१, क्या मित्रता में ( पुरुष-पुरुष या स्त्री-स्त्री या स्त्री-पुरुष कोई भी ) वास्तव में दोनों पक्षों में बरावरी रहती है ---नहीं--आप ध्यान से देखें एक प्रायः गरीब एक अमीर, एक एरोगेन्ट एक डोसाइल, एक नासमझ एक समझदार,एक कम समर्पित एक अधिक पूर्ण समर्पित --होते हैं तभी गहरी दोस्ती चल पाती है । बस बराबरी होने पर नहीं।वे समय समय पर अपनी भूमिका बदलते भी रहते हैं, आवश्यकतानुसाअर व एक दूसरे के मूड के अनुसार। ।
२, यही बात स्त्री-पुरुष सम्बन्ध, पति-पत्नी मित्रता पर क्यों नहीं लागू होती?----किसी एक को तो अपेक्षाक्रत झुक कर व्यवहार करना होगा, या विभिन्न देश,काल, परिस्थियों, वस्तु स्थितियों पर किसी एक को झुकना ही होगा।यथायोग्य व्यवहार करना होगा । जब मानव गुफ़ा-जन्गल से सामाज़िक प्राणी बना तो परिवार ,सन्तान आदि की सुव्यवस्था हेतु नारी ने स्वयम ही समाज़ का कम सक्रिय भाग होना स्वीकार किया( शारीरिक-सामयिक क्षमता के कारण) और पुरुष ने उसका समान अधिकार का भागी होना,व यथा-योग्य, सम्मान, सुरक्षा का दायित्व स्वीकार किया|---
---वस्तुतः आवश्यकता है , मित्रता की, सन्तुलन की , एक दूसरे को समझने की,यथा योग्य, यथा स्थिति सोच की,स्त्री-पुरुष दोनों को अच्छा, सत्यनिष्ठ, न्यायनिष्ठ इन्सान बनने की। एक दूसरे का आदर, सम्मान,करने की, विचारो की समन्वय-समानता की ताकि उनके मन-विचार एक हो सकें । रिग्वेद के अन्तिम मन्त्र (१०-१९१-२/४) में क्या सुन्दर कथन है---
"" समानी व अकूतिःसमाना ह्रदयानि वः ।
समामस्तु वो मनो यथा वः सुसहामतिः ॥"""---अर्थात हे मनुष्यो ( स्त्री-पुरुष, पति-पत्नी , राजा-प्रज़ा आदि ) आप मन,बुद्धि,ह्रदय से समान रहें , समान व्यवहार करें,परस्पर सहमति से रहें ताकि देश, समाज़, घर,परिवार सुखी, सम्रद्ध, शान्त जीवन जी सके ॥
कवि ने कहा है---
”’ जो हम हें तो तुम हो सारा जहां है,
जो तुम हो तो हम हैं सारा जहां है ।"" -----