....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
२३जून को हज़रत अमीर खुसरो के अवधी गीतों का सांस्कृतिक कार्यक्रम हुआ ...तब हमें ज्ञात हुआ कि खुसरो ने अवधी में भी कुछ लिखा है ...हमें बडी कोफ़्त हुई अपनी अज्ञानता पर ...हम तो अब तक यही समझते थे कि खुसरो ने फारसी में लिखा है ....इसके अलावा उनकी रचनाएँ .हिन्दवी अर्थात ब्रज भाषा व खडी बोली में हैं | वे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जन्मे व रहे या दिल्ली में ....बहुत ही कम समय वे लखनऊ व पूर्वी भारत में रहे परन्तु वह उन्हें रास नहीं आया अतः शीघ्र ही दिल्ली चले गए ..... किसी ने यह अवश्य लिखा है कि........अब तक अमीर खुसरो की भाषा में बृज व खड़ी (दहलवी) के अतिरिक्त पंजाबी, बंगला और अवधी की भी चाश्नी आ गई थी। अमीर खुसरो की इस भाषा से हिन्दी के भावी व्यापक स्वरुप का आधार तैयार हुआ जिसकी सशक्त नींव पर आज की परिनिष्ठित हिन्दी खड़ी है। | मुझे तो उनकी ये गायन पर प्रस्तुत की हुई रचनाएँ.... कहूं कैसे सखी मोहे लाज लागै रे....मंढा छवाओ रे .....अंबुवा तले डोला रखदे ...अरे हाँ हाँ मोरे बावुल ....
अवधी की नहीं लगतीं अपितु ब्रज अथवा खडी बोली की लगती हैं.... वैसे भी उनकी प्रसिद्द रचनाओं में इन रचनाओं के या अन्य अवधी रचनाओं के कहीं उद्दरण नहीं मिलते ....
पद
छाप तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलाइके
छाप तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलाइके
प्रेम बटी का मदवा पिलाइके
मतवाली कर लीन्ही रे मोसे नैना मिलाइके
गोरी गोरी बईयाँ, हरी हरी चूड़ियाँ
बईयाँ पकड़ धर लीन्ही रे मोसे नैना मिलाइके
बल बल जाऊं मैं तोरे रंग रजवा
अपनी सी कर लीन्ही रे मोसे नैना मिलाइके
खुसरो निजाम के बल बल जाए
मोहे सुहागन कीन्ही रे मोसे नैना मिलाइके
छाप तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलाइके
गीत
बहुत कठिन है डगर पनघट की।
कैसे मैं भर लाऊं मधवा से मटकी
मेरे अच्छे निजाम पिया।
पनिया भरन को मैं जो गई थी
छीन-झपट मोरी मटकी पटकी
कह मुकरी
नंगे पाँव फिरन नहीं देत। पाँव से मिट्टी लगन नहिं देत॥
पाँव का चूमा लेत निपूता। ऐ सखि साजन? ना सखि जूता॥
दोहा
खुसरो दरिया प्रेम का, उलटी वा की धार,
जो उबरो सो डूब गया, जो डूबा हुवा पार।
सेज वो सूनी देख के रोवुँ मैं दिन रैन,
पिया पिया मैं करत हूँ पहरों, पल भर सुख ना चैन।
उज्ज्वल बरन अधीन तन एक चित्त दो ध्यान।
देखत में तो साधु है पर निपट पाप की खान।।
होली
दैया री मोहे भिजोया री
शाह निजाम के रंग में
कपडे रंग के कुछ न होत है,
या रंग मैंने मन को डुबोया री
दैया री मोहे भिजोया री
पहेलियाँ
एक थाल मोती से भरा
सबके सर पर औंधा धरा
चारों ओर वह थाली फिरे
मोती उससे एक न गिरे।--( आकाश )
राह चलत मोरा अंचरा गहे।
मेरी सुने न अपनी कहे
ना कुछ मोसे झगडा-टांटा
ऐ सखि साजन ना सखि कांटा
२३जून को हज़रत अमीर खुसरो के अवधी गीतों का सांस्कृतिक कार्यक्रम हुआ ...तब हमें ज्ञात हुआ कि खुसरो ने अवधी में भी कुछ लिखा है ...हमें बडी कोफ़्त हुई अपनी अज्ञानता पर ...हम तो अब तक यही समझते थे कि खुसरो ने फारसी में लिखा है ....इसके अलावा उनकी रचनाएँ .हिन्दवी अर्थात ब्रज भाषा व खडी बोली में हैं | वे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जन्मे व रहे या दिल्ली में ....बहुत ही कम समय वे लखनऊ व पूर्वी भारत में रहे परन्तु वह उन्हें रास नहीं आया अतः शीघ्र ही दिल्ली चले गए ..... किसी ने यह अवश्य लिखा है कि........अब तक अमीर खुसरो की भाषा में बृज व खड़ी (दहलवी) के अतिरिक्त पंजाबी, बंगला और अवधी की भी चाश्नी आ गई थी। अमीर खुसरो की इस भाषा से हिन्दी के भावी व्यापक स्वरुप का आधार तैयार हुआ जिसकी सशक्त नींव पर आज की परिनिष्ठित हिन्दी खड़ी है। | मुझे तो उनकी ये गायन पर प्रस्तुत की हुई रचनाएँ.... कहूं कैसे सखी मोहे लाज लागै रे....मंढा छवाओ रे .....अंबुवा तले डोला रखदे ...अरे हाँ हाँ मोरे बावुल ....
अवधी की नहीं लगतीं अपितु ब्रज अथवा खडी बोली की लगती हैं.... वैसे भी उनकी प्रसिद्द रचनाओं में इन रचनाओं के या अन्य अवधी रचनाओं के कहीं उद्दरण नहीं मिलते ....
पद
छाप तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलाइके
छाप तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलाइके
प्रेम बटी का मदवा पिलाइके
मतवाली कर लीन्ही रे मोसे नैना मिलाइके
गोरी गोरी बईयाँ, हरी हरी चूड़ियाँ
बईयाँ पकड़ धर लीन्ही रे मोसे नैना मिलाइके
बल बल जाऊं मैं तोरे रंग रजवा
अपनी सी कर लीन्ही रे मोसे नैना मिलाइके
खुसरो निजाम के बल बल जाए
मोहे सुहागन कीन्ही रे मोसे नैना मिलाइके
छाप तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलाइके
गीत
बहुत कठिन है डगर पनघट की।
कैसे मैं भर लाऊं मधवा से मटकी
मेरे अच्छे निजाम पिया।
पनिया भरन को मैं जो गई थी
छीन-झपट मोरी मटकी पटकी
कह मुकरी
नंगे पाँव फिरन नहीं देत। पाँव से मिट्टी लगन नहिं देत॥
पाँव का चूमा लेत निपूता। ऐ सखि साजन? ना सखि जूता॥
दोहा
खुसरो दरिया प्रेम का, उलटी वा की धार,
जो उबरो सो डूब गया, जो डूबा हुवा पार।
सेज वो सूनी देख के रोवुँ मैं दिन रैन,
पिया पिया मैं करत हूँ पहरों, पल भर सुख ना चैन।
उज्ज्वल बरन अधीन तन एक चित्त दो ध्यान।
देखत में तो साधु है पर निपट पाप की खान।।
होली
दैया री मोहे भिजोया री
शाह निजाम के रंग में
कपडे रंग के कुछ न होत है,
या रंग मैंने मन को डुबोया री
दैया री मोहे भिजोया री
पहेलियाँ
एक थाल मोती से भरा
सबके सर पर औंधा धरा
चारों ओर वह थाली फिरे
मोती उससे एक न गिरे।--( आकाश )
राह चलत मोरा अंचरा गहे।
मेरी सुने न अपनी कहे
ना कुछ मोसे झगडा-टांटा
ऐ सखि साजन ना सखि कांटा
7 टिप्पणियां:
छाप तिलक तो बड़ा ख्यातिप्राप्त है
Ameer Kushro ki rachanaye aaj bhi lokpriy hain avdhi bhasha ko jeevant karne me Kushro ka yogdan atulneey hai blog pr unki rachana prakashit karane ke liye sadar aabhar .
आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टि की चर्चा कल मंगलवार २५ /६ /१३ को चर्चा मंच में राजेश कुमारी द्वारा की जायेगी आपका वहां हार्दिक स्वागत है ।
धन्यवाद पांडेजी ....काहे रे व्याही बिदेस ... भी सुना होगा ......और तेरे अंगने में ...गीत भी मूलतः खुसरो का है..
धन्यवाद धीरेन्द्र जी...नवीन मणि जी एवं राजेश कुमारी जी ...
वाह, आनंद आ गया ।
धन्यवाद आशाजी
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