भाषा व साहित्य
– आत्म कथ्य ....
अभी हाल में ही किसी काव्य रचना पर एक विपरीत टिप्पणी के सन्दर्भ में काफी घमासान हुआ तमाम कवियों के आपसी वाक्-युद्ध में उनकी बोली-बाणी के स्तर का भी भान हुआ परन्तु मंथन भी खूब हुआ | एक तथ्य और उभरकर आया कि केवल विपरीत टिप्पणी से क्या होता है | वरिष्ठ एवं गुरुतर तथा साहित्यिक ठेकेदार लोगों ने नव एवं युवा कवियों के लिए कोई काव्य कला–शिक्षा की कक्षा क्यों नहीं खोली, अतः वे जैसा चाहें लिखें सब छूट है |
यद्यपि कविता किसी कक्षा या शिक्षा का क्षेत्र नहीं है वह स्वानुभूति व हृदयानुभूति से उद्भूत होती है, हाँ व्यक्ति / कवि के शिक्षा स्तर, ज्ञान, अनुभव व विवेक का भी स्थान होता है | कविता-ज्ञान मूलतः स्व-प्रेरणा, तमाम वरिष्ठ कवियों के साहित्य का अध्ययन एवं सन्दर्भ–अध्ययन की भाँति स्व-पठन-पाठन साधना से प्राप्त होता है | साथ ही वरिष्ठ जन, गुरुजन आदि द्वारा केवल संक्षिप्त इंगित या निर्देश देने की ही परिपाटी है अन्यथा जिज्ञासा करने पर अर्थात प्रश्न पूछने पर ही आगे निर्देशन का नियम है | हमारे सभी शास्त्र यदि हम देखें तो ‘अथातो जिज्ञासा ‘ अर्थात किसी भी शिष्य या विद्वान् द्वारा प्रश्न करने पर ही प्रारम्भ होते हैं|
साहित्य व साहित्यकार वैश्विक चेतना तथा सामाजिक व सांस्कृतिक प्रचेतना के वर्ग में अग्रगण्य स्थान रखते हैं| उनका मूल दायित्व है कि प्रत्येक प्रकार के अनुशासन, उदात्त भावों व चरित्रों का पुनः पुनः स्मरण एवं समाज में स्थित वर्त्तमान बुराइयों, नैतिक व चारित्रिक पतन आदि के दिग्दर्शन के साथ उनका समुचित समन्वय
पूर्ण समाधान भी प्रस्तुत करें| संस्कारहीनता एवं आचरण-भ्रष्टता के आज के युग में यह दायित्व और भी अधिक महत्वपूर्ण होजाता है|भाषा किसी भी साहित्य के प्रसार व प्रचार एवँ उन्नयन का आधार है। अत: भाषा व साहित्य के सामाजिक
समन्वय,
उत्थान व विकास में साहित्यकारोँ की सदैव ही अग्रणी भूमिका रही है। राज्य व जनता की भी यदि गुणात्मक भूमिका होती है तो सोने में सुहागा, परंतु पहले उसे सोना बनाने की भूमिका तो सदा ही समाज में बुद्धि जीवियोँ की प्रथम पंक्ति में खडे कवियोँ व साहित्यकारोँ की ही होती है।
भारतीय साहित्य व भाषा के परिप्रेक्ष में कहा जा सकता है कि साहित्य, समाज व संस्कृति में समन्वय की जो भूमिका आदियुग में संस्कृत ने निभायी वही मध्ययुग में ब्रजभाषा ने एवं आज वही भूमिका हिन्दी द्वारा निभायी जा रही है |
आदियुग में जब मानव इतिहास का सर्वप्रथम मानव संस्कृति का महान समन्वय हुआ, जिसमें दक्षिण भारतीय मानव समूह ( विकसित पूर्व हरप्पा, हरप्पा सभ्यता ) जिसका नेतृत्व उनके सर्वमान्य प्रिय शासक, धर्मगुरु सम्भूसेक कर रहे थे एवं सरस्वती मानसरोवर ( विकसित सरस्वती-मानसरोवर सभ्यता) से आये हुए इंद्र-विष्णु के नेतृत्व युत भारतीय मानव का भारतीय मध्य भूमि पर समन्वय हुआ | इस समन्वय के मुख्य व्यक्तित्व शंभू सेक अर्थात देव-असुर सभी के साथ समान व्यवहार करने वाले देवाधिदेव शिव थे | दोनों महान विकसित भारतीय सभ्यताओं के सम्मिलन से एक पूर्ण विक्सित विश्व की प्रथम महान सभ्यता का जन्म हुआ जो वैदिक सभ्यता कहलाई और शंभू सेक या शिव शंभू,
शिव महादेव व देवाधिदेव कहलाये जो आज विश्व की प्रत्येक सभ्यता में पूजे जाते हैं |
तमिल लोग अपनी भाषा तमिल को संस्कृत से भी प्राचीन मानते हैं | इधर भारत के गोंड आदिवासी लोग गोंडी भाषा को संसार की सबसे पुरानी भाषा मानते हैं| यह सही ही है| गोंडवाना लेंड में विकसित मानव भारत व अन्य सभी विश्व में फैला, जो अन्य भूखंडों में (अफ्रीका, योरोप, आस्ट्रेलिया, अमेरिका आदि ) विपरीत भौगोलिक परिस्थितियों के कारण विकसित नहीं हुआ, परन्तु सर्वानुकूल भौगोलिक स्थितियों के कारण भारतीय द्वीप पर विकसित हुआ | अतः मानव की आदि भाषा गोंडी हो सकती है जो समस्त विश्व में फ़ैली जिससे बाद में तमाम अन्य स्थानीय भाषाएँ विश्व की व भारत की– तमिल आदि विकसित हुईं|
वैदिक सभ्यता के उदय होने पर समस्त यूरेशिया व भारतीय स्थानीय भाषाओं के समन्वय से एक संस्कारित भाषा का जन्म हुआ जिसे संस्कृत नाम दिया गया | यही आदि- संस्कृति से वैदिक संस्कृत से लौकिक संस्कृत बनी एवं समस्त विश्व की सांस्कृतिक-सामाजिक-साहित्यिक समन्वय की भाषा हुई | आदि ग्रन्थ वेद इसी भाषा में लिखे गए | इसी संस्कृत से आज की विश्व की सभी भाषाओं का जन्म हुआ |
2.
भारत में काल व अज्ञानता के प्रभाव से संस्कृत के ज्ञान की कमी होने पर, संस्कृत को कठोर नियम बंधनों में बांधे जाने पर वह विशिष्ट जन की भाषा रह गयी एवं जन सामान्य में प्राकृत व अपभ्रंश भाषाओं का चलन हुआ | मुग़ल प्रभाव से फारसी, उर्दू का प्रचलन हुआ | इसप्रकार मध्यकाल में अपभ्रंश भाषाओं से विभिन्न क्षेत्रीय-प्रांतीय भाषाओं का जन्म होने लगा| बंगाली, मराठी, ब्रज, भोजपुरी, मैथिली आदि अपने अपने क्षेत्रों में स्थानीय भाषाएं बनने लगीं |
इन सभी भाषाओँ के साहित्य का अपना स्वतन्त्र अस्तित्व है जो यद्यपि अपने प्रदेश के व्यक्तित्व से मुद्रांकित है और उनके अपने-अपने साहित्य का वैशिष्ट्य प्रखर है किंतु भारतीय साहित्य की मूलभूत एकता और उसके आधार-तत्व लगभग समान ही हैँ , यह पार्थक्य आत्मा का नहीं है। जिस प्रकार अनेक धर्मों, विचार-धाराओं और जीवन प्रणालियों के रहते हुए भी भारतीय संस्कृति की एकता असंदिग्ध है, इसी प्रकार इसी कारण से अनेक भाषाओं और अभिवयंजना-पद्धतियों के रहते हुए भी भारतीय साहित्य की मूलभूत एकता का अनुसंधान भी सहज-संभव है।
परन्तु देश व संस्कृति की साहित्यिक भाषा का बोझ उठाया शौरसेनी से उद्भूत ब्रजभाषा ने, जिसमें समस्त भारत के सभी स्थानीय, देशज, क्षेत्रीय भाषाओं का समावेश था | गुरु गोरखनाथ, कबीर की सधुक्कड़ी, बंगाल के संतों की ब्रजबुली, महाराष्ट्र के संतों की महाराष्ट्री ब्रज, तुलसी, सूर, रहीम, रसखान आदि की ब्रज, मैथिल–ब्रज, आदि सभी की सम्मिलित यह ब्रजभाषा समस्त भारत में देश साहित्यिक भाषा हुई | मुस्लिम संतों ने भी ब्रजभाषा को ही अपने साहित्य में प्रयोग किया | दक्षिण के मुस्लिम साहित्यकारों ने भी ब्रजभाषा को अपनाया, ईसाई संत-साहित्यकारों ने भी अपना साहित्य ब्रजभाषा में रचा | इस प्रकार विधर्मी मुस्लिम व अंग्रेज़ी राज्य, देश-समाज-संस्कृति की राष्ट्रीय-राजनैतिक–धार्मिक अस्त-व्यस्तता व संकट की घड़ी में लगभग सातवीं सदी से उन्नीसवीं सदी तक ब्रजभाषा ने देश में राष्ट्रीय व सांस्कृतिक समन्वय का भार उठाया, भारत की स्वतन्त्रता के लिए गुलामी के जुए को उतार फैंकने में ब्रजभाषा की साहित्यिक क्षमता का महत योगदान है जो १९वी सदी के उत्तरार्ध में भाखा के रूप द्वारा शुद्ध हिन्दी खडीबोली के रूप में परिवर्तित होती गयी |
भारतेंदु हरिश्चंद्र, जयशंकर प्रसाद, मुंशी प्रेमचंद आदि के युग से ही साहित्य में संस्कृतनिष्ठ खड़ीबोली हिन्दी का प्रयोग किया जाने लगा था | स्वतन्त्रता के पश्चात हिन्दी को सैद्धांतिक रूप में भारत की राजभाषा स्वीकार करने पर आज हिन्दी देश की सर्वमान्य भाषा है | वह संवैधानिक रूप से भले ही भारत की राष्ट्रीय भाषा न हुई हो परन्तु निश्चय ही देश भर एवं विश्व भर में विभिन्न साहित्यिक संस्थाओं, मीडिया, काव्य-गोष्ठिओं द्वारा प्रसारित, प्रचारित क्रिया-कलापों द्वारा विश्व की सांस्कृतिक –सामाजिक समन्वय की भाषा बनती जारही है |
स्वतन्त्रता के आन्दोलन के साथ हिन्दी की प्रगति का रथ भी तेज़ गति से आगे बढ़ा और हिन्दी राष्ट्रीय चेतना की प्रतीक बनी| स्वाधीनता आन्दोलन का नेतृत्व यह जानता था कि लगभग १००० वर्षों से हिन्दी सम्पूर्ण भारत की एकता का कारक रही है| संतों, फकीरों, व्यापारियों, तीर्थयात्रियों, सैनिकों आदि के माध्यम से यह भाषा समस्त देश के कोने कोने में प्रयुक्त होती रही है।
मूलतः हिन्दी को यह मान्यता दिलाने वालों में वे विद्वान् थे जिनकी मातृभाषा हिन्दी नहीं थी। यथा बंगाल के केशवचन्द्र सेन, राजा राम मोहन राय, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस; पंजाब के बिपिनचन्द्र पाल, लाला लाजपत राय; गुजरात के स्वामी दयानन्द, राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी; महाराष्ट्र के लोकमान्य तिलक तथा दक्षिण भारत के सुब्रह्मण्यम भारती आदि । इस प्रकार हिन्दी भारतीय स्वाभिमान और स्वातंत्र्य चेतना की अभिव्यक्ति का माध्यम बन गई और राष्ट्रीय अस्मिता का प्रतीक |
स्वाधीनता के बाद हिन्दी की घोर उपेक्षा की गयी क्योंकि तत्कालीन सरकार का विचार था कि हिन्दी को आगे बढ़ाने से दक्षिण भारत के लोगों पर विपरीत प्रतिक्रिया होगी | हिन्दी में वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दावली के लिए वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दावली आयोग बनाया गया जिसने जटिल, क्लिष्ट एवं अप्रचलित शब्दावली तैयार की । सभी जानते हैं कि शब्द बनाए नहीं जाते, लोक के प्रचलन एवं व्यवहार से विकसित होते हैं|
क्योंकि इसका
ध्यान नहीं रखा गया कि शब्दकोश व भाषा सामान्य आदमी को समझ में आ सकें, इस कारण व्यवहार में अंग्रेजी के शब्दों का ही प्रयोग होता रहा। भाषा लोकतंत्र में शासन और जनता के बीच संवाद होती है। इस कारण वह आम आदमी के लिए बोधगम्य होनी चाहिए। वही शब्द सरल एवं
3.
बोधगम्य लगता है जो हमारी जबान पर चढ़ जाता है। लोक व्यवहार से भाषा बदलती रहती है। यह भाषा की प्रकृति है। और काव्य व साहित्य,
भाषा के पंखोँ सवार होकर ही जन सामान्य में प्रचलित होता है । जन सामान्य तथा विज्ञ जनोँ में भी भाषा-ज्ञान की कमी,
भाषा की दुर्बलतायेँ अथवा अबोधगम्यता समाज में काव्य व साहित्य के उन्नयन मॆं बाधा बन जाती हैँ। कविता का पतन तकनीक के कारण नहीं हुआ अपितु भाव दोषों के कारण हुआ| कथ्यों व विषय-भाव का तादाम्य, तथ्यों की वास्तविकता व सत्यता, सहज भाषा-शैली व स्पष्ट सम्प्रेषणता का गौण होजाना एवं तकनीक छंद-तकनीक, तुकांत-अतुकांत के विवाद, विषय-ज्ञान की अल्पज्ञता, क्लिष्ट शिल्प व नए-नए शब्दों का आडम्बर आदि के कारण |
स्वतन्त्रता के पश्चात हम काव्य के विषय चुनने में भटक गए कोई लक्ष्य ही नहीं रहा | पाश्चात्य हलचल की चकाचौंध में हम पूर्व व पश्चिम के जीवन तत्वों व व्यवहार में तादाम्य व समन्वय नहीं कर पाए | भौतिक सुखों व धनागम के ताने-बाने, उपकरण, साधन चुनते-बुनते हम साहित्य में भी अपने स्वदेशी विषय-भावों से भटककर जीवन के वास्तविक आनंद से दूर होते गए | विद्वानों, कवियों,
साहित्यकारों, मनीषियों ने अपने कर्त्तव्य नहीं निभाये| समाज के इसी व्यतिक्रम ने व्यक्ति को कविता व साहित्य से क्या दूर किया जीवन से ही दूर कर दिया और चक्रीय प्रतिक्रया-व्यवस्थानुसार स्वयं साहित्य भी व्यक्ति से दूर जाने लगा |
कविता एवं अलन्कारादि सादृश्य-विधान अर्थात काव्य का कला पक्ष काव्य की शोभा बढाने के साथ-साथ सौन्दर्यमयता,
रसात्मकता व आनंदानुभूति से जन-जन रंजन के साथ विषय-भाव की रुचिकरता व सरलता से काव्य की सम्प्रेषणता
बढ़ाकर
मानव के अंतर की गहराई को स्पर्श करके दीर्घजीवी प्रभाव छोडने वाला बनाता है | परन्तु अत्यधिक सचेष्ट लक्षणात्मकता भाषा व विषय को बोझिल बनाती है एवं विषय व काव्य जन सामान्य के लिए दुरूह होजाता है एवं उसका जन-रंजन व वास्तविक उद्देश्य पीछे छूट जाता है
, पाण्डित्याम्बर व बुद्धि-विलास प्रमुख होजाता है
| अभिव्यक्ति व काव्य प्रतिभा किसी देश,
काल, जाति,
धर्म,
व्यवसाय,
उम्र व भाषा की मोहताज़ नहीं होती --- हिन्दी साहित्य के स्वर्णिम काल –भक्ति-काल की निर्गुण शाखा के संत कवि प्रायः अधिक पढ़े लिखे नहीं थे परन्तु जो उच्च दर्शन, धर्म, व्यवहार , ज्ञान के काव्य उन्होंने रचे उनसे इस तथ्य की पुष्टि होती है.. कबीर तो कहते ही हैं ....
"मसि कागद छुओ नहीं, कलम गही ना हाथ ,
चारिउ युग का महातम, कबिरा मुखहि जनाई बात |"
आज साहित्य व कविता भी जन जन व जन जीवन की अपेक्षा अन्य व्यवसायों की भांति एक विशिष्ट क्षेत्र में सिमट कर रह गए हैं
| वे ही लिखते हैं; वे ही पढ़ते हैं | समाज आज विशेषज्ञों में बँट गया है | विशिष्टता के क्षेत्र बन गए हैं | जो समाज पहले आपस में संपृक्त था, सार्वभौम था -परिवार की भांति, अब खानों में बँटकर एकांगी होगया है। विशेषज्ञता के अनुसार नई-नई जातियां-वर्ग बन रहे है
| कवि व व्यक्ति जो पहले सर्वगुण-भाव था अब विशिष्ट-गुण सम्पन्न- भाव रह गया है | व्यक्तित्व बन रहा है-व्यक्ति पिसता जारहा है। जीवन सुख के लिए जीवन आनंद की बलि चढ़ाई जा रही है | यह आज की पीढी की संत्रासमय अनिवार्य नियति है।
भाषा किसी भी साहित्य के प्रसार व प्रचार एवँ उन्नयन का आधार है। अत: भाषा व साहित्य के उत्थान व विकास में साहित्यकारोँ की सदैव ही अग्रणी भूमिका रही है। राज्य व जनता की भी यदि गुणात्मक भूमिका होती है तो सोने में सुहागा, परंतु पहले उसे सोना बनाने की भूमिका तो सदा ही समाज में बुद्धि जीवियोँ की प्रथम पंक्ति में खडे कवियोँ व साहित्यकारोँ की ही होती है। इसी उद्देश्य की पूर्ति हित सामान्यजन व रचनाकारोँ में विचार विमर्ष हेतु विविध आलेखोँ युत प्रस्तुत कृति की रचना की गयी है। यदि यह तुच्छ कृति अपने उद्देश्य में
किंचित भी सफल होती है तो मेरे लिये प्रसन्नता का विषय होगा।
----- डॉ.श्याम गुप्त
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