....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
क्रमिक आलेख---कविता का क ख ग घ ...
क्रमिक आलेख---कविता का क ख ग घ ...
कविता का ग ..
शब्द की शक्ति अनंत व रहस्यात्मक भी
है। चाहे गद्य हो या पद्य -किसी भी शब्द के विभिन्न रूप व पर्यायवाची शब्दों के
कभी समान अर्थ नहीं होते। (जैसा सामान्यतः समझा जाता है। ) यथा--
" प्रभु ने ये संसार कैसा सजाया."---एक कविता की पंक्ति है । --यहाँ सजाया =रचाया =बनाया कुछ भी लिखा जा सकता है । मात्रा, तुक व लय एवं सामान्य अर्थ मैं कोई अन्तर नहीं, कवितांश के पाठ मैं भी कोई अन्तर नहीं पढता । परन्तु काव्य व कथन की गूढता तथा अर्थवत्तात्मक दृष्टि से, भाव संप्रेषण दृष्टि से देखें तो --
1.--- बनाया = भौतिक बस्तु के कृतित्व का बोध देता है, स्वयं अपने ही हाथों से कृतित्व का बोध .. कठोर वर्ण है।
२.-- रचाया = समस्त सृजन का बोध देता है, विचार से लेकर कृतित्व तक, आवश्यक नहीं कि कृतिकार ने स्वयं ही बनाया हो। किसी अन्य को बोध देकर भी बनवाया हो सकता है।
३.-- सजाया = भौतिक संरचना की बजाय भाव-सरंचना का भी बोध देता है। बनाने (या स्वयं न बनाने -रचाने ) की बजाय या साथ-साथ, आगे नीति, नियम, व्यवहार, आचरण, साज-सज्जा आदि के साथ बनाने, रचाने, सजाने की कृति व शब्दों की सम्पूर्णता-विशिष्टता का बोध देता है।
प्रभु के लिए यद्यपि तीनों का प्रयोग उचित है । परन्तु ब्रह्मा, देवताओं, मानव के संसार के सन्दर्भ मैं बनाया अधिक उचित होगा। सिर्फ़ ब्रह्मा के लिए रचाया भी। अन्य संसारी कृतियों के लिए विशिष्ट सन्दर्भ मैं तीनों शब्द यथा स्थान प्रयोग होने चाहिए । उदाहरित कविता मैं --सजाया-- शब्द उचित प्रतीत होता है।
एक अन्य शब्द को लें --क्षण एवं पल --दौनों समानार्थी हैं । परन्तु -- क्षण = बस्तु परक, भौतिक, वास्तविक समय प्रदर्शक तथा कठोर वर्ण है और .. पल = भावपरक, स्वप्निल व सौम्य-कोमल वर्ण है । इसीलिये प्रायः पल-छिन शब्द प्रयोग किया जाता है, सुंदर, भावुक स्वप्निल समय काल-खंड के लिए।
" प्रभु ने ये संसार कैसा सजाया."---एक कविता की पंक्ति है । --यहाँ सजाया =रचाया =बनाया कुछ भी लिखा जा सकता है । मात्रा, तुक व लय एवं सामान्य अर्थ मैं कोई अन्तर नहीं, कवितांश के पाठ मैं भी कोई अन्तर नहीं पढता । परन्तु काव्य व कथन की गूढता तथा अर्थवत्तात्मक दृष्टि से, भाव संप्रेषण दृष्टि से देखें तो --
1.--- बनाया = भौतिक बस्तु के कृतित्व का बोध देता है, स्वयं अपने ही हाथों से कृतित्व का बोध .. कठोर वर्ण है।
२.-- रचाया = समस्त सृजन का बोध देता है, विचार से लेकर कृतित्व तक, आवश्यक नहीं कि कृतिकार ने स्वयं ही बनाया हो। किसी अन्य को बोध देकर भी बनवाया हो सकता है।
३.-- सजाया = भौतिक संरचना की बजाय भाव-सरंचना का भी बोध देता है। बनाने (या स्वयं न बनाने -रचाने ) की बजाय या साथ-साथ, आगे नीति, नियम, व्यवहार, आचरण, साज-सज्जा आदि के साथ बनाने, रचाने, सजाने की कृति व शब्दों की सम्पूर्णता-विशिष्टता का बोध देता है।
प्रभु के लिए यद्यपि तीनों का प्रयोग उचित है । परन्तु ब्रह्मा, देवताओं, मानव के संसार के सन्दर्भ मैं बनाया अधिक उचित होगा। सिर्फ़ ब्रह्मा के लिए रचाया भी। अन्य संसारी कृतियों के लिए विशिष्ट सन्दर्भ मैं तीनों शब्द यथा स्थान प्रयोग होने चाहिए । उदाहरित कविता मैं --सजाया-- शब्द उचित प्रतीत होता है।
एक अन्य शब्द को लें --क्षण एवं पल --दौनों समानार्थी हैं । परन्तु -- क्षण = बस्तु परक, भौतिक, वास्तविक समय प्रदर्शक तथा कठोर वर्ण है और .. पल = भावपरक, स्वप्निल व सौम्य-कोमल वर्ण है । इसीलिये प्रायः पल-छिन शब्द प्रयोग किया जाता है, सुंदर, भावुक स्वप्निल समय काल-खंड के लिए।
कविता एवं अलन्कारादि सादृश्य-विधान --
काव्य का कला पक्ष काव्य की शोभा बढाने के साथ-साथ सौन्दर्यमयता, रसात्मकता व आनंदानुभूति से जन-जन रंजन के साथ विषय-भाव की रुचिकरता व सरलता से काव्य की सम्प्रेषणता बढ़ाकर मानव के अंतर की गहराई को स्पर्श करके दीर्घजीवी प्रभाव छोडने वाला बनाता है | परन्तु अत्यधिक सचेष्ट लक्षणात्मकता भाषा व विषय को बोझिल बनाती है एवं विषय व काव्य जन सामान्य के लिए दुरूह होजाता है एवं उसका जन-रंजन व वास्तविक उद्देश्य पीछे छूट जाता है , पाण्डित्याम्बर व बुद्धि-विलास प्रमुख होजाता है |
वस्तुतः रचना की ऊंचाई पर पहुँच कर कवि सचेष्ट लक्षणा व अलन्कारादि विधानों का परित्याग कर देता है | रचना के उच्च भाव स्तर पर पहुँच कर कवि अलन्कारादि लक्षण विधानों की निरर्थकता से परिचित हो जाता है तथा अर्थ रचना के सर्वोच्च धरातल पर पहुँच कर भाषा भी सादृश्य-विधान के सम्पूर्ण छल-छद्मों का परित्याग कर देती है | तभी अर्थ व भाव रचना की सर्वोच्च परिधि दृश्यमान होती है | हाँ जहां काव्य है वहाँ कथ्य में कलापक्ष स्वतः ही सहजवृत्ति से आजाता है, क्योंकि कविता व काव्य-रचना स्वयं ही एक अप्रतिम कला है |
अभिव्यक्ति व काव्य प्रतिभा --- प्रतिभा किसी देश, काल, जाति, धर्म, व्यवसाय, उम्र व भाषा की मोहताज़ नहीं होती --- हिन्दी साहित्य के स्वर्णिम काल –भक्ति-काल
की निर्गुण शाखा के संत कवि प्रायः अधिक पढ़े लिखे नहीं थे परन्तु जो उच्च दर्शन, धर्म, व्यवहार , ज्ञान के
काव्य उन्होंने रचे उनसे इस तथ्य की
पुष्टि होती है.. कबीर तो कहते ही हैं ....
" मसि कागद छुओ नहीं, कलम गही ना हाथ ,
चारिउ युग का महातम, कबिरा मुखहि जनाई बात |"
साहित्य व कविता
में विशेषज्ञता ---- साहित्य व कविता भी जन जन व जन जीवन की अपेक्षा अन्य व्यवसायों की भांति एक विशिष्ट क्षेत्र में सिमट कर रह गए हैं | वे ही लिखते हैं; वे ही पढ़ते हैं | समाज आज विशेषज्ञों में बँट गया है | विशिष्टता के क्षेत्र बन गए हैं | जो समाज पहले आपस में संपृक्त था, सार्वभौम था -परिवार की भांति, अब खानों में बँटकर एकांगी होगया है। विशेषज्ञता के अनुसार नई-नई जातियां-वर्ग बन रहे है | व्यक्ति जो पहले सर्वगुण-भाव था अब विशिष्ट-गुण सम्पन्न- भाव रह गया है | व्यक्तित्व बन रहा है-व्यक्ति पिसता जारहा है। जीवन सुख के लिए जीवन आनंद की बलि चढ़ाई जा रही है | यह आज की पीढी की संत्रासमय अनिवार्य नियति है |
पर निश्चय ही हमारी आज की यह युवा पीढी उचित सहानुभूति व आवश्यक दिशा-निर्देशन की हकदार है; वास्तव में वे हमारी पीढी की भूलों व अदूरदर्शिता का परिणाम भुगत रहे हैं| अपने अति-सुखाभिलाषा भाव में रत हमारी पीढी उन्हें उचित दिशा निर्देशन व आदर्शों को संप्रेषित करने में सफल नहीं रही |
पर निश्चय ही हमारी आज की यह युवा पीढी उचित सहानुभूति व आवश्यक दिशा-निर्देशन की हकदार है; वास्तव में वे हमारी पीढी की भूलों व अदूरदर्शिता का परिणाम भुगत रहे हैं| अपने अति-सुखाभिलाषा भाव में रत हमारी पीढी उन्हें उचित दिशा निर्देशन व आदर्शों को संप्रेषित करने में सफल नहीं रही |
मानव, कविता व
गीत एवं सामाजिक सरोकार
----सृष्टि की सबसे सुन्दर है कृति है मानव, और मानव की कृतियों में सबसे सुन्दर है- कविता:,.... गीत-- काव्य की सुन्दरतम प्रस्तुति है । गीत होते ही
हैं मानव मन के सुख-दुख व अन्तर्द्वन्द्वों के अनुबन्धों की
गाथा । जहां भावुक मन
गीत सृष्टा हो
तो वे मानव ह्रदय, जीवन, जगत,
की सुखानुभूति, वेदना, संवेदना
के द्वन्द्वों व अन्तर्संबंधों की संगीतमय यात्रा हो जाते हैं । ये गीत वस्तुतः
मानव ह्रदय की पूंजी होते है--स्वान्त सुखायः......यदि गीतों में जीवन के राग-विराग,
कर्तव्य बन्धनों की अनिवार्यता की स्वीकृति के साथ-साथ मुक्त-गगन में उडान की छटपटाहट की
व्यष्टि चेतना के साथ जीवन -जगत की समष्टिगतता भी निहित है और निहित है समाज व विश्वकल्याण की भावना तो वे निश्चय ही समाधान युक्त होकर कालजयी हो जाते हैं| सामाजिक सरोकार के बिना कोई भी कविता व साहित्य अधूरा ही
है।
काव्य के उद्देश्य
साहित्य = सा + हिताय + य = अर्थात जो समाज,
संस्कृति व मानव के व्यापक हित में हो वह ही साहित्य है। अतः साहित्य के मूल भाव-उद्देश्य होने चाहिये ---
(1) सम्पूर्ण ज्ञान का अनुशासन (ज्ञान का कोष व ज्ञान की प्रतिष्ठापना ),शास्त्रीय पद्धति से जीवन -जगत का बोध .....
(1) सम्पूर्ण ज्ञान का अनुशासन (ज्ञान का कोष व ज्ञान की प्रतिष्ठापना ),शास्त्रीय पद्धति से जीवन -जगत का बोध .....
(२) जन रंजन के साथ स्वान्त सुखाय ....व्यक्तित्व व समष्टि निर्माण की प्रेरणा से सुखानंद, काव्यानंद द्वारा ब्रह्मानंद सुख ।
(३) काव्य सुरसिकता द्वारा जन-जन युग प्रबोधन, जीवन मूल्यों का संदेश व व्यक्ति व समष्टि निर्माण की प्रेरणा ।
इनसे भिन्न ---ज्ञान का लेखन तो -समाचार बाचन,या तुकबंदी ही रह जायगा । अतः काव्य-लेखन के मुख उद्देश्य निम्न होते
हैं ...
१.स्वान्त सुखाय...जो ह्रदय से निकली कविता होती है, प्रेम गीत, भजन आदि परन्तु वही समष्टिगत होने पर प्रांत सुखाय व जन जन सुखाय भी हो जाती है |
१.स्वान्त सुखाय...जो ह्रदय से निकली कविता होती है, प्रेम गीत, भजन आदि परन्तु वही समष्टिगत होने पर प्रांत सुखाय व जन जन सुखाय भी हो जाती है |
२.जन रंजन के साथ स्वान्त सुखाय ....व्यक्तित्व व समष्टि निर्माण की प्रेरणा से रचित काव्य सुखानंद, काव्यानंद द्वारा ब्रह्मानंद सुख ...ह्रदय के उद्गारों का बुद्धि व अनुभव के तालमेल से
उत्पन्न हुई कविता | खंड-काव्य,
महाकाव्य, देशभक्ति के काव्य, प्रसिद्द
व्यक्तित्वों धार्मिक-एतिहासिक चरित्रों, दार्शनिक व धार्मिक
तत्वों व ग्रंथों की व्याख्या हेतु रचित काव्य...
३.सामायिक काव्य ...जिसमें कवि अपने देश-धर्म-काल के नागरिक दायित्व को
पूर्ण करता है..यथा मनोरंजन पूर्ण काव्य, सामयिक
शौर्य गाथाएँ, राजनीति आदि पर आधारित काव्य...
आज सूचना युग में सारा ज्ञान कंप्यूटर से मिलजाने के कारण इलेक्ट्रोनिक मीडिया ,दूर दर्शन आदि से सुखानंद प्राप्ति व उपभोक्तावादी संस्कृति के प्रभाव से उपरोक्त तीनों प्रयोजन निष्प्रभावी होजाने से कविता की समाज में निष्प्रभाविता बढ़ी है।
प्रायः यह कहा जाने लगा है कि कवि को भी बाज़ार, प्रचार आदि के आधुनिक हथकंडे अपनाने होंगे । परन्तु प्रश्न है कि यदि कवि यह सब करने लगे तो वह ह्रदय से उदभूत कविता कैसे रचेगा? वह भी व्यापारी नहीं बन जायगा? क्या स्वयं समाज का कविता,कवि व समाज के व्यापक हित के प्रति कोई कर्तव्य नहीं है ? ताली दौनों हाथों से बज़ती है।
प्रायः यह कहा जाने लगा है कि कवि को भी बाज़ार, प्रचार आदि के आधुनिक हथकंडे अपनाने होंगे । परन्तु प्रश्न है कि यदि कवि यह सब करने लगे तो वह ह्रदय से उदभूत कविता कैसे रचेगा? वह भी व्यापारी नहीं बन जायगा? क्या स्वयं समाज का कविता,कवि व समाज के व्यापक हित के प्रति कोई कर्तव्य नहीं है ? ताली दौनों हाथों से बज़ती है।
--- क्रमश कविता का घ.....
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