1.
जीवन-दृष्टि गीत-संग्रह का कथ्य
मेरी पिछली गीत कृति ‘तुम तुम और तुम’ के लोकार्पण पर डॉ. उषा सिन्हा जी ( हिंदी विभाग , लखनऊ वि. विद्यालय ) ने गीत-‘पूर्ण हुई अभिव्यक्ति ह्रदय की ऐसा गीत कहाँ रच पाया’ पर कहा था कि इसका अर्थ है अभी और गीत कृति आने की आशा है|उषा जी दृष्टा हैं,कवि दृष्टा होता है| यह कृति उसी के आगे की दृष्टि है,जीवन दृष्टि है|
तुम तुम और तुम– प्रेम व शृंगार गीत थे| प्रेम,सृष्टि का जीवन है,शृंगार है| अर्धनारीश्वर द्वारा उद्भूत ११ भावों में प्रथम भाव है| परन्तु मानव आचरण के बिना जीवन कैसा,
शृंगार क्या? जीवन का शृंगार तो भाव-नियंत्रण में है,आचरण में है| मानव आचरण से ही जीवन-दृष्टि सम्पूर्ण होती है|
प्रेमरस चख लेने के उपरान्त ही जीवन दृष्टि सम्पूर्ण होती है, कर्तव्यपालन एवं आचरण व भाव-नियंत्रण की समुचित उत्पत्ति होती है| शिव,सृजन के बाद ही योगीराज,महायोगी बनते हैं| कृष्ण प्रेम,संयमित श्रृंगार,रसरूप होने के उपरांत ही योगेश्वर कहलाते हैं|
सृष्टि,सृजन एवं कर्तव्यपालन पालन हेतु जब तक जीवन की कोई प्रखर,स्पष्ट दृष्टि व सोच न हो तो कर्तव्य पालन कहाँ,उत्कर्ष कहाँ| सद-आचरण युत मानवीय दृष्टि ही सम्पूर्ण जीवन है जो सृष्टि के नियमित संचालन,संचारण व सहजीवन हेतु आवश्यक है| अतः ये गीत पूर्ण अभिव्यक्ति रूप हैं,यद्यपि यह कहना भी धृष्टता ही है, भ्रम ही है, मानव अभिव्यक्ति पूर्ण कहाँ? तभी तो वेद नेति..नेति कहते हैं| पूर्ण तो एकमात्र ब्रह्म ही है|
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥ -वृहदारण्यक उपनिषद...
'अपारे काव्य संसारे कविरेव प्रजापति:'की सनातन मान्यता को जीते हुए, उपनिषद्-सूक्ति 'कविर्मनीषीपरिभूस्वयंभू' के प्रति श्रद्धायुत मन ही गीत-रचना के समय ऋतम्भरा प्रज्ञा,
और वैखरी, मध्यमा तथा अपरा से ऊपर स्थित परा-वाणी से संयुक्त हो पाता है,
तभी जीवन दृष्टि का विकास होता है और गीति-चेतना सदानीरा नदी की भांति मानस में प्रवाहित होती है तथा जीवन-दृष्टि युत गीत उद्भूत होते हैं|
प्रस्तुत कृति ‘जीवन दृष्टि’-सदाचार युक्त जीवन की विभिन्न दृष्टि-भाव परक पारंपरिक गीत हैं| नवगीत एवं अगीत अपनी-अपनी सामयिकता के अनुसार हैं| परन्तु गीत कालजयी हैं| यद्यपि पाश्चात्य कहावत है–our sweetest songs
are the saddest songs, परन्तु भारतीय गीत परम्परा सुख दुःख समभाव की है| ऋग्वेद,रामायण,महाभारत व अन्य साहित्य आदि में जीवन की विभिन्न दृष्टियुत प्रकृति के एवं मानव-आचरण युत गीतों की प्रखर परंपरा है|
मानव इतिहास के प्राचीनतम साहित्य ऋग्वेद में मानव इतिहास के सर्वप्रथम गीत पाए जाते हैं| वे गीत प्रकृति व ईश्वर के प्रति सुखद आश्चर्य,रोमांच एवं श्रद्धा एवं सदाचरण भाव के गीत ही हैं| ऋषियों ने प्रकृति की सुकुमारिता व सौन्दर्य का सजीव चित्रण किया है जो भावमयता व अर्थग्रहण के साथ मनोहारी कल्पनाएँ हैं| ऋग्वेद ७/७२ में वैदिक कालीन एक प्रातः का वर्णन कितना सुन्दर व सजीव है
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“विचेदुच्छंत्यश्विना उपासः प्र वां ब्रह्माणि कारवो भरन्ते |
उर्ध्व भानुं सविता देवो अश्रेद वृहदग्नयः समिधा जरन्ते ||”
--हे अश्वनी द्वय! उषा द्वारा अन्धकार हटाने पर स्तोता आपकी प्रार्थना (स्वाध्याय, व्यायाम, योग आदि स्वास्थ्यवर्धक आचरण व कृत्य की दैनिक चर्या ) करते हैं| सूर्य देवता ऊर्धगामी होते हुए तेजस्विता धारण कर रहे हैं| यज्ञ में समिधाओं द्वारा अग्नि प्रज्वलित हो रही है|
इन्हीं
की पृष्ठभूमि पर परवर्तीकाल में समस्त विश्व में काव्य का विकास हुआ, लोकगीतों-गीतों के विविध भाव-रूपों में| यजु,अथर्व एवं सामवेद में इनका पुनः विकसित रूप प्राप्त होता है| साम तो स्वयं गीत का ही वेद है यथा-ऋषि कहता है—
”ओ3म् अग्न आ याहि वीतये ग्रृणानो हव्य दातये |
नि होता सत्सि बर्हिषि ||” साम 1..
--- हे तेजस्वी अग्नि (ईश्वर)आप ही हमारे होता हो,समस्त कामना पूर्तिकारक स्त्रोता हो,हमारे ह्रदय रूपी अग्निकुंड( यज्ञ )हेतु आप ही गीत हो आप ही श्रोता हो|
गीत,प्रत्येक युग में मनुष्य के साथी रहे हैं। लोक जीवन अगर कहीं अपने नैसर्गिक सदाचार् युत रूप में आज भी सुरक्षित है तो वह है पारंपरिक गीतों में,विविध रूप, जीवन-दृष्टि युत गीतों में। जब तक लोक रहेगा एवं लोकजीवन रहेगा तब तक गीतों में लोकजीवन का स्पन्दन विद्यमान रहेगा एवं भविष्य में जब कभी भी सरस कविताओं की बात होगी तो उसमें गीतों का स्थान सर्वोपरि रहेगा। विश्व के सबसे प्राचीन ग्रन्थ ऋग्वेद के अंतिम मन्त्र में मानव समायोजन,समन्वय का जो कथन है विश्व में कहीं नहीं है–यथा-
समानी व आकूति: समाना ह्रदयानि वा।
समामस्तु वो मनो यथा वः सुसहामति॥
--हे मनुष्यो! तुम्हारे ह्रदय मन संकल्प(भाव विचार कार्य) एक जैसे हों ताकि तुम एक होकर सभी कार्य पूर्ण कर सको।...एवं..
अग्ने नय
सुपथा राये
अस्मान विश्वानि देव
वयुनानि विद्वान् |
युयोध्य स्मज्जुहुराणमेन भूयिष्ठान्तेनाम उक्तिं विधेम
||..१८..ईशोपनिषद ..
-- हे अग्ने! प्रकाशमय सर्वशक्तिमान, तेजस्वी ईश्वर(विज्ञ व ज्ञानी जन)आप हमारे सम्पूर्ण कर्मों को जानने वाले हैं अतः हमें एश्वर्य अर्थात- उचित ज्ञान व कर्म की प्राप्ति
के अच्छे मार्ग सुकर्मों,
सत्कर्मों पर चलाइये | हमें उलटे, टेड़े-मेडे, विकृत मार्ग पर चलने रूपी पाप
से बचाइये
| हम आपको बारम्बार प्रणाम करते हैं |
रामायण में तो पग पग पर नीति व सदाचरण लक्षित है| महाभारत जैसे ग्रन्थ में भी सदाचरण के गीत वर्णित हैं...
यःशास्त्र विधि मुत्सृज्य वर्तते कामकारतः |
न स सिद्धिवाप्नोति न सुखं न परा गतिम् |-गीता १६/२३
---जो शास्त्र विधि त्यागकर मनमाना इच्छा से आचरण करते हैं वह न सुख पाता है न सिद्धि न परमगति|
जाड्यं धियो हरति सिंचति वाचि सत्यं,
मानोन्नतिं दिशति पापमपाकरोति |
चेतः प्रसादयति दिक्षु तनोति कीर्तिं,
सत्संगतिः कथय किं न करोति पुंसाम् || --नीति शतक से
--अच्छे मित्रों का साथ बुद्धि की जड़ता को हर लेता है,वाणी में सत्य का संचार करता है,मान और उन्नति को बढ़ाता है और पाप से मुक्त करता है| चित्त को प्रसन्न करता है और कीर्ति को सभी दिशाओं में फैलाता है| सत्संगतिः मनुष्यों का कौन सा भला नहीं करती|
सदाचरण कभी पुराना नहीं होता यह सनातन व सार्वकालिक है, कालजयी भाव है अतः ये पारंपरिक गीत कभी पुराने नहीं होते| मानव प्रगति के साथ साथ नवीन भाव ग्रहण करते जाते हैं|कालजयी हैं|आज भी यदि हम किसी पत्रिका या पत्र या अंतरजाल पत्रिकाओं या अंतरजाल पर चिट्ठों ( ब्लोग्स-आदि ) को उठाकर देखें तो विविध रूप में कविताओं आदि के साथ-साथ गीत सदाचरण के गीतों के रूप में छटा बिखेरता हुआ मिलता है | अनेक अवरोधों के बाद भी गीत आज तक अपनी चमक दिखा रहा है और सदाचरण के गीत अपनी विशिष्ट छटा के रूप में उपस्थित हैं सदा की भाँति | गीत का श्रृंगार है-शालीनता और संक्षिप्तता| लय आधारित होना अथवा संगीतमय लोकगीतों का ध्रुवपद पर आधारित होना गीत की विशेषता है जो इसे गीत बनाती है| गीत जो मृत्युंजय है,कालजयी है, एक जीवन दृष्टि है |
प्रस्तुत गीत संग्रह जीवन दृष्टि के ये गीत मेरी अपनी जीवन दृष्टि है जो पूर्वजों, माता-पिता,परिवारी जनों,सहपाठियों,सहकर्मियों, विभिन्न विद्वानों,आचार्यों,विज्ञजनों,साहित्यकारों,कवि-मित्रोँ,साथियों-सखाओँ- सखियोँ,सहयोगियों,गोष्ठियों,सभाओं,विद्वत-समागम आदि के सत्संगति रूपी आशीर्वाद के रूप में मुझे प्राप्त हुई तथा माँ सरस्वती के वरदहस्त से मेरे मानस में उद्भूत होकर गीत रूप में निसृत हुई|
---डॉ.श्याम गुप्त
वंदना
1.
गणेश वंदना
विघ्न विनाशक सिद्धि प्रदाता,
हे गणेश ! गणपति, गणनायक |
हमको अपनी कृपा भक्ति दें,
भारत माँ की वंदना करें |
हरो विघ्न सारे ही जग के,
हम कर पायें राष्ट्र वंदना ||
2.
प्रभु वन्दना
मेरे गीत तुम्हारा अर्चन
गीतों को प्रभु अनुपम करदो |
भक्ति भावना बहे तुम्हारी,
ऐसा स्वच्छ मुकुर मन करदो |
मेरा अंतर काव्य तुम्हारा,
मन मंदिर मस्जिद गुरुद्वारा-
बन जाए, प्रभु एसा वर दो,
गीत तुम्हीं हो अनुपम करदो |
जीवन जीवन कठिन डगर है ,
चलना ही है कर्मभाव बन |
यह सन्देश दिया तुमने ही,
गीता में हे
योगेश्वर ! बन |
भक्ति तुम्हारी कर्म भाव बन,
मेरे गीतों में छा जाए |
सत्य शिवम् की धर्म भावना,
मेरे गीतों में भर जाये
।
सत्य ही शिव है,शिव ही सुन्दर,
सब कर्मों का धर्म यही है |
भक्ति तुम्हारी साथ रहे जो,
शुभ कर्मों का मर्म यही है |
मेरी भक्ति तुम्हारा अर्चन,
धर्म कर्म सब तुमको अर्पण |
मेरे गीत तुम्हारे ही हैं,
सब कुछ तेरा, तुझे समर्पण ||
मेरी भक्ति भावना को प्रभु,
अपने प्रेम का दर्पण करदो |
मेरे गीत तुम्हारा अर्चन,
इन गीतों को अनुपम करदो ||
3. वाणी वंदना
माँ लिखती तो सब कुछ तुम हो,
नाम मुझे ही दे देती हो |
आप लिखाती लेकिन जग को,
लिखा श्याम ने कह देती हो |
अंतस में जो भाव उठे हैं,
सब कुछ माँ तेरी संरचना |
किन्तु जगत को तुमने बताया,
यह कवि के भावों की रचना |
तेरे नर्तन से रचना में,
अलंकर रस छंद बरसते |
कहला देती जग से, कवि के-
अंतस में रस छंद सरसते |
हाथ पकड़कर माँ लिखवाया,
अक्षर अक्षर शब्द शब्द को |
शब्दों का भण्डार बताया,
माँ तुमने मुझसे निशब्द को |
मातु शारदे! वीणा पाणी !
सरस्वती, भारति, कल्याणी!
मतिदा माँ कलहंस विराजनि,
ह्रदय बसें वाणी ब्रह्माणी |
हो मयूर सा विविध रंग के,
छंद, भाव रस युत यह तन मन |
गतिमय नीर औ क्षीर विवेकी,
हंस बने माता मेरा मन |
लिखदो माँ वर रूपी मसि से,
अपनी कृपा-भक्ति इस मन में |
जब जब सुमिरूँ माँ बस जाओ,
कागज़ कलम रूप धर मन में |
ज्ञान तुम्हीं भरती रचना में,
पर अज्ञानी श्याम हे माता !
तेरी कृपा-भक्ति के कारण,
बस कवि की संज्ञा पा जाता ॥
4. सरस्वती वंदना
है मातु ! ज्ञानदायिनी, प्रबुद्धि बुद्धि दायकं |
माँ भारती सरस्वती विज्ञान–ज्ञान दायकं |
हे शारदे माँ! विद्या रीति नीति की विधायकं |
नीर क्षीर सम विवेकी हंस मति प्रदायकं ||
रस छंद भाव की माँ नित्य भावना जगाइए |
संगीत सुर हों काव्य में माँ वेणु तो बजाइए |
हों कर्म धवल जलज सम औ शुभ्र भावना भरे |
अज्ञान अन्धकार कटे, दीजै ज्ञान शायकं ||
चरणों का हंस बन सकूं, आशीष माँ ये दीजिये |
हों विविध रंग काव्य के, मयूर मन तो कीजिये |
वाणी विचार कर्म से, हों एक मुक्तामाल सम |
कवि हों समाज देश राष्ट्र विश्व हित के नायकं |
माँ काव्य में हमारे आज नए रंग घोलिये |
कीजै कृपा विशेष मातु, स्वस्ति बचन बोलिए |
हम वाणी बुद्धि तन औ मन से शुद्ध सरल भाव हों |
तेरी शरण सदा रहें माँ! तेरे गुण के गायकं ||
हे मातु! विद्या बुद्धि ज्ञान प्रीत गुण प्रदायकं |
अज्ञान अन्धकार त्रिविधि ताप की विनाशकं |
हों कथ्य तथ्य सत्य मातु, असत भाव नाशकं |
स्वर हों समाज राष्ट्र हित भजाम्यहं भजाम्यहं ||