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डा श्याम गुप्त का ब्लोग...

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Lucknow, UP, India
एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं... काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद .. my blogs-- 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति... 2.drsbg.wordpres.com, 3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त

शनिवार, 29 जनवरी 2011

पुराणों की कथायें...तात्विक अर्थ......डा श्याम गुप्त....

                                      ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
             धर्म के तीन स्तर होते हैं----१- तात्विक ज्ञान---(मेटाफिजिक्स )...२-नैतिक ज्ञान--(एथिक्स )...३-कर्मकांड (राइचुअल्स)....मूलतः कर्मकांडों का जो जन-व्यवहार के लिए होते हैं , जन सामान्य के लिए उन्ही में अज्ञान ( तात्विक व नैतिक भाव लोप होने से ) से अतिरेकता आजाने से वे आलोचना के आधार बन जाते हैं | पुराण कथाएं मूलतः कर्मकांड विभाग में आती हैं ताकि जन जन , जन सामान्य को संक्षिप्त में व्यवहार की बातें बताई जा सकें |
            जब भी कोई व्यवस्था , सभ्यता अत्यंत उन्नत होजाती है तो उसकी बातें , तथ्य व कथ्य स्वतः ही सूत्र व कूट रूप होने लगते हैं , संक्षिप्तता की आवश्यकतानुसार | .....(आधुनिक उदाहरण लें जैसे---भारत के लिए शेर , आस्ट्रेलिया के लिए कंगारू कहना आज आम बात होगई है ).....  भारतीय  पुराण कथाएं सदा अन्योक्ति, कूट व सूत्र रूप में कही गयी हैं , परन्तु उनके वास्तविक/तात्विक अर्थ व्यवहारिक,नीति-परक व सामाजिक नीति व्यवस्था के होते है | अर्थ न समझने के कारण लोग उन्हें प्रायः कपोल-कल्पित कह कर  उनका उपहास भी करते हैं और हिन्दू सनातन धर्म के उपहास के लिए उदाहरण भी |
              विस्तृत रूप से स्पष्ट करने के लिए उदाहरण स्वरुप हम कावेरी नदी की कथा को लेते हैं|   कावेरी की पौराणिक कथा व स्थानीय जन श्रुति यह है----
           सहा-पर्वत ने अपनी लजीली बेटी कावेरी को उसके पति समुद्रराज के पास भेजा। जब बेटी घर से विदा होकर चली गई तब सहा-पर्वत को भय हुआ कि कहीं ससुरालवाले मेरी बेटी को गरीब समझ लें। इसलिए उसने कनका नाम की युवती को कई उपहारों के साथ दौड़ाया और कहा कि तुम जल्दी जाकर कावेरी के साथ हो लो।
            
कनका चली गई और 'भागमंडलम' नामक स्थान पर कावेरी से मिली। उपहार का शेष भाग यहीं पर कावेरी को मिला, इस कारण इस स्थान का नाम 'भागमंडलम' पड़ा। परन्तु पिता सहा-पर्वत का भय अब भी दूर नहीं हुआ। उसे लगा कि मैंने पुत्री को उतने उपहार नहीं दिये, जितने कि मैं दे सकता था। उसने हेमावती नाम की दूसरी लड़की को बुलाया और बहुत से उपहार देकर कहा कि तुम किसी ओर रास्ते से तेजी से जाओ। हेमावती स्वयं अपनी सहेली के चली जाने पर दुखी थी। इसलिए सहा-पर्वत की आज्ञा से वह बहुत प्रसन्न हुई और आंख मूंद कर भागी।
            
उधर कावेरी कनका से मिलने के बाद बहुत प्रसन्न हुई ओर विदाई का दु: भूल गई।'भागमंडलम' से 'चित्र' नामक स्थान तक दोनों सहेलियां ऊंची-ऊंची चट्रटानों के बीच में हंसती-खेलती, किलोलें करती हुई चलीं, परन्तु "चित्रपुरम' पहुंचने के बाद उनके कदम आगे नहीं बढ़े, क्योंकि वे कुर्ग की सीमा पर पहुंच गई थीं। आगे मैसूर राज्य गया था। उसमें प्रवेश करने का मतलब नैहर से सदा के लिए बिछुड़ना था। इस कारण वे असमंजस में पड़ गई और ३२ कि.मी. तक कुर्ग और मैसूर की सीमा से साथ-साथ चलीं । चित्रपुरम से 'कण्णेकाल' के आगे कावेरी भारी मन से अपने पिता के घर से सदा के लिए बिछुड़ गई। बिछोह का दु: उसे इतना था कि वह मैसूर के हासन जिले में पहाड़ी चट्रटानों के बीच में मुंह छिपाकर रोती हुई चली। तिप्पूर नामक स्थान पर वह उत्तर की ओर मुड़ी, मानो पिता के घर लौट आयगी, परन्तु देखती क्या है कि उसकी सहेली हेमावती उत्तर से बड़े वेग से चली रही है। उसी स्थान पर दोनों सहेलियां गले मिलीं।
       अब कावेरी नदी का वास्तविक भौगोलिक स्वरुप देखिये -----
--------पश्चिमी घाट के उत्तरी भाग में एक सुन्दर राज्य है, जिसे कुर्ग कहते हैं। राज्य में एक पहाड़ का नाम सहा-पर्वत है। इस पहाड़ को 'ब्रह्माकपाल' भी कहते हैं।
              
इस पहाड़ के एक कोने में एक छोटा सा तालाब बना है। तालाब में पानी केवल ढाई फुट गहरा है। इस चौकोर तालाब का घेरा एक सौ बीस फुट का है। तालाब के पश्चिमी तट पर एक छोटा सा मन्दिर है। मन्दिर के भीतर एक तरुणी की सुन्दर मूर्ति स्थापित है। मूर्ति के सामने एक दीप लगातार जलता रहता है।
                  
यही तालाब कावेरी नदी का उदगम-स्थान है। पहाड़ के भीतर से फूट निकलनेवाली यह सरिता पहले उस तालाब में गिरती है, फिर एक छोटे से झरने के रुप में बाहर निकलती है। देवी कावेरी की मूर्ति की यहां पर नित्य पूजा होती है। कावेरी का स्रोत कभी नहीं सूखता।

                    
कावेरी कुर्ग से निकलती अवश्य है, पर वहां की जनता को कोई लाभ नहीं पहुंचाती। कुर्ग के घने जंगलों में पानी काफी बरसता है, इस कारण वहां कावेरी का कोई काम भी नहीं है, उल्टे कावेरी कुर्ग की दो और नदियों को भी अपने साथ मिला लेती है और पहाड़ी पट्रटानों के बीच में सांप की तरह टेढ़ी-मेढ़ी चाल चलती, रास्ता बनाती, मॅसूर राज्य की ओर बढ़ती है।

                 
कनका से मिलने से पहले कावेरी की धारा इतनी पतली होती है कि उसे नदी के रुप में पहचानना भी कठिन होता है। कनका से मिलने के बाद उसे नदी का रुप और गति प्राप्त होती है। सहा'पर्वत से बहनेवाले सैकड़ों छोटे-छोटे सोते भी यहां पर उसमे आकर मिल जाते हैं। इस स्थान को 'भागमंडलम' कहते हैं। हेमावती नदी कर्नाटक राज्य के तिप्पूर नामक स्थान पर कावेरी से आकर मिलती है।

             
       --और यह है स्थानीय कर्मकान्ड.......
  कावेरी के उदगम-स्थान पर हर साल सावन के महीने में बड़ा भारी उत्सव मनाया जाता है। यह है कावेरी की विदाई का उत्सव। कुर्ग के सभी हिन्दू लोग, विशेषकर स्त्रियां, इस उत्सव में बड़ी श्रद्धा के साथ भाग लेती हैं। उस दिन कावेरी की मूर्ति की विशेष पूजा होती है।'तलैकावेरी' कहलानेवाले उदगम-स्थान पर सब स्नान करते हैं। स्नान करने के बाद प्रत्येक स्त्री कोई कोई गहना, उपहार के रुप में, उस तालाब में डालती है। यह दृश्य ठीक वैसा ही होता है, जैसा कि नई विवाहित लड़की की विदाई का दृश्य |
------ कथा का तात्विक अर्थ भौगोलिक वर्णन है तथा नैतिक (एथीकल) अर्थ पिता की पुत्री के प्रति   चिंता का सखियों के प्रेम का सुन्दर समन्वयात्मक वर्णन|-----यही सभी पौराणिक कथाओं के लिए सत्य है |


4 टिप्‍पणियां:

हरीश सिंह ने कहा…

gyanvardhak lekh, guptaji aap anwar ki post par tippani mat kijiye. use main sudhar dunga.

Rakesh Kumar ने कहा…

Aapke blog per vandana ji ke blog per aapki ki hui tippini ko dekhker aana hua.Mai blog world ke liye bilkul naya hu.Aapki sahityik avam adhyatmic ruchi laajabab hai.Hamare purano me varnit kisse kahani keval kisse kahani nahi varan unki jad me gahan adhyatmik tatva nihit hai.Jab tak unki theek se study nahi ki jayegi aur suksham
chintan nahi kiya jayega adhyatmik tatva rupi maakhan nahi nikal payega.Aap ne is or apni lekhni ko
mora aur hame kuch tathyo se parichit karaya uske liye aapko dhanywad.

shyam gupta ने कहा…

धन्यवाद हरीश जी.....

धन्यवाद राकेश...आपने सच को पहचाना...

Jeet Bhargava ने कहा…

Very Nice Blog. Keep Writing Dear Sir. Please Join 'AHWAN'. Link Is Available on My Blog.