य जनकात्मजाम् ।
गङ्गातीरे यथोद्दिष्टे वाल्मीकेराश्रमे शुभे ॥ ८
तत्र तां च शुभाचारां आश्रमान्ते यशस्विनीम् ।
पुनरप्यागतो वीर पादमूलमुपासितुम् ॥ ९ ॥
मा शुचः पुरुषव्याघ्र कालस्य गतिरीदृशी ।
त्वद्विधा न हि शोचन्ति बुद्धिमन्तो मनस्विनः ॥ १० ॥ (वाल्मीकि रामायण, उत्तरकांड, सर्ग – 52/7-10)
------- ‘संसार में जितने संचय हैं, उन सबका अंत विनाश है, उत्थान का अंत पतन है, संयोग का अंत वियोग है और जीवन का अंत मरण है। अतः स्त्री, पुत्र, मित्र और धन में विशेष आसक्ति नहीं करनी चाहिए क्योंकि उनसे वियोग होना निश्चित है। कुकुत्स्थ कुलभूषण! आप आत्मा से आत्मा को, मन से मन को तथा संपूर्ण लोकों को भी संयत करने में समर्थ हैं, फिर अपने शोक को काबू में रखना आपके लिए कौन बड़ी बात है?
उवाच दीनया वाचा प्राञ्जलिः सुसमाहितः ॥ ७ ॥
आर्यस्याज्ञां पुरस्कृत्य विसृज्य जनकात्मजाम् ।
गङ्गातीरे यथोद्दिष्टे वाल्मीकेराश्रमे शुभे ॥ ८
तत्र तां च शुभाचारां आश्रमान्ते यशस्विनीम् ।
पुनरप्यागतो वीर पादमूलमुपासितुम् ॥ ९ ॥
मा शुचः पुरुषव्याघ्र कालस्य गतिरीदृशी ।
त्वद्विधा न हि शोचन्ति बुद्धिमन्तो मनस्विनः ॥ १० ॥ (वाल्मीकि रामायण, उत्तरकांड, सर्ग – 52/7-10)
------- ‘संसार में जितने संचय हैं, उन सबका अंत विनाश है, उत्थान का अंत पतन है, संयोग का अंत वियोग है और जीवन का अंत मरण है। अतः स्त्री, पुत्र, मित्र और धन में विशेष आसक्ति नहीं करनी चाहिए क्योंकि उनसे वियोग होना निश्चित है। कुकुत्स्थ कुलभूषण! आप आत्मा से आत्मा को, मन से मन को तथा संपूर्ण लोकों को भी संयत करने में समर्थ हैं, फिर अपने शोक को काबू में रखना आपके लिए कौन बड़ी बात है?
सर्वे क्षयान्ता निचयाः पतनान्ताः समुच्छ्रयाः ।
संयोगा विप्रयोगान्ता मरणान्तं च जीवितम् ॥ ११ ॥
तस्मात् पुत्रेषु दारेषु मित्रेषु च धनेषु च ।
नातिप्रसङ्गः कर्तव्यो विप्रयोगो हि तैर्ध्रुवम् ॥ १२ ॥
शक्तस्त्वं आत्मनाऽऽत्मानं विनेतुं मनसा मनः ।
लोकान् सर्वांश्च काकुत्स्थ किं पुनः शोकमात्मनः ॥ १३ ॥ (वाल्मीकि रामायण, उत्तरकांड, सर्ग – 52/11-13)
संयोगा विप्रयोगान्ता मरणान्तं च जीवितम् ॥ ११ ॥
तस्मात् पुत्रेषु दारेषु मित्रेषु च धनेषु च ।
नातिप्रसङ्गः कर्तव्यो विप्रयोगो हि तैर्ध्रुवम् ॥ १२ ॥
शक्तस्त्वं आत्मनाऽऽत्मानं विनेतुं मनसा मनः ।
लोकान् सर्वांश्च काकुत्स्थ किं पुनः शोकमात्मनः ॥ १३ ॥ (वाल्मीकि रामायण, उत्तरकांड, सर्ग – 52/11-13)
---- ‘आप जैसे श्रेष्ठ पुरुष इस तरह के प्रसंग आने पर मोहित नहीं होते। रघुनंदन! यदि आप दुखी रहेंगे तो वह अपवाद आपके ऊपर फिर आ जाएगा। नरेश्वर! जिस अपवाद के भय से आपने मिथिलेशकुमारी का त्याग किया है, निस्संदेह वह अपवाद इस नगर में फिर होने लगेगा (लोग कहेंगे कि दूसरे के घर में रही हुई स्त्री का त्याग करके ये रातदिन उसी की चिंता से दुखी रहते हैं) अतः पुरषसिंह! आप धैर्य से चित्त को एकाग्र करके इस दुर्बल शोकबुद्धि का त्याग करें — संतप्त न हों।’
नेदृशेषु विमुह्यन्ति त्वद्विधाः पुरुषर्षभाः ।
अपवादः स किल ते पुनरेष्यति राघव ॥ १४ ॥
यदर्थं मैथिली त्यक्ता अपवादभयान्नृप ।
सोऽपवादः पुरे राजन् भविष्यति न संशयः ॥ १५ ॥
स त्वं पुरुषशार्दूल धैर्येण सुसमाहितः ।
त्यजैनां दुर्बलां बुद्धिं सन्तापं मा कुरुष्व ह ॥ १६ ॥ (वाल्मीकि रामायण, उत्तरकांड, सर्ग – 52/14-16)
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महात्मा लक्ष्मण के इस प्रकार कहने पर मित्रवत्सल श्रीरघुनाथजी ने बड़ी प्रसन्नता के साथ उन सुमित्राकुमार से कहा — नरश्रेष्ठ वीर लक्ष्मण! तुम जैसे कहते हो, ठीक ऐसी ही बात है। तुमने मेरे आदेश का पालन कया, इससे मुझे बड़ा संतोष है। सौम्य लक्ष्मण! अब मैं दुख से निवृत्त हो गया। संताप को मैंने हृदय से निकाल दिया और तुम्हारे सुंदर वचनों से मुझे बड़ी शांति मिली है।’
अपवादः स किल ते पुनरेष्यति राघव ॥ १४ ॥
यदर्थं मैथिली त्यक्ता अपवादभयान्नृप ।
सोऽपवादः पुरे राजन् भविष्यति न संशयः ॥ १५ ॥
स त्वं पुरुषशार्दूल धैर्येण सुसमाहितः ।
त्यजैनां दुर्बलां बुद्धिं सन्तापं मा कुरुष्व ह ॥ १६ ॥ (वाल्मीकि रामायण, उत्तरकांड, सर्ग – 52/14-16)
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महात्मा लक्ष्मण के इस प्रकार कहने पर मित्रवत्सल श्रीरघुनाथजी ने बड़ी प्रसन्नता के साथ उन सुमित्राकुमार से कहा — नरश्रेष्ठ वीर लक्ष्मण! तुम जैसे कहते हो, ठीक ऐसी ही बात है। तुमने मेरे आदेश का पालन कया, इससे मुझे बड़ा संतोष है। सौम्य लक्ष्मण! अब मैं दुख से निवृत्त हो गया। संताप को मैंने हृदय से निकाल दिया और तुम्हारे सुंदर वचनों से मुझे बड़ी शांति मिली है।’
एवमेतन्नरश्रेष्ठ यथा वदसि लक्ष्मण ।
परितोषश्च मे वीर मम कार्यानुशासने ॥ १८ ॥
निवृत्तिश्चागता सौम्य सन्तापश्च निराकृतः ।
भवद्वाक्यैः सुरुचिरैः अनुनीतोऽस्मि लक्ष्मण ॥ १९ ॥ (वाल्मीकि रामायण, उत्तरकांड, सर्ग – 52/19)
परितोषश्च मे वीर मम कार्यानुशासने ॥ १८ ॥
निवृत्तिश्चागता सौम्य सन्तापश्च निराकृतः ।
भवद्वाक्यैः सुरुचिरैः अनुनीतोऽस्मि लक्ष्मण ॥ १९ ॥ (वाल्मीकि रामायण, उत्तरकांड, सर्ग – 52/19)
----- यद्यपि सीता को वन में छोड़ते समय ख़ुद लक्ष्मण की क्या स्थिति थी। दोपहर के समय भागीरथी की जलधारा तक पहुंचकर लक्ष्मण उसकी ओर देखते हुए दुखी होकर उच्चस्वर से फूटफूटकर रोने लगे।
अथार्धदिवसे गत्वा भागीरथ्या जलाशयम् ।
निरीक्ष्य लक्ष्मणो दीनः प्ररुरोद महास्वनः ॥ २४ ॥ (वाल्मीकि रामायण, उत्तरकांड, सर्ग 46/24)
अथार्धदिवसे गत्वा भागीरथ्या जलाशयम् ।
निरीक्ष्य लक्ष्मणो दीनः प्ररुरोद महास्वनः ॥ २४ ॥ (वाल्मीकि रामायण, उत्तरकांड, सर्ग 46/24)
राजधर्म के बारे में राम का विचार----
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सीता के संताप से मुक्त होकर राम ने लक्ष्मण से तुरंत ही राज्य कार्य करने को कहा।..
------‘सौम्य! सुमित्राकुमार! मुझे पुरवासियों का काम किए बिना चार दिन बीत चुके हैं, यह बात मेरे मर्मस्थल को विदीर्ण कर रही है। पुरुषप्रवर! तुम प्रजा, पुरोहितों और मंत्रियों को बुलाओ। जिन पुरुषों अथवा स्त्रियों को कोई काम हो, उनको उपस्थित करो।
----जो राजा प्रतिदिन पुरवासियों के कार्य नहीं करता, वह निस्संदेह सब ओर से निश्छिद्र अतएव वायुसंचार से रहित घोर नरक में पड़ता है। ‘जिस प्रकार राजा नृग ने प्रजा के विवाद को उचित प्रकार से न सुलझाने पर अत्यंत दारुण शाप फल भोगा |
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सीता के संताप से मुक्त होकर राम ने लक्ष्मण से तुरंत ही राज्य कार्य करने को कहा।..
------‘सौम्य! सुमित्राकुमार! मुझे पुरवासियों का काम किए बिना चार दिन बीत चुके हैं, यह बात मेरे मर्मस्थल को विदीर्ण कर रही है। पुरुषप्रवर! तुम प्रजा, पुरोहितों और मंत्रियों को बुलाओ। जिन पुरुषों अथवा स्त्रियों को कोई काम हो, उनको उपस्थित करो।
----जो राजा प्रतिदिन पुरवासियों के कार्य नहीं करता, वह निस्संदेह सब ओर से निश्छिद्र अतएव वायुसंचार से रहित घोर नरक में पड़ता है। ‘जिस प्रकार राजा नृग ने प्रजा के विवाद को उचित प्रकार से न सुलझाने पर अत्यंत दारुण शाप फल भोगा |
चत्वारो दिवसाः सौम्य कार्यं पौरजनस्य च ।
अकुर्वाणस्य सौमित्रे तन्मे मर्माणि कृन्तति ॥५३/ ४ ॥
आहूयन्तां प्रकृतयः पुरोधा मन्त्रिणस्तथा ।
कार्यार्थिनश्च पुरुषाः स्त्रियश्च पुरुषर्षभ ॥ ५ ॥
पौरकार्याणि यो राजा न करोति दिने दिने ।
संवृते नरके घोरे पतितो नात्र संशयः ॥ ६ ॥
अकुर्वाणस्य सौमित्रे तन्मे मर्माणि कृन्तति ॥५३/ ४ ॥
आहूयन्तां प्रकृतयः पुरोधा मन्त्रिणस्तथा ।
कार्यार्थिनश्च पुरुषाः स्त्रियश्च पुरुषर्षभ ॥ ५ ॥
पौरकार्याणि यो राजा न करोति दिने दिने ।
संवृते नरके घोरे पतितो नात्र संशयः ॥ ६ ॥
----- अतः कार्यार्थी पुरुषों का विवाद यदि निर्णीत न हो तो वह राजाओं के लिए महान दोष की प्राप्ति करानेवाला होता है। अतः कार्यार्थी मनुष्य शीघ्र मेरे सामने उपस्थित हों। … तुम जाओ, राजद्वार पर प्रतीक्षा करो कि कौन कार्यार्थी पुरुष आ रहा है।
एवं स राजा तं शापं उपभुङ्क्ते सुदारुणम् ॥ २४ ॥
कार्यार्थिनां विमर्दो हि राज्ञां दोषाय कल्पते |
तच्छीघ्रं दर्शनं मह्यं अभिवर्तन्तु कार्यिणः ॥ २५ ॥
तच्छीघ्रं दर्शनं मह्यं अभिवर्तन्तु कार्यिणः ॥ २५ ॥
सुकृतस्य हि कार्यस्य फलं नावैति पार्थिवः ।
तस्माद् गच्छ प्रतीक्षस्व सौमित्रे कार्यवाञ्जनः ॥ २६ ॥ (वाल्मीकि रामायण, उत्तरकांड, सर्ग 53/24-26)
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अब हमारे मन में राम की कैसी छवि होनी चाहिए,
तस्माद् गच्छ प्रतीक्षस्व सौमित्रे कार्यवाञ्जनः ॥ २६ ॥ (वाल्मीकि रामायण, उत्तरकांड, सर्ग 53/24-26)
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अब हमारे मन में राम की कैसी छवि होनी चाहिए,
-----वह एक ऐसे आदर्श शासक के रूप में प्रतीत होते हैं जो निजी और सार्वजनिक जीवन के कर्तव्यों के आंतरिक संघर्ष में फंसे हुए हैं।
----- जो राजा इस बात से चिंतित हो कि चार दिनों से जनता के काम नहीं हो रहे, उस राजा के लिए यह पद सत्ता का सुख भोगने का साधन नहीं है बल्कि कर्तव्य निभाने का माध्यम है।
-----इस कर्तव्य को निभाने के दौरान यदि उनको किसी का भी त्याग करना पड़े तो वह उसके लिए तैयार हैं। वह एक ऐसे शासक प्रतीत होते हैं जो अपनी प्रजा के लिए काम करते हैं और उसकी सुख-समृद्धि की चिंता करते हैं।
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वाल्मीकि रामायण के अनुसार जब राम ने सभी भाइयों को बुलाकर सीता का त्याग करने का अपना फ़ैसला सुनाया था, तब कहा था –‘नरश्रेष्ठ बंधुओ! मैं लोकनिंदा के भय से अपने प्राणों को और तुम सबको भी त्याग सकता हूं। फिर सीता का त्यागना कौन बड़ी बात है? अतः तुमलोग मेरी ओर देखो। मैं शोक के समुद्र में गिर गया हूं। इससे बढ़कर कभी कोई दुख मुझे उठाना पड़ा हो, इसकी मुझे याद नहीं है।’
----- जो राजा इस बात से चिंतित हो कि चार दिनों से जनता के काम नहीं हो रहे, उस राजा के लिए यह पद सत्ता का सुख भोगने का साधन नहीं है बल्कि कर्तव्य निभाने का माध्यम है।
-----इस कर्तव्य को निभाने के दौरान यदि उनको किसी का भी त्याग करना पड़े तो वह उसके लिए तैयार हैं। वह एक ऐसे शासक प्रतीत होते हैं जो अपनी प्रजा के लिए काम करते हैं और उसकी सुख-समृद्धि की चिंता करते हैं।
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वाल्मीकि रामायण के अनुसार जब राम ने सभी भाइयों को बुलाकर सीता का त्याग करने का अपना फ़ैसला सुनाया था, तब कहा था –‘नरश्रेष्ठ बंधुओ! मैं लोकनिंदा के भय से अपने प्राणों को और तुम सबको भी त्याग सकता हूं। फिर सीता का त्यागना कौन बड़ी बात है? अतः तुमलोग मेरी ओर देखो। मैं शोक के समुद्र में गिर गया हूं। इससे बढ़कर कभी कोई दुख मुझे उठाना पड़ा हो, इसकी मुझे याद नहीं है।’
----(वाल्मीकि रामायण, सर्ग – 46/15-16) वह स्पष्ट करते हैं कि उनके इस निर्णय में परिवर्तन के लिए कोई ज़ोर न डाले और आदेश देते हैं कि सीता को वन में भेजने की व्यवस्था की जाए।
----इस प्रकार कहते-कहते श्रीरघुनाथजी के दोनों नेत्र आंसुओं से भर गए। फिर वे धर्मात्मा श्रीराम अपने भाइयों के साथ महल में चले गए। उस समय उनका हृदय शोक से व्याकुल था और वे हाथी के समान लंबी सांस खींच रहे थे।
अथार्धदिवसे गत्वा भागीरथ्या जलाशयम् ।
निरीक्ष्य लक्ष्मणो दीनः प्ररुरोद महास्वनः ॥ २४ ॥
सीता तु परमायत्ता दृष्ट्वा लक्ष्मणमातुरम् ।
उवाच वाक्यं धर्मज्ञा किमिदं रुद्यते त्वया ॥ २५ ॥ (वाल्मीकि रामायण, सर्ग – 46/24-25)
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सिद्धार्थ गौतम ने भी जब अचानक एक रात पत्नी यशोधरा और बेटे राहुल को सोता छोड़ महाभिनिष्क्रमण किया था और जीवन के सच्चे अर्थ की तलाश में निकल पड़े तो उनका वह कदम परिवार के लिए कठोर कहा जा सकता है। लेकिन सभी को ज्ञात है कि बुद्ध के रूप में उन्होंने विश्व को क्या दिया।
-----------------समष्टिहित के लिए व्यष्टिहित का बलिदान करना ही पड़ता है और संसार में जितनी भी महान विभूतियां हुई हैं, उन्होंने ऐसा किया है।