....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
श्याम स्मृति- १७४.....पत्नी-सह-धर्मिणी.....
पत्नी को सहकर्मिणी नहीं कहा गया, क्यों? स्त्री, सखी, प्रेमिका, सहकर्मिणी हो सकती है, स्त्री माया रूप है, शक्ति-रूप, ऊर्जा-रूप वह अक्रिय-क्रियाशील ( सामान्य-पेसिव ) पात्र, रोल अदा करे तभी उन्नति होती है, जैसे वैदिक-पौराणिक काल में हुई |
------पत्नी सह-धर्मिणी है, केवल सहकर्मिणी नहीं | हाँ, पुरुष के कार्य में यथासमय, यथासंभव, यथाशक्ति सहकर्म-धर्म निभा सकती है | सह्कर्मिणी होने पर पुरुष भटकता है और सभ्यता अवनति की ओर | अतः पत्नी को सहकर्म नहीं सहजीवन व्यतीत करना है – सहधर्म |
------स्त्री-पुरुष के साथ-साथ काम करने से उच्च विचार प्रश्रय नहीं पाते, व्यक्ति स्वतंत्र नहीं सोच पाता, विचारों को केंद्रित नहीं कर पाता, हाँ भौतिक कर्मों व उनसे सम्बंधित विचारों की बात पृथक है| |
------ तभी तो पति-पत्नी सदा पृथक-पृथक शयन किया करते थे | राजा-रानियों के पृथक-पृथक महल व कक्ष हुआ करते थे | सिर्फ मिलने की इच्छा होने पर ही वे एक दूसरे के महल या कमरे में जाया करते थे | माया की नज़दीकी व्यक्ति को भरमाती है, उच्च विचारों से दूर करती है |
----- यूं तो कहा जाता है कि प्रत्येक सफल व्यक्ति के पीछे नारी होती है, पर ये क्यों नहीं कहा गया कि सफल नारी के पीछे पुरुष होता है |
------नारी की तपस्या, त्याग, प्रेम, धैर्य, धरित्री जैसे महान गुणों व व्यक्तित्व की महानता के कारण ही तो पुरुष महान बनते हैं, सदा बने हैं, जो नारी का भी समादर कर पाते हैं और दोनों के समन्वय से समाज व सभ्यता नित नए सोपान चढ़ती है|