....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
सृष्टि,
व्याप्ति एवं विनाश के देव शिव ...सृष्टि का मूल तत्व-शिव तत्व एवं शिवलिंग....
सृष्टि के प्रारंभ में जब ब्रह्माजी द्वारा रची गई मानसिक सृष्टि विस्तार न पा सकी, उसी समय आकाशवाणी हुई ब्रह्मन्! अब मैथुनी सृष्टि करो। आकाशवाणी सुनकर
ब्रह्माजी ने मैथुनी सृष्टि रचने का निश्चय तो कर लिया, किंतु उस समय तक नारियों की उत्पत्ति न होने के कारण वे अपने निश्चय में
सफल नहीं हो सके। परमेश्वर शिव की कृपा के बिना मैथुनी सृष्टि नहीं हो सकती
अतः ब्रह्मा उन्हें प्रसन्न करने के लिए कठोर तप करने लगे। उनके तीव्र तप से
प्रसन्न होकर भगवान उमा-महेश्वर ने उन्हें अर्द्धनारीश्वर रूप में दर्शन
दिया। महेश्वर शिव ने कहा-पुत्र ब्रह्मा ! मैं परम प्रसन्न हूं। ऐसा कहकर शिवजी
ने अपने शरीर के आधे भाग से उमा देवी को अलग कर दिया। ब्रह्मा ने कहा.-एक उचित
सृष्टि निर्मित करने में अब तक मैं असफल रहा हूं। मैं अब स्त्री-पुरुष के समागम से
मैं प्रजाओं को उत्पन्न कर सृष्टि का विस्तार करना चाहता हूं। परमेश्वरी शिवा
ने अपनी भौंहों के मध्य भाग से अपने ही समान कांतिमती एक शक्ति प्रकट की। सृष्टि
निर्माण के लिए शिव की वह शक्ति ब्रह्माजी की प्रार्थना के अनुसार दक्षकी पुत्री
हो गई। देवी शिवा महादेव जी के शरीर में प्रविष्ट हो गईं, यही अर्द्धनारीश्वर शिव का रहस्य है और इसी से आगे सृष्टि का
संचालन हो पाया, जिसके नियामक शिवशक्ति ही हैं।
वेदों उपनिषदों तथा दर्शनों में सृष्टि का प्रारम्भ 'शब्द ब्रह्म' से माना जाता रहा है। उस ब्रह्म का न कोई
आकार है और न कोई रूप। उसी 'शब्द ब्रह्म' का प्रतीक चिह्न साकार रूप में 'शिवलिंग'
है। यह शिव अव्यक्त भी है और अनेक रूपों
में प्रकट भी होता है।
भारतीय मनीषियों
ने भगवान के तीन रूपों- 'व्यक्त',
'अव्यक्त' और 'व्यक्ताव्यक्त' का जगह-जगह उल्लेख किया है। 'लिंग पुराण' में शिव के तीन स्वरूपों में व्यक्त किया
है-
एकेनैव हृतं
विश्वं व्याप्त त्वेवं शिवेन तु।
अलिंग चैव लिंगं च लिंगालिंगानि मूर्तय:॥ (लिंग पुराण 1/2/7) .....
अर्थात् शिव के तीन रूपों में से एक के द्वारा सृष्टि (विश्व) का संहार हुआ और उस शिव
के द्वारा ही यह व्याप्त है। उस शिव की अलिंग, लिंग और लिगांलिंग तीन मूर्तियां हैं।
भारत में शिवलिंग पूजा की परंपरा आदिकाल से ही है। पर लिंग पूजा की परंपरा
सिर्फ भारत में ही नहीं है, बल्कि दुनिया के ज्यादातर हिस्सों में आरंभ से ही इसका चलन । यूनान
में इस देवता को 'फल्लुस' ( जिससे अन्ग्रेज़ी में फ़ैलस = शिश्न बना )तथा रोम में 'प्रियेपस' कहा जाता था। 'फल्लुस' शब्द (टाड का राजस्थान, खंड प्रथम, पृष्ठ 603) संस्कृत
के 'फलेश' शब्द का ही अपभ्रंश है, जिसका प्रयोग शीघ्र फल देने
वाले 'शिव' के लिए किया जाता है। मिस्र में 'ओसिरिस' , चीन में 'हुवेड्
हिफुह' था। सीरिया तथा बेबीलोन में भी शिवलिंगों
के होने का उल्लेख मिलता है।
'लिंग' का सामान्य अर्थ 'चिन्ह' होता है। इस अर्थ में
लिंग पूजन, शिव के चिन्ह या प्रतीक के रूप में होता है। सवाल
उठता है कि लिंग पूजन केवल
शिव का ही क्यों होता है, अन्य देवताओं का क्यों नहीं? कारण यह है कि शिव को आदि शक्ति के रूप में स्वीकार किया
गया है, जिसकी कोई आकृति नहीं। इस रूप में शिव निराकार है। लिंग का अर्थ ओंकार (ॐ) बताया गया है....” तस्य लिंग प्रणव”
...अतः 'लिंग'
का अर्थ शिव की जननेन्द्रिय से नहीं अपितु उनके 'पहचान चिह्न' से है, जो अज्ञात तत्त्व का
परिचय देता है। शिवपुराण प्रधान प्रकृति को ही लिंग
रूप मानता है |
प्रधानं प्रकृतिश्चैति
यदाहुर्लिंगयुत्तमम्।
गन्धवर्णरसैर्हीनं शब्द
स्पर्शादिवर्जितम् ॥ (लिंग पुराण 1/2/2)
अर्थात्
प्रधान प्रकृति उत्तम लिंग कही गई है जो गन्ध, वर्ण, रस, शब्द और स्पर्श से तटस्थ या वर्जित है। 'लिंग पुराण'
में लिंग का अर्थ ओंकार ॐ) बताया गया है।
शिवलिंग की आकृति ----भारतीय धर्मग्रंथों के अनुसार यह संपूर्ण ब्रह्मांड मूल
रूप में
केवल अंडाकार ज्योतिपुंज ( आधुनिक विज्ञान के बिगबेंग का महापिन्ड-नीहारिका के
स्वरुप की
भांति ) के रूप में था। इसी ज्योतिपुंज को
आदिशक्ति (या शिव) भी कहा जा सकता है, जो
बाद में बिखरकर अनेक ग्रहों और उपग्रहों में बदल गई।( आधुनिक विज्ञान के अनुसार --समस्त
शिव का नृत्य व सप्त मातृकाएं |
सौरमंडल महा-नेब्यूला के बिगबैंग द्वारा
बिखरने से बना है |) वैदिक विज्ञान--'एकोहम्
बहुस्यामि' का भी
यही साकार रूप और प्रमाण है। इस स्थिति में मूल अंडाकार
ज्योतिपुंज..
अग्निशिखा भी
अंडाकार रूप होती है अतः ज्योतिर्लिंग..कहा गया तथा दीपक की लौ भी सहज प्रतीक रूप
में वही आकृति बनती है जिसकी हम लिंग रूप में पूजा करते हैं। संपूर्ण ब्रह्मांड की आकृति निश्चित ही शिवलिंग की आकृति से मिलती-जुलती है इस तरह शिवलिंग का पूजन, वस्तुत: आदिशक्ति का और वर्तमान
ब्रह्मांड का पूजन है।
शिव के 'अर्द्धनारीश्वर' स्वरूप से
जिस मैथुनी-सृष्टि का जन्म हुआ, जो तत्व-विज्ञान के अर्थ में विश्वसंतुलन
व्यवस्था में जो हमें सर्वत्र दिखाई देती है शिवतत्व के भी संतुलन हेतु योनि-तत्व की कल्पना की गयी जो बाद में भौतिक
जगत में लिंग-योनि पूजा का आधार बनी | उसे ही जनसाधारण को समझाने
के लिए लिंग और योनि के इस प्रतीक चिह्न को सृष्टि के प्रारम्भ में प्रचारित किया गया |
भाव यही है कि शिव अव्यक्त
लिंग (बीज) के रूप में इस सृष्टि के पूर्व में स्थित हैं। वही अव्यक्त लिंग पुन: व्यक्त लिंग के
रूप में प्रकट होता है। जिस प्रकार ब्रह्म को पूरी तरह न समझ
पाने के कारण 'नेति-नेति'
कहा जाता है, उसी प्रकार यह शिव व्यक्त भी है और
अव्यक्त भी। वस्तुत: सामान्य व्यक्ति को अव्यक्त ब्रह्म
(निर्गुण) की शिक्षा देना जब दुष्कर जान पड़ता है, तब व्यक्त मूर्ति की कल्पना की जाती है। शिवलिंग वही व्यक्त मूर्ति
है। यह शिव का परिचय
चिह्न है।