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डा श्याम गुप्त का ब्लोग...

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Lucknow, UP, India
एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं... काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद .. my blogs-- 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति... 2.drsbg.wordpres.com, 3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त

गुरुवार, 18 जुलाई 2019

वेदों के महावाक्य---डा श्याम गुप्त

                                          ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ... 

---वेदों के महावाक्य --- 
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वेदों की चार घोषणाएं हैं ----- जो भारतीय दर्शन , जीवन व व्यवहार का मूल हैं --
ऋग्वेद का कथन है ‘प्रज्ञानाम ब्रह्म’ अर्थात् ब्रह्म परम चेतना है |
यजुर्वेद का सार है ‘अहम् ब्रह्मास्मि’ अर्थात् मैं ब्रह्म हूं।
सामवेद का कथन है ‘तत्वमसि’ अर्थात् वह तुम हो। )
अथर्ववेद का सारतत्व कहता है ‘अयम आत्म ब्रह्म’ अर्थात् यह आत्मा ब्रह्म है।
---- ये सारे महान कथन भिन्न-भिन्न हैं और भिन्न-भिन्न प्रकार से उनकी व्याख्या की गई है, किंतु वे सब एक ही दिव्य तात्विकता से ओत प्रोत हैं, जो भारतीय संस्कृति की मनीषा है |
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प्रथम उद्घोषणा है#प्रज्ञानाम #ब्रह्म, प्रज्ञान क्या होता है? क्या वह केवल बुद्धि और चातुर्य है? प्रज्ञान शरीर में, मन में, बुद्धि में, अहम में, सब में विद्यमान होता है। #प्रज्ञान जड़ और चेतन दोनों में रहता है। उसे हम निरंतर संपूर्ण चेतना कहते हैं। #चेतना क्या होती है? चेतना का अर्थ है जानना। क्या जानना? थोड़ा कुछ या टुकड़े टुकड़े में जानने को चेतना नहीं कहते हैं। यह संपूर्ण ज्ञान होता है।
------यह उस दिव्य तत्व जो जड़ और चेतना दोनों में निहित है, उसका ज्ञान होना ही संपूर्ण चेतना है।
-------वास्तव में प्रज्ञान और ब्रह्म एक दूसरे के पर्यायवाची हैं, वे दो अलग वस्तुएं नहीं हैं। ब्रह्म क्या है? #ब्रह्म वही है जो सर्वव्यापी हैं, यह वृहद तत्व का सिद्धांत है। संपूर्ण सृष्टि ही वृहद है या शक्तिशाली विशाल सूत्र है। इस संपूर्ण ब्रह्मांड में ब्रह्म व्याप्त है। सरल भाषा में ब्रह्म का अर्थ होता है, सर्वत्र फैला हुआ। वह चारों ओर व्याप्त है, एक सद्गुरु भी इन गुणों से युक्त होता है|
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द्वितीय उद्घोषणा --- ‘#अहम् #ब्रह्मास्मि।’ अहम् का अर्थ केवल ‘मैं’ नहीं होता अपितु #अहम् का अन्य अर्थ होता है #आत्मा। अहम् ही आत्मा का स्वरूप होता है जो चेतना के चारों ओर उपस्थित होती है, वह मनुष्य में आत्मा के रूप में स्थापित की गई है। यह आत्मा सबके अंदर साक्षी रूप में अवस्थित होती है। आत्मा, चेतना और ब्रह्म ये सब भिन्न नहीं हैं। अहम् ब्रह्मास्मि का अर्थ है- मेरे अंदर भी आत्मा या मेरे अंदर का== ‘मैं’ ही सनातन साक्षी है, वही ब्रह्म है।==
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तृतीय उदघोषणा है- ‘#तत्वमसि।’ यह सामवेद का सार है। तत् का अर्थ है ‘वह’ और त्वम् का अर्थात् ‘तू, तुम’, असि का अर्थ है ‘हो।’ जब तक मैं और तुम का भेद होता है तब तक मैं और तुम दो अलग-अलग रहते हैं, पर जब मैं और तुम इकट्ठे हो जाते हैं तब ‘#हम’ बन जाते हैं, दोनों मिलकर एक अस्तित्व बन जाता है। जहां दुविधा है वहां ‘तुम’ है और जहां उपाधि (द्वैत का भाव ) नहीं है वहां ‘तत् है। एक जीव है, दूसरा देव है। सामवेद में यह बहुत स्पष्ट ढंग से समझाया गया है कि जीव और देव दोनों एक ही हैं।
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चतुर्थ घोषणा#अयम् #आत्म #ब्रह्म’ यह चौथा कथन है। इसमें तीन शब्द हैं- अयम्, आत्म तथा ब्रह्म। परंतु वे तीन नहीं हैं। पहला वह जो आप स्वयं समझते हैं, एक वह जो और अन्य लोग आपको समझते हैं और एक वह जो वास्तव में तुम हो, जिससे अभिप्राय है शरीर, मन (चित्त) और आत्मा। हम अपने शरीर से काम करते हैं, मन से विचार करते हैं और इन दोनों की साक्षी रूप में हमारी आत्मा होती है। जागृत अवस्था में आप व्यक्तिगत रूप से पूरा विश्व होते हैं, स्वप्नावस्था में तेजस और निद्रावस्था में प्रज्ञा स्वरूप। प्रज्ञानाम ब्रह्म अर्थात् ब्रह्म ही परम चेतना होती है। प्रज्ञान ही आत्मा होती है।
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ये वेद उद्घोषणायें महावाक्यों के रूप में –#उपनिषदों के अंतर्गत वर्णित हैं--जो -==उपनिषदों का निर्देश स्वरूप में लघु है, परन्तु बहुत गहन == विचार समाये हुए है।
-----प्रमुख उपनिषदों में से इन वाक्यो को #महावाक्य माना है – उपनिषदों में जो ये चार महत्वपूर्ण वाक्य हैं , जो आत्मा (स्वयं) और ब्रह्म के संबंधों पर आधारित हैं। इन्हें ही महावाक्य कहा जाता है। ये चारों वाक्य ब्रह्म के स्वरूप को अलग-अलग तरीके से पेश करते हैं। इनमें यह भी बताने की कोशिश की गई है कि ==आत्मा और ब्रह्म के बीच कोई अंतर नहीं ==है। इन चारों महावाक्यों की चर्चा वेदों की उत्पत्ति के क्रम में है।

-----प्रज्ञानं ब्रह्म - "वह प्रज्ञानं ही ब्रह्म है" ( ऐतरेय उपनिषद १/२ - ऋग्वेद) प्रज्ञा रूप उपाधिवाला आत्मा ब्रह्म है...[ Consciousness is Brahman ]
-----अहं ब्रह्मास्मि - "मैं ब्रह्म हूँ " ( बृहदारण्यक उपनिषद १/४/१० - यजुर्वेद) [ I am Brahman....]
-----तत्वमसि - "वह (ब्रह्म) तू ही है" ( छान्दोग्य उपनिषद ६/८/७- सामवेद ) तत्वमसि [तत त्वम असि] - वह पूर्ण ब्रह्म तू है... जो जीव आप में है, वही मुझमें है। [You are That....]
------अयम् आत्मा ब्रह्म - "यह आत्मा ही ब्रह्म है" ( माण्डूक्य उपनिषद १/२ - अथर्ववेद ) यह सर्वानुभाव सिद्ध अपरोक्ष आत्मा ब्रह्म है...[This Self (Aatma) is Brahman...]
-----उपनिषदों में एक पांचवां महावाक्य है -- #सर्वं #खल्विदं #ब्रह्म् - "सर्वत्र ब्रह्म ही है", यह समस्त संसार ब्रह्म ही है ( छान्दोग्य उपनिषद ३/१४/१- सामवेद ) यह उपरोक्त चार उद्घोषणाओं /महावाक्यों का सार रूप ही है |
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-----पहला महावाक्य ऋग्वेद के #ऐतरेय उपनिषद में उद्धृत किया गया है , जिसे ' #लक्षणा#वाक्य ' भी कहा गया है। इसका संबंध ब्रह्म की चैतन्यता से है, क्योंकि इसमें ब्रह्म को चैतन्य रूप में रखा गया है।
-----दूसरा महावाक्य यजुर्वेद के #वृहदारण्यक उपनिषद से लिया गया है। इसकी खासियत यह है कि इसमें यह जताने की कोशिश की गई है कि हम सभी ब्रह्म (अहं ब्रह्मास्मि) हैं। इसे ' #अनुभव #वाक्य ' भी कहते हैं और इसके मूल स्वरूप को सिर्फ अनुभव के जरिए हासिल किया जा सकता है।
------तीसरा महावाक्य सामवेद के #छांदोग्य उपनिषद से लिया गया है। इस महावाक्य ' तत त्वम असि ' का मतलब यह है कि सिर्फ मैं ही ब्रह्म नहीं हूं , आप भी ब्रह्म है , बल्कि विश्व की हर वस्तु ही ब्रह्म है। इसे #उपदेश #वाक्य भी कहा जाता है। यह उपदेश वाक्य इसलिए भी कहा जाता है , क्योंकि इसके जरिए गुरु अपने शिष्यों में अहंकार को रोकते हैं। साथ ही , वह दूसरों के प्रति आदर की भावना को भी पैदा करते हैं।
------चौथा महावाक्य #मुंडक उपनिषद से लिया गया है। ' अयामात्मा ब्रह्म ' महावाक्य के जरिए यह जताने की कोशिश हुई है कि आत्मा ही ब्रह्म है। यह अद्वैतवाद के सिद्धांत को प्रतिपादित करता है और परम सत्य के बड़े स्वरूप की जानकारी देता है, इसलिए इसे ' #अनुसंधान #वाक्य ' भी कहा जाता है।
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ब्रह्म का स्वरूप ---
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वेदांत में #सच को ' ब्रह्म ' के रूप में स्वीकार किया गया है। इस ब्रह्म के पास ही वह #माया नामक शक्ति है, जिसके कारण एक सत्य तक पहुंचने के कई रास्ते दिखते हैं।
-----जो कई रास्ते या ब्रह्म के कई रूप दिखते हैं , वह दरअसल माया नामक शक्ति का परिणाम है। ब्रह्म एक है और जो विभिन्नता दिखती है , वह ब्रह्म के ही अलग-अलग रूप हैं।
------हर रूप की अलग विशेषता हो सकती है , उनके नाम भी अलग-अलग हो सकते हैं, पर सार-तत्व एक ही है और मूल भी एक ही और सिर्फ एक ही है। हमारा रूप व नाम दूसरे से अलग हो सकता है और इस तरह अनंत लोगों का रूप सामने आ सकता है।
---------इस अद्वैत के सिद्धांत के मुख्य चार बिंदु हैं-
**ब्रह्म का अस्तित्व है ,
**ब्रह्म एक है ,
**आप ब्रह्म हैं और
** मैं भी ब्रह्म हूं।
--------इसमें ब्रह्म को भगवान या चैतन्य का भी नाम दिया जा सकता है।
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मोक्ष या मुक्ति का स्वरुप ------
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ब्रह्म की इस अनंतता को पहचानना और अद्वैत के रहस्य को समझना ही मानव जीवन का वास्तविक उद्देश्य है | पूर्ण मुक्ति या मोक्ष तक पहुंचने का यही एकमात्र मार्ग है।
-------आध्यात्मिक जीवन के तीन प्रमुख चरण माने जाते हैं -
**द्वैत,
**विशिष्टताद्वैत और
**अद्वैत।
----------हर व्यक्ति जीवन के इन तीन चरणों से होकर गुजरता है।
----#द्वैत रूपी प्रथम चरण में व्यक्ति और भगवान दोनों का अलग-अलग अस्तित्व रहता है।
-----#दूसरे चरण में व्यक्ति खुद का भगवान से तादाम्य अनुभव करने लगता है परन्तु दो अलग अलग अस्तित्व की उपस्थिति का आभास रहता है |
-----#अद्वैत रूपी अंतिम चरण में व्यक्ति को एक ईश्वर से एकत्व अर्थात ब्रह्म व आत्मा के एकत्व का आभास होता है। उसे यह ज्ञात होता है कि मेरा या तेरा जैसे शब्दों का कोई अस्तित्व नहीं। ब्रह्म और आत्मा एक ही हैं । यही वह महादशा होती है ---जब मैं था तब हरि नहीं अब हरि हैं मैं नाहिं----यही #मोक्ष है |

उपनिषदों में अन्य महावाक्य --
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चार महावाक्यों के अलावा उपनिषदों में कुछ अन्य महत्वपूर्ण महावाक्य भी हैं, इन्हें #उक्तियाँ व #महासूत्र भी कहा जा सकता है –
-----'#सर्वम् #खल्विदम #ब्रह्म ' यह सारा संसार ब्रह्म हैं। सब ब्रह्म में स्थित हैं सब में ब्रह्म उपस्थित है |
-----=='ब्रह्म सत्यं जगत मिथ्या ' ==ब्रह्म ही सत्य है, जगत यानी यह दुनिया मिथ्या है, आभासी है माया के कारण विविध रूप दिखाई देते हैं ।
------==='वसुधैव कुटुंबकम' -====का अर्थ है, पूरी दुनिया ही मेरा परिवार है। सभी धर्म में इस प्रकार की बात कही गई है। वसुधैव कुटुंबकम की धारणा हमें उस प्यार की शिक्षा देती है, जो हर जीव, हर आत्मा में विद्यमान है।
------==अतिथि देवो भव=== (अतिथि देवता समान होते हैं) को वही महत्व दिया गया है जो #मातृ देवो भव और #पितृ देवो भव को मिला है।
------==सत्यं शिवं सुन्दरम् ==--- ब्रह्म सत्य की व्याख्या करता है और इसकी प्राप्ति का मार्ग भी बतलाता है। इस उक्ति में जीवन के तीन पक्ष बताए गए हैं: सत्य, शिव और सुंदर। यहां शिव चेतना और सुंदर आंतरिक आह्लाद का प्रतीक है। इस उक्ति को दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि सत्य ही शिव है और सत्य ही सुंदर है। इस उक्ति में मुख्य रूप से सत्य के महत्व को दर्शाया गया है। सत्य के मार्ग पर चल कर ही आप शिव और आंतरिक प्रसन्नता को प्राप्त करते हैं, वही वास्तविक सौन्दर्य भी है| सत्य ही हमारे मस्तिष्क, भाषा और कृत्यों में एकरूपता या मेल स्थापित करता है। धर्म के तीन पक्ष भी सत्य, शिव और सुंदर ही हैं। यह भारतीय संस्कृति के प्रत्येक भाव, व्यवहार व कृतित्व का संतुलन व मूल तत्व है | जो सत्य होगा वही शिव भी होगा एवं वही सुन्दर भी | किसी भी तत्व, भाव व कृतित्व व व्यवहार में सुन्दर तत्व सबसे अंत में है ----अर्थात सत्य के बिना, कल्याणकारी रूप के बिना सौन्दर्य का कोई अर्थ नहीं |
------==सत्, चित्त और आनंद ==- यहां चित्त चेतना और आनंद सुंदर या आंतरिक प्रसन्नता का द्योतक है। ब्रह्म सच्चिदानंद है, अर्थात आत्मा भी सच्चिदानंद है, यदि वह सत्य में स्थित चित है तभी आनंद स्थिति में है, तभी ब्रह्म से तादाम्य में है |