ब्लॉग आर्काइव

डा श्याम गुप्त का ब्लोग...

मेरी फ़ोटो
Lucknow, UP, India
एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं... काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद .. my blogs-- 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति... 2.drsbg.wordpres.com, 3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त

मंगलवार, 27 सितंबर 2022

डॉ श्याम गुप्त की नवीन पुस्तक----तेरे कितने रूप गोपाल---श्याम पदावली----- श्याम पदावली का कथ्य--लेखक

....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...


.                                         श्याम पदावली का कथ्य

 

                तत्पुरुष लीलारमण श्रीकृष्ण की असीम अनुकम्पा, लीलामयी सर्वेश्वरी राधारानी की दया माया रूपी  वरदहस्त एवं माँ वीणापाणि के  कृपा-हस्त से इन पदों की संरचना का संकल्प व रचना चेष्टा होपाई है |  यद्यपि भक्त शिरोमणि सूरदास द्वारा राधाकृष्ण लीलामृत के रसवर्षण के उपरांत इस पर रचने को कुछ रह ही कहाँ जाता है इसे कुचेष्टा ही कहा जायगा | तथापि गोविन्द लीला भक्ति में सराबोर मन जिसने बचपन से ही माँ को ब्रह्मानंद भजन माला के पदों के सस्वर पारायण  का श्रवणामृत पान किया हो  एवं  भागवत महापुराण आदि का विभिन्न रूप में कथामृत तथा  रस सिद्ध भक्ति-शिरोमणि सूरदास के  सूरसागर के पदों के रस वर्षण का आत्मानंद जिया हो वह मन लीलाधारी के लीलामृत वर्णन से कब तक दूर रह सकता है | इसी भावनामृत आत्मानंद के व्यक्तीकरण में इन पदों का सृजन हुआ है |

                 पद, काव्य रचना की गेय शैली है। यह गीत का एक रूप है, भक्त कवियों द्वारा यह मुख्यतः प्रयोग किया गया है। इसमें प्रथम पंक्ति  टेक की भांति कम मात्रा की , लगभग आधी अन्य सभी पंक्तियाँ पूरी होतीं हैं। इसका विकास लोकगीतों की परंपरा से माना जाता है। यह मात्रिक छन्द की श्रेणी में आता है। प्राय:पदों के साथ किसी न किसी राग का निर्देश मिलता है। पद विशेष को सम्बन्धित राग में ही गाया जाता है। "टेक" इसका विशेष अंग है। हिन्दी साहित्य में पद शैली की दो परम्पराएँ मिलती हैं। एक सन्तों के "सबदों" की दूसरी कृष्णभक्तों की पद-शैली है, जिसका आधार लोकगीतों की मूलतः ध्रुपद शैली है|

 

            पद शैली की रचना सिद्धों द्वारा चर्यापदों के रूप में आदिकाल से ही शुरू कर दी गयी थी। सन्तों द्वारा इस परम्परा का ग्रहण वहीं से हुआ। स्वानुभूत भावों के सहज उद्गार से इन पदों का सृजन होता  है। इसीलिए इनमें वैयक्तिक अनुभूति की प्रधानता रहती है। इसमें एक ही पद के अन्तर्गत कई छन्दों का समावेश कर होता  है, जैसे दोहा, सरसी आदि।

 

          मध्यकाल में भक्ति भावना की अभिव्यक्ति के लिए पद शैली का प्रयोग हुआ। सूरदास का समस्त काव्य-व्यक्तित्व पद शैली से ही निर्मित है।  "सूरसागर" का सम्पूर्ण कवित्वपूर्ण और सजीव भाग पदों में  ही स्थित है। परमानन्ददास, नन्ददास, कृष्णदासमीराबाईभारतेंदु हरिश्चंद्र आदि के पदों में भी यही मार्मिकता मिलती है। 

 

          लौकिक रस की गीति परम्परा को सूरदास, नंददास, हित-हरिवंस और तुलसीदास आदि अष्टछाप के भक्त कवियों ने अपूर्व अत्मसमर्पणमूलक और अनन्यगामिनी भक्ति के पदों में बदल दिया | चर्चरी फाग हिंडोल वसंत आदि लोक प्रचलित गानों ( धुनों) पर कबीर तुलसी सूर दादू आदि भक्त कवियों ने अपना रंग चढ़ाया और नीति, श्रृंगार संबंधी दोहों एवं छंदों को भी राम और कृष्ण के भक्ति में रंग से रंजित कर  विभिन्न लौकिक व भक्ति  रस के पदों में रच डाला|

 

            तुलसीदास जी ने भी अपनी रचनाएँ पदशैली में की हैं। यह छंद रूप पद कवितावली  के बालकाण्ड से है ---

 दूलह श्री रघुनाथ बने दुलही सिय सुन्दर मंदिर माहीं |

गावत गीत सबै मिलि सुंदरि वेद जुवा जुरि विप्र पढ़ाहीं |

राम कौ रूप निहारति जानकी, कंकन के नग की परछाहीं |

याति सबै सुधि भूलि गयी कर टेकि  रही पल टारति नाहीं|

       वर्तमान में काव्य जगत में पद शैली का अधिक प्रचलन नहीं है परन्तु कुछ कवियों, सामान्य जनता और सुशिक्षित जनों में इनका प्रचार और आकर्षण अभी भी है।

चर्यापद ----

        चर्या' के पद ८वीं से १२वीं शताब्दी के बीच सहजिया सिद्धों द्वारा रचित गीत (पद) हैं जो सर्वाधिक प्राचीन बांग्ला साहित्य के उदाहरण हैं। इन पदों की भाषा असमिया और ओड़िया से भी बहुत मिलती है।  चर्या' का अर्थ आचरण या व्यवहार है। इन पदों में बतलाया गया है कि साधक के लिये क्या आचरणीय है और क्या अनाचरणीय है। इन पदों के संग्रह को 'चर्यापद' के नाम से अभिहित किया गया है। सिद्धों की संख्या चौरासी कही जाती है साधारणत: इनका काल सन्‌ 800 ई.से सन्‌ 1175 ई. तक माना जाता है।

२.

        'चर्यापद' में संग्रहित पदों की रचना कुछ ऐसे रहस्यात्मक ढंग से की गई है और ऐसी भाषा का सहारा लिया गया है कि बिना उसके मर्म को समझे इन पदों का अर्थ समझना कठिन है। इस भाषा को 'संधा' या संध्या

कहा गया है| संध्या या संधा शब्द का प्रयोग 'अभिसंधि' या 'संधि' के अर्थ में किया जाता है, जिस का तात्पर्य दो अर्थों का मिलन है अर्थात्‌ उस शब्द का एक साधारण अर्थ है तथा दूसरा अभीष्ट अर्थ।

 

सबद, सबदी व पद --

         'सबद' 'शब्द' का रूपान्तर है। सबद या शब्द का प्रयोग हिन्दी  के संत-साहित्य में बहुलता से हुआ है।  सामान्य रूप से पद रचनाएँ राग-रागनियों में बँधी होती हैं। सबदों के लिए यह विधान आवश्यक नहीं है। कबीर की रचनाओं में "सबद" का प्रयोग भिन्न भिन्न अर्थों में हुआ है। हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार- संवत् 1715 की लिखी हुई एक प्रति से संगृहीत गोरखबानी  में उद्धृत पदों को "सबदी" कहा गया है। कबीर ने संभवत: वहीं से

सबद" ग्रहण किया होगा।" उपदेशात्मक और सिद्धान्त निरूपक गेय पदों को सबदी कहते हैं। 'गोरखबानी' की प्रथम सबदी है---

बसती न सुन्यं सुन्यं न बसती अगम अगोचर ऐसा।
गगन सिखर महि बालक बोले ताका नाँव धरहुगे कैसा।

 

          नाथों का व्यापक प्रभाव केवल उनके मत या विचारों तक ही सीमित नहीं रहा, उनकी अभिव्यक्ति के विविध प्रकारों ने भी उनके परवर्ती हिंदी संतों को प्रभावित किया है। संत तो प्राय: जनता में प्रचलित भावप्रकाश की शैली को और भाषारूप को अपनाया करते हैं जिससे उनके विचार शीघ्र ही उसमें संचरित हो सकें| नाथों ने सिद्धों से और विभिन्न संप्रदायों संतों ने नाथों से "सबद" रूप पद शैली ग्रहण की।

 

           सबद या "शब्द" प्राय: गेय होते हैं। अत:राग रागिनियों में बँधे होने पर सबद या शब्द कहते जाते रहे हैं। सिद्धों से लेकर निर्गुणी, सगुणी सभी संप्रदाय के संत अथवा भक्तों ने विविध राग रागिनियों में पद रचना की है। परंतु प्रत्येक गेय पद सबद नहीं कहा जाता। संतों की अनुभूति सबद कहलाती है। सबद का प्रयोग भीतरी तथा अनुभव आह्लाद के व्यक्तीकरण के लिए किया जाता है सबद आत्मानुभूति है| सबद गुरु की शिक्षा, निर्भयवाणी, अनहद वाणी, शब्दब्रह्म और परमात्मा के रूप में प्रयुक्त हुआ है| सबद को राग रागिनियों में कहने की पुरानी परिपाटी रही है। इसी से कबीर  के सबद विषयों के अनुसार विभाजित न होकर राग रागिनियों के अनुसार अधिक विभाजित पाए जाते हैं।

 

           वेद  शब्दपरक है और वेद का अर्थ है  ज्ञान। अत: शब्द का भी अर्थ हुआ ज्ञान। वैदिक शब्द अपौरुषेय माने गये हैं और सन्त तथा नाथ-सम्प्रदाय में गुरु की प्रतिष्ठा ब्रह्म के समान ही है, अत: गुरु की वाणी का नामकरण शब्द, सबद, सबदी है। गोरखबानी मैं सबदी का प्रयोग उपदेश के अर्थ में हुआ है- 

सबद एक पूछिबा कहो गुरुदयालं,

बिरिधि थै क्यूँ करि होइबा बालं । 

            सामान्य रूप से पद रचनाएँ राग-रागनियों में बँधी होती हैं। उपदेशात्मक और सिद्धान्त निरूपक गेय पदों को सबदी कहते हैं। अनहद नाद की चर्चा करने वाली गीतियों के अर्थ में भी सबद का प्रयोग है, क्योंकि 'गोरखबानीके अनुसार -'सबद अनाहत' ही सबदी है।

सबद अखण्डित रूप, सबदु नहिं पण्डित होई।

जैसा सबद अगाध, सकल घट रह्यो समोई।
सबदु करै आचार सबद रोये अरु गावै।

निर्गुन सर्गुन बनरि सबद सबही मै पावै"।

 

           सन्तों की सबद (शब्द) अथवा पद नामक रचनाएँ अधिकतर गेय हुआ करती हैं और इनमें आत्मनिवेदन जैसे व्यक्तिगत उद्गारों की ही प्रधानता रहती है। आकार की दृष्टि से ये पद छोटे या बड़े, सभी प्रकार के होते हैं, किन्तु इनकी कोई-न-कोई पंक्ति ऐसी भी होती है, जो 'टेक' के रूप में दोहराई जाती है। इन पदों को ही सन्तों की 'बानी' कहने की भी प्रथा है, यद्यपि इस शब्द का प्रयोग उनकी सभी प्रकार की रचनाओं के लिए भी किया गया मिलता है|

३.

           'सबद' में शब्द ब्रह्म का भाव भी निहित है, सम्भवत:इसीलिए सन्तों ने इस संज्ञा का प्रयोग किया है। पद शैली की रचना सिद्धों द्वारा चर्यापदों के रूप में आदिकाल से ही शुरू कर दी गयी थी। सन्तों द्वारा इस परम्परा का ग्रहण वहीं से हुआ। स्वानुभूत भावों के सहज उद्गार से इन पदों का सृजन हुआ है। इसीलिए इनमें वैयक्तिक अनुभूति की प्रधानता है। कबीर की रचनाओं के कुछ संग्रहों में पदों के साथ रागों का निर्देश भी किया गया है। इन्हें तरह-तरह से गाया जाता है।  

 

पद व ध्रुवपद -- ध्रुपद भारत  की प्रसिद्ध गायन शैली है। यह गायन शैली अपने आप में परिपूर्ण है, जो वेदों से चली आ रही है| नाट्यशास्त्र के अनुसार  वर्णअलंकार, गान-क्रिया, यति, वाणीलय आदि जहाँ ध्रुव रूप में परस्पर संबद्ध रहें, उन गीतों को ध्रुवा कहा गया है। जिन पदों में उक्त नियम का निर्वाह हो रहा हो उन्हें ध्रुव पद या ध्रुपद कहा जाता है| पद शब्द का अर्थ सार्थक शब्द समूह या भाषा है| ध्रुव, प्रबंध का एक प्रकार है तदनुसार–ध्रुवपद का शाब्दिक अर्थ है–वह पद जो ध्रुव नामक गेय प्रबंध में प्रयुक्त हो| वैदिक युग में ऋचागान, छंद गान, प्रबंध गान की परम्पराएं थीं उस प्रबंध गान का एक प्रकार ध्रुवखंड से ध्रुपद के रूप में विकसित हुआ| ध्रुवपद भारतीय शास्त्रीय संगीत का एक मौलिक संगीत रहा है |

       इस प्रकार ऋचागान के पश्चात छंदगान,फिर प्रवंधगान तत्पश्चात ध्रुपद का प्रादुर्भाव माना गया है| ऋचाओं को वैदिक काल का,छंदों को पौराणिक काल का तथा प्रबंध व ध्रुपद की कड़ी आधुनिक काल से जुडी मानी गयी है| प्रसिद्ध कवियों व संगीतज्ञों–सूर,मीरा,अष्टछाप के आचार्यों द्वारा गाये जाने वाले पद, ध्रुपद धमार शैली पर आधारित हैं| मध्ययुगीन वल्लभ सम्प्रदाय में ध्रुवपद शैली की प्रधानता थी | उनके कुछ पदों के शीर्ष पर ध्रुवपद का उल्लेख किया गया है| राग कल्पद्रुम में तत्कालीन संगीतज्ञों के बड़े बड़े पदों को ध्रुवपद के अंतर्गत रखा गया है| सूरदास द्वारा रचित ध्रुवपद अपूर्व नाद-सौंदर्य, गमक एवं विलक्षण शब्द-योजना से ओतप्रोत दिखाई देते हैं।

 

पद रचना-परंपरा

            गीतों की यह परंपरा हिन्दी में, उसके आदि काल से ही चली आरही  है। जब  साहित्यिक अपभ्रंश पुरानी हिन्दी में परिणत हो रही थी, सिद्धों ने, विक्रम की नवीं शताब्दी के लगभग अपने समय की प्रचलित भाषा में चर्चा गीतियों की रचना की थी जिनमें हम इन गीतों के पूर्वरूप भली भाँति देख सकते हैं। सिद्धों के  अनेक गीत पदों के रूप मे आज भी सुरक्षित हैं। सिद्धों की उक्त गीतियों में भी, गीतों की ही भाँति, रागों की व्यवस्था हैं; किन्तु उनमें टेक प्रायः नहीं दीख पड़ते | बहुत से पदों में, भाषा की शुद्धता व प्रवाह के न रहने के कारण, उनमें गेयत्व नहीं पाया जाता और न विषय की दुरूहता के कारण, उनमें काव्य की दृष्टि से, वैसी सरसता या रमणीयता ही दृष्टिगोचर होती है। सिद्धों व नाथों की उक्त रचना-पद्धति को पीछे से मराठी में नामदेव आदि तथा हिन्दी में कबीर रैदास आदि संतों ने, कुछ परिवर्तन  के साथ, प्रचलित रखा। अतः  इनके भी पद अधिकतर दार्शनिक व उपदेशात्मक ही बनकर रह गये है।

             उक्त कई दोषों से मुक्त व विशुद्ध पदों का संग्रह, सर्वप्रथम,  तेरहवीं विक्रम-शताब्दी के भक्त कवि जयदेव द्वारा रचे गये प्रसिद्ध ‘‘गीत गोविन्द’’ में मिलता है, जो हिन्दी में न होकर, संस्कृत में है | जयदेव का एक पद प्रस्तुत है ---

हरिहरि याहि माधव याहि केशव मा वद केतव वादं |

रज निज नित जागर राग कषायित मलष निमेषं |

मदन महीपति कनक दंड रूचि केसर कुसुम विकासे |
मिलित शिलीमुख पाटलि पटल कृत स्मर तूणि विलासे || --गीत गोविन्द से –

 

         हिन्दी के भक्त कवि वैष्णवों की पद्धति  में पहले एक टेक देकर उसके नीचे तीन-चार या  अधिक चरण जोड़ दिये जाते  है। और  पदों को सिद्धों की पद्धति की भाँति ही  किसी न किसी प्रकार के राग व रागिनी के अन्तर्गत रक्खा गया है।  तत्पश्चात पन्द्रहवीं व सोलहवीं विक्रम-शताब्दियों में, प्रायः उसी आदर्श पर, मैथिली में विद्यापति, गुजराती में नरसी मेहता तथा बँगला में चंडीदास द्वारा, की गई रचनायें भी पायी जाती हैं।

 

       मीराबाई के पदों की रचना अधिकतर वैष्णव पद्धति पर ही हुई है और इसी का अनुसरण उनके समसामयिक भक्त कवियों  सूरदासहितहरिवंश, गदाधर भट्ट, नन्द दास ,कृष्ण दास, कुम्भन दास आदि अष्ट छाप के कवियों ने भी किया है |

४.

मीरा का एक प्रस्तुत है ---

 

अब तौ हरी नाम लौ लागी।
सब जगको यह माखनचोरा, नाम धर्‌यो बैरागीं॥
कित छोड़ी वह मोहन मुरली, कित छोड़ी सब गोपी।
मूड़ मुड़ाइ डोरि कटि बांधी, माथे मोहन टोपी॥
मात जसोमति माखन-कारन, बांधे जाके पांव।
स्यामकिसोर भयो नव गौरा, चैतन्य जाको नांव॥
पीतांबर को भाव दिखावै, कटि कोपीन कसै।
गौर कृष्ण की दासी मीरां, रसना कृष्ण बसै॥

 

नरसी मेहता का एक पद ---

 

भूतल भक्ति पदारथ मोकूँ , ब्रह्मलोक मां नांही रे।

पुण्य करी अमरातुरी पाम्या, अन्ते चौरासी मांही रे।।टेक।।

हरिना जन तो मुक्ति न मागे, मागे जन्मोजन्म अवतार रे।

नित्य सेवा नित्य कीर्तन ओच्छव, निरखवा नन्द कुमार रे।

भरतखंड भूतलमां जनमी जेणे गोविन्दना गुण गाया रे।

धन धन रे एनां मात पिताने, सफल करी ऐने काया रे।

धन वृन्दावन धन ए लीला, धन ए ब्रजना वासी रे।

अष्ट महासिद्धि आँगणिये रे ऊमी, मुक्ति छे एमनी दासी रे।

ए रसनो स्वाद शंकर जाणे, के जाणे शुक जोगी रे ||

 

        मैथिल कवि-कोकिल, रससिद्ध कवि विद्यापति,  तुलसी, सूर, कबीर , मीरा सभी से पहले के कवि हैं। इनका संस्कृत, प्राकृत अपभ्रंश एवं मातृभाषा मैथिली पर समान अधिकार था।  इनके गेय पद उत्तर भारत में सर्वप्रथम प्रचलित हुए थे | महाकवि विद्यापति  अपनी अमर पदावली के रचना के लिए अपने पूर्ववर्ती संस्कृत कवियों खासकर भारवि, कालिदास, जयदेव, हर्ष अमरुक, गोवर्द्धनाचार्य आदि के ऋणी हैं। क्योंकि जिस विषयों को विद्यापति ने अपनी पदावली में प्रस्तुत किया वे विषय पूर्व से ही संस्कृत के कवियों की रचनाओं में प्रस्तुत हो चुका था

एक पद दृष्टव्य है –

 

ए सखि हामारि दुखेर नाहि ओर।

ए भरा बादर माह भादर शून्य मन्दिर मोर |

झञझा घन गरजन्ति सन्तति भुबन भरि बरिखिन्तिया।

कान्त पाहुन काम दारुण सघने खर शर हन्तिया |

कुशिल शत शत पात-मोदित मूर नाचत मातिया।

मत्त दादुरी डाके डाहुकी फाटि याओत छातिया |

तिमिर भरि भरि घोर यामिनी थिर बिजुरि पाँतिया।

बिद्यापति कह कैछे गोङायबि हरि बिने दिन रातिया ||

 

             हिन्दी में  पद  के तकनीकी रचना की दो मुख्य धारायें  मिलतीं हैं---एक समग्र अन्त्यानुप्रास  धारा -जिसमें सभी पन्क्तियों में वही अन्त्यानुप्रास रहता है जिसे मैं सूरदास परंपरा की पद धारा कहता हूँ  दूसरी युगल अन्त्यानुप्रास धारा --जिसमें दो दो युगल पन्क्तियों के अन्त्यानुप्रास होते हैं, जो हर दो पन्क्तियों में बदल भी सकते हैं जिसे मैंने  तुलसीदास परम्परा  की पद धारा कहा है |  यद्यपि सभी कवियों  की रचनाओं में दोनों ही धाराओं का प्रचुर प्रयोग पाया जाता है |  शायद ये संगीत के धुन पर आधारित भिन्नताएं हैं जिसे मैंने सरलता हेतु यह वर्गीकरण दे दिया है  | यथा

५.

१.सूरदास परम्परा--
लाज न आवत दास कहावत।

 सो आचरन-बिसारि सोच तजि जो हरि तुम कहँ भावत |
सकल संग तजि भजत जाहि मुनि, जप तप जाग बनावत।
मो सम मंद महाखल पाँवर, कौन जतन तेहि पावत |
हरि निरमल, मल ग्रसित ह्रदय, असंजस मोहि जनावत।
जेहि सर काक बंक बक-सूकर, क्यों मराल तहँ आवत |
जाकी सरन जाइ कोबिद, दारुन त्रयताप बुझावत।
तहूँ गये मद मोह लोभ अति, सरगहुँ मिटत न सावत |
भव-सरिता कहँ नाउ संत यह कहि औरनि समुझावत।

हौं तिनसों हरि परम बैर करि तुमसों भलो मनावत |
नाहिन और ठौर मो कहॅं, तातें हठि नातो लावत।
राखु सरन उदार-चूड़ामनि, तुलसिदास गुन गावत |

---

देखो माई हलधर गिरधर जोरी ॥ध्रुव |
हलधर हल मुसल कलधारे गिरधर छत्र धरोरी |
हलधर ओढे पित पितांबर गिरधर पीत पिछोरी |
हलधर कहे मेरी कारी कामरी गिरधर ने ली चोरी |

सूरदास प्रभु की छबि निरखे भाग बडे जिन कोरी ||

---

मन लागो यार फकीरी में ।

जो सुख पावो राम भजन में, सो सुख नाही अमीरी में ।
भला बुरा सब का सुन लीजै, कर गुजरान गरीबी में |

प्रेम नगर में रहिनि हमारी, बलि बलि आई सबुरी में ।
हाथ में खूंडी, बगल में सोटा, चारो दिशा जगीरी में |

आखिर यह तन ख़ाक मिलेगा, कहाँ फिरत मगरूरी में ।
कहत कबीर सुनो भाई साधो, साहिब मिले सबुरी में |

 

. तुलसी परम्परा---

हरि! तुम बहुत अनुग्रह किन्हों।
साधन-नाम बिबुध दुरलभ तनु, मोहि कृपा करि दीन्हों |
कोटिहुँ मुख कहि जात न प्रभुके, एक एक उपकार।
तदपि नाथ कछु और माँगिहौं, दीजै परम उदार |
बिषय-बारि मन-मीन भिन्न नहिं होत कबहुँ पल एक।
ताते सहौं बिपति अति दारुन, जनमत जोनि अनेक |
कृपा डोरि बनसी पद अंकुस, परम प्रेम-मृदु चारो।
एहि बिधि बेगि हरहु मेरो दुख कौतुक राम तिहारो |
हैं स्त्रुति बिदित उपाय सकल सुर, केहि केहि दीन निहोरै।
तुलसीदास यहि जीव मोह रजु, जोइ बाँध्यो सोइ छोरै |

---

देखो ऐसो हरी सुभाव |
बिनु गंभीर उदार उदधि प्रभु जानी शिरोमणी राव ॥ध्रु०॥
बदन प्रसन्न कमलपद सुनमुख देखत है जैसे |
बिमुख भये की कृपा वा मुख की फिरी चितवो तो तैसे |
सरसो इतनी सेवा को फल मानत मेरु समान ।

६.

मानत सब कुछ  सिंधु अपराधहि बुंद आपने जान |
भक्त बिरह कातर करुणामय डोलत पाछे लाग ।
सूरदास ऐसे प्रभु को दये पाछे पिटी अभाग ||

 

संतो जागत नींद न कीजै।।
काल न खाय कलप नहिं व्यापै। देह जुरा नहिं छीजै।।
उलटी गंग समुद्रहिं सोखै। ससि अउ सूरहिं ग्रासै।।
नव ग्रह मारि रोगिया बैठे। जल में बिंबु प्रगासै।।
बिनु चरनन को दहुँ दिसि धावै। बिनु लोचन जग सूझै ।।
ससा उलटि सिंह को ग्रासै। ई अचरज कोई बूझै ।।
बैठि गुफा में सभजग देखै। बाहर किछउ न सूझै ।।
उलटा बान पारधिहीं लागै। सूरा होय सो बूझै ।।
बिना पिआला अमृत अंचवै।नदी नीर भरि राखै।
कहैं कबीर सो जुग जुग जीवै। जो राम सुधा रस चाखै।।

 

              स्वानुभूत भावों के सहज उद्गार से इन पदों का सृजन हुआ है। संगीत व संगति दोनों से ही मैं अनजान हूँ | सहज भाववृत्ति तथा स्वानुभूति द्वारा उत्पन्न  भक्ति-भावनामृत के अनुसरण में जो पद जैसे बनते गए लिखे जाते रहे |  पद रचना में मूलतः वैष्णव भक्ति परम्परा में सूर व तुलसी दोनों परम्पराओं का अनुसरण किया गया है| इस तुच्छ भेंट समर्पण  कृति को  ब्रजेश्वरी राधारानी व भगवान् श्रीकृष्ण की कृपा छाया प्राप्त  हो और  विद्वतजनों, रसज्ञ  पाठकों व भक्तजनों को रसानंद विभोर करने में यह कृति सफल हो यही मेरी कामना है |

 

 

  लखनऊ, सितम्बर  २०२२ ई.                                                                    --  डा श्याम गुप्त