स्त्री पुरूष मित्रता को सामान्यत : जन-मन सदैव काम भावना से युक्त ही मानता व देखता है। परन्तु सदैव ऐसा ही हो , यह आवश्यक नहीं है। अनासक्त भाव मय निष्कपट एवं बिना काम भावना के स्त्री- पुरूष मैत्री यद्यपि आकास -कुसुम के समान ही है, पर है। अब साहित्यकार कहने लगे हैं किअब नारी- पुरूष विमर्श की बात होनी चाहिए । पर सत्य तो यह है कि नारी- पुरूष कब पृथक- पृथक थे ,और कभी पृथक- पृथक नहीं सोचे ,समझे व लिखे जा सकते । जहाँ नारी है ,वहाँ पुरूष अवश्य है । एक दूसरे से अन्यथा किसी का कोई अस्तित्व नहीं है। अतः बात नारी- पुरूष विमर्श की ही होनी चाहिए ।
डॉ श्याम गुप्त
डॉ श्याम गुप्त
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