....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
" ईशान कोण से चली हवा,
निकला सूरज का गोला |
छिपा चाँद और गयी रात्रि,
वन में इक पांखी बोला || " ----
"यह तो कोई कविता नहीं है ! " अन्त्याक्षरी के दौर में मैंने जब यह कवितांश सुनाया तो मकान मालिक का पुत्र सतीश बोला |
क्यों ? यह द्विवेदी जी द्वारा किया गया प्रात: वर्णन है | तुम्हें याद नहीं तो हम क्या करें , मैंने ने कहा |
'ल' पर हुआ , 'ल' पर बोलो , जल्दी; चालाकी से अधिक समय मत लो | मेरी तरफ के सदस्य चिल्लाए |
स्मृतियों का खाता खुलने लगता है | बचपन में छत पर समय मिलते ही बच्चों की मंडली जुड़ने पर , अन्त्याक्षरी का खेल तो एक आवश्यक पास्ट-टाइम था किशोरों का | मोहल्ले के आसपास के बच्चों की छत पर एकत्रित होकर दो टोलियाँ बनाकर, कविता, छंद, दोहा, गीत आदि के गायन की प्रतियोगिता होती थी यह | कड़ी शर्त यह होती थी की कविता, दोहा या कोई भी छंद-गीत आदि का कम से कम एक पूरा बंद होना चाहिए, आधा-अधूरा नहीं; जो मूलतः रामायण या प्रसिद्द कवियों की कृतियों से होते थे | यह वास्तव में काव्य, साहित्य द्वारा सदाचरण-संस्कृति के पुरा मौखिक ज्ञान के सहज रूप को जीवित रखने का ही एक उपक्रम था जो खेल-खेल में ही तमाम आचार-व्यवहार-सत्संग, सदाचरण सम्प्रेषण के पाठ भी हुआ करते थे | आज की तरह फ़िल्मी गानों के टुकड़ों का भोंडा प्रदर्शन नहीं |
अगला पन्ना खुलता है ....सामने की छत से अचानक मीरा की आवाज आई ," मुझे पता है , किस कवि की कविता है | सुन्दर है |"...फिर मेरी तरफ देखकर अपनी तर्जनी उंगली चक्र-सुदर्शन की मुद्रा में उठाकर सर हिलाते हुए चुपचाप बोली , " चालाकी, इतनी सफाई से ! "... मैंने उसे आँख तरेर कर उंगली मुंह पर रखकर चुप रहने का इशारा किया |
मीरा मेरी बहन की क्लास-फेलो थी | मेरी कवितायें मेरे छोटे भाई-बहनों की स्कूल-पत्रिकाओं में उनके नाम से छपा करती थीं | एक बार उसके कहने पर उसके ऊपर भी तत्काल कविता बनाई थी--
" दरवाज़े के पार पहुंचकर ,
पीछे मुड़कर मुस्काती हो |
सचमुच की मीरा लगती हो,
वीणा पर जब तुम गाती हो |"
अतः उसे मेरे इस काव्य व आशु-कविता हुनर का ज्ञान था | वह सामने वाले गली के पार वाले मकान में रहती थी | गली इस स्थान पर अत्यंत संकरी होजाने के कारण दोनों घरों की छतों की मुंडेरें काफी समीप थीं | घने बसे शहरों में प्रायः घरों की छतें , बालकनियाँ आदि आमने-सामने व काफी नज़दीक होती हैं और सुबह, शाम, दोपहर महिलाओं, बच्चों, किशोर-किशोरियों, सहेलियों, दोस्तों की आर-पार बातें व चर्चाएँ खूब चलतीं हैं | साथ ही में किशोरों-युवाओं की कनखियों से नयन-वार्ताएं, संकेत व कभी कभी प्रेम पत्रों का आदान-प्रदान की भी सुविधा मिल जाती है |
स्मृति-पत्र आगे खुलता है......अच्छा चलो ठीक है .....सामने की टोली हथियार डाल देती है | सतीश की टोली की तेज-तर्रार सदस्या सरोज 'ल' पर सुनाने लगती है---
" लाल देह, लाली लसे और धर लाल लंगूर |
बज्र देह दानव दलन, जय जय जय कपि शूर |"
शूर ...'र' पर ख़त्म हुआ...'र ' से....|
"यह तो होचुका है | मेरी तरफ की टोली के जगदीश ने तुरंत फरमान जारी किया |".........जगदीश की स्मृति बहुत तीव्र थी और याददास्त के मामले में वह कालोनी में अब्वल था | सरोज के झेंप जाने पर हम सब हँसने लगे | ..... नया बोलो...नया बोलो ...या हारो.... के शोर के बीच रमेश ने नया कवितांश सुनाया |
मैं सोचता हूँ आजकल भी अंग्रेज़ी का ज्ञान बढाने के लिए ..शब्द-काव्य रूपी अन्त्याक्षरी होती है, जिसका अभिप्राय: सिर्फ अंग्रेज़ी का तकनीकी ज्ञान बढ़ाना, शब्द-सामर्थ्य बढाने की एक्सरसाइज ही हो पाता है ; आचरण, शुचिता, आचार-व्यवहार , संस्कृति, ज्ञान का सहज सम्प्रेषण नहीं | वस्तुतः स्व-साहित्य, स्व-भाषा-साहित्य, स्व-संस्कृति-साहित्य- इतिहास, अपने सामाजिक व पारिवारिक उठने-बैठने के, खेलने के तौर-तरीके निश्चय ही भावी- पीढी के मन में, सोच में, एक सांस्कृतिक व वैचारिक तारतम्यता, एक निश्चित दिशाबोध प्रदत्त मानसिक दृढ़ता एवं ज्ञान, अनुभव व पुरा पीढी के प्रति श्रृद्धा, सम्मान, आदर का दृष्टिकोण विकसित करती है | आजकल पाश्चात्य दिखावे की प्रतियोगी संस्कृति के अन्धानुकरण व सुविधापूर्ण जीवन दृष्टिकोण में यह स्व-भाव व स्वीकृति ही लुप्त होती जारही है |
3 टिप्पणियां:
यह खेल न जाने कितना ज्ञान बढ़ा जाता है।
सर ऐसा ही चलता रहा तो आने वाले दिन और भी दयनीय होंगे !
थेन्क्स-पान्डे जी--हर खेल ग्यान बढाने के लिये ही होना चाहिये....पैसा या बाज़ार बढाने के लिये नहीं....वह जुआ है..खेल नहीं..
--धन्यवाद शा---यह वर्तमान भी तो भूत का भविष्य था...
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