ब्लॉग आर्काइव

डा श्याम गुप्त का ब्लोग...

मेरी फ़ोटो
Lucknow, UP, India
एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं... काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद .. my blogs-- 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति... 2.drsbg.wordpres.com, 3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त

गुरुवार, 28 सितंबर 2017

भारत में विदेशी ताकतें किस प्रकार इस देश समाज धर्म संस्कृति को तोड़ने में व्यस्त---डा श्याम गुप्त

                                 ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...

                                      भारत में विदेशी ताकतें किस प्रकार इस देश समाज धर्म संस्कृति को तोड़ने में व्यस्त हैं एवं हमारे देश-समाज में स्थित विभिन्न वर्ग, जातियां संस्थाएं किस प्रकार इनके बहकावे में आकर अपने देश-धर्म को ही तोड़ने पर आमादा होजाती हैं, इसका एक उदाहरण पेश है ---

The Tales Of Gondwana Samaj की एक पोस्ट में निम्न वर्णन है --

                         इस सृष्टि पर सबसे पहले आदिमानव ने अपनी अधिसत्ता स्थापित कीउसी आदिमानव की संतान हम गोंड आदिवासी हैं। हमारे पूर्वजों ने सबसे पहले प्रकृति को समझा, उसके संचलन के गुणधर्मो को जाना और उसे ही अपने जीवन के संस्कार के रूप में समाहित कर लिया। यही उसका धर्म हो गया। इसलिए आदिकाल से अब तक गोंड आदिवासियों का कोई लिखित धर्म नहीं बन सका।
\
प्रकृति के विधान का कोई लिखित स्वरुप इस धरती का तुच्छ मानव कर ही नहीं सकता। प्रकृति की उत्पत्ति और विनाश का कोई लेखा कोई कागज पर रखा ही नहीं जा सकता। प्रकृति से उत्पन्न वस्तु या भौतिक शरीर का अंत निश्चित है। इसलिए गोंड आदिवासी प्रकृति के शाश्वत विधान को ही अपने जीवन का संस्कारिक गुणधर्म मान लिया। यही हमारा सर्वोच्च प्राकृतिक धर्म ही "गोंडी" धर्म है। प्रकृति की तरह अडिग, सच्चा, प्रकृति प्रेमी, प्रकृति को मानने वाले, प्रकृति की पूजा करने वाले, माता-पिता की पूजा करने वाले बूढ़ादेव के रूप में अपने पूर्वजों की पूजा साजा झाड़ के नीचे बैठकर करने वाले कदापि हिन्दू नहीं हो सकते।
\
हिन्दू धर्म आदिवासियों की विनाश की कृति है। आदिवासियों का पूज्य "बड़ादेव" है। बड़ादेव अर्थात वह सर्वव्यापी सत्व तत्व जो सृष्टि का निर्माण करता है और विनाश भी। किसी भी नवीन संरचना निर्माण के लिए वैज्ञानिक और सर्वव्यापी आधार है कि किन्ही २ तत्वों को मिलाकर ही तीसरी संरचना का निर्माण किया जा सकता है। वे निर्माणकारी २ तत्व हैं (+) धन तत्व और (-) ऋण तत्व। इन्हें धनात्मक और ऋणात्मक शक्ति भी कहते हैं। इन्हें गोंडी में सल्लें-गांगरे शक्ति कहते हैं. इन दोनों धनात्मक और ऋणात्मक (सल्लें-गांगरे) शक्तियों के संयोग के बिना किसी तीसरी संरचना का निर्माण किया ही नहीं जा सकता। यह गोंडवाना का प्रथम एवं अंतिम वैज्ञानिक प्रमाण है। गोंड आदिवासी समाज द्वारा इस (+) धन शक्ति को "पितृशक्ति" अर्थात पितातुल्य तथा (-) ऋण शक्ति को "मातृशक्ति" अर्थात मातातुल्य माना जाता है। इसलिय सृष्टि के उत्पत्तिकारक सर्वोच्च शक्ति अर्थात संरचना की निर्माण करने वाले, पैदा करने वाले, बनानेवाले माता-पिता के रूप में इनकी पूजा की जाती है।
               वास्तव में कोई जीव, तत्व, ठोस, द्रव्य किसी भी भौतिक-अभौतिक चीजों की संरचनाओं का निर्माण उनके उत्पत्तिकारक माता-पिता के रूप में इन्ही प्राकृतिक शक्तियों के संयोग से ही होता है। चुम्बकत्व से लेकर परमाणु बम की शक्ति भी यही शक्तियां हैं। इसलिए इन्हें उत्पत्ति एवं विनाश की शक्ति अर्थात सबसे बड़ा शक्ति "बड़ादेव" के रूप में इन शक्तियों की पूजा गोंड आदिवासी समुदाय द्वारा किया जाता है
                              "गोंडी" धर्म के लिए प्रकृति/सृष्टि से बड़ा कोई ईस्वर का साक्षात् प्रमाण हो ही नहीं सकता। ऐसी स्थिति में उन्हें अन्य धर्मों की तरह "धर्म" और "धर्मग्रंथों" की आवश्यकता ही नहीं है, किन्तु यह सुगबुगाहट शुरू हो चुकी है कि समस्त आदिवासी समुदायों की धार्मिक भावनाओं को ध्यान में रखते हुए धर्म के रूप में "गोंडी धर्म, आदिम धर्म, आदिवासी धर्म, प्राकृत धर्म" या समाज के बुद्धिजीवियों का कोई अन्य प्रस्ताव हो सकता है, जिसका पंजीयन हिन्दू, मुस्लिम, जैन, बौद्ध, सिक्ख धर्म आदि की तरह कराया जा सकता है। इसके लिए आदिवासी समाज के बुद्धिजीवियों को तन-मन-धन से प्रयास करना होगा.
\
दूसरी ओर हिदू धर्म आदिवासियों का आशियाना (जल, जंगल, जमीन) उजाड़कर काल्पनिक आस्था के भगवानों के मंदिर बनवाने और उसमे मूर्ती बैठाकर पूजा करने में विश्वास रखता है. उसे अपने माता-पिता और मानव से ज्यादा मूर्ती पर विश्वास होता है, इन्शान पर नहीं.
                 हिन्दुवादी लोग अपने माता-पिता और पूर्वजों को उनके देहावसान के बाद उन्हें जलाकर राख कर देता है तथा उसका अस्तित्व मिटा देता है, किन्तु आदिवासी अपने पूर्वजों को इस धरती पर ही दफन करता है और उनकी आत्मा को अपने कुल देवता में शामिल करता है तथा यह मानता है कि उनके पूर्वज उनके साथ घर में निवास करते हैं और कठिन परिस्थितियों में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से सहायता करते हैं. हिन्दुवादी व्यवस्था में वर्ष में एक बार पितृ पक्ष मनाया जाता है तथा उन्हें बुलाकर भोग दिया जाता है. गोंडी व्यवस्था में प्रतिदिन के भोजन का प्रथम भोग अपने पूर्वजों को चढ़ाया जाता है. उसके पश्चात ही परिवार भोजन ग्रहण करता है. हिंदू मंदिरों में भगवानों की पूजा-पाठ पर विश्वास करता है तथा जन्म देने वाले माता-पिता को वृद्ध होने पर सेवा करने के बजाय वृद्धाश्रम भेज देता है. अर्थात हिंदुओं के लिए माता-पिता भगवन नहीं हो सकते ? यह कार्य विकसित हिंदुओं के लिए आम प्रचलन बन चुकी है. आदिवासी कभी भीख नहीं मांगता. दूसरे धर्मों में भगवान के नाम से भीख मांगने का धंधा बन गया है, एक व्यवसाय बन गया है. हमारा आदमी मेहनत और कर्म पर विश्वास करता है. झूठ नहीं बोल सकता इसलिए व्यवसाय का गुर नहीं सीख सकता. इस कारण सफल व्यवसायी भी नहीं बन सकता और न ही रूपये कमा सकता किन्तु धर्म के नाम पर अपना और अपने परिवार का पेट नही भरता. अपना ईमान भगवान के घर और मंदिरों में नहीं छोड़ता. अपना ईमान कभी नहीं बेचता. जीवन भर अपने कमरतोड़ परीश्रम और कर्मों को ही अपना ईमान और जीवन का परिणाम समझता है. वह किश्मत का रोना नहीं रोता.
\
इस तरह बहुत सारी बातें हैं, जो गोंड और हिंदुओं के धार्मिक जीवन व्यवस्थाओं से मेल नहीं खाता. आदिवासियों का अतीत सृष्टि की उत्पत्ति के पश्चात प्रथम मानव के रूप में पुराविद और इतिहासकारों ने दर्ज किया है. उसके करोडों वर्ष बीत जाने के बाद भी अपने मूल संस्कारों को बचाकर रखा है तो वह केवल आदिवासी ही है. इसी संरक्षित सांस्कारिकता के कारण भारत आज दुनिया का सांस्कारिक देश कहलाता है. इसी सांस्कारिकता के कारण भारतीय संविधान में आदिवासियों के लिए आरक्षण की व्यवस्था लागू की गयी है और इसका लाभ समाज, आप और हम सभी आदिवासी समाज उठा रहा है. यदि हम अपने समाज का खाकर दूसरों का नक़ल करेंगे तो हमसे बड़ा समाज को धोखा देने वाला धोखेबाज, गद्दार कोई होगा नहीं. इसलिए हमें अपने समाज पर गर्व करना चाहिए और गर्व से हमें अपना Religion-"Gondi" लिखना चाहिए.
\
गोंडी धर्म रजिस्टर्ड नहीं होने के कारण सामने वाला इस बात को उठता है किन्तु संविधान में यह व्यवस्था है कि हम अपना धर्म लिखने और पढ़ने के लिए स्वतंत्र हैं. भारत के माननीय सर्वोच्च न्यायलय ने व्यवस्था दी है कि "Gond" Hindu नहीं है. धार्मिक व्यवस्थाओं के दूरगामी परिणामों को देखते हुए सर्वोच्च न्यायलय ने प्रकरण (सन्दर्भ 1971/MPLI/NOTE-71, त्रिलोकसिंह विरुद्ध गुलबसिया) के महत्वपूर्ण फैसले में निर्णय दिया है कि "It is true that gonds are not hindu. They are governed by Customs Prevalint in the caste.- Justice S.P.Sen, Suprem Court." इसकी प्रति भी उपलब्ध है. अतः माननीय उच्चतम न्यायलय ने गोंड समुदाय कि रीति रिवाज और विशुद्ध प्रकृतिवादी सांस्कारिक संरचना के आधार पर यह निर्णय दिया है. रीति रिवाज और विशुद्ध प्रकृतिवादी संस्कारिक संरचना के धारक गोंड आदिवासी समुदाय किसी भी रूप में हिंदू नहीं हैं. अतः गोंड आदिवासी समुदाय के लोगों को माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दी गयी व्यवस्था का कट्टरता से पालन करना चाहिए कि गोंड आदिवासी समुदाय "हिंदू" नहीं है.
\\
अब हम इन तथ्यों का क्रमश उत्तर प्रस्तुत करेंगे----
१. इस सृष्टि पर सबसे पहले आदिमानव ने अपनी अधिसत्ता स्थापित की। उसी आदिमानव की संतान हम गोंड आदिवासी हैं।
------विश्व के सभी मानव उन्ही की संतान हैं|
\
२. हमारे पूर्वजों ने सबसे पहले प्रकृति को समझा, उसके संचलन के गुणधर्मो को जाना और उसे ही अपने जीवन के संस्कार के रूप में समाहित कर लिया।
---प्रत्येक मानव के वही पूर्वज थे, उन्हीं से सभी संस्कार आदि मिले तो इसमें नया क्या है |
\
३.प्रकृति से उत्पन्न वस्तु या भौतिक शरीर का अंत निश्चित है। इसलिए गोंड आदिवासी प्रकृति के शाश्वत विधान को ही अपने जीवन का संस्कारिक गुणधर्म मान लिया। यही हमारा सर्वोच्च प्राकृतिक धर्म ही "गोंडी" धर्म है।
----प्रत्येक मनुष्य, जाति, धर्म यही मानता है | गोंडी जाति/समुदाय है धर्म कैसे होगया, आदि में तो कोइ धर्म ही नहीं था |
\
४.प्रकृति की तरह अडिग, सच्चा, प्रकृति प्रेमी, प्रकृति को मानने वाले, प्रकृति की पूजा करने वाले, माता-पिता की पूजा करने वाले बूढ़ादेव के रूप में अपने पूर्वजों की पूजा साजा झाड़ के नीचे बैठकर करने वाले कदापि हिन्दू नहीं हो सकते।
---सभी हिन्दू यही करते हैं, आज भी |
\
५.किसी भी नवीन संरचना निर्माण के लिए वैज्ञानिक और सर्वव्यापी आधार है कि किन्ही २ तत्वों को मिलाकर ही तीसरी संरचना का निर्माण किया जा सकता है। वे निर्माणकारी २ तत्व हैं (+) धन तत्व और (-) ऋण तत्व। इन्हें धनात्मक और ऋणात्मक शक्ति भी कहते हैं।
---सभी दुनिया भर यही मानते हैं –इसमें नया क्या है |
\
६.उन्हें अन्य धर्मों की तरह "धर्म" और "धर्मग्रंथों" की आवश्यकता ही नहीं है, किन्तु यह सुगबुगाहट शुरू हो चुकी है कि समस्त आदिवासी समुदायों की धार्मिक भावनाओं को ध्यान में रखते हुए धर्म के रूप में "गोंडी धर्म, आदिम धर्म, आदिवासी धर्म, प्राकृत धर्म" या समाज के बुद्धिजीवियों का कोई अन्य प्रस्ताव हो सकता है, जिसका पंजीयन हिन्दू, मुस्लिम, जैन, बौद्ध, सिक्ख धर्म आदि की तरह कराया जा सकता है। इसके लिए आदिवासी समाज के बुद्धिजीवियों को तन-मन-धन से प्रयास करना होगा.
----अर्थात समाज, सभ्यता, संस्कृति का विकास होने पर धर्म ग्रंथों की आवश्यकता होती है यही प्रयास अति-प्रारम्भिक काल में होचुका है जिसका परिणाम हिन्दू धर्म है, सदा से आप उसीके अंग हैं | आप अब युगों बाद नया क्यों करना चाहते हैं |
\
७.हिन्दू पूर्वजों को उनके देहावसान के बाद उन्हें जलाकर राख कर देता है तथा उसका अस्तित्व मिटा देता है, किन्तु आदिवासी अपने पूर्वजों को इस धरती पर ही दफन करता है और उनकी आत्मा को अपने कुल देवता में शामिल करता है तथा यह मानता है कि उनके पूर्वज उनके साथ घर में निवास करते हैं और कठिन परिस्थितियों में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से सहायता करते हैं |
----तो आप अपने आपको मुस्लिम, ईसाई आदि मानिए अलग गोंड धर्म की क्या आवश्यकता है | हिन्दुओं में पुरातन व नवीन -दफ़न व दाह, दोनों ही विधियां अपनाई जाती हैंडाह विधि समयानुसार विकास है | आप हिन्दू ही हैं|
\
८.गोंडी व्यवस्था में प्रतिदिन के भोजन का प्रथम भोग अपने पूर्वजों को चढ़ाया जाता है. उसके पश्चात ही परिवार भोजन ग्रहण करता है.
---- हिन्दुओं में भी भोजन से पहले यही नीति अपनाई जाती है |
\
९.आदिवासियों का अतीत सृष्टि की उत्पत्ति के पश्चात प्रथम मानव के रूप में पुराविद और इतिहासकारों ने दर्ज किया है. उसके करोडों वर्ष बीत जाने के बाद भी अपने मूल संस्कारों को बचाकर रखा है तो वह केवल आदिवासी ही है. इसी संरक्षित सांस्कारिकता के कारण भारत आज दुनिया का सांस्कारिक देश कहलाता है.
----- वही आदिवासी सभी का प्रथम मानव है, भारत आज दुनिया का सांस्कारिक देश कहलाता हैऔर इसका नाम हिन्दुस्थान प्रसिद्द है तो सभी भारतीय जो विदेशी/ या विदेशी धर्म अपनाए हुए नहीं हैं, हिन्दू हुए | गोंड भी |
\
१०.भारतीय संविधान में आदिवासियों के लिए आरक्षण की व्यवस्था लागू की गयी है और इसका लाभ समाज, आप और हम सभी आदिवासी समाज उठा रहा है |
---आरक्षण इसलिए दिया गया कि आप लोगों ने विकास नहीं किया अतः अब संकीर्णता से ऊपर उठें व राष्ट्र की मुख्यधारा सर्वाधिक जन में जुड़ें, उसे तोड़ें नहीं |
\
११."It is true that gonds are not hindu. They are governed by Customs Prevalint in the caste.- Justice S.P.Sen, Suprem Court."
---स्पष्ट है कि Customs Prevalint in the caste—का अर्थ जाति से है धर्म से नहीं, हिन्दू धर्म में आप के समान कई जातियाँ हैं |
\
                           पता नहीं इतने प्रमाण होते हुए भी जैसा ये कह रहे हैं, सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला कैसे दिया, मेरे विचार से निम्न निर्णय में कहीं भी स्पष्ट नहीं है कि ---गोंड पृथक धर्म है अपितु यह भी स्वीकार किया है कि गोंड एक जाति है, जो हिन्दू धर्म की मिताक्षरा विचारधारा नियम के अंतर्गत हैं| वे ब्राह्मण या क्षत्रिय नहीं हैं अतः शूद्र हो सकते हैं |
------ वस्तुतः यह मुकदमा एक इस विषय से अन्य विषय का केस है जिसमें अपील को डिसमिस कर दिया गया है |
सुप्रीम कोर्ट के निर्णय की प्रति----



 

बुधवार, 27 सितंबर 2017

चक्रतीर्थ – नैमिषारण्य--- डा श्याम गुप्त

                               ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ..

चक्रतीर्थ – नैमिषारण्य---
\\
लखनऊ से लगभग ८० किमी दूर सीतापुर के निकट गोमती नदी के किनारे यह सुप्रसिद्ध पौराणिक तीर्थ है | कहा जाता है कि जब भी कोई धार्मिक समस्या उत्पन्न होती थी, उसके समाधान के लिए ऋषिगण यहाँ एकत्र होते थे। यह अरण्य प्रदेश मनु-शतरूपा एवं महर्षि दधीच की तपस्थली थी ( समीप ही मिस्रिख में ) एवं यहीं वृत्तासुर वध हेतु इंद्र का बज्र तैयार किया गया था | यहीं सर्वप्रथम अखिलविश्व धर्मसभा हुई थी जिसकी अध्यक्षता मुनि वेदव्यास ने की थी, जिसमें विश्व के सभी तीर्थ यहाँ एकत्र हुए थे |
\
चक्रतीर्थ ब्रह्मा द्वारा धर्म-सभा हेतु स्थल निर्धारण के लिए अपना चक्र छोड़ा था जो यहाँ आकर रुका और पृथ्वी में समा गया | अतः यह स्थान धर्मसभा हेतु निश्चित हुआ एवं चक्रतीर्थ नाम प्रसिद्द हुआ |
-------यह वस्तुतः एक पातालतोड़ कुआं ( भूमिगत जल स्रोत—कुआं ) है जो बिना हिम-पर्वत जलस्रोत वाली नदी गोमती के विविध भूमिगत श्रोतों में से एक है |
\
लगभग ८-९ वर्ष पहले यह स्थल वास्तव में ही रमणीक वातावरणमय अरण्य था | शीतल, शांतिप्रदायक वातावरण, समीप ही बहती हुई गोमती नदी, अक्षयवट की बनी हुई प्राकृतिक व्यासपीठ जहां से वेदव्यास ने अध्यक्षता की थी | सभी तीर्थों, ऋषियों की बैठक स्थलियां, मनु-शतरूपा का स्थल आदि प्राकृतिक अरण्य स्थल में ही बनी हुई थीं |
-------पैदल घूमकर अहसास होता था अरण्य का, एवं उस काल में कैसा रहा होगा इस भावना का | चक्रतीर्थ में भी शांत वातावरण, आराम से नहाइए, न कोइ पंडों आदि का चक्कर | घाट पर पौराणिक मंदिरों में १-२ पुजारी आदि रहते थे बस, सब कुछ शांत व सामान्य |
\
आज पता नहीं क्यों, कैसे व किस की आज्ञा से पूरे चक्रतीर्थ में पंडों ने अपने अपने तख़्त सजा रखे हैं, गया, गंगा, बनारस आदि नदियों की भाँति या वकीलों के तख्तों की भांति, यजमान पर टूटते हुए पण्डे, दक्षिणा हेतु याचना करते धन्धेबाज़ पण्डे, जिन्हें यह भी नहीं ज्ञात की गोमती कहाँ से निकलती है |
---------एसा लगता है कि इस क्षेत्र के तमाम वासी अपने अपने खेती आदि के काम को छोड़कर कामचोरी नाम पण्डे के धंधे में लग गए हैं | मेरे विचार से इन सभी को यहाँ से भगाकर खेती के काम में लगा देना चाहिए |
\
ललिता देवी मंदिर में प्रसाद रूप भीख माँगते हुए, झगड़ते हुए बच्चे | सारे क्षेत्र में तमाम मंदिर व अन्य बिल्डिंगें, होटल अदि खुल गए हैं, अरण्य जाने कहाँ गायब है, अक्षयवट व्यासपीठ का प्राकृतिक सौन्दर्य समाप्त करते हुए वहां मंदिर बना लिया गया है |
\
शायद धर्मस्थल विकास के नाम पर नैमिषारण्य -अरण्य, आस्था, धर्म, इतिहास-पुराण, गौमती व चक्रतीर्थ गायब है तथा मंदिर, पैसा, चढ़ावा, प्रसाद, की दुकानें, होटल , धर्मशालाएं आदि सुविधा रूपी अनास्थाएं सज गयी हैं एवं अरण्य एक दिन कालोनी बन कर रह जायगा जो गोमती को और अधिक प्रदूषित करेंगी, अन्य तमान तीर्थ व धार्मिक स्थलों की भाँति |
LikeShow more reactions
Comment

.

गुरुवार, 21 सितंबर 2017

ब्रह्मरूप-पुरुष –उठो जागो बोध प्राप्त करो--डा श्याम गुप्त

                                 ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...



----ब्रह्मरूप-पुरुष –उठो जागो बोध प्राप्त करो ---
------माँ शक्ति रूपा के आगमन के प्रथम दिवस पर----
-----आदिशक्ति...नारी सृष्टि का आधार है, परन्तु ‘एकोहं बहुस्यामि’ के सृष्टि-विचार का आधार तो ब्रह्म...पुरुष ही है |
                         मनुस्मृति---पुरुष ही लिखता है, किसी भी नारी ने कोई महान कालजयी ग्रन्थ की रचना की है?..नहीं| इसमें पुरुष-प्रधान समाज का घिसा-पिटा गाना गाया जासकता है परन्तु उस समाज में तो नारी-पुरुष का समान अधिकार था | तभी तो लोपामुद्रा, घोषा, अपाला, यमी, भारती आदि ऋषिकाओं की उपस्थिति है |
                         जब जब भी पुरुष निर्बल, असहाय होजाता है तब-तब नारी दुर्गा रूप लेकर युद्धरत होती है ..यह अवधारणा केवल भारत में ही है, अन्य कहीं है भी तो यहीं से गयी हुईं, फ़ैली हुई संस्कृतियों में व उनकी स्मृतियों/ कथाओं में हैं|
                    परन्तु दुर्गा को बल ब्रह्मा, विष्णु, शिव व अन्य देवता, अर्थात पुरुष ही, अपनी शक्तियों के रूप में देते हैं तब दुर्गा में शक्ति का अवतरण होता है | उस प्रचंड शक्ति के काली रूपमें उद्दाम, असंयमित वेग को पुरुष (महादेव) ही रोकता है, नियमित करता है |
                        पुरुष-श्री कृष्ण के गुणों पर नारियां रीझती हैं, विष्णु को पति रूप में पाने हेतु, शिव के लिए भी तप करती हैं ..परन्तु कोइ एसा केंद्रीय नारी चरित्र नहीं है जिसके गुणों पर संसार भर के पुरुष रीझ जाएँ | हाँ शारीरिक रूप सौन्दर्य के दीवानों की गाथाएँ मिलतीं हैं अथवा महामाया माँ दुर्गा पर सौंदर्य लोलुप दुष्ट दानवों, असुरों द्वारा अनुचित प्रस्ताव रखने पर मृत्यु को वरण करने की गाथाएँ |
                    अतः निश्चय ही सृष्टि की जनक नारी है परन्तु पुरुष की नियमन व्यवस्था के अनुसार | अतः आज के परिप्रेक्ष्य में ---
-----वे पुरुष के आचरण सुधार की बातें करती रहेंगी एवं स्वयं सलमान खान व शाहरुख के पीछे भागती रहेंगीं|
-----वे हीरोइनों के वस्त्राभूषणों की नक़ल करेंगीं, स्वतंत्र रूप से रात-विरात अकेली स्वच्छंदता का भी अनुसरण करेंगीं ( जबकि हीरोइनें तो बोडीगार्ड के साथ रहती हैं)| हीरोइनों के पीछे भागने की वजाय सलमान, शाहरुख के पीछे भागेंगी | ( कुछ विद्वान नारियां हर काल की तरह अपवाद भी होती हैं ) |
------वे कहेंगीं कि समाज अपनी सोच बदले | समाज में तो स्त्री-पुरुष दोनों ही होते हैं अकेले पुरुष से कब समाज बनता है अतः दोनों को ही सोच बदलनी चाहिए |
-----वे पुरुष को साधू-संत बनने को कहेंगीं परन्तु स्वयं डायरेक्टर की इच्छा/आज्ञा पर /पैसे के लिए वस्त्र उतारती रहेंगीं |
------ वे देह –दर्शना वस्त्र पहनती रहेंगीं, उनका तर्क है की छोटी-छोटी बालिकाओं से, गाँव में पूरे वस्त्र पहने महिलाओं से भी वलात्कार होता है अतः वस्त्र कम पहनने से कुछ नहीं होता अपितु पुरुष व समाज को अपनी मानसिकता बदलनी होगी|
                    वे भूल जाती हैं कि- कम वस्त्रों, अश्लील चित्रों, सिनेमा, विज्ञापन आदि से जाग्रत उद्दाम वासना से जो भी व्यक्ति की पहुँच में होगा वही प्रभावित होगा | आप तो बाडीगार्ड, परिवार आदि की सुरक्षा में हैं, कौन हाथ डालने की हिंम्मत करेगा| चोर किसी प्रधानमन्त्री या पुलिस वाले के घर चोरी करने थोड़े ही जायेगा, जहां सुरक्षा कम है वहीं दांव लगाएगा |
------- इनसे कुछ नहीं होगा ----
                          अतः हे पुरुषो ! ब्रह्म रूप बनो, अपनी ज्ञान, विवेक व सदाचरण रूपी दैविक शक्तियां जाग्रत करो...उदाहरण बनो और अपनी जाग्रत शक्तियों को प्रदान करो नारी को ताकि वह पुनः दुर्गा का दुष्ट दलन रूप बनकर समाज में पूज्य बने |
                    और आप सच में ही---“यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता” के महामंत्र के गान के योग्य बनें |


चित्र--सिंह वाहिनी माँ की वन्दना रत त्रिदेव व ऋषि-मुनि----
------महाभारत -गूगल साभार
 

रविवार, 10 सितंबर 2017

भाषा, हिन्दी, छंद, साहित्य एवं काव्य---डा श्याम गुप्त

                     ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...

 *****भाषा, हिन्दी, छंद, साहित्य एवं काव्य ******
\\
-------भाषा ---------..
संकेतों की -.–मोनोसिलेबिक. भाषा .में अलग-अलग चिन्ह या अक्षर में पूर्ण अर्थ निहित होता है यथा – प =पानी तथा .....एग्लूटीनेटेड= जिसमें अक्षर यूंही जोड़कर अर्थ व कथ्य बनाते हैं यथा... प+न = पानी ... उन्नत भाषा जिसमें...वैज्ञानिक उन्नत शब्द युग्म होते हैं ..जो भावों के प्रदर्शन में सक्षम हैं उसे इन्फ्लेक्टेड भाषा कहा गया है|
\
यह उन्नत भाषा सेमेटिक एवं इंडो-योरपियन दो मूल भागों में वर्णित की गयी है जिसमें----
-------सेमेटिक ---द.प.एशिया ..हिब्रू, अरबी, मिश्र आदि में आधुनिक समय में ...सिर्फ अरबी बची है... एवं
-------इंडो-योरोपियन -------वस्तुतः आर्यन-संस्कृत है जो विश्व की प्राचीनतम भाषा है जो---- ( जो वस्तुतः समस्त जम्बू द्वीप, अर्थात जो प्राचीन भारत था,---- जिसमें उत्तरी ध्रुव से लेकर हिन्द महासागर पर्यंत समस्त यूरेशिया सम्मिलित था... की भाषा थी )...----
(अ).आर्यन... इंडियन -->देव भाषा --> वैदिक संस्कृत --> लौकिक संस्कृत---> भारतीय भाषाएँ ---> हिन्दी ..तथा ईरानियन --अवेस्तन संस्कृत
.(ब) ग्रीक व इटेलिक परिवार ..लेटिन –-> योरोपियन भाषाएँ ...एवं
(स) स्लाविक, लेटिक, सेल्टिक – भाषाओं में विकसित हुईं |
--------अर्थात संस्कृत विश्व की प्राचीनतम व सर्वप्रथम उन्नत भाषा है और हिन्दी उसकी आधुनिकतम शाखा है |
\\
हिन्दी ----- हिन्दी के एतिहासिक एवं वर्त्तमान परिदृश्य-को चार भागों में बांटा जा सकता है –१.पूर्व गांधी काल.... २. गांधी युग...३. नेहरू युग..... ४. वर्त्तमान परिदृश्य ....
\
गोस्वामी तुलसी दास जी ने सर्वप्रथम 'रामचरित मानस' संस्कृत की अपेक्षा हिन्दी में रचकर हिन्दी को भारतीय जन-मानस की भाषा बनाया हिन्दी तो उसी समय राष्ट्र भाषा होगई थी जब घर-घर में राम चरित मानस पढी और रखी जाने लगी ‘भारतेंदु युग’ , ‘द्विवेदी युग’ में हिन्दी के प्रचार-प्रसार से देश भर में हिन्दी का प्रभाव लगातार बढ़ता रहा यहाँ तक कि एक समय मध्यप्रांत में एवं बिहार में हिन्दी निचले दफ्तरों व अदालतों की सरकारी भाषा बन चुकी थी| मैकाले की नीति से रंग व रक्त में हिन्दुस्तानी किन्तु रूचि, चरित्र, बुद्धि व चिंतन से अंग्रेजों की फौज खडी करने के लिए अंग्रेज़ी का प्रचार-प्रसार व हिन्दी की उपेक्षा से हिन्दी विरोधी पीढियां उत्पन्न हुईं ....हिन्दी के पिछड़ने की परिस्थितियाँ उत्पन्न हुई |
\
गांधी जी के आविर्भाव के युग में हिन्दी को लगभग सारे राष्ट्र ने खुले दिल से स्वीकार किया | बाद में वे स्वयं हिन्दी की बजाय हिन्दुस्तानी के पक्षधर होगये और हिन्दी के प्रचार-प्रसार को धक्का लगा | कांग्रेस पर विदेशों में पढ़े लिखे व अंग्रेज़ी पढ़े लोगों के वर्चस्व से नेहरू जी के आविर्भाव के युग में हिन्दी विरोध के स्वर मुखर होने लगे|
\
आज़ादी के बाद महत्वपूर्ण पदों पर अंग्रेज़ी में पारंगत व पाश्चात्य जीवन शैली वाले व्यक्तियों के पहुँचने से जनता में यह सन्देश गया कि अंग्रेज़ी के बिना देश का काम नहीं चलेगा| यद्यपि दक्षिण भारत सहित पूरे देश में हिन्दी का कहीं विरोध नहीं था |
---------आज हिन्दी भाषा का परिदृश्य यह है कि यद्यपि देश में सिर्फ २-३ % लोग अंग्रेज़ी जानने वाले हैं तथा साक्षरता विकास के साथ-साथ हिन्दी के समाचार पत्रों आदि का वितरण अंग्रेज़ी समाचारपत्रों की अपेक्षा काफी बढ़ रहा है, उत्तर से दक्षिण,पूर्व से पश्चिम समस्त देश में हिन्दी बोली, पढ़ी व समझी जाने लगी है ; परन्तु नव-साक्षरों का सांस्कृतिक स्तर सामान्य ही है, उनमें उच्च सांस्कृतिक कृतियाँ पढ़ने-समझने की क्षमता नहीं है|
----- इसका कारण है कि हिन्दी के राजभाषा होते हुए भी, समाज के सबसे ऊपरी श्रेष्ठ व्यक्तित्व एवं निर्णय करने वाले उच्च अधिकारी की भाषा आज भी अंग्रेज़ी है, उनके प्रेरणा श्रोत व आदर्श पश्चिमी विचार व साहित्य है|
----------आज अंग्रेज़ी सिर्फ हिन्दी ही नहीं अपितु क्षेत्रीय भाषाओं को भी प्रभावित कर रही है| माताओं के अंग्रेज़ी भाषी होने से बच्चों की घरेलू भाषा अंग्रेज़ी होती जारही है|
----------भोजपुरी, अवधी, आदि हिन्दी की विविध क्षेत्रीय बोलियों को पृथक भाषा के रूप में प्रस्तुत करने से हिन्दी के प्रसार में बाधा हिन्दी का एक और दुर्भाग्य है |
\\
छंद .. छंदोबद्ध-कविता, अतुकांत-छंद व अगीत छंद....----- -
------- बचपन में हम जो पिता, माता, गुरु कहते हैं वही करते हैं, वही कर पाते हैं नियम और अनुशासन का पालन करते हैं, और वही करना ही चाहिए |
------ बड़े होने पर वे ही बच्चे माँ, पिता, गुरु से भी आगे निकल जाते हैं, पुरा से आगे नए-नए क्षितिज निर्माण करते हैं | स्वयं गुरु भी बनते हैं | उसके लिए बचपन में अनुशासन का पालन करना एवं पुरा अनुभव व ज्ञान को मान्यता देना आवश्यक होता है |
------- सीढी के पिछले पायदान पर खड़े होकर अगले पायदान पर चढना ही प्रगति है |
-------मूल प्राकृतिक व मानवता के शाश्वत नियम जिन्हें कभी भी, कोई भी नहीं बदल सकता एवं उनके क्रियान्वन नियम दोनों में अंतर होता है और वे क्रियान्वन नियम समयानुसार बदले जा सकते हैं, बदलने ही चाहिए आवश्यकता एवं युगानुसार ... यही प्रगति है |
\
यही बात काव्य व साहित्य के परिप्रेक्ष्य में भी सत्य है, काव्यानुशासन व छन्दानुशासन के लिए भी है |
-------आखिर काव्य है क्या..... गद्य क्या है….कविता क्या है ? मानव ने जब सर्व प्रथम बोलना प्रारम्भ किया होगा तो वह गद्य-कथन ही था, तदुपरांत गद्य में गाथा |
-------अपने कथन को विशिष्ट, स्व व पर आनन्ददायी, अपनी व्यक्तिगत प्रभावी वक्तृता व शैली बनाने एवं स्मरण हेतु उसे सुर, लय, प्रवाह, व गति देने के प्रयास में पद्य का, गीत का जन्म हुआ |
-------चमत्कार पूर्ण व और अधिक विशिष्ट बनाने हेतु विविध छंदों की उत्पत्ति हुई और तत्पश्चात छन्दानुशासन की |
\
विश्व में सबसे प्राचीनतम साहित्य..... वैदिक साहित्य --में गद्य व पद्य दोनों ही अनुशासन उपस्थित हैं दोनों ही अतुकांत छंद, तुकांत छंद, विविध छंद युक्त एवं लय, गति, गेयता व ताल-वृत्तता से परिपूर्ण हैं |
-------कालांतर में समय-समय पर उत्तरोत्तर जाने कितने नए-नए छंद आदि बने, बनते गए व बनते रहेंगे |
------अर्थात अनुशासन व नियम कोई जड तत्व या संस्था नहीं अपितु निरंतर उत्तरोत्तर प्रगतिशील भाव है | व्यष्टि व समष्टि नियम के लिए नहीं अपितु नियम व अनुशासन व्यष्टि व समष्टि के लिए होते हैं एवं उनके अनुरूप होते हैं |
-------काव्य-विधा या कविता का मूल भाव-तत्व सुर, लय व गेयता है | अन्य सब उप-नियम व विधान आदि परिवर्तनशील हैं|
-------अतः यदि कोई कविता या पद्यांश सुर, लय व गेयता युक्त है, आनंदमय है - तो वह काव्य है और वह किसी भी विशिष्ट छंदीय मूल उपविभागों में अवस्थित है तो उस विशिष्ट विधा व छंदों के उपनियमों आदि की अत्यधिक चिंता नहीं करनी चाहिये ...अन्यथा यह जडता स्वयं उस छंद आदि, विधा, भाषा व साहित्य के लिए प्रगति में बाधक होती है |
\\
---------खांचों में बंटा साहित्य -----
-------आजकल साहित्य के क्षेत्र में विशेष…..कारों के विभिन्न खांचे बन गए हैं जिनमें फिट न बैठने वाले कवि, लेखक, साहित्यकार को कोई पूछता ही नहीं | अब व्यंगकार हैं, हास्य-कवि हैं, हास्य-व्यंगकार हैं, स्त्री-विमर्श लेखक हैं...लेखक हैं ..लेखिकाएं हैं, कवि-कवियत्री हैं...गद्यकार है पद्य रचनाकार हैं .....दलित-लेखक-कवि-साहित्यकार हैं ...ओज के, श्रृंगार के,...छंदकार, सनातन-छंदकार, दोहाकार, गीतकार, नव-गीतकार, भजन गायक, कहानीकार, उपन्यासकार , बाल साहित्यकार , निबंधकार , समीक्षाकार हैं.... --------नयी विधा के कवि...अगीतकार भी हैं जो यद्यपि एक अलग किस्म की ही विधा है अतः स्थापित कवि व साहित्यकार ही अगीत लिख पारहे हैं|
--------अब तो प्रिंटर, प्रकाशक, सम्पादक, संवाददाता, संवादवाहक, समाचारपत्र विक्रेता, कालम लेखक आदि सभी साहित्य-लेखक होगये हैं |
--------इन खांचों के बीच में जो एक साहित्यकार नाम का सम्पूर्ण सामाजिक जीव हुआ करता था जो साहित्य की हर दिशा, हर विधा पर दखल रखता था कहीं दिखाई ही नहीं पड़ता |
\
पुरा युग से स्वतन्त्रता पूर्व के युग तक विद्वान् गद्य व पद्य सभी विधाओं में कहा-लिखा-रचा करते थे वे पूर्ण साहित्यकार थे |
-----हिन्दी में भी सभी विद्वान् साहित्यकार गद्य, पद्य, कहानी, कथा, उपन्यास सब कुछ लिखा करते थे |
------उर्दू साहित्य के अवतरण के साथ सभी साहित्यकार ग़ज़ल, गीत, गद्य-पद्य सभी कुछ लिखने लगे|
------आज़ादी के प्रारम्भिक समय में भी साहित्यकार सर्व-विधायी थे | वे सम्पूर्ण साहित्यकार थे | परन्तु आज़ादी के फल मिलते ही सभी क्षेत्रों की भांति साहित्य में भी तेजी से प्रगति हुई और साहित्य जाने कितने नए-नए खांचों में बंटने लगा |
\
मुझे याद है कि हिन्दी के प्रश्नपत्रों में ---तुलसी की सामाजिक दृष्टि, तुलसी का बात्सल्य वर्णन, तुलसी का श्रृंगार, तुलसी की दलित चेतना, तुलसी की नारी, तुलसी के छंद-शास्त्रीय समीक्षा, भारतेंदु के नाटकों की समीक्षा, भारतेंदु की कविता का सौंदर्य.... प्रसाद की कविता में नारी, प्रसाद की औपन्यासिक दृष्टि...आदि आदि प्रश्न पूछे जाते थे.....|
-------अब कहाँ एसे सम्पूर्ण साहित्यकार ? अब तो दलित चेतना के कवि...स्त्री-विमर्श के लेखक, आज की नारी लेखिकाएं, प्रगतिशील साहित्य के लेखक, प्रगतिवादी कवि...गीतकार,...छंदकार, दोहाकार ...व्यंगकार, हास्य-कवि आदि विशेष-ज्ञाता, विशेषज्ञता (या.विशेष+अज्ञता) के विभिन्न खांचों में बंटे “कारों” की बात होती है |
\\
-------काव्य क्या है---- .....
सभी के अनुभव व विचार लगभग समान ही होते है | ज्ञान भी समान हो सकता है परन्तु विचारों की गंभीरता, सूक्ष्मता, निरीक्षण की गहनता, चिंतन व अभिव्यंजना सभी की पृथक पृथक होती है | इसीलिये मानव समूह में साहित्यकार, विद्वान्, विचारक, चिन्तक, ज्ञानी, सामान्य आदि वर्ग होते हैं| यथा ...

सर्व ज्ञान संपन्न विविधि नर,
सभी एक से कब होते हैं |
अनुभव श्रृद्धा तप व भावना,
होते सबके भिन्न भिन्न हैं |
भरे जलाशय ऊपर समतल,
होते ऊंचे -नीचे तल में ||
--- शूर्पणखा काव्य-उपन्यास से
\
--------- सामान्य व्यक्ति की भाषा विवरणात्मक होती है तो कवि की भाषा में विशिष्टता व भावों व शब्दों की संश्लिष्टता होती है सामान्य भाषा में जो तथ्य मान्य नहीं हो सकते वे काव्य की भाषा में भावालंकार रूप में सौन्दर्ययुक्त व मान्य माने जाते हैं | कविवर रविंद्रनाथ टेगोर का कथन है कि...
‘हृदयवेग में जिसकी सीमा नहीं मिलती उसको व्यक्त करने के लिए सीमाबद्‌ध भाषा का घेरा तोड देना पडता है, यह घेरा तोड देना ही कवित्व है।‘
\
सामान्य भाषा में निश्चित अर्थात्मक तथ्य होते हैं, यथा.... मनुष्य चलता है, पेड़ों की डालियाँ हवा में हिलती हैं, चिडिया उड़ती है, घोड़ा दौडता है आदि.....
-------वहीं कविता में पेड डालियाँ रूपी गर्दन हिलाते हैं, घोड़ा हवा से बातें करता है | अर्थात काव्य में जड़ तत्वों की भाव ग्राहयता के साथ सौन्दर्य भी है। ---------सामान्य भाषा को विशिष्ट भाव-शब्द देने के कारण उत्पन्न होने वाली सौन्दर्यमय, भाव-सम्प्रेषणात्मकता युक्त सर्जनात्मक भाषा कविता व साहित्य की भाषा है।
--------- कविता में भाषा की सर्जनात्मकता, भाषा व कथ्य के निश्चित अर्थ के विपरीत शब्द-भावों का लाक्षणिक प्रयोग करके भिन्न सौन्दर्यमय अर्थवत्तात्मकता उत्पन्न की जाती है। यही काव्य है।

 

बुधवार, 6 सितंबर 2017

शिक्षक दिवस पर विशेष – गुरु और भारत ---- डा श्याम गुप्त

                         ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...



डा रंगनाथ मिश्र सत्य



                   शिक्षक दिवस पर विशेष – गुरु और भारत ----

      भारतवर्ष में गुरु की सदैव ही विशिष्ट महत्ता रही है | गुरु अर्थात जो कोइ विशिष्ट दिशा दे समाज, राष्ट्र को, विश्व को, मानवता को, विशिष्ट दिशा का प्रवर्तक हो |
     विश्व व मानवता के आदिगुरु भगवान शिव हैं जिन्होंने वेदों की रचना एवं समन्वय किया और मानवता को सौंपा| अक्षर, शब्द, बोली व भाषा, गीत-संगीत, साहित्य सहित प्रत्येक ज्ञान व विद्या के प्रवर्तक - शिव ही आदिगुरु हैं
     तत्पश्चात देवगुरु ब्रहस्पतिदैत्यगुरु उशना काव्य या शुक्राचार्य हैं मानव समाज की दो विशिष्ट दिशाओं के प्रवर्तक | त्रिदेवों के स्वरुप महागुरु दत्तात्रेय हैं| वशिष्टविश्वामित्र एकतंत्र व लोकतंत्र के आदि प्रवर्तक बने | इसके साथ ही अपने अपने राज्यकुलों के गुरुओं के भी नाम हैं, गुरु परशुराम, द्रौणाचार्य आदि |
      गीता के प्रवर्तक विश्वगुरु भगवान श्रीकृष्ण की महिमा को कौन नहीं जानता मानता |
     आधुनिक युग में गुरु आदि शंकराचार्य ने पुनः भारत में वैदिक धर्म की पताका फहराई | परन्तु इसके पश्चात भारत का अज्ञान अन्धकार काल रहा जिसमें आचार्य, काव्याचार्य, भगवदाचार्य हुए, स्थानीय गुरु हुए परन्तु राष्ट्र समाज साहित्य की कोई स्पष्ट दिशा निर्धारक, प्रवर्तक नहीं हुए, क्योंकि परतंत्रता की बेड़ियों में जकड़ा हुआ यह देश-समाज स्वयं दिशा विहीन व किंकर्तव्यविमूढ़ था | 
          गुरु गोरखनाथ के काल से नवचेतना का युग प्रारम्भ हुआ | सदैव की भांति साहित्य द्वारा समाज में जन मानस की चेतना को परतंत्रता की बेड़ियों से स्वातंत्र्य हेतु एक लहर उठी जो जिसने राजनीति सहित प्रत्येक क्षेत्र में उद्बोधन किया | साहित्य के क्षेत्र ने में अधिकाँश कवि साहित्यकार आदि साहित्य-काव्य की बनी बनाई लीक पर ही चलते रहे अतः साहित्य में युगप्रवर्तक की भूमिका किसी की नहीं रही |
     गुरुदेव सूर्यकांत त्रिपाठी निराला  इस क्षेत्र में अपने नवीन साहित्य अतुकांत कविता को लेकर आये और काव्य की दिशा में एक नवीन युग का प्रवर्तन हुआ | आज साठोत्तरी कविता-साहित्य में नवीन कविता विधा अगीत कविता के प्रवर्तक, अगीतायन संस्था के संस्थापक अध्यक्ष, युवा कवियों के गुरूजी साहित्याचार्य श्री डा रंगनाथ मिश्र सत्य साहित्यभूषण, जो गुरुदेव, गुरूजी, अगीत गुरु, कवि कुल गुरु, युवा कवियों के गुरु व गुरुओं के गुरु के रूप में प्रतिष्ठित हैं | जाने कितनी साहित्यिक संस्थाएं उनके संरक्षण में एवं उनकी संस्था के तत्वावधान में साहित्य के क्षेत्र में कार्यरत हैं |
              सभी गुरुओं को श्रद्धा नमन .....|



 

सोमवार, 4 सितंबर 2017

अखिल भारतीय अगीत परिषद् की गोष्ठी संपन्न ---डा श्याम गुप्त

                         ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ... 

                                  अखिल भारतीय अगीत परिषद् की माह के प्रत्येक प्रथम रविवार को होने वाली गोष्ठी दिनांक ०३-८-१७ रविवार को अगीत के संस्थापक डा रंगनाथ मिश्र सत्य के आवास अगीतायन , राजाजी पुरम पर संपन्न हुई |
                             साहित्याचार्य श्री, साहित्यभूषण डा रंगनाथ मिश्र सत्य की अध्यक्षता में हुई गोष्ठी के मुख्य अतिथि साहित्याचार्य डा श्याम गुप्त एवं विशिष्ट अतिथि प्राची संस्था के अध्यक्ष डा सुरेश प्रकाश शुक्ल थे |
प्रशस्ति वाचन डा कृष्ण नारायण पांडे ने तथा वाणी वंदना श्री अधीर पिन्डवी, कविवर कपूर निर्दोष एवं अनिल किशोर शुक्ल निडर ने की |
                          श्री अनिल किशोर निडर, प्रदीप गुप्ता, प्रेम चंद शास्त्री, मुरली मनोहर कपूर, राम प्रकाश शुक्ल, अधीर पिण्डवी,डा कृष्ण नारायण पांडे, सक्री असीम जी , डा सुरेश शुक्ला डा श्याम गुप्त व डा रंगनाथ मिश्र सत्य ने कविता पाठ किया |
                             अंतिम सत्र में गोष्ठी के केन्द्रीय कवि डा श्याम गुप्त की काव्य रचना के बारे में सभी उपस्थित विज्ञ कवियों ने संक्षिप्त समीक्षा प्रस्तुत की |

LikeShow more reactions
Comment