....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
आर्यों की सभ्यता को वैदिक सभ्यता कहते हैं। पहले दृष्टिकोण के अनुसार लगभग १७०० ईसा पूर्व में आर्य ( परन्तु मूल देश व क्षेत्र के बारे में स्थिति किसी को स्पष्ट नहीं है ) अफ़्ग़ानिस्तान, कश्मीर, पंजाब और हरियाणा में बस गये। तभी से वो लोग (उनके विद्वान ऋषि) अपने देवताओं को प्रसन्न करने के लिये वैदिक संस्कृत में मन्त्र रचने लगे। पहले चार वेद रचे गये, जिनमें ऋग्वेद प्रथम था। उसके बाद उपनिषद जैसे ग्रन्थ आये। वेद, उपनिषद आदि ग्रन्थ अनादि, नित्य हैं, ईश्वर की कृपा से अलग-अलग मन्त्रद्रष्टा ऋषियों को अलग-अलग ग्रन्थों का ज्ञान प्राप्त हुआ जिन्होंने फिर उन्हें लिपिबद्ध किया। बौद्ध व अन्य धर्मोंके प्रादुर्भाव से वैदिक धर्म में परिवर्तन आये । नये देवता और नये दर्शन उभरे। इस तरह आधुनिक हिन्दू धर्म का जन्म हुआ।
दूसरे दृष्टिकोण के अनुसार हिन्दू धर्म का मूल सिन्धु सरस्वती परम्परा (जिसका स्रोत मेहरगढ़ की ६५०० ईपू संस्कृति में मिलता है) से भी बहुत पहले की भारतीय परम्परा में है। जिसे १९६०८५३११० साल पुरानी बताया जाता है ।
वैदिक या हिन्दू धर्म ने विश्व को- ब्रह्म व ईश्वर की अवधारणा की एक विशिष्ट विचार-पद्धति प्रदान की है जो मानव इतिहास में एक अनूठी विचार पद्धति है जिसने अध्यात्म व दर्शन के ज्ञान को नयी-नयी ऊचाइयों तक पहुंचाया एवं मानव के स्वयं के आचरण को अत्यधिक महत्ता प्रदान की जो मानव जाति की प्रगति का मूल मन्त्र है । सामान्यतया ब्रह्म व ईश्वर को हम एक ही समझते हैं परन्तु वे एक होते हुए भी भिन्न हैं ......
हिन्दू धर्म का वस्तुतः इतिहास करोड़ों वर्ष का है। भारत ( पाकिस्तानी क्षेत्र सहित बृहद हिन्दुस्थान ) की सिन्धु घाटी सभ्यता में आधुनिक हिन्दू धर्म के विभिन्न चिह्न मिलते हैं। इनमें मातृदेवी की मूर्तियाँ, शिव-पशुपति जैसे देवता की मुद्राएँ, लिंग, पीपल की पूजा, इत्यादि प्रमुख हैं। भारत की प्राचीनता के बारे में इतिहासकार व समाज शास्त्री एक मत नहीं हैं ।
आधुनिक पाश्चात्य इतिहासकारों के एक दृष्टिकोण के अनुसार इस सभ्यता( सिन्धु घाटी सभ्यता) के अन्त के दौरान मध्य एशिया से एक अन्य जाति का आगमन हुआ, जो स्वयं को आर्य कहते थे, और संस्कृत नाम की एक हिन्द यूरोपीय भाषा बोलते थे। यद्यपि वे स्पष्टतः कहाँ से आये, किस क्षेत्र, देश के निवासी थे यह किसी को स्पष्ट नहीं है । कुछ विद्वान् आर्यों का मूलस्थान उत्तरी ध्रुव-प्रदेश भी मानते हैं । जो वेदों में वर्णित विभिन्न घटनाओं, तथ्यों से प्रतीत होता है । एक अन्य दृष्टिकोण के अनुसार ( जो मूलतः भारतीय विद्वानों, इतिहासकारों, समाज शास्त्रियों व वैदिक-पौराणिक ज्ञानियों के मत हैं ) सिन्धु घाटी सभ्यता के लोग स्वयं ही आर्य थे और उनका (एवं शायद आदि-मानव का भी) मूलस्थान भारत ही था। पुरायुग में पृथ्वी के महा-भूखन्ड गोन्डवाना लेन्ड पर जीवन के लिये सबसे उपयुक्त, सुरक्षित स्थान भारतीय उपभूमि (इसीलिये आज भी मध्य-भारत के केन्द्रीय-भाग को गोंडवाना प्रदेश कहा जाता है) पर मानव का सर्वप्रथम अवतरण हुआ। जब से मानव ने दो पैरों पर चलना सीखा, सामाजिकता को पहचाना, मानव-संकुल बना, प्रारम्भिक ज्ञान -विज्ञानं को जाना तभी से सिन्धु घाटी सभ्यता की नींव रखी गयी और वेदों की रचना के पश्चात इसे वैदिक-सभ्यता कहा गया । ज्ञान, दर्शन, अध्यात्म के व्यवहारिक-तत्व- धर्म के अवतरण पर इसे सनातन व हिन्दू धर्म कहा गया व देश को हिन्दुस्थान ।
समय समय पर भारत से ही पूर्वोत्तर की ओर चलते हुए आदि-मानव ने एशिया में फ़ैलते हुए बेरिन्ग-स्ट्रेट ( रूस व कनाडा के मध्य संकरी भूमि भाग ) होते हुए अमेरिका में प्रवेश किया । एक अन्य शाखा पश्चिमोत्तर की ओर चलते हुए योरोप व अफ़्रीका में फ़ैली। जहां उसने दिक, काल, परिस्थिति व आवश्यकता के अनुसार अपनी-अपनी सभ्यताओं, दर्शन व धर्मों की नींव रखी।आर्यों की सभ्यता को वैदिक सभ्यता कहते हैं। पहले दृष्टिकोण के अनुसार लगभग १७०० ईसा पूर्व में आर्य ( परन्तु मूल देश व क्षेत्र के बारे में स्थिति किसी को स्पष्ट नहीं है ) अफ़्ग़ानिस्तान, कश्मीर, पंजाब और हरियाणा में बस गये। तभी से वो लोग (उनके विद्वान ऋषि) अपने देवताओं को प्रसन्न करने के लिये वैदिक संस्कृत में मन्त्र रचने लगे। पहले चार वेद रचे गये, जिनमें ऋग्वेद प्रथम था। उसके बाद उपनिषद जैसे ग्रन्थ आये। वेद, उपनिषद आदि ग्रन्थ अनादि, नित्य हैं, ईश्वर की कृपा से अलग-अलग मन्त्रद्रष्टा ऋषियों को अलग-अलग ग्रन्थों का ज्ञान प्राप्त हुआ जिन्होंने फिर उन्हें लिपिबद्ध किया। बौद्ध व अन्य धर्मोंके प्रादुर्भाव से वैदिक धर्म में परिवर्तन आये । नये देवता और नये दर्शन उभरे। इस तरह आधुनिक हिन्दू धर्म का जन्म हुआ।
दूसरे दृष्टिकोण के अनुसार हिन्दू धर्म का मूल सिन्धु सरस्वती परम्परा (जिसका स्रोत मेहरगढ़ की ६५०० ईपू संस्कृति में मिलता है) से भी बहुत पहले की भारतीय परम्परा में है। जिसे १९६०८५३११० साल पुरानी बताया जाता है ।
वैदिक या हिन्दू धर्म ने विश्व को- ब्रह्म व ईश्वर की अवधारणा की एक विशिष्ट विचार-पद्धति प्रदान की है जो मानव इतिहास में एक अनूठी विचार पद्धति है जिसने अध्यात्म व दर्शन के ज्ञान को नयी-नयी ऊचाइयों तक पहुंचाया एवं मानव के स्वयं के आचरण को अत्यधिक महत्ता प्रदान की जो मानव जाति की प्रगति का मूल मन्त्र है । सामान्यतया ब्रह्म व ईश्वर को हम एक ही समझते हैं परन्तु वे एक होते हुए भी भिन्न हैं ......
उपनिषदों के अनुसार ब्रह्म ही परम तत्व है ( त्रिमूर्ति के देवता ब्रह्मा नहीं )। वो ही जगत का सार है, जगत की आत्मा है। वो विश्व का आधार है। उसी से विश्व की उत्पत्ति होती है और विश्व नष्ट होने पर उसी में विलीन हो जाता है। यह ब्रह्म एक, और सिर्फ़ एक ही है। वो विश्वातीत भी है और विश्व के परे भी। वही परम सत्य, सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञ है। वो कालातीत, नित्य और शाश्वत है। वही परम ज्ञान है। ब्रह्म के दो रूप हैं : परब्रह्म और अपरब्रह्म ।
परब्रह्म... -शुद्ध अव्यक्त ब्रह्म असीम, अनन्त और रूप-शरीर विहीन है। वो सभी गुणों से भी परे है (निर्गुण ब्रह्म, ऋत , सन्नासद ), वह शाश्वत सत्य व ऋत ( सदा सत्य, आदि-मूल ) है उसमें अनन्त सत्य, अनत चित् और अनन्त आनन्द है। ब्रह्म की पूजा नही की जाती है, क्योंकि वो पूजा से परे और अनिर्वचनीय है। उसका ध्यान किया जाता है। प्रणव... ॐ (ओम्) ब्रह्मवाक्य है, जिसे परम पवित्र शब्द माना जाता है । ओम की ही ध्वनि पूरे ब्रह्मांड मे गून्ज रही है। ध्यान मे गहरे उतरने पर यह सुनाई देता है। इसे आदि-नाद, अनहद-नाद, ब्रह्म नाद, ईश्वरीय नाद कहा जाता है। ब्रह्म की परिकल्पना वेदान्त दर्शन का केन्द्रीय स्तम्भ है, और हिन्दू धर्म की विश्व को अनुपम देन है।
ईश्वर— ( या अपरब्रह्म.. हिरण्यगर्भ, सदब्रह्म, व्यक्तब्रह्म, सगुण ब्रह्म )
ब्रह्म और ईश्वर के सम्बन्ध पर विविध हिन्दू दर्शनों के अलग अलग मत हैं ।
अद्वैत वेदान्त ( मीमान्सा व वेदान्त दर्शन ) के अनुसार जब मानव ब्रह्म को अपने मन से जानने की कोशिश करता है, तब ब्रह्म ईश्वर हो जाता है, क्योंकि मानव माया ( जो ब्रह्म की ही अपरा-शक्ति है) वश में रहता है। अर्थात जब माया के आइने में ब्रह्म की छाया पड़ती है, तो ब्रह्म का प्रतिबिम्ब हमें ईश्वर के रूप में दिखायी पड़ता है। ईश्वर अपनी इसी आदि शक्ति "माया" से विश्व की सृष्टि करता है और उसपर शासन करता है। माया स्वयं ईश्वर पर अपना प्रभाव नहीं डाल पाती है, जैसे एक ज्ञानी अपने ही ज्ञान से अचंम्भित नहीं होता है। माया ईश्वर की दासी है, परन्तु हम जीवों की स्वामिनी है । वैसे तो ईश्वर रूपहीन है, पर माया की वजह से वो हमें कई देवताओं के रूप में या कण कण में प्रतीत हो सकता है। अर्थात अव्यक्त रूप में वही ब्रह्म होता है व्यक्त रूप में मायापोहित( युक्त) होकर वह ईश्वर कहलाता है । यह ईश्वर तीन रूपों में व्यक्त होता है --१.ब्रह्म के व्यक्त रूप -सगुण ब्रह्म ( ईश्वर ) २.माया द्वारा सूक्ष्म पदार्थों का सृजन -काल में ...हिरण्यगर्भ व ३. माया द्वारा स्थूल पदार्थों के सृजन काल में--वैश्वानर ।
वैष्णव मतों और दर्शनों में माना जाता है कि ईश्वर और ब्रह्म में कोई फ़र्क नहीं है--और विष्णु (या कृष्ण) ही ईश्वर हैं। वे ही जब अपने कृष्ण-लोक, गोलोक में स्थित रहते हैं ब्रह्म रूप हैं एवं समय समय पर पृथ्वी पर ईश्वर रूप अवतार लेते हैं ।
न्याय, वैषेशिक और योग दर्शनों के अनुसार ईश्वर एक परम और सर्वोच्च आत्मा है, जो चैतन्य से युक्त है और विश्व का सृष्टा और शासक है। सांख्य-दर्शन में ईश्वर व ब्रह्म की कल्पना नहीं अपितु सिर्फ़ पुरुष-प्रकृति से ही सन्सार रचित है ।
मुंडकोपनिषद के अनुसार ... जगत की योनि ब्रह्म ही है, ईश्वर जगत का उपादान कारण है किन्तु ब्रह्म उसका नैमित्तिक कारण । ब्रह्म की इच्छा से ही मायारोपित ईश्वर का प्रादुर्भाव होता है और वह सृष्टि-चक्र का सृजन करता है ।
मूल-तत्व है कि... ईश्वर एक, और केवल एक है। वो विश्वव्यापी और विश्वातीत दोनो है। ईश्वर सगुण है। वो स्वयंभू और विश्व का आदि-कारण (सृष्टा) है। वो पूजा और उपासना का विषय है। वो पूर्ण, अनन्त, सनातन, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापी है। वो राग-द्वेष से परे है, पर अपने भक्तों से प्रेम करता है और उनपर कृपा करता है। उसकी इच्छा के बिना इस दुनिया में एक पत्ता भी नहीं हिल सकता। वो विश्व की नैतिक व्यवस्था को कायम रखता है और जीवों को उनके कर्मों के अनुसार सुख-दुख प्रदान करता है। श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार विश्व में नैतिक पतन होने पर वो समय-समय पर धरती पर अवतार (जैसे कृष्ण) रूप ले कर आता है। ईश्वर ही परमेश्वर, परमात्मा, विधाता, भगवान नाम से प्रचलित है ।
मुंडकोपनिषद के अनुसार ... जगत की योनि ब्रह्म ही है, ईश्वर जगत का उपादान कारण है किन्तु ब्रह्म उसका नैमित्तिक कारण । ब्रह्म की इच्छा से ही मायारोपित ईश्वर का प्रादुर्भाव होता है और वह सृष्टि-चक्र का सृजन करता है ।
मूल-तत्व है कि... ईश्वर एक, और केवल एक है। वो विश्वव्यापी और विश्वातीत दोनो है। ईश्वर सगुण है। वो स्वयंभू और विश्व का आदि-कारण (सृष्टा) है। वो पूजा और उपासना का विषय है। वो पूर्ण, अनन्त, सनातन, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापी है। वो राग-द्वेष से परे है, पर अपने भक्तों से प्रेम करता है और उनपर कृपा करता है। उसकी इच्छा के बिना इस दुनिया में एक पत्ता भी नहीं हिल सकता। वो विश्व की नैतिक व्यवस्था को कायम रखता है और जीवों को उनके कर्मों के अनुसार सुख-दुख प्रदान करता है। श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार विश्व में नैतिक पतन होने पर वो समय-समय पर धरती पर अवतार (जैसे कृष्ण) रूप ले कर आता है। ईश्वर ही परमेश्वर, परमात्मा, विधाता, भगवान नाम से प्रचलित है ।
भारतीय विचार तत्व के अनुसार इसी ईश्वर को मुसल्मान (अरबी में) अल्लाह, (फ़ारसी में) ख़ुदा, ईसाई (अंग्रेज़ी में) गॉड, व अन्य सभी अपनी अपनी भाषा में विभिन्न नामों से स्मरण करते हैं।यथा -- "एको सद विप्राः बहुधा वदन्ति "