---अभी मेरी नज़र एक ब्लोग पर ,एक कहानी पर पडी , आप भी सुनिये---
संजना - अम्मा जी अपना नाम बताइये !
पोती - आंटी ज़रा जोर से बोलिए दादी ऊँचा सुनती हैं !
संजना - अम्मा जी आपका नाम क्या है ?
पोती - दादी आंटी आपका नाम पूछ रही हैं !
दादी - नाम ? मेरो नाम का है ? मोए तो खुद ना पतो !
संजना – तुम ही बता दो उन्हें याद नहीं आ रहा है तो !
पोती – आंटी दादी का नाम तो मुझे भी नहीं पता ! हम तो बस दादी ही बुलाते हैं ! ""
------मैने अपने ६० वर्ष में गावं से लेकर महानगर तक आज तक कोई एसी ब्रद्ध , युवा, प्रौढ महिला नहीं देखी जो अपना नाम नही जानती हो, अपितु इस स्थिति में वे खुशी-खुशी अपना नाम बताती है कि चलो किसी ने तो हमारा नाम पूछा । जो भी ८० वर्ष का व्यक्ति होता है वह अपना नाम भी ’ याददास्त कमजोरी "; जो विभिन्न कारणों से होती है; के कारण भूल सकता है, या बेटे-बेटियों के मां- बाप होने पर कोई भी छोटा-बडा उनका नाम नहीं लेता। यह सिर्फ़ एक कहानी है पर क्यों ?
-----अन्य बात यह है कि आज की युवती ( आन्टी कहने वाली पोती-चाहे ग्रामीण ही सही इतनी अपढ/मूर्ख नहीं होती ) भी इतनी असंवेदन शील ,अन कन्सेर्न्ड व अग्यानी है कि कभी अपनी दादी का नाम ग्यात करने की आवश्यकता नहीं हुई।
----और " व्हाट इज़ इन द नेम"--- पति द्वारा नाम पुकारा जाकर आज कल की स्त्रियां क्या हासिल करती हैं, नाम महत्वपूर्ण है या प्रेम , ज़िन्दगी , स्त्रियों का नाम पुरुषों ( घर की बडी स्त्रियों द्वारा भी ) न लेने का भाव यह है कि हर कोई एरा-गेरा उनका नाम जानकर अनुचित क्रिया-कलाप न कर पाये ।बेटियों का नाम भी वास्तविक नाम कौन लेता था, छोटा या प्यार का नाम पुकारा जाता था। आज भी काफ़ी युवक- प्रेमिका व पत्नी का नाम की बजाय -डार्लिन्ग आदि कहना पसन्द करते हैं।
---साहित्य में आजकल यह कमी काफ़ी खल रही है कि हम सिर्फ़ कुछ कहने के लिये , कुछ सत्यों व वास्तविक तथ्यों को अनदेखा कर रहे हैं।