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डा श्याम गुप्त का ब्लोग...

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Lucknow, UP, India
एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं... काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद .. my blogs-- 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति... 2.drsbg.wordpres.com, 3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त

मंगलवार, 31 जुलाई 2012

राखी व रक्षाबंधन पर्व के निहितार्थ ... डा श्याम गुप्त..

                              ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...

                'बहना ने भाई की कलाई पर प्यार बांधा है '... रक्षाबंधन भाई-बहन के शाश्वत प्रेम का प्रतीक है | क्या यह  सिर्फ अपने भाई, अपनी बहन के प्रेम का प्रतीक  है ?  क्या भाई द्वारा अपनी बहन की रक्षा हेतु राखी का बंधन अनिवार्य है, क्या राखी बांधे बिना भाई बहन की समय पर सहायता करना भूल जायगा ?  कैसे हो सकता है ?  राखे बंधे या न बंधे भाई तो अपनी बहन की रक्षा करेगा ही | फिर रक्षाबंधन का क्या महत्त्व ?
                  क्या भाई को केवल बहन की ही रक्षा करना चाहिए ...पुत्र को माँ की या पिता की नहीं, या पिता को पुत्री की, पति को पत्नी की नहीं |    वास्तव में यह सिर्फ भाई द्वारा बहन की रक्षा का ही नहीं अपितु प्रत्येक पुरुष द्वारा प्रत्येक स्त्री की ...प्रत्येक बहन..बहनों की रक्षा हेतु स्वयं बंधन- संकल्प  का पर्व है |  परिवार, पडौस, समाज की, नगर की, ग्राम की, विश्व की प्रत्येक महिला, स्त्री, बच्ची को बहन की  निगाहों से देखने के संकल्प का पर्व है | प्रत्येक पुरुष को सभी स्त्रियों को माँ-बहन की भांति देखना  चाहिए | यद्यपि छोटी बच्ची को माँ न कहा जासके ( यद्यपि पुरा काल में सभी स्त्रियों को माँ कहकर ही पुकारा जाता था चाहे छोटी हो या बड़ी --आज भी भारत के दक्षिण के राज्यों में हर उम्र की स्त्री को माँ  या अम्मा कह कर पुकारा जाता है...चाहे अपनी स्वयं की माँ को आई कहा जाता हो ..)  परन्तु बहन के लिए कोइ उम्र सीमा नहीं होती ...एक वर्ष की बच्ची भी बहन हो सकती है ७० वर्ष की वृद्धा भी | इसीलिये आज का दिन यह संकल्प का है कि प्रत्येक पुरुष प्रत्येक स्त्री को बहन के समान समझे एवं उसी प्रकार व्यवहार करे ..उसके मान-सम्मान की रक्षा हेतु न सिर्फ  स्वयं तत्पर रहे अपितु अन्य भी करें  एवं उसका सामाजिक, मानसिक व शारीरिक उत्प्रीणन  न हो यह सुनिश्चित करे | इसीलिये रक्षाबंधन को भाई-बहन का त्यौहार कहा जाता है |
                         यदि हम आज के दिन इस पर्व का वास्तविक निहितार्थ समझें, यथा भाव संकल्प करें तो निश्चय ही हम  न किसी बच्ची, युवती,  महिला का उत्प्रीणन  करेंगे न होने देंगे तभी  समाज में उच्च मानव आचरण , व्यावहारिक आदर्शों  व संस्कारों की स्थापना होगी और हमारे समाज से स्त्रियों पर आये दिन होने वाले अनाचार,अत्याचार, उत्प्रीणन , हिंसा, बलात्कार , यौन उत्प्रीरणन ... आदि का कलंक मिट सकता है | यही एक मात्र उपाय है तभी हम इस पर्व को  मनाने के सच्चे अधिकारी होंगे |

बुधवार, 25 जुलाई 2012

आखिर क्यों ???....डा श्याम गुप्त...

                         ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...

आखिर  क्यों......................

 ----  पढने जा रहे हैं, पढकर बिजनेस सीखना है .... या अर्ध-जीन को भी ऊपर मोड कर स्पोर्ट शू ,बनियान टाइप  शोर्ट-टॉप-चप्पल पहन कर सुबह की सैर का,  घूमने का प्रोग्राम है...--  आखिर क्यों...?
---- डांस के लिए , पैरों-हाथों के मूवमेंट हेतु  टाईट -जीन उपयुक्त है या ढीले-ढाले कपडे ....... आखिर क्यों ..?
आखिर  क्यों ...कालेज में हैं या किसी पार्टी में ...पढने कालिज जारहे हैं या फैशन शो में....या लड़कों को प्रभावित करने...

सोमवार, 23 जुलाई 2012

नागपंचमी के निहितार्थ..... डा श्याम गुप्त

                                  ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
                        सावन का महीना शिव का महीना ..मंगल-उल्लास का माह ...जीवन्तता का माह है | शिव के साथ सर्प..नागों का सदैव विशेष सम्बन्ध रहा है जो  सामाजिक विष के नियमन का प्रतीक हैं |  इसीलिये शिव  पशुपति भी हैं,  कल्याण के प्रतीक भी |  इसीलिये नागपंचमी सावन के महीने में ही मनाई जाती  है |
                       नाग,  शेर, मोर, कौवा , गिद्ध , बाराह, कच्छप, बकरा, कुत्ता , घोड़ा, गाय ...तुलसी, पीपल, नीम ..बृक्ष..आदि सभी जीवों -प्राणियों, जीवों की पूजा करने वाली भारतीय संस्कृति ..बिचित्र व विशिष्ट  है | सब को अपने समान समझने के भाव वाली संस्कृति प्रत्येक जीव मात्र में देवता का बास मानती है | यह भाई चारा, विश्व-बन्धुत्व ..अहिंसा की  संस्कृति है ...विश्व में अनोखी |
                वह इसलिए कि भारतीय पुरा-ज्ञान के मूल  ..वैदिक साहित्य के अनुसार समस्त प्राणी-जगत कश्यप मुनि  की संतानें हैं |  सभी भाई- भाई हैं | जिसे विज्ञान के अनुसार कहा जाय तो--जल में मछली के उपरांत ..स्थल  पर आने वाले प्रथम जीव ---कच्छप से ही समस्त  जीव-जगत का.. मानव तक  उद्भव हुआ है |
               एसी अनोखी विशिष्ट संस्कृत के इस देश में आज ये हिंसा, द्वंद्व, द्वेष, अनाचार की स्थिति क्यों ? शायद इसलिए कि हम अपनी इस विश्व-वारा संस्कृति को भूल गए हैं ...उसकी जड़ों को भूल गए हैं ... पाश्चात्य जगत के संस्कृति व ज्ञान रूपी.. अति-भौतिक ज्ञान....अज्ञान ...को प्रश्रय देने के कारण |
                 अतः आज के दिन हम इस पर सोचें व समझें ...यही सच्ची नाग-पूजा...शिव-पूजा होगी | 

रविवार, 22 जुलाई 2012

सुपर-स्टार का पतन....डा श्याम गुप्त


                                               कर्म की बाती,ज्ञान का घृत    हो,प्रीति के दीप जलाओ...




                       किसने  मारा राजेश खन्ना को ? शायद स्वयं ने ....| वास्तव में व्यावसायिक सफलता व अच्छा इंसान होने में बहुत अंतर होता है | चाहे एक सामान्य दैनिक वेतन कर्मी हो या सुपर स्टार या राज्याध्यक्ष .....उसे पहले  एक अच्छा व्यक्ति, सहृदय..सुहृदय , मानवीय व्यवहार , संवेदना व आचरण से संपन्न होना चाहिए |  महत्वाकांक्षाएं व  सफलताएं ऋद्धियाँ-सिद्धियाँ है जो सर चढ़कर बोलती हैं | यहीं व्यक्ति को पुरुषार्थ चतुष्टय --धर्म, अर्थ, काम , मोक्ष को प्रतिपल ध्यान रखना चाहिए  व प्रत्येक क्षण व कर्म में उसके धर्म रूप का सामंजस्य  होना चाहिए |
                        राजेश खन्ना जैसे सुपर स्टार का अंतिम समय  इतना ह्रदय-विदारक क्यों ?  निश्चय ही वे एक सफल अभिनेता के साथ एक अच्छा, व्यवहार कुशल इंसान नहीं बन पाए | वे अपने स्टारडम के अहं में अपने समाज--इंडस्ट्री के लोगों से भी जुड़ाव नहीं रख पाए  न सामान्य समाज से तो कोइ उन्हें क्यों पूछे ? दूसरे अर्थ में वे व्यवहार कुशल भी  नहीं थे --अहं वश किसी एक वर्ग, गुट या खेमे से भी जुडकर भी  नहीं रहे , न किसी सामाजिक कार्य व कर्तव्य से |  न वास्तविक जीवन में सामान्य जन से |अर्थात उन्होंने फिल्म व अपने स्टारडम से पृथक कोइ भूमि तैयार नहीं की |  वे अपनी विलासमय पार्टियों, महिला-मित्रों , शराव व सिगरेट में मस्त रहे | अच्छे व अमीर परिवार से होने के वावजूद शायद उन्होंने अपने परिवार, घर, समाज, क्षेत्र से भी नाता नहीं रखा और सिर्फ कुछ करोड के लिए उनका सपनों का आशियाना सील कर दिया गया |  उनके बचपन के मित्र जितेन्द्र के साथ भी उनकी कोई फिल्म नहीं आयी |
                         हमें सिर्फ लेने की अपेक्षा देना भी आना चाहिए | जो देना नहीं जानते उन्हें उनके महिमा-मंडल ( जो प्रायः आभासी होता है )  के उतरने पर कोई  नहीं पूछता | इसीलिये वे स्वयं किसी एक के न होपाये कोइ उनका न होपाया  तथा अंतिम समय में उनके साथ न पत्नी थी न बच्चे न नाते-रिश्तेदार | शिक्षा व ज्ञान की कमी भी इन सबके आड़े आती है |  मैयत पर तो सभी आ ही जाते हैं | जैसा कि उनके अंतिम डाइरेक्टर  बार-बार टीवी पर कह रहे थे कि ...कहाँ थे वे सब जो अब आरहे हैं...तब  क्यों नहीं आये जब उनको जरूरत थी | तब आये होते तो वह नहीं मरते | ......... मुद्दतों बाद मुझे मेरे मित्र  डा जगदीश छाबडा  का  सुनाया  हुआ पंजाबी गीत का टुकड़ा याद आता है...
           " जदों  मेरी अर्थी उठाके चलणगे |
             मेरे यार सब हुमहुमा के चलणगे|
            चलणगे मेरे साथ दुश्मन भी मेरे,
            ए बखरी ए गल मुस्कुराते चलणगे ||"

शुक्रवार, 20 जुलाई 2012

ज्ञानामृत ...डा श्याम गुप्त ...

                                 ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...

   


जो ग्रंथों का वाचन करते ,
वे  अज्ञानी  से   मानी  हैं |
और ग्रन्थ पाठक से मानी,
नित्य अध्ययन करने वाला |


अध्यायी  से अधिक श्रेष्ठ है,
जो है ज्ञान-तत्वका ज्ञाता |
और ज्ञान को कृति में लाकर,
श्रेष्ठ  कर्म को करने वाला |




आत्म-ज्ञान ही सर्वश्रेष्ठ है,
सब विद्याधन देने वाला|
जो निज को पहचान गया है,
वह पाए अमृत मतवाला |


जो सब में निज को ही जाने,
सबमें अपने को पहचाने |
आत्मलीन वह निर्विकार है,
उसको मिले मुक्ति का प्याला |


भेदाभेद फलाफल से जो.
मुक्त उसे अमृत मिलता है |
कैसे प्राप्त उसे कर सकता,
असत कर्म का करने वाला ||



मंगलवार, 17 जुलाई 2012

छिद्रान्वेषण .... अकर्म व अनाधिकार अधिक ऊंचा उड़ने की ख्वाहिश के परिणाम....डा श्याम गुप्त



                                       ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...

१------------व्यर्थ  के कार्यों  व उनसे सेलिब्रिटी बनने के अकर्म का यह हश्र होता है ...संसार का क्या है हंस-सुन कर अपने काम से..... परन्तु अपने कर्मों का भोग तो व्यक्ति को स्वयं भोगना पडता है ..मरने के बाद भी जग-हँसाई व अपमान द्वारा.....


२- अपनी क्षमता से अधिक ऊंचा उड़ने की ख्व्वाहिश  व दूसरों के सहारे उठने व उड़ने की आकांक्षा ..व्यर्थ के कार्य ...अकर्म ...होती है |  इसका अधिकाँश परिणाम यही होता है-----

डा.श्याम गुप्त की.. संतुलित कहानी- अतिसुखासुर ...

                                  ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...


                    




                          पृथ्वी गाय का रूप धर कर ब्रह्मलोक पहुँची। उसी समय सभी देव-गण भी त्राहिमाम -त्राहिमाम कहते हुए ब्रह्म लोक पहुंचे। भगवान ! यह अतिसुखासुर व उसके मित्रगण, मंत्रीगण.. आतंकासुर, प्लास्टिकासुर, भ्रष्टासुर, कूड़ासुर..मंडली ने तीनों लोकों में त्राहि-त्राहि मचा रखी है , सभी एक साथ ' पितामह बचाइये' की गुहार करने लगे।
                           पृथ्वी बोली , भगवन! ये कूडासुर-प्लास्टिकासुर के आतंक से कब मुक्ति मिलेगी? प्रभो! बहुत समय से मैं अपने सारे शरीर में, गर्भ में, उदर में घाव सहकर भी पृथ्वी के मानवों-जीवों के हितार्थ सब कुछ धारण -धरण करती रही हूँ, सहन करती रही हूँ। अब तो मेरा सारा बदन भी जीर्ण-शीर्ण कर दिया है इन मानवों ने ही, इन असुरों के साथ मिलकर। अट्टालिकाओं के बोझ, खनन-यंत्रों आदि से मेरा शरीर, अंग-भंग करके रख दिया है। मेरे ह्रदय रूपी रक्त-भण्डार -सभी भूगर्भीय जलाशय सूखते जा रहे हैं। नदियों-नहरों रूपी रक्त-वाहिनियों में, नस-नस में कूडासुर व्याप्त है। अब तक तो फल-फूल, पत्ती-घास आदि के प्राकृतिक अंशों के उच्छिष्ट को तो मैं अपने उदर में पुनः समाहित कर लेती थी। वायुदेव, वरुणदेव सूर्यदेव, इंद्र, अग्नि आदि की सहायता-कृपा से उनका वातावरण में पुनर्समाहित कर लेती थी। परन्तु इस नवीन अप्राकृतिक असुर-तत्व कूडासुर के अंशों को तो मैं भी नाश नहीं कर पाती। सूर्य, अग्नि, वायु, वरुण आदि भी विवश हैं। न जाने कौन से दानवी-वाजीकरण विद्या से इस प्लास्टिकासुर का अवतार हुआ है कि यह मेरे, जल, अग्नि, वर्षा, धूप, वायु, गर्मी किसी के वश में नहीं आरहा है ! भोग, एश्वर्य ,सुख के लालच की राह दिखाकर इस अति-सुखासुर के मंत्री लोभासुर ने मानव को इतने वश में कर लिया है कि मानव स्वयं ही दानव बनने की कगार पर है।"
                           मातरिश्वा पवनदेव बड़े दीन स्वर में कहने लगे, 'देव, इस अतिसुखासुर नामक दैत्य के वशीकरण में मानव ने भी दानव का रूप धारण कर लिया है , और हमें विविध भांति से बंदी बनाया गया है। एयर-कंडीशन नामक तंत्र-शक्ति से हमारा स्वतंत्र विचरण तो आबद्ध हुआ ही है अब तो स्वयं मानव भी मुक्त गगन में विचरण योग्य नहीं रह गया है। कमरे के अंदर कृत्रिम शीतलता हेतु वायुमंडलीय वातावरण अति-गर्म होता जा रहा है। हम वर्षा करने लायक भी नहीं रह पारहे हैं।'
                          वरुणदेव बोले, 'पितामह! हमें तो मानवों ने स्वनिर्मित सागरों जिन्हें तरण-ताल कहते हैं , व् नकली जलधारा-फाउंटेन, शावर आदि में कैद कर लिया है। नदियों, झीलों, सागरों में अब लोग स्नान करने आते ही नहीं। उन्हें तो मल-मूत्र, विष्ठा, कूड़ा-करकट बहाने का स्रोत बना रखा है। मेरा स्वयं का नगर..सागर ..भी कूड़े के अम्बार से प्रदूषित है। जल-जीवों का अस्तित्व खतरे में है साथ में जीवन का अस्तित्व भी। आचमन योग्य जल बोतलों-पाउचों में आबद्ध होकर बिक्रय होने लगा है।.
                          परेशान ब्रह्मदेव ने अग्नि की ओर देखा तो वे कहने लगे,' प्रभु, मेरी स्वतंत्र गतिविधियों पर भी पावंदी लगा दी गयी है। बल्ब, सीएफएल ,ट्यूब, इलेक्ट्रिक-हीटर, गीज़र,हॉट-प्लेट, प्रेसर-कूकर, ओवन न जाने क्या क्या विविध शास्त्रों को मानव ने प्रयोग करके मेरे विविध रूपों को माइक्रोवेव,  इलेक्ट्रिक, इलेक्ट्रोनिक-शक्ति, सोलर-पावर आदि में सजाकर मेरे स्वतंत्र विचरण व् पंख फैलाकर उड़ने की शक्ति को स्तंभित कर रखा है।'
                           तभी देवर्षि नारद जी ..नारायण..नारायण के स्वर के साथ वीणा बजाते हुए अवतरित हुए, बोले,' श्रीहरि नारायण ही कुछ उपाय सुझा सकते हैं।.  ब्रह्मा जी तुरंत पृथ्वी व सभी देवों के साथ क्षीर-सागर स्थित नारायण-धाम पहुंचे। श्रीहरि विष्णु शेषशय्या पर शयनरत थे, माता लक्ष्मी उनके चरण दबा रहीं थी। मुस्कुराते हुए नारायण ने नेत्र खोले।
                       नारायण..नारायण...नारद जी ने हाथ जोड़ कर अभिवादन किया।
                       कहिये देवर्षि, 'संसार के क्या समाचार हैं।', विष्णु जी बोले। 'प्रणाम ब्रह्मदेव, स्वागत है।'
                       ब्रह्मा जी बोले , 'आप तो सर्वज्ञ हैं नारायण ! हे श्रीहरि, पृथ्वी व देवों के कष्ट दूर करने का उपाय बताएं।'
                       अपनी मोहिनी मुद्रा में मुस्कुराते हुए नारायण कहने लगे, 'मैं देख रहा हूँ कि मानव अपने मानवीय गुणों -सदाचरण, परोपकार, अपरिग्रह आदि को भूल चुका है। इसीलिये उसपर आसुरी तत्व हावी हो रहे हैं। लगता है इस बार दैत्यों ने नवीन व्यूह व कूटनीति रची है। मानव को आचरणहीन करके उसमें दानवत्व-असुरत्व भाव उत्पन्न करके, उनके द्वारा देवों को दाय-भाग, यज्ञ-भाग से बंचित करके देवों को कमजोर, श्रीहीन व असहाय करके स्वर्ग-लोक पर अधिकार हेतु नवीन रणनीति अपनाई है। क्योंकि हर बार मानव ही देवासुर संग्रामों में देवों का सहायक होता रहा है।'
                      'त्राहिमाम..त्राहिमाम...भगवन ! सबने करबद्ध होकर आशान्वित भाव से विष्णु की ओर देखा।'
                      'कुछ करिए, श्री हरि !,' ब्रह्माजी व नारद जी बोले। पृथ्वी भी कातर दृष्टि से टकटकी लगा कर विष्णु जी की ओर देखने लगी।
                      विष्णु जी गंभीर वाणी में कहने लगे,' हे देवो ! आप स्वयं ही अपने प्रमाद वश अकर्मण्यता व अहं के कारण असुरों को अपनी विविध शक्तियों का प्रयोग करने दिया करते हैं। उचित समय रहते उपयुक्त आवश्यक क्रियाशीलता प्रदर्शित नहीं करते। अतः मानव पर आसुरों का प्रभाव बढ़ने लगता है जो सृष्टि व देवत्व के लिय एवं स्वयं मानव के लिए घातक होता है।'
                    ' मै शीघ्र ही भूलोक पर श्री सत्याचरण जी व उनकी धर्मपत्नी श्रीमती धर्मचारिणी के पुत्र सदाचरण के रूप में अवतार लूंगा। लक्ष्मी जी सत्कर्म रूप से उपार्जित धन-धान्य श्री के रूप में, एवं शेष जी नीति-युक्त कर्म के रूप में जन्म लेंगें। श्री कमल-प्रकृति -प्रेम के रूप में, श्री चक्र--दुष्ट-दमनक जन सुखकारक राज्य-चक्र के रूप में , शंख -जन सद-सुविचार क्रान्ति तथा गदा कठोर धर्मानुशासन के रूप में मेरे साथ जन्म लेंगे। सारे देवता भी न्याय, धर्म, नीति, कर्म, सत्संग,करुणा, प्रेम, भक्ति व ज्ञान आदि के रूप में जन्म लेकर मानव आचरण को पुनर्स्थापित करेंगे।'
                  ' अति-सुखासुर में ही सभी अन्य असुरों -- प्लास्टिकासुर , कूडासुर, भ्रष्टासुर, आतंकासुर, लोभासुर आदि के प्राण बसते हैं। मैं उसका संहार करके, आसुरी माया का विनाश करके पृथ्वी का उद्धार करूंगा।.                  
                     इतना कहकर श्री हरि नारायण पुनः योग-निद्रा में लीन होगये। सारे देवता, ब्रह्माजी, पृथ्वी व नारद जी नारायण..नारायण..कहते हुए अपने-अपने धाम को पधारे।



शनिवार, 14 जुलाई 2012

जीवन सुख ... डा श्याम गुप्त ...

                          ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...

               ( जीवन -सुख क्या है ? कुछ लोग छोटी-छोटी  खुशियों में ही सुख ढूंढ लेते हैं और प्रसन्न-मस्त रहते हैं| कुछ लोग चिंता, भय व विभिन्न प्रकार की असुविधाओं का रोना रोते हुए, कुछ लोग सदा ईश्वर को दोष देते हुए या परदोष देखते हुए  जिंदगी गुजार देते है तो कुछ लोग दूसरों की मलाई देखकर कुढते हुए | वास्तव में जीवन सुख भी एक तुलनात्मक भाव है ...सोपानमय स्थिति है जो जीवन के विभिन्न सोपानों पर , जो वस्तुतः ज्ञान के -आत्म-ज्ञान के स्तर होते हैं उनमे पृथक-पृथक भाव से दिखलाई पडता है | इसीलिये कहाजाता है-- सबका सुख-दुःख अपना अपना होता है....अपने अपने आसमान ..या सुख मन के अंदर होता है ...मन चंगा तौ कठोती में गन्गा ...आदि )

मैं  खुश था दुनिया के सुख में ,

यह सुख ही जीवन है, सुख है |
जब दुःख देखा तो यह समझा,
जग का सुख-दुःख ही जीवन है |

धन-पद लिप्सा, समृद्धि शिखर ,
गाड़ी-बंगला, वैभव-विलास |
रिश्ते -नाते , संतान-मोह,
जननायक बनने का हुलास |

जग  जीवन का यह विश्वचक्र ,
प्रभु-इच्छा, जीवन दर्शन है |
पैदा  होना,  जीना-मरना,
शाश्वत, निश्चित है, जीवन है |

सुख-दुःख दुनिया के द्वंद्वों में ,
मन का आनंद नहीं पाया |
पूर्वज ऋषियों के ज्ञान-ध्यान,
का मनन किया, कुछ सच पाया |

यह त्रिगुण रूप मय,गूढ़-शक्ति ,
जो अपरा, परा  व माया  है |
प्रकृति, अभक्त या महत-शक्ति ,
ने  सारा जगत सजाया है |

सब  वेदों में  स्तुत्य  सभी ,
शक्तियां रहें अनुकूल अगर |
जग-जीवन का अस्तित्व रहे ,
जीवन हो सुन्दर समतल फिर |

अर्चन उपासना भजन ध्यान,
और यज्ञ-कर्म, प्रभु का वंदन 
मैं लीन होगया पूजा में,
समझा  कि यही तो है जीवन |

पर जिज्ञासा थी कहाँ मौन,
जग का अधिष्ठाता है कौन ?
यह सुख-दुःख कौन भोगता है ,
है तृप्ति भला पाता न कौन ?

तप, चिंतन ध्यान, धारणा से-
पाया  यह तन -मन, बुद्धि-प्राण |
तो केवल कारण, भोग रूप ,
ये साक्षी, दृष्टा , आत्मतत्व |

जब ज्ञान-जलधि में मैं उतरा,
समझी समाधि की गहराई |
उस परम आत्मा ने अपनी,
वह कृपा-झलकजब दिखलाई |

'मैं' का न कहीं अस्तित्व रहा ,
वह ही अभिन्न है चेतन है |
आनंदरूप वह अंतहीन,
सर्वत्र व्याप्त परमेश्वर  है |

मैं, ब्रह्म, प्रकृति , संसार सभी ,
ब्रह्माण्ड, सृष्टि क्रिया=कलाप |
लय  होते और प्रकट होते ,
हैं उस अनंत के व्यक्त भाव |

वह  आत्म-रूप परमात्व तत्व ,
मेरे  चेतन   में   अंतस   में|
मैं उसमें लय , वह मुझमें है ,
 वह ही कण-कण के अंतर में |

ऋषि-मुनि भी ढूंढ नहीं पाए,

सुख, जीवन, प्रभु का आदि-अंत |
शब्दों  की सीमा से बाहर ,
वह है केवल अनुभव अनंत |


सबको जब  अपने में देखा ,
अपने में  सबको  जान लिया |
मैं क्या हूँ ,  यह जीवन  क्या है,
कुछ कुछ समझा, कुछ जान लिया |


कर्त्तव्य, धर्म पथ लीन रहें ,
आनंद, भक्ति, प्रभु लीन रहें |
यह  ही सुख है, यह जीवन है,
यह  सुख ही सच्चा जीवन है ||

गुरुवार, 5 जुलाई 2012

ईश्वर-कण ... डा श्याम गुप्त ..

                      ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...

                      
                                    ईश्वर कण
                                 (  श्याम सवैया छंद )
                   (  ऋग्वेद के मंडल-१० -पुरुष व पृथ्वी सूक्त ...के अनुसार वह अव्यक्त तत्व....भारहीन,  अव्यय, अशब्द, अगम्य, अगोचर है| जब वह व्यक्त होता है तो भार व गति उत्पन्न करके अनंत ऊर्जा व अर्यमा (प्रकाश कण ) आदि प्रारंभिक  कण उत्पन्न करता है जिन्हें भार व गति प्रदान करता है | ये अर्यमा (प्रकाश कण ) व अन्यकण व  ऊर्जा संयुक्त होकर आगे परमाणु-पूर्व कण ....फिर इलेक्ट्रोन , न्यूट्रोन, प्रोटोन---परमाणु...अणु  आदि .....विस्तार से ..मेरे  सृष्टि महाकाव्य में  पंचम अशांति खंड में पढ़ें )

ढूंढ  लियो  बोसोन, कहें  करि खोज लई   ईश्वर-कण  की |
कण-कण में ईश विराजत है, बचपन से  सुनी हम  शास्त्रन की |
वो अनित्य है, अव्यय, अरूप, अशब्द, अगम्य, अगोचर सुनते रहे हैं |
वह  आनंदी-सूत, स्वधया- तदेकं, सदाधार ब्रह्म है गुनते रहे हैं ||

वही   ब्रह्म है सब के भार का भार,औ रूप का रूप रचावन हारा |
है कण कण का मूलाधार वही, कण-रूप औ सृष्टि सजावन हारा |
है भी, नहीं भी, सूर्यस्य-सूर्य औ  दृष्टि की दृष्टि  कहाता वही है |
अणु  का भी है अणु, विभु से भी है विभु,यह सारा साज सजाता वही है ||

रच श्याम ने सृष्टि का काव्य यथा, इस कण की ही तो महिमा गाई है |
कवि लाल  'सृजन के पल' में भी , इसी तत्व की गुण-गाथा छाई है |
वो सदा से उपस्थित, कण का भी कण, युग-युग से सृष्टि सजाता रहा है |
जिस  मानव ने खोजा 'बोसोन . उस मानव को  भी बनाता रहा है ||
 

बुधवार, 4 जुलाई 2012

परमानंद .....डा श्याम गुप्त

                                  ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...


       परमानंद .....
 
सब  सुख साधन प्राप्त तुझे हैं ,
सब सुख जग के पाए |
फिर  भी तू अंतर्मन मेरे,                          
शान्ति नहीं क्यों पाए ?
 
धन  पद वैभव रूप खजाने ,
प्रेम-प्रीति परिवार सुहाने |
रीति-नीति सुख,सुखद सुजाने,
सब तो तूने पाए |

फिर भी तू अंतर्मन मेरे,
 शान्ति नहीं क्यों पाए ||

पढ़ पढ़ कर सब वेद-उपनिषद ,
विविध शास्त्र, विज्ञान-ज्ञान सब |
प्रेम-गीत, जग रीति, मधुर स्वर,
भक्ति-गीत सब गाये |

मन में कितना अहं सजाये,
इच्छाओं की गाँठ बसाए |
चाहे भक्ति-मुक्ति ही चाहे ,
चैन नहीं तू पाए |

फिर भी  तू अंतर्मन मेरे,
शान्ति  नहीं क्यों पाए ||

इच्छाओं की गाँठ कटे जब,
अहं-भाव की फांस मिटे जब |
कर्तापन का दंभ हटे जब,
मुक्ति  तभी होपाये |

परम शान्ति मिल जाए,
मन में परमानंद समाये ||


रविवार, 1 जुलाई 2012

पृथ्वी का संरचनात्मक विकास श्रृंखला ...भाग-पांच -(ब) मानव-सभ्यता का विकास (अंतिम ..) --

                             

                               ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
                                     
                      यह आदि-सृष्टि कैसे हुई, ब्रह्मांड कैसे बना एवं हमारी अपनी पृथ्वी कैसे बनी व यहां तक का सफ़र कैसे हुआ, ये आदि-प्रश्न सदैव से मानव मन व बुद्धि को निरन्तर मन्थित करते रहे हैं । इस मन्थन के फ़लस्वरूप ही मानव  धर्म, अध्यात्म व विग्यान रूप से सामाजिक उन्नति में सतत प्रगति के मार्ग पर कदम बढाता रहा आधुनिक विग्यान के अनुसार हमारे पृथ्वी ग्रह की विकास-यात्रा क्या रही इस आलेख का मूल विषय है । इस आलेख के द्वारा हम आपको  पृथ्वी की उत्पत्ति, बचपन  से आज तक की क्रमिक एतिहासिक यात्रा पर ले चलते हैं।....प्रस्तुत है  इस श्रृंखला का  अंतिम भाग पांच ..खंड ब. मानव का सामाजिक विकास |


      ( सृष्टि व ब्रह्मान्ड रचना पर वैदिक, भारतीय दर्शन, अन्य दर्शनों व आधुनिक-विज्ञान के समन्वित मतों के प्रकाश में इस यात्रा हेतु -- मेरा आलेख ..मेरे ब्लोग …श्याम-स्मृति  the world of my thoughts..., विजानाति-विजानाति-विज्ञान ,  All India bloggers association के ब्लोग ….  एवं  e- magazine…kalkion Hindi तथा  पुस्तकीय रूप में मेरे महाकाव्य  "सृष्टि -ईशत इच्छा या बिगबैंग - एक अनुत्तरित उत्तर" पर पढा जा सकता है| ) -----
        पिछली  पोस्ट में  मानव का संरचनात्मक विकास का वर्णन किया गया था इस श्रृंखला के अंतिम पोस्ट में  मानव का सामाजिक-विकास  का वर्णन किया जायगा |

                     (ब) मानव-सभ्यता का विकास --
     युगों तक प्रारंभिक होमो सेपियन  घूमंतू शिकारी-संग्राहक -- के रूप में छोटी टोलियों में रहा करते थे | जैसे जैसे मस्तिष्क व सामाजिकता का विकास होता गया, सांस्कृतिक विकास की प्रक्रिया तीब्रतर होती गयी|
     सांस्कृतिक उत्पत्ति व कृषि एवं पशुपालन --  ने सांस्कृतिक उत्पत्ति के साथ जैविक उत्पत्ति व विकास  का भी रूप  ले लिया| लगभग 8500 और 7000 ईपू के बीच, मध्य पूर्व के उपजाऊ अर्धचन्द्राकार क्षेत्र में रहने वाले मानवों ने वनस्पतियों व पशुओं के व्यवस्थित पालन की व्यवस्था कृषि शुरुआत की जो प्रारम्भ में खानाबदोश थे व विभिन्न क्षेत्रों में घूमते रहते थे |
      यह अर्ध-चंद्राकार क्षेत्र वास्तव में भारतीय भूभाग का ब्रह्मावर्त क्षेत्र था जहां सर्वप्रथम कृषि व पशुपालन प्रारम्भ हुआ| मथुरा-गोवर्धन क्षेत्र विश्व में प्रथम पशुपालन व कृषि सभ्यताएं थीं, जिसका वर्णन ऋग्वेद में भी है |   
     स्थाई बस्तियों का विकासकृषि का प्रभाव  दूर दूर तक पड़ोसी क्षेत्रों तक फैला व अन्य स्थानों पर स्वतंत्र रूप से भी विकसित हुआ |  कृषि व पशु-पालन की विभिन्न स्थिर पद्धतियों के विकास ने मानव को खानाबदोश जीवन की बजाय एक स्थान पर स्थिर होकर रहने को वाध्य किया और मानव (होमो सेपियन्स ) कृषकों के रूप में स्थाई बस्तियों में स्थानबद्ध हुए |
     जनसंख्या वृद्धि -  सभी समाजों ने खानाबदोश जीवन का त्याग नहीं किया—अतः वहाँ सभ्यता तेजी से नहीं बढ़ी |विशेष रूप से जो पृथ्वी के ऐसे क्षेत्रों में निवास करते थे, जहां घरेलू बनाई जा सकने वाली वनस्पतियों व पशु-पालन योग्य प्रजातियां बहुत कम थीं  (जैसे ऑस्ट्रलिया,  )  ... कृषि को न अपनाने वाली सभ्यताओं में, कृषि द्वारा प्रदान की गई सापेक्ष-स्थिरता व बढ़ी  एवं स्थिरता के कारण जनसंख्या वृद्धि की प्रवृत्ति बढ़ी |          
    पृथ्वी की पहली उन्नत सभ्यता विकसित -- कृषि का एक महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा;  मनुष्य वातावरण को अभूतपूर्व रूप से प्रभावित करने लगे | अतिरिक्त खाद्यान्न ने एक पुरोहिती या संचालक वर्ग को जन्म दिया, जिसके बाद श्रम-विभाजन  में वृद्धि हुई| परिणामस्वरूप मध्य पूर्व के सुमेर में 4000 और 3000 ईपू पृथ्वी की पहली सभ्यता विकसित हुई | शीघ्र ही  सिंधु नदी की घाटी, प्राचीन मिस्र तथा चीन में अन्य सभ्यताएं विकसित हुईं|
       वास्तव में सुमेरु हिमालयन क्षेत्र का केन्द्र-स्थान है, यहीं कैलाश पर्वत व मानसरोवर झील क्षेत्र है जो महादेव का धाम है |  यहीं से विश्व की सर्व -प्रथम उन्नत सभ्यता भारतीय सभ्यता देव-सभ्यता के नाम से सर्व-प्रथम विक्सित हुई | पुनः सिंधु-क्षेत्र में आर्य-सभ्यता के नाम से विक्सित हुई व् ब्रह्मावर्त के अर्धचंद्राकार क्षेत्र में स्थापित हुई| 

        आज मानव निवास की सबसे ऊंची चोटी हिमालय की बंदर-पूंछ चोटी है....जिसे सुमेरु भी कहा जाता है.. अर्थात बन्दर की पूंछ लुप्त होकर मानव बनने का स्थान |  सुमेरु विश्व की सबसे प्राचीन सभ्यता का स्थान कहा जाता है|
    धर्मों का विकास -- 3000 ईपू, हिंदुत्व - विश्व के प्राचीनतम धर्मों में से एक, जिसका पालन आज भी किया जाता है, की रचना शुरु हुई. इसके बाद शीघ्र ही अन्य धर्म   भी
विकसित हुए जो वस्तुतः ज्ञान व अनुभव के वैज्ञानिक आधार पर रचित सामाजिक व्यवस्थाएं थीं |  हिंदुओं के पारंपरिक -मौखिक ज्ञान – वैदिक साहित्य ने विश्व-समाज में धर्म, समाज, साहित्य, कला व विज्ञान की उन्नति व विकास में अभूतपूर्व योगदान दिया |  
सभ्यता के इतिहास का अंधकार-मय काल....( डार्क पीरियड ऑफ हिस्ट्री )...   
        भारतीय विद्वान मानव जाति के स्वर्णिम युग --वैदिक-युग का काल १०००० हज़ार ई.पू. का मानते हैं | महाभारत युद्ध ( ५५००-३००० ई.पू.) एक विश्व-युद्ध था एवं जैसे वर्णन मिलते हैं वह एक परमाणु-युद्ध था जिसमें भीषण जन-धन-संसाधन व स्थानों व जातियों-कुलों व संस्कृति का विनाश हुआ | सभ्यता के महा-विनाश से इस काल के आगे का इतिहास प्राय: अँधेरे में है| विश्व भर के लिए प्रेरक, उन्नायक व उन्नति-कारक भारतीय-सभ्यता के अज्ञानान्धकार में डूब जाने से सारे विश्व इतिहास का ही यह एक अन्धकार-मय काल रहा | जिसमें सभ्यता का कोइ विकास नहीं हुआ| .......अंतत लगभग ५०० ई.पू में नई-सभ्यता के चिन्ह प्राप्त होते हैं|
               नई सभ्यताओं का विकास( मध्यकाल )
      भाषा व लेखन के आविष्कार--- ने जटिल समाजों के विकास को सक्षम बनाया था | मिट्टी की तख्तियों, लौह-पत्र, ताम्र-पत्र, शिला-लेख, चर्म, सिल्क एवं भोज-पत्र का लेखन हेतु उपयोग ने प्राचीन ग्रंथों व ज्ञान के संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी | वैदिक युग से महाभारत-काल तक विश्व व भारतीय सभ्यता के स्वर्ण-काल में संस्कृत भाषा व भोजपत्रों पर लिखित ग्रंथों का सभ्यता के विकास में अति-महत्वपूर्ण योगदान था |
       महाभारत काल- (५५००-३००० ईपू ) के पश्चात पुनः लगभग ५०० ई.पू. में विज्ञान के प्राचीन रूप में विभिन्न विषय  विकसित हुए जो मानव के सुख-सुविधा के हेतु बने | नई सभ्यताओं का विकास हुआ  जो एक दूसरे के साथ व्यापार किया करतीं थीं और अपने इलाके व संसाधनों 

के लिये युद्ध किया करतीं थीं|  
      साम्राज्यों  का विकास ---500 ईपू के आस-पास मध्य-पूर्व, ईरान, भारत, चीन और ग्रीस, रोमन साम्राज्य आदि  विभिन्न सभ्यताओं के केन्द्र थे इन सभी में लगभग एक जैसे साम्राज्य थे जो आपस में एक दूसरे से युद्ध में रत रहते थे और हारते व जीतते रहते थे इसप्रकार देशों के अधिकार क्षेत्र व् सीमा-क्षेत्र घटते व बढ़ते रहते थे | युद्ध के कारण मूलतः व्यापार या प्रयोगार्थ संसाधन हुआ करते थे| कभी-कभी व्यक्तिगत झगड़े व स्त्रियाँ भी |
       विश्वविद्यालयों (प्राचीनतम शिक्षा केन्द्र– भारतीय वि.वि. तक्षशिला व नालंदा थे ) द्वारा ज्ञान के प्रसार को सक्षम बनाया गया | पुस्तकालयों के उद्भव ने ज्ञान के भण्डार का कार्य किया और ज्ञान व जानकारी के सांस्कृतिक संचरण को आगे बढ़ाया | भारत में इस काल में एक पुनर्जागरण हुआ जिसके कारण इस युग में भी भारत व भारतीय-सभ्यता विश्व में सिरमौर बन चुकी थी| अब मनुष्यों को अपना सारा समय केवल अपने अस्तित्व को बचाये रखने के लिये कार्य करने में खर्च नहीं करना पड़ता था- जिज्ञासा और शिक्षा ने ज्ञान तथा बुद्धि द्वारा नई-नई खोजों की प्रेरणा दी|
                   आधुनिक विज्ञान का युग
         प्रथम शताब्दी में कागज़ के आविष्कार (१०५ ई....त्साई लूँ ..चीन का हान-साम्राज्य )  व चौथी शताब्दी से पूर्ण प्रचलन में आने पर एवं मुद्रण-कला  (१४३९ई. ..जर्मनी के गुटेनबर्ग द्वारा ) के आविष्कार से ज्ञान-विज्ञान व उसका संरक्षण तेजी से बढ़ा |
      चौदहवीं सदी में, धर्म, कला व विज्ञान में तेजी से हुई उन्नति के साथ ही इटली से पुनर्जागरण काल ( रेनेशां ) का प्रारम्भ हुआ| जो पूरे योरोप में फ़ैल गया| पुनर्जागरण सचमुच वर्तमान युग का आरंभ है। सन 1500ई. में वास्तव में यूरोपीय सभ्यता की नवीनीकरण की शुरुआत हुई, जिसने वैज्ञानिक तथा औद्योगिक क्रांतियों को जन्म दिया, जिसके बल पर उस महाद्वीप द्वारा पूरे ग्रह पर फैले मानवीय समाजों पर राजनैतिक और सांस्कृतिक प्रभुत्व जमाने के प्रयास से सन 1914 से 1918 तथा 1939 से 1945t तक, पूरे विश्व के देश विश्व-युद्धों में उलझे रहे |
       यह वास्तव में योरोप द्वारा उच्च-ज्ञान,उन्नत-सभ्यता व सुस्संकारिता का प्रथम स्वाद था जो भारतीय ज्ञान-विज्ञान, लूटे हुए शास्त्रादि-पुस्तकें व अकूत धन, खजाने आदि  .. के अरब व्यापारियों, मुस्लिम आक्रान्ताओं व अन्य योरोपीय व ब्रिटिश साम्राज्यवादियों द्वारा मध्य-एशिया से योरोप तक फैलाये जाने से प्राप्त हुआ| जिनके आधार पर व प्रकाश में योरोप में वैज्ञानिक नवोन्नति व औद्योगिक क्रान्ति हुई|
       सांस्कृतिक दृष्टि से यह युग अधि-भौतिकता के विरुद्ध भौतिकता का एवं   मध्ययुगीन सामंती अंकुशों-अत्याचारों से व्यथित समाज द्वारा सामाजिक अंकुशों के विरुद्ध व्यवस्था है। यह कथित रूप में व्यक्तिवाद अंधविश्वास के विरुद्ध विज्ञान के संघर्ष का युग था |
      यह भारतीय प्रभाव में यूनानी और रोमन शास्त्रीय विचारों के पुनर्जन्म का काल था | परन्तु भारतीय ज्ञान-विज्ञान के दर्शन व धर्म से समन्वय नीति को न समझ पाने के कारण पुनर्जागरण के साथ  प्रक्षन्न मानववाद भी पनपा| अर्थात लौकिक मानव के ऊपर अलौकिकता, धर्म और वैराग्य को महत्व नहीं चाहिए। जिसने अंत में उसी व्यक्तिवाद को जन्म दिया जिसके विरुद्ध विज्ञान का संघर्ष प्रारम्भ हुआ था| इसने एक नए शक्तिशाली मध्यवृत्तवर्ग को भी जन्म दिया, बौद्धिक जीवन में एक क्रांति पैदा की। पुनर्जागरण और सुधार आंदोलन दोनों पाश्चात्य प्राचीन पंरपराओं से प्रेरणा लेते थे, और नए सांस्कृतिक मूल्यों का निर्माण करते थे।
       अठारहवीं सदी  तर्क और रीति का उत्कर्षकाल व पुनर्जागरण काल की समाप्ति है। तर्कवाद और यांत्रिक भौतिकवाद का विकास हुआ| धर्म की जगह, मनुष्य के साधारण सामाजिक जीवन, राजनीति, व्यावहारिक नैतिकता इत्यादि पर जोर | यह आधुनिक गद्य के विकास का युग भी है। दलगत संघर्षों, कॉफी-हाउसों और क्लबों में अपनी शक्ति के प्रति जागरूक मध्यवर्ग की नैतिकता ने इस युग में पत्रकारिता को जन्म दिया।-
     उन्नीसवीं सदी  में ---रोमैंटिक युग में फिर व्यक्ति की आत्मा का उन्मेषपूर्ण और उल्लसित स्वर सुन पड़ता है| तर्क की जगह सहज गीतिमय अनुभूति और कल्पना; अभिव्यक्ति में साधारणीकरण की जगह व्यक्ति निष्ठता; नगरों के कृत्रिम जीवन से प्रकृति और एकांत की ओर मुड़ना; स्थूलता की जगह सूक्ष्म आदर्श और स्वप्न, मध्ययुग और प्राचीन इतिहास का आकर्षण; मनुष्य में आस्था | विक्टोरिया के युग में जहाँ एक ओर जनवादी विचारों और विज्ञान पर अटूट विशवास जन्म हुआ वहीं क्रान्तिवादिता का भी जन्म हुआ|
     वीसवीं सदी ---- फासिज्म, रूस की समाजवादी क्रांति, समाजवाद की स्थापना और पराधीन देशों के स्वातंत्र्य संग्राम; प्रकृति पर विज्ञान की विजय व नियंत्रण से सामाजिक विकास की अमित संभावनाएँ और उनके साथ व्यक्ति व जीवन की संगति-समन्वय की समस्यायें- अति-भौतिकतावाद से उत्पन्न ..पर्यावरण, प्रदूषण, भ्रष्टाचार, अनैतिकता, अनाचार , स्वच्छंदता आदि...भी उत्पन्न हुईं । व्यक्तिवादी आदर्श का विघटन तेजी से हुआ अतः यौन कुंठाओं के विरुद्ध भी आवाज उठी। जिसमें चिंता, भय और दिशाहीनता और विघटन की प्रवृत्ति की प्रधानता है।
        फिर से भारत  -----भारतीय दृष्टि से अंधकार-युग के पश्चात विश्व के सामंती युग का प्रभाव भारत पर भी रहा| अपनी सांस्कृतिक धरोहर की विस्मृति से उत्पन्न राजनैतिक अस्थिरता के कारण उत्तर–पश्चिम की असभ्य व बर्बर जातियों के अधार्मिक, खूंखार व अनैतिक चालों से देश गुलामी में फंसता चला गया | योरोप के पुनर्जागरण से बीसवीं शताब्दी तक विश्व के सभी देश भारत पर अधिकार को लालायित रहे एवं योजनाबद्ध तरीकों से भारतीय पुस्तकालयों, विश्वविद्यालयों, शैक्षिक केन्द्रों, संस्कृति का विनाश व प्राचीन शास्त्रों की अनुचित व्याख्याओं द्वारा उन्हें हीन ठहराने के प्रयत्नों में लगे रहे| जिसमें असत्य वैज्ञानिक, दार्शनिक, व साहित्यिक तथ्यों का सहारा भी लिया जाता रहा, ताकि भारतीय अपने गौरव को पुनः प्राप्त न कर पायें एवं उनका साम्राज्य बना रहे| परन्तु १९ वीं सदी में भारतीय नव-जागरण काल प्रारम्भ हुआ और भारतीय स्वाधीनता संग्राम द्वारा १९४७ ई. में विदेशी दासता के जुए को उतार कर भारत एक बार फिर अपने मज़बूत पैरों पर उठ खडा हुआ है अपने समर्थ, सक्षम, सुखद अतीत के ज्ञान-विज्ञानं को नव-ज्ञान से समन्वय करके अग्रगण्य देशों की पंक्ति में |      
            समाज का वैश्वीकरण         
    प्रथम विश्वयुद्ध (१९१४—१९१८ ) के बाद स्थापित लीग ऑफ नेशन्स विवादों को शांतिपूर्वक सुलझाने के लिये अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं की स्थापना की ओर पहला कदम था| जब यह द्वितीय विश्वयुद्ध  को रोक पाने में विफल रही, तो इसका स्थान संयुक्त राष्ट्र संघ  ने ले लिया| द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद विश्व क्षितिज पर नई शक्ति अमेरिका का उदय हुआ जो संयुक्त राष्ट्र संघ का मुख्यालय भी बना| 1992 में अनेक यूरोपीय राष्ट्रों ने मिलकर यूरोपीय संघ  की स्थापना की. परिवहन व संचार में सुधार होने के कारण, पूरे विश्व में राष्ट्रों के राजनैतिक मामले और अर्थ-व्यवस्थाएं एक-दूसरे के साथ अधिक गुंथी हुई बनतीं गईं| इस वैश्वीकरण ने अक्सर टकराव व सहयोग दोनों ही उत्पन्न किये हैं, जो विभिन्न द्वंद्वों को जन्म देते रहते हैं |      
कम्प्युटर युग--         
   बीसवीं सदी से प्रारम्भ, वर्त्तमान इक्कीसवीं सदी में कम्प्युटर व सुपर-कम्प्युटर के विकास ने मानव व सभ्यता के सर्वांगीण विकास को को नई-नई ऊंचाइयों पर पहुंचाया है | आज मानव सागर के अतल गहराइयों से लेकर आकाश की अपरिमित ऊंचाइयों को छानने में सक्षम है और मानव व्यवहार के दो मूल क्षेत्र –विज्ञान व अध्यात्म दोनों ही को यदि अतिवाद से परे ..समन्वित भाव में प्रयोग-उपयोग किया जाय तो वे भविष्य में एक महामानव के विकास की कल्पना  को सत्य करने में सक्षम हैं | जो शायद आपसी द्वंद्वों से परे व्यवहार कुशल-सरल मानव होगा |                                                                                
       चित्र ५- आधुनिक मानव का सामाजिक विकास          

Refrences….
1-The age of earth….Donlrymps G S, Newman williyam.et el..US geological society 1997.
2.-evidence for Ancient bombardment on earth…by Robert rock
3-Evolution of fossils & plants…taylor et el.
4-oigin of earth & moon..NASA .by taylor
5-Did life come from another world?...wanflesh david etc..scientific American press.
6-cosmic evolution…tufts university..by cherssan eric…
7-Trends in ecology & evolution…Xiao S, lafflame S…
8-A natural history of first 4 billions of life on earth., newyork, nature & earth..by forggy and richmand…
9- First step on land….mac newtan, Robert B and jeniffar M..
10-The mass Extinction  …science Aug 05…
11- पृथ्वी का इतिहास एवं चन्द्रमा की उत्पत्ति व विशाल संघात अवधारणा…..विकीपीडिया
 १२- भारत कोश  ..         

                            -----------चित्र-गूगल साभार ....

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