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डा श्याम गुप्त का ब्लोग...

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Lucknow, UP, India
एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं... काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद .. my blogs-- 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति... 2.drsbg.wordpres.com, 3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त

सोमवार, 21 नवंबर 2016

कविता का घ -----काव्य क्या है.... डा श्याम गुप्त ...

                                    ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...

 क्रमिक आलेख--कविता का क ख ग घ...


 कविता का घ-----




 



                
काव्य क्या है.... 


            सभी के अनुभव व विचार लगभग समान ही होते है | ज्ञान भी समान हो सकता है परन्तु विचारों की गंभीरता, सूक्ष्मता, निरीक्षण की गहनता, चिंतन, व अभिव्यंजना सभी की पृथक पृथक होती है | इसीलिये मानव समूह में साहित्यकार, विद्वान्, विचारक, चिन्तक, ज्ञानी, सामान्य आदि वर्ग होते हैं| यथा ...
सर्व ज्ञान संपन्न विविधि नर,
सभी एक से कब होते हैं  |
अनुभव श्रृद्धा तप व भावना,
होते सबके भिन्न  भिन्न हैं |
भरे जलाशय ऊपर समतल,
होते ऊंचे -नीचे तल में ||    ---शूर्पणखा काव्य-उपन्यास से
      जब कोई घटना , तथ्य या कथ्य, स्थिति, विषय-वस्तु अथवा भाव ..मन को गहराई तक स्पर्श करते हैं एवं अंतर्मन को मंथित करते हैं तो भावुक मन उसे अपने काम से काम  के भाव में यूंही छोड़कर आगे नहीं बढ़ जाता |  वह प्रतिक्रया स्वरुप उसके समाधान या समाधान पाने के प्रयत्न में अन्य हृदयों से, जन सामान्य से समन्वय या समर्थन की इच्छा में अपने विचार प्रस्तुत करना चाहता है | साहित्य लेखन, काव्य, गायन, वादन , चित्रकला इसी इच्छा के फल हैं|  भावुक मन में जब भाव ..आत्म-तत्व को मंथित करते हैं तो कोमल भावनाएं गेय रूप में निसृत होती हैं और कविता बन जाती हैं|
         सामान्य व्यक्ति की भाषा विवरणात्मक होती है तो कवि की भाषा में विशिष्टता व भावों व शब्दों की संश्लिष्टता होती है सामान्य भाषा में जो तथ्य मान्य नहीं हो सकते वे काव्य की भाषा में भावालंकार रूप में सौन्दर्ययुक्त व मान्य माने जाते हैं | कविवर रविंद्रनाथ टेगोर का कथन है कि...
        हृदयवेग में जिसकी सीमा नहीं मिलती उसको व्यक्त करने के लिए सीमाबद्‌ध भाषा का घेरा तोड देना पडता है, यह घेरा तोड देना ही कवित्व है।‘
                  सामान्य भाषा में एक ही निश्चित अर्थात्मक तथ्य होते हैं, यथा.... मनुष्य चलता है, पेड़ों की डालियाँ हवा में हिलती हैं, चिडिया उड़ती है, घोड़ा दौडता है आदि.....वहीं कविता में पेड.. डालियाँ रूपी गर्दन हिलाते हैं, घोड़ा हवा से बातें करता है अर्थात काव्य में जड़ तत्वों की भाव ग्राहयता के साथ सौन्दर्य भी है।  सामान्य  भाषा को विशिष्ट भाव-शब्द देने के कारण उत्पन्न होने वाली सौन्दर्यमय, भाव-सम्प्रेषणात्मकता युक्त, सर्जनात्मक भाषा... कविता व साहित्य की भाषा है। कविता में भाषा की सर्जनात्मकता, भाषा व कथ्य के निश्चित अर्थ के विपरीत शब्द-भावों का लाक्षणिक प्रयोग करके भिन्न सौन्दर्यमय अर्थवत्तात्मकता उत्पन्न की जाती है। यही काव्य है।

काव्य -- मानवीय सृजन में सर्वाधिक महत्वपूर्ण
      काव्य मानव-मन की संवेदनाओं का बौद्धिक सम्प्रेषण है--मानवीय सृजन में सर्वाधिक कठिन रहस्यपूर्ण ; क्योंकि काव्य अंतःकरण के अभी अवयवों ---चित्त (स्मृति धारणा ), मन ( संकल्प ), बुद्धि ( मूल्यांकन ), अहं ( आत्मबोध ) स्वत्व (अनुभव भाव ) आदि सभी के सामंजस्य से उत्पन्न होता है |  तभी वह युगांतरकारी, युगसत्य, जन सम्प्रेषणीय, विराट-सत्याग्रही, बौद्धिक विकासकारी सामाजिक चेतना का पुनुरुद्धारक हो पाता है |
      काव्य--- इतिहास, दर्शन या विज्ञान के भांति कोरा कटु यथार्थ होकर मूलरूप से वास्तविक व्यवहार जगत के अनुसार सत्यं, शिवं, सुन्दरं होता है, तभी उसका कथ्य युगानुरूप के साथ सार्वकालिक सत्य भी होता है|   साहित्यकार  का  दायित्व- नवीन युग-बोध को सही दिशा देना होता है तभी उसकी रचनाएँ कालजयी हो पाती हैं|  आधुनिक सामयिक साहित्य रचना के साथ-साथ ही सनातन एतिहासिक विषयों पर  पुनः-रचनाओं द्वारा  समाज के दर्पण पर जमी धूलि को समय-समय साफ़ करते रहने से समयानुकूल प्रतिबिम्ब नए-नए भाव-रूपों में दृश्यमान होते हैं एवं प्रगति की भूमिका बनते हैं|
           साहित्य व काव्य को किसी भाषा , शाखा या गुट-विशेष की रचनाधर्मिता न होकर काव्य की समस्त शक्तियों,  भावों,  शब्दों सम्भावनाओं का उपयोग करना होता है| प्रवाह व लय  काव्य की विशेषताएं हैं जो विषय,  भाव व सम्प्रेषण-क्षमता एवं समाज की सार्वकालीन  आवश्यकतानुसार प्रत्येक काव्य-विधा में होनी चाहिए चाहे वह विधा छंदोबद्ध काव्य हो या मुक्त-छंद काव्य | अतः गीत- अगीत,  तुकांत-अतुकांत,  छंद आदि कोई विवाद का विषय नहीं  होना चाहिए |

काव्य ---सत्यं शिवं सुन्दरम ---
        काव्य ---सौंदर्य-प्रधान हो या सत्य-प्रधान ...इस पर पूर्व पश्चिम के विद्वानों में मतभेद हो सकता है | आचार्यों के अपने अपने  मतभेद तर्क हैं|  सृष्टि की प्रत्येक वस्तु भाव, कर्म की भाँति...काव्य-कविता समस्त साहित्य को भी " सत्यं शिवं सुन्दरम " होना चाहिए | साहित्य का कार्य सिर्फ मनोरंजन   होकर जन-रंजन के रूप में समाज को एक दिशा देना होता है और सत्य के बिना कोई दिशा..दिशा नहीं हो सकती | सिर्फ कलापक्ष को सजाने हेतु एतिहासिक, भौगोलिक तथ्यात्मक सत्य को अनदेखा नहीं करना चाहिए |
      स्वतः स्फूर्त रचना,स्वांत-सुखाय व सर्वग्राही --- होती है | रचनाकार को वह सद्य-प्रसूता जननी की भांति सृजन की सुखानुभूति देती है | उसके अंतर के पुरुष-तत्व के अहं की तुष्टि करती है | आदि-सृष्टि की रचना  भी तो उस परम-तत्व, आदि-सृष्टा की स्वतः स्फूर्त स्वांत-सुखाय, सृजन-प्रवृत्ति की सुखानुभूति एवं 'एकोहं बहुस्याम '  के ईषत-अहं की तुष्टि ही है | इसी से सृजन -धर्मिता ..असत से सत की ओर प्रस्फुटित होती है | जब सुधीजन उस रचना को अपने-अपने दृष्टिकोण से परखते हैं तभी वह रचना सर्वांत-सुखाय  सर्वग्राही भी हो पाती है |

 आज कल काव्य की विंडम्बना.....
        मुझे लगता है यह विडम्बना ही है ... कि एक ओर तो हम एकाक्षरी-द्व्याक्षरी आदि छंद के रूप में हर छंद आखर-शब्द को ही छंद मानते हैं ....बालक द्वारा प्रथम शब्द..माँ ..एक छंद ही है आदि आदि .....दूसरी ओर मुक्त छंद, अतुकांत छंद आदि को अछूत | वस्तुतः हमारी सनातन छंद परम्परा तो देववाणी संस्कृति के अतुकांत छंदों से ही है | जब संस्कृत भाषा ज्ञान के तप, साधना, व धैर्य की कमी के कारण तालबद्धता व संगीतमयता की विलुप्ति से संस्कृत का जन साधारण द्वरा प्रयोग में ह्रास हुआ, जनभाषा प्राकृत व अपभ्रंश से होते हुए हिन्दी तक आई तो तुकांत छंदों का आविर्भाव हुआ और तुकांत कविता मुख्य हुई | परन्तु हिन्दी साहित्यकारों द्वारा मुक्त छंद काव्य व अतुकांत रचनाओं की प्रस्तुति भी होती रही| मैथिली शरण गुप्त जी के खंडकाव्यसिद्धराज में देखें
तो फिर-
सिद्धराज क्या हुआ
मर गया हाय,
तुम पापी प्रेत उसके | 

      छंद क्या है --- वे जो सिर्फ छंदोबद्ध कविता ही की बात करते हैं, वस्तुतः छंद, कविता, काव्य-कला व साहित्य का अर्थ ठीक प्रकार से नहीं जानते-समझते एवं संकुचित अर्थ व विचार धारा के पोषक हैं। वे केवल तुकांत-कविता को ही छंदोबद्ध कविता कहते हैं। कुछ तो केवल वार्णिक छंदों -कवित्त, सवैया, कुण्डली आदि को ही छंद समझते हैं।
       वस्तुतः कविता, काव्य-कला, गीत आदि नाम तो बाद मैं आए। पद्य विधा का आविर्भाव तो छंद - नाम से ही हुआ। छंद ..ही कविता का वास्तविक सर्वप्रथम नाम है।  अतः छंद ही कविता है, हर कविता छंद है -तुकांत, अतुकांत; गीत-अगीत सभी... छंद का  अपना ही एक विस्तृत आकाश है।
      मुक्त छंद कविता अगीत ---वस्तुतः कविता वैदिक, पूर्व-वैदिक, पश्च-वैदिक पौराणिक युग में भी सदैव मुक्त-छंद रूप ही थी|  कालान्तर में मानव सुविधा स्वभाव वश, चित्रप्रियता वश- राजमहलों, संस्थानों, राजभवनों, बंद कमरों में  सुखानुभूति प्राप्ति हित कविता  छंद-शास्त्र के बंधनों  पांडित्य प्रदर्शन के बंधन में बंधती  गयी |  नियंत्रण और अनुशासन प्रबल होता गया तथा वन-उपवन में मुक्त, स्वच्छंद विहरण करती कविता कोकिला ,गमलों वाटिकाओं में सजे पुष्पों की भांति बंधनयुक्त होती गयी एवं  स्वाभाविक, हृदयस्पर्शी, निरपेक्ष काव्य, विद्वता प्रदर्शन सापेक्ष कविता में परिवर्तित होता गया |
         प्रवाह लय काव्य की विशेषताएं हैं जो काव्य के विषय-भाव भाव सम्प्रेषण क्षमता की आवश्यकतानुसार छंदीय काव्य में भी होसकती हैं मुक्त-छंद काव्य में भी| अतः गीत-अगीत कोई विवाद का विषय नहीं हैं गेयता दोनों में ही होती है | वस्तुतः स्वयं संगीत काव्य-गीत से अन्यथा कोई रचना पूर्ण गेय नहीं होती |
                      हर नई विधा में कुछ चमत्कार होता है, परन्तु यदि उसमें समाज में अपेक्षित संस्कार, साहित्य के उचित गुण, भाव, कला देश कालानुसार आस्था भी होती है तो वह कालजयी होती है, उसका समादर होता है, होना ही चाहिए|
        कविता का पतन तकनीक के कारण नहीं हुआ अपितु भाव दोषों के कारण हुआ| कथ्यों व विषय-भाव का तादाम्य, तथ्यों की वास्तविकता व सत्यता, सहज भाषा-शैली व स्पष्ट सम्प्रेषणता का गौण होजाना एवं तकनीक छंद-तकनीक, तुकांत-अतुकांत के विवाद, विषय-ज्ञान की अल्पज्ञता, क्लिष्ट शिल्प व नए-नए शब्दों का आडम्बर  आदि के कारण |  स्वतन्त्रता के पश्चात हम काव्य के विषय चुनने में भटक गए कोई लक्ष्य ही नहीं रहा | पाश्चात्य हलचल की चकाचौंध में हम पूर्व व पश्चिम के जीवन तत्वों व व्यवहार में तादाम्य व समन्वय नहीं कर पाए | भौतिक सुखों व धनागम के ताने-बाने, उपकरण, साधन चुनते-बुनते हम साहित्य में भी अपने स्वदेशी विषय-भावों से भटककर जीवन के वास्तविक आनंद से दूर होते गए | विद्वानों, कवियों, साहित्यकारों, मनीषियों ने अपने कर्त्तव्य नहीं निभाये | समाज के इसी व्यतिक्रम ने व्यक्ति को कविता व साहित्य से क्या दूर किया जीवन से ही दूर कर दिया | और चक्रीय प्रतिक्रया-व्यवस्थानुसार स्वयं साहित्य भी व्यक्ति से दूर जाने लगा |  
          आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने दशकों पूर्व वाराणसी के एक कार्यक्रम में कविता की चर्चा करते हुए कहा था कि कविता रोटी नहीं देगी, कपड़ा नहीं देगी, मकान नहीं देगी - फिर उसका हमारे लिये क्या उपयोग हो सकता है? उन्होंने इन सवालों का उत्तर देते हुये कहा था कि यह ठीक है कि कविता हमें किसी तरह का भौतिक सुख नहीं दे सकती लेकिन वह उससे भी बड़ा और महत्वपूर्ण कार्य करती है - एक बेहतर इन्सान बनाने का काम. जीवन में वह सहचर भाव से हमारे साथ हमेशा रहेगी, संवेदनाओं को निरन्तर सम्प‍‍न्न बनाती हुई. कविता में निहित होती है सृजन की आकांक्षा. वह जीवन को कोमल, सहज तथा सुखद बनाये रखने का प्रयास करती है


                       ---इति--- कविता का क ख ग घ ...



 

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